Sunday, 4 May 2014

फ़िर देवताओं का क्या

पूजा की आरती सजाने जैसा ही है 
मनुहार भी । 
प्रार्थना सा ही पवित्र भी है 
इज़हार भी । 
फ़िर देवताओं का क्या 
इक़रार भी, इनकार भी ।

Saturday, 3 May 2014

लड्डू पे लट्टू

याद है वो बचपन की शरारत 
माँ चाहे जहां छुपा के रख दे 
खोज ही लेता था 
लड्डू का डब्बा । 
लड्डू पे हमेशा लट्टू रहा 
न जाने कितनी डांट फटकार के बाद भी 
बेशर्मों की तरह
लड्डू पे लट्टू । 
माँ डांटती तो कहती 
इतना लड्डू खाएगा तो लड्डू हो जाएगा 
काया की माया तो वैसी ही है पर
मैं लड्डू नहीं हूँ
लड्डू तो माँ है
बचपन है
मासूम दिनों की याद है
रिश्तों की मिठास है ।
इधर सालों से
बड़े होते हुए
बड़ी बड़ी बातों के बीच
जीवन की अनिश्चितताओं के बीच
भूल गया था
लड्डू का स्वाद ही ।
फिर एक दिन तुम्हें देखा तो
याद आ गया
वही लड्डू
अजीब है थोड़ा पर सच है
तुम लड्डू ही लगी ।
मीठी आँखों वाली
तीखी बातों वाली
बचपन सी चंचल
जिद पे हरदम अटल
हर बात के साथ नई पहल ।
अब तुम ही कहो
तुम्हें और क्या कहता
कहो लड्डू ?

हर शाम छत पे अकेले

हर शाम छत पे अकेले
गुमसुम से टहलते हैं । 

खुली जुल्फों के बादल
बरसने से डरते हैं । 

कितना कुछ कहने के बाद भी
कुछ कहने को तरसते हैं । 

कभी कहा तो नहीं पर
दिल दोनों के मचलते हैं ।

बनारस की हर सुबह में
तेरी यादों की सलवटें हैं ।

यक़ीन पूरी तरह से नहीं है लेकिन

यक़ीन पूरी तरह से नहीं है लेकिन
जितना तुम्हें जाना है 
उसमें इतनी गुंजाइस तो है कि
तुम्हें प्यार कर सकूँ 
विश्वास कर सकूँ 
समर्पित कर सकूँ ख़ुद को
पवित्रता और प्रेम के साथ
हमारी तृषिता के नाम । 
तुम जो ख़ुद प्रकृति हो
बरसती भी हो
तरसती भी हो
सँवरती भी हो
संवारती भी हो
मुझे सर्वस्व देकर
मेरी आस्था का केन्द्र बनती हो ।
तुम पर कविता लिखना
तुम्हारे आग्रह पर लिखना
ये कोई वादा नहीं
जो कि पूरा किया
बल्कि वो पूजा है
जिसमें आराध्य तुम
साधन और साध्य तुम
मैं तो बस
हांथ पर बंधे रक्षा सूत्र सा
विश्वास का प्रतीक मात्र रहूँगा
तब तक
जबतक कि तुम्हें विश्वास है ।

Saturday, 26 April 2014

बनारस मे नए मित्रों के फोन कुछ इस तरह आते है,

बनारस मे नए मित्रों के फोन कुछ इस तरह आते है,
का बे कहां हो ?
यहीं कमरे पे । 
चलो अस्सी चलें । 
कुछ काम है ।
अबे काम काहे का गुरु , चलो घंटा दू घंटा लंठई / बकचोदी करेंगे, फिर लौट आएंगे । 
जब तक मैं कल्याण में था , न तो बकचोद था न लंठ । लेकिन बनारस -------------------------------------------------------- । 
भो------ के एतना सोचबो तो लड़........ रह जाबों । बु........... कभों न ब्न्बो । 
तो का चल रहे हो ?
हाँ , आता हूँ । 

ये संवाद उन प्राध्यापक मित्रों के साथ जो बीएचयू के प्रोफेसर हैं ।

Saturday, 19 April 2014

हर गलत बात के दरवाज़े पे दस्तक रही है

हर गलत बात के दरवाज़े पे दस्तक रही है 
मुझे हर रंग से खेलने की आदत सी रही है । 

मेरी आवारगी,मेरी खानाबदोशी के पीछे 
यकीनन मेरे अंदर की बगावत रही है । 

मैं बहुत खुश हूँ तुझसे ऐ ज़िंदगी क्योंकि,
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं रही है । 

हम अपने अमल का हिसाब ख़ुद देंगे 
मंदिर ओ मस्जिद से यारी नहीं रही है ।

तेरा आना, आकर चला जाना यूँ
जैसे मुझमे बाकी तेरी हिस्सेदारी रही है ।

- मनीष

Wednesday, 16 April 2014

अब चाहकर भी ....





अब चाहकर भी तुम्हें आवाज नहीं देता



पुराने किस्से को नया आगाज नहीं देता 


   
                                         - मनीष

ताशकंद के इन फूलों में

  ताशकंद के इन फूलों में केवल मौसम का परिवर्तन नहीं, बल्कि मानव जीवन का दर्शन छिपा है। फूल यहाँ प्रेम, आशा, स्मृति, परिवर्तन और क्षणभंगुरता ...