बेवफा सनम मेरा
झूठ है फितरत
सच ना कह सका कभी
मेरी सच्चाई से है उसे नफरत
बेवफा सनम मेरा
अपने रिश्तों की बानगी
क्या कहे बदलती उसके दिल की रवानगी
झूठ का बड़ता उसका अंबार है
झूठे प्यार का उसका व्यापार है
बेवफा सनम मेरा
गलती नहीं उसकी कोई
बदलती कहाँ आदत कोई
गोपनीयता का वो सरताज है
बेवफाई पे ही उसका संसार है
बेवफा सनम मेरा
Thursday, 29 July 2010
बेवफा सनम मेरा
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Sunday, 25 July 2010
प्यास बुझा के प्यास बड़ाता पानी
जंगल का कोहरा और बरसता पानी
पेड़ के पत्तों से सरकता पानी
पहाड़ों पे रिमझिम बहकता पानी
सूरज को बादलों से ढकता पानी
चाँद तरसता तेरे बदन पे पड़ता पानी
प्यास बुझा के प्यास बड़ाता पानी
पेड़ के पत्तों से सरकता पानी
पहाड़ों पे रिमझिम बहकता पानी
सूरज को बादलों से ढकता पानी
चाँद तरसता तेरे बदन पे पड़ता पानी
प्यास बुझा के प्यास बड़ाता पानी

Friday, 23 July 2010
ढहता रहा जहाँ , मेरा विश्वास देखते रहे /
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
ऐ जिंदगी तेरा खुमार देखते रहे
जलजला गुजर रहा भूमि पे जहां हैं खड़े
ढहता रहा जहाँ मेरा
विश्वास देखते रहे
ऐ जिंदगी तेरा खुमार देखते रहे
जलजला गुजर रहा भूमि पे जहां हैं खड़े
ढहता रहा जहाँ मेरा
विश्वास देखते रहे
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Thursday, 22 July 2010
तेरे सिने में बुझी राख थी /
कल तक तो तू मेरा था
आज क्यूँ तेरी बातों में अँधेरा था
क्यूँ धुंध है दिल में वहां
जहाँ कल तक मेरा बसेरा था
चमकती चांदनी में कितनी आग थी
सुबह रक्तिम सूरज में भी छावं थी
क्या खोया मन ने तेरे
तेरे सिने में बुझी राख थी /
आज क्यूँ तेरी बातों में अँधेरा था
क्यूँ धुंध है दिल में वहां
जहाँ कल तक मेरा बसेरा था
चमकती चांदनी में कितनी आग थी
सुबह रक्तिम सूरज में भी छावं थी
क्या खोया मन ने तेरे
तेरे सिने में बुझी राख थी /
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Monday, 19 July 2010
बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला
बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला
बहु बेटो ने समझा कुछ देर के लिए ही सही अजार चला
कांपते पग चौराहे पे भीड़
वाहनों का कारवां और उनकी चिग्घाडती गूँज
खस्ताहाल सिग्नल बंद पड़ा
रास्ता भी गड्ढों से जड़ा था
हवालदार कोने में कमाई में जुटा चाय कि चुस्किया लगा रहा
छोर पे युवकों का झुण्ड जाने वालों कि खूबसूरती सराह रहा
चौराहा का तंत्र बदहवाल था
उसके कदमों में भी कहाँ सुर ताल था
तादात्म्यता जीवन कि बिठाते बिठाते
जीवन के इस मोड़ पे अकेला पड़ा था
लोग चलते रुकते दौड़ते थमते
एक मुस्तैद संगीतकार कि धुन कि तरह
अजीब संयोजन कि गान कि तरह
दाहिने हाथ के शातिर खिलाडी के बाएं हाथ के खेल की तरह
केंद्र और राज्य के अलग सत्तादारी पार्टियों के मेल की तरह
चौराहा लाँघ जाते फांद जाते
उसके ठिठके पैरों कि तरफ कौन देखता
८० बसंत पार उम्रदराज को कौन सोचता
निसहाय सा खड़ा था
ह्रदय द्वन्द से भरा था
मन में साहस भरा कांपते पैरों में जीवट
हनुमान सा आत्मबल और जीवन का कर्मठ
युद्धस्थल में कूद पड़ा था वो
किसी और मिट्टी का बना था वो
हार्न की चीत्कार
गाड़ियों की सीत्कार
परवा नहीं थी साहसी को
वो पार कर गया चौराहे की आंधी को
सहज सी मुस्कान लिए वो चला अगले युद्धस्थान के लिए
हर पल बदलती जिंदगी के नए फरमान के लिए /
बहु बेटो ने समझा कुछ देर के लिए ही सही अजार चला
कांपते पग चौराहे पे भीड़
वाहनों का कारवां और उनकी चिग्घाडती गूँज
खस्ताहाल सिग्नल बंद पड़ा
रास्ता भी गड्ढों से जड़ा था
हवालदार कोने में कमाई में जुटा चाय कि चुस्किया लगा रहा
छोर पे युवकों का झुण्ड जाने वालों कि खूबसूरती सराह रहा
चौराहा का तंत्र बदहवाल था
उसके कदमों में भी कहाँ सुर ताल था
तादात्म्यता जीवन कि बिठाते बिठाते
जीवन के इस मोड़ पे अकेला पड़ा था
लोग चलते रुकते दौड़ते थमते
एक मुस्तैद संगीतकार कि धुन कि तरह
अजीब संयोजन कि गान कि तरह
दाहिने हाथ के शातिर खिलाडी के बाएं हाथ के खेल की तरह
केंद्र और राज्य के अलग सत्तादारी पार्टियों के मेल की तरह
चौराहा लाँघ जाते फांद जाते
उसके ठिठके पैरों कि तरफ कौन देखता
८० बसंत पार उम्रदराज को कौन सोचता
निसहाय सा खड़ा था
ह्रदय द्वन्द से भरा था
मन में साहस भरा कांपते पैरों में जीवट
हनुमान सा आत्मबल और जीवन का कर्मठ
युद्धस्थल में कूद पड़ा था वो
किसी और मिट्टी का बना था वो
हार्न की चीत्कार
गाड़ियों की सीत्कार
परवा नहीं थी साहसी को
वो पार कर गया चौराहे की आंधी को
सहज सी मुस्कान लिए वो चला अगले युद्धस्थान के लिए
हर पल बदलती जिंदगी के नए फरमान के लिए /
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विवेकी राय जी का नया उपन्यास -बनगंगी मुक्त है .भाग १
आप क़ी प्रमुख कृतियाँ है
- मंगल भवन
- नमामि ग्रामं
- देहरी के पार
- सर्कस
- सोनामाटी
- कालातीत
- गंगा जहाज
- पुरुस पुरान
- समर शेष है
- फिर बैतलवा डार पर
- आम रास्ता नहीं है
- आंगन के बन्दनवार
- आस्था और चिंतन
- अतिथि
- बबूल
- चली फगुनहट बुरे आम
- गंवाई गंध गुलाब
- जीवन अज्ञान का गणित है
- लौटकर देखना
- लोक्रिन
- मनबोध मास्टर की डायरी
- मेरे शुद्ध श्रद्धेय
- मेरी तेरह कहानियां
- नरेन्द्र कोहली अप्रतिम कथा यात्री
- सवालों के सामने
- श्वेत पत्र
- यह जो है गायत्री
- कल्पना और हिंदी साहित्य , .
- मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ , 1984.
बनगंगी मुक्त है -विवेकी राय
(ग्राम -जीवन के प्रति समर्पित एक अनुपम कृति )
विवेकी राय जी द्वारा लिखित उपन्यास ''बनगंगी मुक्त है '' ग्राम जीवन को समर्पित अपने आप में एक बेजोड़ रचना है .विवेकी राय जी ग्रामीण जीवन क़ी तस्वीर खीचने में महारत हासिल कर चुके हैं.प्रस्तुत उपन्यास नई खेती,चकबंदी ,ग्रामसभा,चुनाव और आजादी के बाद लगातार बढ़ रही मतलब परस्ती ,लालफीता शाही ,भाई-भतीजावाद और अवसरवादिता को प्रमुखता से रेखांकित करता है .मूल्यों ( values) और कीमत (praize) के बीच के संघर्स को भी उपन्यास में सूत्र रूप में सामने रखा गया है.सहजता और सरलता के साथ-साथ सजगता भी उपन्यास में बराबर दिखाई पड़ती है .आंचलिक उपन्यासों क़ी तर्ज पर अनावश्यक विस्तार को महत्त्व नहीं दिया गया है. एक परिवार क़ी कथा को गाँव और उसी को पूरे देश क़ी तत्कालीन (१९७२)परिस्थितियों से जोड़ने का काम विवेकी राय जी ने बड़े ही सुंदर तरीके से किया है .
''बनगंगी मुक्त है '' क़ी पृष्ठभूमि १९७२ क़ी है .उपन्यास में उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले बलिया और गाजीपुर का चित्रण अधिक हुआ है .हम जानते हैं क़ी १९४७ में आजादी मिलने के बाद ,इस देश क़ी आम जनता को सरकार से कई उम्मीदे थी.''सब क़ी आँखों के आंसूं पोछने का दावा'' लाल किले की प्राचीर से करने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरु देश के प्रधानमंत्री थे.जनता को विश्वाश था क़ि रोटी,कपडा और मकान का सपना हर एक का साकार हो जाएगा .सब क़ी आँखों में सपने पूरे होने क़ी चमक थी.लेकिन ये सारी उम्मीदें आजादी के १० साल में ही दम तोड़ने लगी.जनता अपने आप को ठगा हुआ महसूस करने लगी .बढती फिरकापरस्ती,अवसरवादिता और कुंठा ने जनता को यह एहसास दिला दिया क़ि,'' १५ अगस्त १९४७ को आजादी के नाम पर जो कुछ भी हुआ वह सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण (exchange of power) था .'' वास्तविक आजादी तो हमे अभी तक मिली ही नहीं.
जनता के बीच बढ़ रही इसी हताशा ,कुंठा,निराशा और आत्म-केन्द्रीयता (self-centralisation) ने हिंदी कथा साहित्य में ''नई कहानी आन्दोलन '' क़ि नीव रखी .कमलेश्वर,राजेन्द्र यादव ,मोहन-राकेश,मार्कण्डेय और अमरकांत जी जैसे कथाकार यंही से यथार्थ क़ि ठोस भाव-भूमि पर लिखना शुरू करते हैं.यंही से ''कथ्य '' और ''शिल्प'' दोनों ही स्तरों पर परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं.इस आन्दोलन क़ि उम्र यद्यपि छोटी रही लेकिन सम-सामयिक परिस्थितियों के वास्तविक स्वरूप को कथा साहित्य में चित्रित करने क़ि जो परम्परा शुरू हुई वह हिंदी साहित्य में लगातार किसी ना किसी रूप में बनी रही .
प्रस्तुत उपन्यास के केंद्र में रामपुर नामक एक गाँव है ,जो बलिया या गाजीपुर के आस-पास का हो सकता है.इसी गाँव में एक प्रतिष्ठित किसान परिवार है . परिवार में तीन भाई हैं.सबसे बड़े भाई धर्मराज हैं.मझले भाई त्रिभुवननाथ और छोटे गिरीश बाबू .इन तीन भाइयों के माध्यम से उपन्यासकार ने ३ अलग-अलग विचार धारावों को सामने लाया है .
Friday, 16 July 2010
अकेलापन और रिश्ता
अकेलापन और हो तन्हाई
किसी कि याद भी आई
न ये मोहब्बत न अपनेपन कि निशानी है
ये बस खाली लम्हों की कहानी है
न काम से हो फुरसत खुशियाँ हो और हो रौनक
सोचो किसी को तुम याद आये कोई हरपल
ये है अपनापन है इस रिश्ते में तेरा मन
इसमे मोहब्बत है और इस रिश्ते को है नमन /
किसी कि याद भी आई
न ये मोहब्बत न अपनेपन कि निशानी है
ये बस खाली लम्हों की कहानी है
न काम से हो फुरसत खुशियाँ हो और हो रौनक
सोचो किसी को तुम याद आये कोई हरपल
ये है अपनापन है इस रिश्ते में तेरा मन
इसमे मोहब्बत है और इस रिश्ते को है नमन /
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