पुरानी बातों से उदास ना होना ,
बीते लम्हों के हमखास ना होना ;
यादें गर तुझे तड़पायें भी ,
पुराने सपनों के साथ ना होना ;
.
गुजरे वक़्त का साथ कैसा ,
गया वक़्त आज कैसा ;
भाव तो करेंगे अपनी कारागिरी ;
जों बदल गया फिर उसका साथ कैसा /
Wednesday, 5 May 2010
गुजरे वक़्त का साथ कैसा ,
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यादें,
हिंदी शायरी

अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्य बोध/amerkant
अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्य बोध :-
जैसे-जैसे समय बदल रहा है वैसे-वैसे सामाजिक मुल्यों में गिरावट आ रही है। अर्थ केन्द्रित सामाजिक व्यवस्था में नैतिकता का धीरे-धीरे पतन होता जा रहा है। व्यक्ति विशेष के लिए भौतिक सुखों को भोगना ही सबसे महत्वपूर्ण हो गया है। आदमी पूरी तरह से आत्मकेन्द्रित हो गया है। नैतिकता और आदर्श उसे सिर्फ तब याद आता है जब वह खुद घोर परेशानी हो, अन्यथा मौका मिलने पर हर व्यक्ति अपनी यथा स्थिति को सामने रख ही देता है।
आदमी के अंदर का खोखलापन, उसका दोहरा चरित्र, उसकी संवेदनाओं में गिरावट और भौतिकता की अंधी दौड़ में समस्त मानवीय मूल्यों में बिखराव समाज की सबसे बड़ी विडंबना है। अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से समाज के इसी गिरते स्तर को चित्रित किया है। अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्यों की जो गिरावट दिखायी पड़ती है उसके र्क कारण हैं। एक वर्ग विशेष के लिए निर्धारित मापदंड, आर्थिक परिस्थितियाँ, मानसिक विकृति, मन के अंदर निहित क्षोभ और घृणा, चरित्र की कायरता और दोगलापन, वर्तमान परिस्थितियों से मोहभंग और आधुनिकता और फैशन के नाम पर परंपराअें से घृणा जैसी कितनी ही बाते हैं जिन्हें अमरकांत सामाजिक मूल्यों में गिरावट का कारण मानते हैं।
'सूख जीवी` उपन्यास का नायक दीपक विवाहित होने के बावजूद रेखा से प्रेम का ढ़ोग करते हुए उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित करता है। जब यह बात उसकी पत्नी जान जाती है तो वह नाटकीय रूप से अपना बचाव करते हुए रेखा को ही बदचलन साबित करने की कोशिश करता है। दीपक नैतिक रूप से गिरा हुआ इंसान है। उसके जीवन में मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। अगर उसके लिए कुछ महत्वपूर्ण है तो केवल अपना सुख।
'आकाश पक्षी` उपन्यास की हेमा, रवि की बातों से प्रभावित होती है। मेहनत और लगन से अपनी जीवन संबंधी दृष्टि को बदलना चाहती है। पर इन नवीन मानवीय मूल्यों से उसके माता-पिता कोई इत्तफ़ाक नहीं रखते हैं। वे अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और जात-पात, ऊँच-नीच और अमीर-गरीब के अंतर को तर्कसंगत मानते हुए रवि से हेमा के विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा देते है। लेकिन अपने जीवन यापन की चिंता में वे हेमा की बलि देने से भी नहीं कतराते। एक अधेड़ उम्र के रई व्यक्ति से हेमा का विवाह करा देते हैं। इस तरह सामाजिक मान्यताओं की आड़ में हेमा के माता-पिता अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। सड़ी-गली सामाजिक रूढ़ियाँ और आर्थिक विवशता आदमी को कितना संवेदनहीन बना सकता है, इसे हेमा के माता-पिता के माध्यम से समझा जा सकता है।
'सुन्नर पाडे की पतोह` उपन्यास में सास-ससुर मिलकर बहू को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सास को यह डर रहता है कि विवाह के बाद अगर बेटे-बहू का मेल हो गया तो लड़का उसके हाँथ से निकल जायेगा। अत: वह बेटे-बहू को एक साथ न रहने देती। पर किसी तरह जब दोनों का मिलन हो गया तो वह हर बात में उन्हें ताना मारती। बेटे के घर से भाग जाने के बाद वह अपने पति को प्रेरित करती है कि वह बहू के साथ शारीरिक सुख उठाये। अपनी बहू के प्रति घृणा से भरी सास किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहती है। पवित्र संबंधो के बीच कटुता किस तरह संबंधो के सारे मायने बदल देती है, इसे इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। मानवीय संवेदनाओं का पतन ही ऐसी मानसिकता का कारण है।
''काले-उजले दिन` का नायक शौतेली माँ द्वारा खूब सताया जाता है। विवाह के बाद उसकी रही सही उम्मीद भी चकना चूर हो जाती है। वो किस तरह की पत्नी चाहता था, उसे वह नहीं मिली थी, यद्यपि पत्नी में समर्पण और प्रेम की निष्ठा थी। वह इसी क्षोभ और घृणा से जूझते हुए रजनी से प्रेम करता है। उसके मन को हमेशा यह बात सालती रहती है कि कहीं वह अपनी पत्नी को धोखा तो नहीं दे रहा? पर नियति के हाँथो वह मजबूर विचित्र मानसिकता में जीता रहता है। बीमारी और मानसिक पीड़ा के चलते पत्नी की मृत्यु के बाद वह रजनी से विवाह कर लेता है पर मन के किसी कोने में पत्नी को लेकर उसकी पीड़ा बनी रहती है।
''लहरें `` उपन्यास का नायक मोहल्ले की स्त्रियों को देखकर अजीब तरह की भाव-भंगिमा बनाता और उन्हें घूरता। ऐसा करते हुए वह अपनी छवि एक आधुनिक मनचले युवक के रूप में बनाना चाहता है। पत्नी जब उसके अनुरूप ढलने की कोशिश करती है तो वह उस पर आशंका व्यक्त करता है। इस तरह की सोच और दृष्टि व्यक्ति के अंदर निहित कुंठाओं और नैतिक पतन का प्रतीक है।
इसी तरह अमरकांत ने अपने उपन्यास 'इन्हीं हथियारों` के माध्यम से भी सामाजिक जीवन में आयी गिरावट को बड़ी ही गहराई के साथ चित्रित किया है। 'सदाशयव्रत` जैसे पात्रों के माध्यम से लेखक ने चरित्र का उत्कर्ष दिखाया है तो दूसरी तरफ भोलाराम जैसे लोग हैं जो पैसों के लिए सब कुछ करने की हिम्मत रखते हैं। उपन्यास की पात्र ढेला पेशे से वेश्या है। पर उसकी भी कोई पसंद या नापसंद हो या संभव नहीं है। उसके यहॉ जो भी ग्राहक के रूप में आ जाये उसे उसकी सेवा करनी ही है। अगर कभी वह मना करती तो मॉ उसे ऐसा कहने से मना करती है। मॉ के ऊपर चिढ़कर वह अपनी मॉ से कहती है कि, ''तुम हो पक्की लालची। तुम्हें कायदा, अच्छा-बुरा, सेहत-तन्दुरूस्ती, किसी का कुछ भी ख्याल नहीं। तुम किसी को आराम करते देख नहीं सकती। एक ढेबुला के लिए तुम किसी की भी जान ले सकती हो। इसी लालच की वजह से अच्छा खाना-पीना भी नहीं मयस्सर हो रहा है।``35 ढेला की मनोदशा उसके इस संवाद से समझा जा सकता है। मगर मॉ श्यामदासी जीवन की गहरी समझ रखती है। उसे मालूम है कि वैचारिक मूल्यों से कहीं अधिक आवश्यकता एक वेश्या को अपने शरीर की बाजारू 'कीमत` से है। वह 'मूल्यों` और 'किमत` के इस फर्क को समझती है। इसीलिए वह कहती है कि, ''.....यहॉ रंडी के पेशे में कोई फायदा थोड़े ही है, दोनों जून की रोटी-दाल चल जाती है, यही बहुत समझो।.... गँवार, छोटे दिलवालों के इस शहर में गाने-बजाने का खयाल भूलकर भी दिल में न लाना, नहीं तो भूखों मरोगी ही, हम सभी की हालत वैसी ही हो जाएगी।``36 इसी तरह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि व्यक्ति की आर्थिक परिस्थितियों, उसका व्यवसाय और उसकी लालसा किस तरह उसके जीवन में नैतिक पतन का कारण बनता है। लेकिन कई लोग ऐसे भी होते हैं जो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी अपने आदर्शो से मुँह नहीं मोड़ते। अपने चरित्र की पवित्रता वे बनाये रखते हैं।
अमरकांत के उपन्यासों की ही तरह उनकी कहानियों में की मूल्य बोध से संबंधित अनेकों महत्वपूर्ण प्रसंगों का चित्रण है। 'गले की जंजीर` कहानी के नायक की समस्या पर सभी सलाह देते हैं पर इन सभी सलाहों के केन्द्र में उसकी समस्या का हल किसी भी तरह दिखायी नहीं पड़ता। इसलिए अपनी समस्याओं पर खुद निर्णय लेना ही अधिक श्रेष्ठकर होता है। 'गगन बिहारी` कहानी का नायक सिर्फ योजनाएँ ही बनाते रहता है, कभी कुछ कर नहीं पाता। इसलिए जीवन का लक्ष्य निर्धारित करके उसके अनुरूप ही कर्म करने वाली बात यहाँ इस कहानी के माध्यम से अमरकांत सामने लाते हैं।
'शक्तिशाली` कहानी का नायम नरेन्द्र पड़ोसी भोलाराम से लड़ने की हिम्मत जुटा नहीं पाता। पर पत्नी की बार-बार की जानेवाली शिकायत के आगे वह अपनी कमजोरी बतलाना या जताना नहीं चाहता, इसलिए वह आदर्श और नैतिकता का आवरण लोढ़ लेता है। वह पत्नी से कहता है कि, ''....हमारी कमजोरी यह है कि हम दूसरों की असुविधा का ख्याल नहीं करते....।``37 इसी तरह जब नरेन्द्र के बच्चे की पड़ोसी ने पिटायी की तो भी वह पत्नी से कहता है कि, ''....मैं हमेशा खरी बात कहता हूँ, किसी को बुरी लगे या अच्छी, इसकी मुझे परवाह नहीं। मैं अक्सर देखता हॅँ कि सुरेन्द्र लड़कों से मार-पीट करता रहता है....।``38 नरेन्द्र अपनी कमजोरी को नैतिक आचरण शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।
'कलाप्रेमी` कहानी के माध्यम से अमरकांत ने यही बतलाने का प्रयास किया है कि इस बाजारवादी दुनिया में बाजार से जुड़ना ही प्रमुख गुण है। फिर इसके लिए जो भी करना पड़े वह करना चाहिए। जो नहीं करना वह गुमनामी में जीता और कुंठित होते रहता है। समुर वक्त के साथ चलता है इसलिए धीरे-धीरे उसकी पहचान बन रही है। जबकि सुबोध राम जैसे लोग गुमनामी में कुंठित होते रहते हैं।
'उनका जाना और आना` आज की पढ़ी लिखी और कामयाब पीढ़ी की उस मानसिकता को दर्शाती है जो अपने माता-पिता को वह सम्मान नहीं देना चाहते जिसके वे अधिकारी हैं। क्योंकि पुरानी परंपराओं और विचारधाराओं से जुड़े मॉ-बाप आधुनिक जीवन शैली के कहीं 'फिट` ही नहीं होते। शायद इसी कारण गोपालदास अपने डॉक्टर लड़के की लड़की की शादी में उपस्थित तो रहे पर उनकी उपस्थिति पूरी शादी में कहीं अनिवार्य रूप में महसूस नहीं की गयी। ना ही उन्हें किसी में यह एहशास कराना चाहा कि उनकी उपस्थिति कितनी महत्वर्पूा है?
'रिश्ता` कहानी जीवन के उदात्त आदर्श के स्वरूप को दिखलाती है। नईम, निरूपमा को बहुत प्यार करता है। पर उसके परिवार के एटशासानों और सामाजिक स्थिति को समझते हुए वह निरूपमा के साथ पवित्र संबंध की मर्यादा और भाव को अपनाता है। जीवन में खुद कामयाब होकर, एक आई.ए.एस. से निरूपमा की शादी भी करवाता है। नईम के माध्यम से उच्च चरित्र और आदर्शो वाले नायम का स्वरूप अमरकांत सामने लाते हैं।
'हंगामा` कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने जीवन में बच्चों के लिए तरसती है। पर उसे मातृत्व का सुख नहीं मिल पाता है। वह अंदर ही अंदर इस सुख से वंचित होने के कारण परेशान रहती है। वह मोहल्ले की औरतों से कहती फिरती कि, ''ए बहिन जी, दो-ढाई साल हो गये श्रीवास्तवजी के साथ रहते हुए। अब हमें बच्चा न होगा क्या? कल मेडिकल कालेज जायेंगे, जितना लगेगा लगायेंगे, भले लड़का न हो, भगवान लूली-लंगडी ही दे दे....।``39 लेकिन उसके ीवन का यह अभाव बरकरार रहता है। इसी बीच उसके घर के पास एक कुतिया ने चार पिल्लों को जन्म दिया। अब वह इन कुत्ते बच्चों को ही 'राजा बेटा` कहकर उन्हें दूध पिलाती थी। जल्द ही मोहल्ले के लावारिस गायों, गदहों और कुत्तों से उसे गहरा लगाव हो गया। स्पष्ट है कि अपने जीवन के अभाव और मातृत्व के लिए लालायित हृदय के प्रेम और स्नेह को उड़ेलने के लिए उसे इससे अच्छा बहाना नहीं मिल सकता था।
'शाम के घिरते अँधेरे मे भटकता नौजवान` एक ऐसे नौजवान की कहानी है जो वर्तमान शिक्षा प्रणाली के बदलते स्तर, महंगी होती तकनीकी उच्च शिक्षा से जूझ रहा है। पारिवारिक समस्याएँ उसे कमाने की जरूरतों की तरफ खींचती हैं तो आगे बढ़ने के लिए उसकी खुद की शिक्षा का जारी रहना भी महत्वपूर्ण है। अपने और परिवार के सपनों के बीच वह झूलता हुआ सा महसूस होता है। ऐसा कई बार होता है कि आदमी की पारिवारिक परिस्थितियाँ उसके अपने सपनों के आड़े आ जाती है। इस स्थिति की निराशा और हताशा आदमी को मोहभंग की मानसिकता में बाँध देती हैं।
'हार` कहानी के केन्द्र में बृजबिहारी बाबू हैं। वे हमेशा गुस्से में और व्यवस्था के प्रति आक्रोशग्रस्त रहते हैं। दोस्तोऱ्यारों के बीच होनेवाली बहसों में वे बढ़कर भाग लेते और हारने के लिए किसी भी तरह तैयार न होते। लेकिन एक दिन निर्मल बाबू के साथ शादी-विवाह और दहेज को लेकर लंबी-चौड़ी बहस के बाद, जब निर्मल बाबू बिना दहेज के उनकी पुत्री से अपने पुत्र के विवाह की बात करते हैं तो उन्हें यकीन ही नहीं होता। वे कहते हैं कि, ''अब छोड़िये... इस तरह की पाखण्ड भरी बात सुनने का मैं आदी नहीं हूँ।``40 लेकिन विवाह तँय हो जाता है। विवाह पूरी सादगी के साथ बिना दहेज के संपन्न भी होता है। लेकिन, यह सब देखकर बृजबिहारी बाबू की आँखेे डबडबा जाती हैं। आज की इस स्वार्थी और दहेज लोलुप समाज में बृजबिहारी बाबू ने कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी लड़की का विवाह इस तरह हो जायेगा। आज वे निर्मल बाबू से हार गये थे। पर इस हार ने उन्हें समाज की इच्छाइयों और इसके नैतिक स्वरूप के प्रति पुन: निष्ठावान बना दिया।
इस तरह अमरकांत के कथा साहित्य की संक्षिप्त विवेचना के बाद हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अमरकांत ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त मोहभंग, परिस्थिति गत व्यावहारिक जटिलता, आंतरिक घृणा और कुंठा, आधुनिक जीवन शैली से परंपराओं का संघर्ष, व्यक्ति अंदर निहित कायरता पर आदर्शो का आवरा और ऐसे ही कई अन्य संदर्भो के माध्यम से सामाजिक जीवन में हो रहे नैतिक पतन, संबंधों के बदलते अर्थ आधुनिक जीवन की निराशा, और कुंठाओं को बखुबी चित्रित करते है। साथ ही साथ अमरकांत के यहाँ कई ऐसे पात्र भी हैं जिनका नैतिक स्तर, ऊँचा आदर्श और जीवन संबंधी उनकी दृष्टि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी टूटने या बिखरने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं है। ऐसे पात्र अपनी नैतिक और सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग हैं। इस तरह दोनों ही तरह की स्थितियाँ अमरकांत के कथा साहित्य में मिलती हैं। पर टूटते और बिखरते हुए जीवन मूल्यों से संबंधित चित्रण अधिक है।
हमारे तिरंगे का इतिहास
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कैसे हो ?
प्यार में अनुनय ,
आवाज में अनुनय ,
पर अहसास से अनुनय,
कैसे हो ;
अधिकार की सीमा ,
ऐतराज की सीमा ,
पर प्यार की सीमा,
कैसे हो ;
हालात से समझौता ,
वारदात से समझौता ,
पर दिल का समझौता ,
कैसे हो ;
राह न भुला ,
चाह न भुला ,
पर विश्वास को भुला ,
कैसे हो ?
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Tuesday, 4 May 2010
विरल विरल सा मन है मेरा,
विरल विरल सा मन है मेरा,
ना गम ना खुशियों का फेरा ,
विरल विरल सा मन है मेरा,
विरक्त हूँ भावों से कुछ कुछ ,
विभक्त हूँ अभावों से कुछ कुछ ,
पर मन में संताप नहीं है ,
और हरियाली का भास नहीं है ;
बोझिल है हैं विचार भी मेरे ,
खाली खाली से हैं व्यवहार भी मेरे ,
विरल विरल सा मन है मेरा,
ना गम ना खुशियों का फेरा ,
विरल विरल सा मन है मेरा,
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Saturday, 1 May 2010
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