Tuesday 6 August 2013

Announcing 4th Winter School

INDIAN INSTITUTE OF ADVANCED STUDY
Rashtrapati Nivas, Shimla 171 005
Announcing 4th Winter School
On
LIFE AND THOUGHT OF GANDHI
Over the last three decades the scholastic, intellectual, political and social interests in Gandhiji’s
life and thought has acquired a new urgency and depth. Gandhiji’s writings like An Autobiography
Or The Story of My Experiments with Truth and Hind Swaraj have been subject of minute textual,
philosophical and literary studies. The theory and practice of Satyagraha, constructive work and
the institutions that Gandhiji established have come to be studied by historians, political theorists
and commentators and chroniclers of social movements. Lives of Gandhiji’s associates and
interlocutors like Mahadev Desai, J C Kumarrapa, Mirabehn, C F Andrews and Lanza Del Vasto
have added to our understanding of Gandhiji. As a result of these studies our understanding of
Gandhiana has emerged deeper, richer and nuanced.
The Winter School seeks to acquaint the participant to this variegated intellectual tradition of
thinking of and about Gandhiji. The School would seek to provide a non-fragmentary
understanding of Gandhiji’s life and thought. Quite often we have come to look at political Gandhi
as quite distinct from the Gandhi of the constructive work or see Gandhiji’s spiritual quest as
distinct from his quest for Swaraj. The School would try to unravel the underlying relationship
between seemingly disparate practices, utterances and writings. With this in view a Two week
Winter School is proposed to be held at Indian Institute of Advanced Study, Shimla during 20
November-4 December 2013.
The Winter School will be conducted by Professor Tridip Suhrud, Director, Sabarmati Ashram,
Ahmedabad and other eminent scholars from several disciplines who will explore various aspects
of Gandhi’s life and thought.
Applications are invited from young College and University teachers/researchers from Humanities
and Social Sciences/Journalist/NGO activist in the age group of 22 to 35 years.
A batch of 25 participants will be selected from amongst the applicants. Those interested may send
their bio-data (that should include their academic qualification, experience, research interest and
area of specialization) along with the note of 200-250 words regarding how they perceive life and
thought of Gandhi.
All expenses will be borne by the IIAS. Applications may be sent by e-mail at
iiasschool@gmail.com which must reach IIAS by 15th September 2013. Those selected will be
informed by 15th October 2013. The decision of the Institute in selection of candidates to attend the
Winter School would be final and no correspondence in this regard would be entertained.

Sunday 4 August 2013

तुमसे दोस्ती का मतलब है



 तुमसे दोस्ती का मतलब है
 उन सभी सपनों से प्रेम
 जो मैं देखता हूँ
 जिन्हें मैं जीता हूँ ।

   तुमसे दोस्ती
  सम्मोहन की लंबी यात्रा है
  जीवन में आस्था है
  पल प्रति पल
  सहिष्णुता का संकल्प है ।

 तुमसे दोस्ती
 खुद को सुंदर बनाने की कोशिश है
 समर्पण की विजय मुद्रा है
 संबंधों के बीच
 विश्वास का चिर अनुबंध है ।

  तुमसे दोस्ती
  भावनाओं का परिष्कार है
  खुद का परितोष,परिमार्जन है
  अभिलाषा का
  अप्रतिम लालित्य है ।

  इस दोस्ती के लिए
   दोस्त
   तुम्हारा ऋणी हूँ ।





Friday 2 August 2013

तुमसे जुड़ी हर बात को

मैंने पूछा -
       तुम्हें याद है
        जब तुमने ही कहा था कि
        --------------------------------।
उसने कहा-
        नहीं याद है
        वैसे भी तुमसे इतनी बातें होती हैं
         कि सब याद रखना मुश्किल है ।
मैंने कहा -
          चलो अच्छा है
          सब याद रखोगी तो परेशान रहोगी
          मेरी तरह
          वैसे भी
          मैं तो हूँ हि
          तुमसे जुड़ी हर बात को
          याद रखने के लिए।
          

Thursday 1 August 2013

INTERNATIONAL CONFERENCE IN MUMBAI ON 22-23 AUGUST 2013



Conference on Financial Frauds



K.M.Agrawal College of Arts, Commerce & Science, Kalyan is pleased to announce UGC Sponsored Two Day National Conference on “Financial Frauds in India : Causes, Consequences and Measures”. The Conference will be held  between the 23rd and the 24th of August 2013. This is a unique chance for the academician, industrialist, research scholars and student community to assemble and discuss the financial fraud related issues, recent trends, technological, operational and legislative developments and the challenges that are faced by the society.
The conference will consist of a variety of special sessions devoted for discussions on financial, service Sector, Non financial and other frauds in India. It will also include competitive sessions which consist of presentations of research papers accepted following a double-blind review process. For further details contact, Principal, Dr. Anita Manna (9820981698) and Conference Convener Dr. Mahesh Bhiwandikar (9819701025)

Tuesday 30 July 2013

राष्ट्रीय सेमिनार दलित कविता: अस्मिता और प्रतिरोध की संस्कृति

राष्ट्रीय सेमिनार
दलित कविता: अस्मिता और प्रतिरोध की संस्कृति  
(23-24 जुलाई 2013)
बीज-वक्तव्य (Concept Note)
       समकालीन कविता ने अपना एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है जिसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारतीय परिदृश्य पर दलित कविता ने अपनी उपस्थिति दर्ज करके सामाजिक संवेदना में बदलाव की प्रक्रिया तेज की है। दलित कविता के इस स्वरूप ने निश्चित ही भारतीय मानस की सोच को बदला है।                           
       दलित कविता आनन्द या रसास्वादन की चीज नहीं है। बल्कि कविता के माध्यम से मानवीय पक्षों को उजागर करते हुए मनुष्यता के सरोकारों और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना है। मनुष्य और प्रकृति, भाषा और संवेदना का गहरा रिश्ता है, जिसे दलित कविता ने अपने गहरे सरोकारों के साथ जोडा है।
       दलित कविता ने अपनी एक विकास – यात्रा तय की है, जिसमें वैचारिकता, जीवन-संघर्ष, विद्रोह ,आक्रोश, नकार, प्रेम, सांस्कृतिक छदम, राजनीतिक प्रपंच,वर्ण- विद्वेष, जाति के सवाल ,साहित्यिक छल आदि विषय बार –बार दस्तक देते हैं, जो दलित कविता की विकास –यात्रा के विभिन्न पड़ाव से होकर गुजरते हैं।
       दलित कवि के मूल में मनुष्य होता है, तो वह उत्पीड़न और असमानता के प्रति अपना विरोध दर्ज करेगा ही। जिसमें आक्रोश आना स्वाभाविक परिणिति है। जो दलित कवि की अभिव्यक्ति को यथार्थ के निकट ले जाती है। उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं, जो कविता में छिपते नहीं हैं, बल्कि स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होते हैं। दलित कविता का जो प्रभाव और उसकी उत्पत्ति है, जो आज भी जीवन पर लगातार आक्रमण कर रही है। इसी लिए कहा जाता है कि दलित कविता मानवीय मूल्यों और मनुष्य की अस्मिता के साथ खडी है।
       जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं, वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकल्पनीय लगता है। इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक्ष में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है, जिसे अभिव्यक्त करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है। भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठत्व पाता है। लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठत्व दासता और गुलामी का प्रतीक है। जिसके लिए हर पल दलित को अपने ‘स्व’ की ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक स्थितियों से गुजरना पड़ता है।
      हिन्दी आलोचक कविता को जिस रूप में भी ग्रहण करें और साहित्यिक मापदंडों से उसकी व्याख्या करें, लेकिन दलित जीवन की त्रासद स्थितियां उसे संस्पर्श किये बगैर ही निकल जाती हैं। इसी लिए वह आलोचक अपनी बौद्धिकता के छदम में दलित कविता पर कुछ ऎसे आरोपण करता है कि दलित कविता में भटकाव की गुंजाईश बनने की स्थितियां  उत्पन्न होने की संभावनायें दिखाई देने लगती हैं। इसी लिए दलित कविता को डा.अम्बेडकर के जीवन-दर्शन, अतीत की भयावहता और बुद्ध के मानवीय दर्शन को हर पल सामने रखने की जरूरत पडती है, जिसके बगैर दलित कविता का सामाजिक पक्ष कमजोर पडने लगता है।
      समाज में रचा- बसा ‘विद्वेष’ रूप बदल–बदल कर झांसा देता है। दलित कवि के सामने ऎसी भयावह स्थितियां निर्मित करने के अनेक प्रमाण हर रोज सामने आते हैं, जिनके   बीच अपना रास्ता ढूंढना आसान नहीं होता है। सभ्यता ,संस्कृति के घिनौने सड़यंत्र लुभावने शब्दों से भरमाने का काम करते हैं। जहां नैतिकता, अनैतिकता और जीवन मूल्यों के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है,फिर भी नाउम्मीदी नहीं है। एक दलित कवि की यही कोशिश होती है कि इस भयावह त्रासदी से मनुष्य स्वतंत्र होकर प्रेम और भाईचारे की ओर कदम बढाये, जिसका अभाव हजारों साल से साहित्य और समाज में दिखाई देता रहा है।
      दलित कविता निजता से ज्यादा सामाजिकता को महत्ता देती है। इसी लिए दलित कविता का समूचा संघर्ष सामाजिकता के लिए है। दलित कविता का सामाजिक यथार्थ ,जीवन संघर्ष और उसकी चेतना की आंच पर तपकर पारम्परिक मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह और नकार के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही उसका केन्द्रीय भाव भी है, जो आक्रोश के रूप में दिखाई देता है। क्योंकि दलित कविता की निजता जब सामाजिकता में परिवर्तित होती है, तो उसके आंतरिक और बाहय द्वंद्व उसे संश्लिष्टता प्रदान करते हैं। यहां यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी आलोचक अपने इर्द-गिर्द रचे–बसे संस्कारिक मापदंडो, जिसे वह सौन्दर्यबोध कहता है, से इतर देखने का अभ्यस्त नहीं है। इसी लिए उसे दलित कविता कभी अपरिपक्व लगती है, तो कभी सपाट बयानी, तो कभी बचकानी भी। दलित कविता की अंत:धारा और उसकी वस्तुनिष्ठता को पकड़ने की वह कोशिश नहीं करना चाहता है। यह कार्य उसे उबाऊ लगता है। इसी लिए वह दलित कविता से टकराने के बजाए बचकर निकल जाने में ही अपनी पूरी शक्ति लगा देता है।
      दलित चेतना दलित कविता को एक अलग और विशिष्ट आयाम देती है। यह चेतना उसे डा. अम्बेडकर जीवन–दर्शन और जीवन संघर्ष  से मिली है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक छदमों से सावधान करती है। यह चेतना संघर्षरत दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चेतना है जो हजारों साल से दलित को मनुष्य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्रेष्ठता मानता रहा है। इसी लिए एक दलित कवि की चेतना और एक तथाकथित उच्चवर्णीय कवि की चेतना में गहरा अंतर दिखाई देता है। सामाजिक जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना से मनुष्य प्रभावित होता है। वहीं से उसके संस्कार जन्म लेते हैं और उसकी वैचारिकता, दार्शनिकता ,सामाजिकता, साहित्यिक समझ प्रभावित होती हैं। कोई भी व्यक्ति अपने परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। इसी लिए कवि की चेतना सामाजिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब बन कर उभरती है। जो उसकी कविताओं में मूर्त रूप में प्रकट होती है। इसी लिए दलित जीवन पर लिखी गयी रचनाएं जब एक दलित लिखता है और एक गैर दलित लिखता है तो दोनों की सामाजिक चेतना की भिन्नता साफ–साफ दिखाई देती है। जिसे अनदेखा करना हिन्दी आलोचक की विवशता है। यह जरूरी हो जाता है कि दलित कविता को पढते समय दलित–जीवन की उन विसंगतियों, प्रताडनाओं, भेदभाव, असमानताओं को ध्यान में रखा जाये, तभी दलित कविता के साथ साधारणीकरण की स्थिति उत्पन्न होगी।
       हिन्दी के कुछ विद्वानों, आलोचकों को लगता है कि दलित का जीवन बदल चुका है। लेकिन दलित कवि और साहित्यकार अभी भी अतीत का रोना रो रहे हैं और उनकी अभिव्यक्ति आज भी वहीं फुले, अम्बेडकर, पेरियार के समय में ही अटकी हुई है। यह एक अजीब तरह का आरोप है। आज भी दलित उसी पुरातन पंथी जीवन को भोग रहा है जो अतीत ने उसे दिया था। हां चन्द लोग जो गांव से निकल शहरों और महानगरों में आये ,कुछ अच्छी नौकरियां पाकर उस स्थिति से बाहर निकल आये हैं, शायद उन्हीं चन्द लोगों को देख कर विद्वानों ने अपनी राय बनाली है कि दलितों के जीवन में अंतर आ चुका है। लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। महानगरों में रहने वालों की वास्तविक स्थिति वैसी नहीं है जैसी दिखाई दे रही है। यदि स्थितियां बदली होती तो दलितों को अपनी आईडेंटीटी छिपा कर महानगरों की आवासीय कालोनियों में क्यों रहना पडता। वे भी दूसरों की तरह स्वाभिमान से जीते, लेकिन ऎसा नहीं हुआ। समाज उन्हें मान्यता देने के लिए आज भी तैयार नहीं है।
       शहरों और महानगरों से बाहर ग्रामीण क्षेत्रों में दिन रात खेतों, खलिहानों, कारखानों में पसीना बहाता दलित जब थका-मांदा घर लौटता है, तो उसके पास जो है वह इतना कम है कि वह अपने पास क्या जोड़े और क्या घटाये, कि स्थिति में होता है। ऊपर से सामाजिक विद्वेष उसकी रही सही उम्मीदों पर पानी फेर देता है। इसी लिए अभावग्रस्त जीवन से उपजी विकलताओं, जिजिविषायें दलित कवि की चेतना को संघर्ष के लिए उत्प्रेरित करती हैं, जो उसकी कविता का स्थायी भाव बनकर उभरता है। और दलित कविता में दलित जीवन और उसकी विवशतायें बार-बार आती हैं। इसी लिए कवि का ‘मैं ‘हम’ बनकर अपनी व्यक्तिगत, निजी चेतना को सामाजिक चेतना में बदल देता है। साथ ही मानवीय मूल्यों को गहन अनुभूति के साथ शब्दों में ढालने की प्रवृत्ति भी उसकी पहचान बनती है।
       दलित कविता को मध्यकालीन संतों से जोड़कर देखने की भी प्रवृति इधर दिखाई देती है। जिस पर गंभीर और तटस्थ विवेचना की आवश्यकता है। संत काव्य की अध्यात्मिकता, सामाजिकता और उनके जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता के साथ डॉ॰ अंबेडकर के मुक्ति –संघर्ष से उपजे साहित्य की अंत:चेतना का विश्लेषण करते हुए ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। जो समकालीन सामाजिक संदर्भो के लिए जरूरी लगता है, जिस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है।
      दलित कविता में आक्रोश, संघर्ष, नकार, विद्रोह, अतीत की स्थापित मान्यताओं से है। वर्तमान के छदम से है, लेकिन मुख्य लक्ष्य जीवन में घृणा की जगह प्रेम, समता, बन्धुता, मानवीय मूल्यों का संचार करना ही दलित कविता का लक्ष्य है।

National Seminar on Contemporary Modern Indian Languages (MILs’) Literature

Waves in the Silent Pool:
National Seminar 
on 
Contemporary Modern Indian Languages (MILs’) Literature
Organized by the Tagore Centre of the IIAS, Shimla 
12 – 14 August, 2013
Concept Paper
The charter of International PEN, the largest global body of writers, considers literature of the world as one, though it is being written in many languages. In the context of India, however, this avowal has its obvious limitations. Firstly, because the literature being written in India essentially follows two parallel, independent modes of being: one of Indian English literature, having long achieved a worldwide currency; and another of Modern Indian Languages’ Literature (MILs’ Literature), with hardly any global readership. Secondly, the rich MILs’ Literature, being written in 23 languages, though constrained by similar factors impeding its wider appreciation, conceding a very few instances, hardly undertakes a sustained, cross-cultural dialogue across languages.
A common academic perception is that great ideas emanating from great literatures help spin great individual life-designs, thereby upholding a greater, socio-intellectual life-project, we call the social fabric of a nation. It is through literature and arts that new ideas wing their way to us. In a multicultural and multilingual society, such as India, the mental ecology of individuals, and through that of the society as a whole, equally depends on the sustainability of its literatures. Art isn't a static thing, and change has definitely emerged as a dominant paradigm in today’s globalized literary world. And yet, a kind of literary inertia appears to hamper the MILs Literature’s much needed onward momentum. Why is it so and what are its ground realities?
In order to understand the dynamics of the range of problems encountered, it is imperative to look at MIL’s Literatures not only from the point of view of its creation, but also from that of its reception, translation, its production, as well as the dissemination. Hence, visualising a composite dialogue, the IIAS, Shimla is organising a National Seminar to bring together a wide-range of literary partners such as creative writers, literary scholars, literary translators, literary publishers, literary activists, literary festival organisers, and literary journalists of both print and electronic media to help them work in tandem so as to create a literary milieu in which global critical reception and readership gets access to MIL Literatures, too. Such a forum shall focus on how the ‘being’ of the regional Indian literatures could negotiate and ultimately transcend its self-limiting linguistic and geographical boundaries.
Instead of looking at a single thematic concern the seminar proposes to enter in a composite debate to raise the following fundamental questions, such as:
  • What is the dominant literary politics in India, if any, which must be taken into account if  we are to understand the perceived dichotomy of mental environment and literature?
  • How can a multilingual literary scene develop interface across languages for its simultaneous growth and promotion?
  • Given the lingual implications, what other ‘modes of being’ of MILs’ literatures, if any, are common to them all, and how to overcome their linguistic boundaries to unravel their inherent aesthetics, ideological and stylistic specifications?
  • Are we heading towards literary/intellectual boundaries that are characterised by the local (MILs’ Literature) and the global (Indian English Literature) phenomenon?
  • What are the problems that MILs’ Literatures face at the global level and how could these, if at all, be addressed?
  • Given the effective role that the translations/translators can play in promoting MILs’ Literatures in the global context where Indian English literatures continues to enjoy some inherent privileges  in terms of its direct reception and readership, how could MILs’ Literatures enter into this highly competitive, quality-conscious domain and gain a cutting edge? Is this the only reason for MILs’ Literature’s discontent?
  • What role do critics and reviewers of MILs’ Literature play to promote this brand on the national literary scene? Have they been able to present this literature in the English papers adequately? If not, what ameliorative steps should now be taken to turn the tide?  
  • What are the underlying beliefs, intentions and expectations of the publishing houses (and that of the author, too) while producing/designing a book? Are writers, publishers, critics partners in luring or wooing readers as buyers, or what agenda do they follow?
  • What is the role of media in sensitizing the readers of MILs’ Literature? Has it worked adequately to nurture the next generation of writers from MILs’ Literature, and their readers, ensuring that literature and its unique contribution to our culture gain real significance?
  • How far is the institutional support being rendered for the promotion of MILs’ Literature? Are the supportive resources adequately geared towards the young authors?
  • How the internet and the new socio-intellectual constituencies, suchas blogging and social media, are changing the way we look at literature, and connect with writers?

In order to deliberate over these and many related issues, IIAS, Shimla is inviting a selected number of top doyens as well as emerging writers, literary scholars, translators, publishers and cultural administrators to promote appropriate new ways and thinking of engagement with the literary endeavour of MILs’ Literature in India and abroad.
This broad based seminar is designed not to fall into the ethnographic trap, but to accomplish nuanced readings on the socio-political, cultural and aesthetic implications of the abovementioned questions. It will look towards, what Clifford Geertz calls, a ‘refinement of debate’ rather than a ‘perfection of the consensus’.

Monday 29 July 2013

तुम जब बोलती हो



               


               






                तुम जब बोलती हो
                बहुत मीठा बोलती हो
                तुम्हारी जिद
                तुम्हारा गुस्सा
                तुम्हारी बेरूखी
                तुम्हारा प्यार
                सब एक से ही तो हैं
                एक से सपनों
                और एक अदद ज़िंदगी के लिए
                जिसमें हम हों
                और हो यही मिठास
                जो रिश्तों की गर्माहट मे
                चासनी सी पकती रहे ।


वो मौसम


मैंने बातों बातों में

फोन पे ही पूछा

इतने दिनों बाद रहा हूँ

बोलो -

तुम्हारे लिए क्या लाऊँ

जो हमारा हो

हमारे लिए हो

उसने कहा-

वो मौसम 
और हमारे साथ हो ,


हमेशा

ब्रूउट्स यू टू




थोडे आंसूँ ,
थोडे सपने
और ढेर से सवालो के साथ्
तेरी नीमकश निगाहो में जब् देखता हूँ  
 बहुत तड़पता हूँ

इसपर तेरा हल्के से मुस्कुराना  ,
 मुझे अंदर -ही अंदर सालता है
 तेरा ख़ामोशी भरा इंतकाम ,
मेरे झूठे ,बनावटी
और मतलबी चरित्र के आवरण को
मेरे अंदर ही खोल के रख देता है.

मैं सचमुच कभी भी नहीं था
 तुम्हारे उतने सच्चे प्यार के काबिल
जितने के बारे में मैंने सिर्फ
 फरिस्तों और परियों की कहानियों  में पढ़ा था .

मैं तुम्हे सिवा धोखे के
 नहीं दे पाया कुछ भी.
और तुम देती रही
 हर बार माफ़ी क्योंकि
 तुम प्यार करना जानती थी.

मैं बस सिमटा रहा अपने तक
 और  तुम
खुद को समेटती रही
  मेरे लिए.
 कभी कुछ भी नहीं माँगा तुमने,

सिवाय मेरी हो जाने की
 हसरत के .

याद है वो दिन भी जब ,
तुमने मुझसे दूर जाते हुए
नम आखों और मुस्कुराते लबों के साथ
कागज़ का एक टुकड़ा
चुपके से पकडाया 
 जिसमे लिखा था-" ब्रूउट्स यू  टू ? ''

उसने जो लिखा था वो,
शेक्स्पीअर के नाटक की
 एक पंक्ति मात्र थी लेकिन ,
मैं बता नहीं सकता क़ि
वह मेरे लिए
 कितना मुश्किल सवाल था .
आज भी वो एक पंक्ति
 कपा देती है पूरा जिस्म
 रुला देती है पूरी रात.

खुद की  इस बेबसी को
 घृणा की अन्नंत सीमाओ तक
जिंदगी की आखरी सांस तक
जीने के लिए अभिशप्त हूँ.
 उसके इन शब्दों /सवालों के साथ कि
ब्रूउट्स यू  टू !
ब्रूउट्स यू  टू !

ब्रूउट्स यू  टू !

शिकायत सब से है लेकिन




जो कहनी थी ,
वही मैं बात,
यारों भूल जाता हूँ
किसी क़ी झील सी आँखों में,
 जब भी डूब जाता हूँ  

नहीं मैं आसमाँ का हूँ,
कोई तारा मगर सुन लो
किसी के प्यार के खातिर,
मैं अक्सर टूट जाता हूँ

शिकायत सब से है लेकिन,
किसी से कह नहीं सकता
बहुत गुस्सा जो आता है,
तो खुद से रूठ जाता हूँ

किसी क़ी राह का कांटा,
कभी मैं बन नहीं सकता
इसी कारण से मफिल में,
अकेला छूट जाता हूँ

मासूम से सपनों क़ी मिट्टी,
का घड़ा हूँ मैं,
नफरत क़ी बातों से,

हमेशा फूट जाता हूँ .

उज़्बेकिस्तान में एक पार्क ऐसा भी

  उज़्बेकिस्तान में एक पार्क ऐसा भी है जो यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के नाम है। यहां उनकी मूर्तियां पूरे सम्मान से लगी हैं। अली शेर नवाई, ऑ...