Saturday, 24 April 2010

अमरकांत की कहानी-हत्यारे

अमरकांत की कहानी-हत्यारे :-
      'हत्यारे` कहानी दो युवकों के मित्रवत बात-चीत से शुरू होती है। दोनों अपनी आपनी हाँक रहे थे और आनंदित हो रहे थे। दिन भर वे इसी तरह गप-शप और मस्ती करते हुए घुमते रहे। 
      जब शाम हुई तो वे शराब पीने बैठ गये और जमकर शराब पी। शराब पी कर जब वे बाहर निकले तो जान-पहचान वाली किसी वेश्या के घर पहुँच गये। उस वेश्या से शरीरिक सुख लेने के बाद जब उसे पैसे देने की बात आयी तो वे पैसे छुट्टे कराने के बहाने बाहर निकले और जूते हाँथ में लेकर भाग निकले।
      लड़की के शोर मचाने पर जब एक आदमी उनका पीछा करते हुए उनके करीब आ गया तो एक युवक ने चाकू निकालकर उस व्यक्ति के पेट में घोप दिया और अँधेरे में गायब हो गये।
   

अमरकांत की कहानी -मूस

  अमरकांत की कहानी -मूस :-
      अमरकांत द्वारा 1860 के दशक मं लिखी गई कहानियों में 'मूस` एक प्रमुख कहानी है। 'मूस` एक गड़ेरिये का नाम है। जो गाँव से बाहर अपनी पत्नी परबतिया और बच्ची जिलेबिया के साथ रहता था। जीवन अभावों से भरा हुआ था। वह आस- पास के घरों में पानी भरने का काम करके किसी तरह अपनी गुजर-बसर करता था। परबतिया घरों में बर्तन माँजने का काम करती। पर वह झगड़ालू प्रवृत्ति की थी। मूस को भी 'दो बित्ते का मर्द` कहकर अपनी उच्चता और प्रभुत्व की पुष्टि करती रहती।
      इधर मूस की लड़की का गवना हुआ और शहर में बिजली पानी की व्यवस्था हो जाने से मूस अब अेकार हो गया। घर-घर नल लग गये थे। अत: मूस इधर-उधर के दूसरे काम करने लगा।
      इधर परबतिया अपने नैहर गई तो लल्लू गोंड की लुगाई मुनरी को अपने साथ ले आयी। वह बहुत दुखी थी। उसके आदमी ने दूसरी औरत रख ली थी। परबतिया ने मूस और मुनरी की शादी करा दी। वह जानती थी कि मूस सीधा-सादा है। और अब बूढ़ापे में वह काम भी नहीं कर सकता। परबतिया का स्वभाव ऐसा नहीं था कि वह कहीं काम पर ज्यादा दिन टिकती। मुनरी जवान थी। उसका कोई और सहारा भी नहीं था। वह दस-बारह घरों का काम करने लगी जिससे मूस और परबतिया के दिन भी आराम से कटने लगे।
      लेकिन कुछ ही समय बाद मुनरी चौराहे पर फुलौड़ी बेचनेवाले बिसुन के साथ चली गयी। मूस ने उसे वापर लाने के लिए बिसुन से लड़ाई भी की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। अब मूस और परबतिया पर मुसीबत की पहाड़ टूट पड़ा। आर्थिक तंगी में जीवन यापन करना कठिन हो गया। इसी बीच मूस बिमार पड़ा और मसीबत बढ़ गयी।
      एक दिन अचानक मूस देखता है कि उसके घर मुनरी आयी है। वह परबतिया को मूस के इलाज के लिए पैसे और कुछ अनाज देती है। साथ ही साथ यह कहकर चली जाती है कि जब भी उन्हें किसी चीज की जरूरत हो वे उसे जरूर बता दे।
      अमरकांत की यह कहानी घोर यथार्थवादी धरातल पर रची गयी हैं।   

अमरकांत की कहानी -लड़की और आदर्श

अमरकांत की कहानी -लड़की और आदर्श :-
      'लड़की और आदर्श` अमरकांत बहुत चर्चित तो नहीं परंतु अच्छी कहानी है। कहानी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले नरेन्द्र की है। जिन्हें कमला नामक विश्वविद्यालय की छात्रा से प्यार हो जाता है। लेकिन कमला एक नेपाली छात्र को प्यार करती थी। अत: नरेन्द्र विश्वविद्यालय यूनियन के पदाधिकारी श्याम से मदद माँगने पहुँचते हैं।
      नरेन्द्र खुद शर्मीले स्वभाव के थे। श्याम ने कई बार उन्हें प्रोत्साहित किया कि वे कमला से बात करें। पर नरेन्द्र कभी इतनी हिम्मत जुटा ही नहीं पाये। बड़ी-बड़ी बातें करते पर जब कुछ करने का समय आता तो वे पीछे़ हट जाते। इसी तरह पूरा साल बीत जाता है पर नरेन्द्र कभी भी कमला से आमने-सामने बात नहीं कर पाये। अंत में इम्तहान खत्म होते हैं और छुटि्टयाँ लग जाती हैं।
      छुटि्टयों के बाद जब श्याम नरेन्द्र से मिलकर कमला की बात छेड़ते हैं तो नरेन्द्र बेरूखी से उसकी बुराई करते हैं। इस तरह प्रेम में असफल होने पर वे आदर्श की चादर ओढ़कर अपने यथार्थ से मुंह चुराते हैं। 

अमरकांत की कहानी -लड़की की शादी

अमरकांत की कहानी -लड़की की शादी :-
      'लड़की की शादी` कहानी में एक बाप की चिंता और लड़की का विवाह संपन्न कराने हेतु किये जाने-वाले सही-गलत प्रयासों का मार्मिक चित्रण हैं।
      बड़े-बड़े घरों में अपनी लड़की का रिश्ता ना करवा पाने पर अचानक चिंतित पिता का ध्यान कृष्णमोहन नामक युवक पर जाता है। वे कृष्णमोहन से मिलते हैं और उसकी नौकरी लगवाने में अहम् भूमिका निभाते हैं। इन सब के बाद वे बड़ी ही चा़लाकी से अपनी लड़की की शादी कृष्णमोहन से करवा देते है।
      इस तरह वे बेटी की शादी करवा कर चिंता मुक्त होते हैं। उन्हें यह विश्वास भी है कि कृष्णमोहन जिन्दगी भर उनकी बेटी का आज्ञाकारी पति बना रहेगा।
 

अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी

अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी :-
      'डिप्टी कलक्टरी` अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। अमरकांत स्वयं इस कहानी के बारे में कहते हैं कि, ''ये भी हमारे परिवार की थी। भाई लॉ करके बलिया आ गये थे। बलिया जैसे छोटे शहर में रहकर उनका बिन सुविधा, अपने बूते आई.ए.एस. में बैठना। सिम्पिली सिटी के मास्टर थे वे। जटिल से जटिल चीजों को सिम्पिलीफाई कर देना ये चीज हमने उनसे सीखी। कुछ विषयों में टॉपर! लिखित में नम्बर अच्छे आते, पर इन्टरव्यू.......! इंन्टरव्यू का जब कॉल आता था तो जैसे ताजी हवा का आना, स्वप्न, आशा का वह उत्साह, पिता की आशाएँ, प्रतीक्षा.... आप 'डिप्टी कलक्टरी` में देख सकते हैं। उसकी आलोचना में कहा भी गया है - एक आशा भरी प्रतीक्षा।``8
      अमरकांत की बातों से साफ है कि यह कहानी उन्होंने अपने पारिवारिक परिवेश पर ही लिखी है। शकलदीप बाबू और जमुना देवी अपने बड़े लड़के 'नारायण` से काफी उम्मीदे लगाये रहते हैं। नारायण डिप्टी कलक्टरी के इम्तहान में बैठना चाहता है। फीस भरनी है। लेकिन शकलदीप बाबू गूस्सा करते हैं कि यह लड़का (नारायण) अगर कुछ बनने लायक होता तो अब तक बन गया होता। पर मन ही मन कहीं न कहीं उनके अंदर भी यह उम्मीद थी कि उनका लड़का कलेक्टर बन सकता है।
      अत: वे न केवल फीस के पैसे देते हैं बल्कि इस बात का पूरा खयाल भी रखते थे कि उनके बेटे को किसी तरह की कोई परेशानी न हो। नारायण परीक्षा में पास भी हुए, लेकिन इन्टरव्यू अभी बाकी था। परिवार के सभी लोगों की आशाएँ बढ़ गयी हैं। और इसी आशा भरी प्रतीक्षा के साथ कहानी समाप्त हो जाती है। 

अमरकांत की कहानी -जिन्दगी और जोक :

अमरकांत की कहानी -जिन्दगी और जोक :
      'जिंदगी और जोक` रजुआ नाम एक भिखमंगे व्यक्ति की कहानी है। जिसे लेखक ने मुहल्ले में आते-जाते एवम् लोगों के घर चक्कर लगाते देखा था। एक दिन अचानक शिवनाथ बाबू के घर के लोग रहुआ को बुरी तरह से पीट रहे थे। लेखक ने जब इसका कारण जानना चाहा तो उन्हें पता चला कि रजुआ पर साड़ी चुराने का आरोप है। पर बाद में पता चलता है कि साड़ी घर पर ही है। लेकिन रजुआ को उस गलती की सजा मिल चुकी थी, जो उसने कभी की ही नहीं थी।
      परिणाम स्वरूप अब मुहल्ले वाले उसके प्रति सहानुभूति रखने लगे और बचा हुआ या जूठा खाना उसे खाने को दे देते। वह सबके दरवाजे पर जाता था, लेकिन शिवनाथ बाबू के यहाँ जाने की उसकी हिम्मत ना होती। पर एक दिन शिवनाथ बाबू ने ही उसे बुलाकर घर पर रहने की हिदायत दे दी। अब वह शिवनाथ बाबू के यहाँ स्थायी रूप से रहने लगा। यहीं पर उसका नाम 'गोपाल` की जगह 'रजुआ` रखा गया। क्योंकि गोपाल सिंह शिवनाथ बाबू के दादा का नाम था।
      लेकिन मुहल्ले के सभी लोग रजुआ पर अपना बराबर का हक समझते। वह पूरे मुहल्ले का नौकर बन गया था। अब रजुआ भी थोड़ा ढीठ हो गया था। मुहल्ले की औरतों से हँसी-मजाक भी रकने लगा था। इसी कारण मुहल्ले के लोग उसे 'रजुआ साला` कहने लगे थे। शहर की वही एक पगली औरत के चक्कर में पड़ने के बाद उसे काफी मार पड़ी। 'बरन की बहू` ने उसके दस रूपये नहीं लौटाये तो वह भगत बन गया।
      इधर उसे हैजा फिर खुजली की बिमारी भी हो गई। अब वह किसी के काम का नहीं रह गया था। अब कोई उसे अपने दरवाजे पर खड़ा नहीं रहने देता था। इसी बीच एक लड़का लेखक को सूचना देता है कि रजुआ मर गया। अत: वह एक पोस्टकार्ड पर रजुआ के घर यह सूचना लिख दे। पर दो-चार दिन बाद रजुआ लेखक के समक्ष एक और पोस्टकार्ड लेकर आता है। और लेखक से अपने गाँव यह संदेश लिखने को कहता है कि, ''गोपाल जिंदा है।``
      लेखक ऐसा ही करते हैं। पर यह समझ नहीं पाते हैं कि जिंदगी से जोंक की तरह वह लिपटा है या फिर खुद जिंदगी। वह जिंदगी का खून चूस रहा था या जिंदगी उसका? अपनी जिजीविषा के कारण की रजुआ जैसे अपेक्षित पात्र नई कहानी में 'मुख्य पात्र` के रूप में सामने आये।
      अमरकांत की इस कहानी के संदर्भ में राजेंद्र यादव ने कहा है कि, ''अमरकांत का शायद ही कोई पात्र अपनी नियति या स्थिति को बदलने की बात सोचता या करता हो। जहाँ-जहाँ ऐसा है वहाँ उठे उबाल की तरह फौरन ही ठण्डा ही गया है। मैं आज तक तय नहीं कर पाया कि 'जिंदगी और जोंक` जीवन के प्रति आस्था की कहानी है या जुगुप्सा, आस्थाहीनता और डिसगस्ट की।``7
      अमरकांत की यह कहानी भी बहुत प्रसिद्ध हुई। आर्थिक अभाव के कारण कोई व्यक्ति कितना टूटता है इसे 'जिंदगी और जोंक` के 'रजुआ` के माध्यम से समझा जा सकता हैं। 
 

अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन :

अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन :
      'दोपहर का भोजन` अमरकांत द्वारा लिखित एक छोटी परंतु महत्वपूर्ण कहानी है। यह कहानी विडम्बना और करूणा की कहानी है। सिद्धेश्वरी नामक स्त्री अपने पति मुंशी चंन्द्रिका प्रसाद और तीन लड़कों (रामचन्द्र, मोहन और प्रमोद) के साथ आर्थिक तंगी में जीवन व्यतीत कर रही होती है। तंगी इतनी की हर कोई भरपेट खाना भी ना खा सके। पर इस विडंबना को घर का हर सदस्य एक दूसरे से छुपाता रहात है। दोपहर के भोजन को खाते समय जब माँ सिद्धेश्वरी बच्चों से अधिक रोटी खाने को कहती है तो वे बिगड़ जाते हैं। क्योंकि उन्हें भी पता है कि उनके अधिक खाने पर घर का कोई न कोई सदस्य भूखा ही रह जायेगा। शायद अंत के खानेवाली सिद्धेश्वरी ही। इसलिए कोई भी भर पेट नहीं खाता, पर भरपेट न खाने का कारण सभी भी स्पष्ट नहीं करना चाहता। इन सब के चलते अंत में सिद्धेश्वरी के हिस्से में एक रोटी बचती है। जिसमें से भी आधी को छोटे बेटे प्रमोद के लिए रखकर आधी ही खाती है।
      इस तरह अपने जीवन के अभाव की विडम्बना को यह परिवार अपने में ही समेटे जिये जा रहा था। अमरकांत की इस कहानी के संदर्भ में यदुनाथ सिंह ने लिखा है कि, ''दोपहर का भोजन` के सीधे-सपाट घटनाक्रम में एक गृहस्वामिनी, सिद्धेश्वरी के भय और दुख की जो अन्तर्धारा प्रवाहित होती है वह आज के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवनचर्या के मूल में प्रवाहित भय और दु:ख की वह अन्तर्धारा है जिसमें बहते हुए अनगिनत, परिवारों के असंख्य प्राणी, एक दूसरे से अपरिचित, अशांकित, वर्तमान के अभावों से पूरी तरह टूटे, भविष्य को लेकर दहशत से भरे न केवल पारिवारिक स्तर पर बिखरते बल्कि सामाजिक स्तर पर भावात्मक दृष्टि से टूटते सम्बन्ध सूत्रों को संदर्भित करते हैं। परंपरा प्राप्त भावात्मक संबंध सूत्रों और उनके माध्यम से बिखरने को आ रहे ढाँचे को कायम रखने की एक निष्फल दयनीय चेष्टा पूरे संदर्भ को बेहद कारूणिक बना जाती है।``5
      अमरकांत की यह कहानी बहुत प्रसिद्ध हुई। स्वयं अमरकांत भी यह माने हैं कि यह कहानी उन्होंने पूरे मनोयोग से लिखी है। कहानी छोटी है। इस पर भी अमरकांत जी का कहना है कि, इस कहानी में जितनी मौन की जरूरत थी उतनी भाषा की नहीं।``6 हिंदी के अन्य समीक्षकों ने भी अमरकांत की इस कहानी की बडी प्रशंसा की है। 
 

भारतीय ज्ञान परंपरा और उज़्बेकिस्तान: भाग एक

भारतीय ज्ञान परंपरा और उज़्बेकिस्तान: भाग एक                      भारतीय ज्ञान परंपरा अपनी प्राचीनता और व्यापकता में अद्वितीय है। यह केवल धा...