Saturday, 24 April 2010

अमरकांत की कहानी -लड़की और आदर्श

अमरकांत की कहानी -लड़की और आदर्श :-
      'लड़की और आदर्श` अमरकांत बहुत चर्चित तो नहीं परंतु अच्छी कहानी है। कहानी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले नरेन्द्र की है। जिन्हें कमला नामक विश्वविद्यालय की छात्रा से प्यार हो जाता है। लेकिन कमला एक नेपाली छात्र को प्यार करती थी। अत: नरेन्द्र विश्वविद्यालय यूनियन के पदाधिकारी श्याम से मदद माँगने पहुँचते हैं।
      नरेन्द्र खुद शर्मीले स्वभाव के थे। श्याम ने कई बार उन्हें प्रोत्साहित किया कि वे कमला से बात करें। पर नरेन्द्र कभी इतनी हिम्मत जुटा ही नहीं पाये। बड़ी-बड़ी बातें करते पर जब कुछ करने का समय आता तो वे पीछे़ हट जाते। इसी तरह पूरा साल बीत जाता है पर नरेन्द्र कभी भी कमला से आमने-सामने बात नहीं कर पाये। अंत में इम्तहान खत्म होते हैं और छुटि्टयाँ लग जाती हैं।
      छुटि्टयों के बाद जब श्याम नरेन्द्र से मिलकर कमला की बात छेड़ते हैं तो नरेन्द्र बेरूखी से उसकी बुराई करते हैं। इस तरह प्रेम में असफल होने पर वे आदर्श की चादर ओढ़कर अपने यथार्थ से मुंह चुराते हैं। 

अमरकांत की कहानी -लड़की की शादी

अमरकांत की कहानी -लड़की की शादी :-
      'लड़की की शादी` कहानी में एक बाप की चिंता और लड़की का विवाह संपन्न कराने हेतु किये जाने-वाले सही-गलत प्रयासों का मार्मिक चित्रण हैं।
      बड़े-बड़े घरों में अपनी लड़की का रिश्ता ना करवा पाने पर अचानक चिंतित पिता का ध्यान कृष्णमोहन नामक युवक पर जाता है। वे कृष्णमोहन से मिलते हैं और उसकी नौकरी लगवाने में अहम् भूमिका निभाते हैं। इन सब के बाद वे बड़ी ही चा़लाकी से अपनी लड़की की शादी कृष्णमोहन से करवा देते है।
      इस तरह वे बेटी की शादी करवा कर चिंता मुक्त होते हैं। उन्हें यह विश्वास भी है कि कृष्णमोहन जिन्दगी भर उनकी बेटी का आज्ञाकारी पति बना रहेगा।
 

अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी

अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी :-
      'डिप्टी कलक्टरी` अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। अमरकांत स्वयं इस कहानी के बारे में कहते हैं कि, ''ये भी हमारे परिवार की थी। भाई लॉ करके बलिया आ गये थे। बलिया जैसे छोटे शहर में रहकर उनका बिन सुविधा, अपने बूते आई.ए.एस. में बैठना। सिम्पिली सिटी के मास्टर थे वे। जटिल से जटिल चीजों को सिम्पिलीफाई कर देना ये चीज हमने उनसे सीखी। कुछ विषयों में टॉपर! लिखित में नम्बर अच्छे आते, पर इन्टरव्यू.......! इंन्टरव्यू का जब कॉल आता था तो जैसे ताजी हवा का आना, स्वप्न, आशा का वह उत्साह, पिता की आशाएँ, प्रतीक्षा.... आप 'डिप्टी कलक्टरी` में देख सकते हैं। उसकी आलोचना में कहा भी गया है - एक आशा भरी प्रतीक्षा।``8
      अमरकांत की बातों से साफ है कि यह कहानी उन्होंने अपने पारिवारिक परिवेश पर ही लिखी है। शकलदीप बाबू और जमुना देवी अपने बड़े लड़के 'नारायण` से काफी उम्मीदे लगाये रहते हैं। नारायण डिप्टी कलक्टरी के इम्तहान में बैठना चाहता है। फीस भरनी है। लेकिन शकलदीप बाबू गूस्सा करते हैं कि यह लड़का (नारायण) अगर कुछ बनने लायक होता तो अब तक बन गया होता। पर मन ही मन कहीं न कहीं उनके अंदर भी यह उम्मीद थी कि उनका लड़का कलेक्टर बन सकता है।
      अत: वे न केवल फीस के पैसे देते हैं बल्कि इस बात का पूरा खयाल भी रखते थे कि उनके बेटे को किसी तरह की कोई परेशानी न हो। नारायण परीक्षा में पास भी हुए, लेकिन इन्टरव्यू अभी बाकी था। परिवार के सभी लोगों की आशाएँ बढ़ गयी हैं। और इसी आशा भरी प्रतीक्षा के साथ कहानी समाप्त हो जाती है। 

अमरकांत की कहानी -जिन्दगी और जोक :

अमरकांत की कहानी -जिन्दगी और जोक :
      'जिंदगी और जोक` रजुआ नाम एक भिखमंगे व्यक्ति की कहानी है। जिसे लेखक ने मुहल्ले में आते-जाते एवम् लोगों के घर चक्कर लगाते देखा था। एक दिन अचानक शिवनाथ बाबू के घर के लोग रहुआ को बुरी तरह से पीट रहे थे। लेखक ने जब इसका कारण जानना चाहा तो उन्हें पता चला कि रजुआ पर साड़ी चुराने का आरोप है। पर बाद में पता चलता है कि साड़ी घर पर ही है। लेकिन रजुआ को उस गलती की सजा मिल चुकी थी, जो उसने कभी की ही नहीं थी।
      परिणाम स्वरूप अब मुहल्ले वाले उसके प्रति सहानुभूति रखने लगे और बचा हुआ या जूठा खाना उसे खाने को दे देते। वह सबके दरवाजे पर जाता था, लेकिन शिवनाथ बाबू के यहाँ जाने की उसकी हिम्मत ना होती। पर एक दिन शिवनाथ बाबू ने ही उसे बुलाकर घर पर रहने की हिदायत दे दी। अब वह शिवनाथ बाबू के यहाँ स्थायी रूप से रहने लगा। यहीं पर उसका नाम 'गोपाल` की जगह 'रजुआ` रखा गया। क्योंकि गोपाल सिंह शिवनाथ बाबू के दादा का नाम था।
      लेकिन मुहल्ले के सभी लोग रजुआ पर अपना बराबर का हक समझते। वह पूरे मुहल्ले का नौकर बन गया था। अब रजुआ भी थोड़ा ढीठ हो गया था। मुहल्ले की औरतों से हँसी-मजाक भी रकने लगा था। इसी कारण मुहल्ले के लोग उसे 'रजुआ साला` कहने लगे थे। शहर की वही एक पगली औरत के चक्कर में पड़ने के बाद उसे काफी मार पड़ी। 'बरन की बहू` ने उसके दस रूपये नहीं लौटाये तो वह भगत बन गया।
      इधर उसे हैजा फिर खुजली की बिमारी भी हो गई। अब वह किसी के काम का नहीं रह गया था। अब कोई उसे अपने दरवाजे पर खड़ा नहीं रहने देता था। इसी बीच एक लड़का लेखक को सूचना देता है कि रजुआ मर गया। अत: वह एक पोस्टकार्ड पर रजुआ के घर यह सूचना लिख दे। पर दो-चार दिन बाद रजुआ लेखक के समक्ष एक और पोस्टकार्ड लेकर आता है। और लेखक से अपने गाँव यह संदेश लिखने को कहता है कि, ''गोपाल जिंदा है।``
      लेखक ऐसा ही करते हैं। पर यह समझ नहीं पाते हैं कि जिंदगी से जोंक की तरह वह लिपटा है या फिर खुद जिंदगी। वह जिंदगी का खून चूस रहा था या जिंदगी उसका? अपनी जिजीविषा के कारण की रजुआ जैसे अपेक्षित पात्र नई कहानी में 'मुख्य पात्र` के रूप में सामने आये।
      अमरकांत की इस कहानी के संदर्भ में राजेंद्र यादव ने कहा है कि, ''अमरकांत का शायद ही कोई पात्र अपनी नियति या स्थिति को बदलने की बात सोचता या करता हो। जहाँ-जहाँ ऐसा है वहाँ उठे उबाल की तरह फौरन ही ठण्डा ही गया है। मैं आज तक तय नहीं कर पाया कि 'जिंदगी और जोंक` जीवन के प्रति आस्था की कहानी है या जुगुप्सा, आस्थाहीनता और डिसगस्ट की।``7
      अमरकांत की यह कहानी भी बहुत प्रसिद्ध हुई। आर्थिक अभाव के कारण कोई व्यक्ति कितना टूटता है इसे 'जिंदगी और जोंक` के 'रजुआ` के माध्यम से समझा जा सकता हैं। 
 

अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन :

अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन :
      'दोपहर का भोजन` अमरकांत द्वारा लिखित एक छोटी परंतु महत्वपूर्ण कहानी है। यह कहानी विडम्बना और करूणा की कहानी है। सिद्धेश्वरी नामक स्त्री अपने पति मुंशी चंन्द्रिका प्रसाद और तीन लड़कों (रामचन्द्र, मोहन और प्रमोद) के साथ आर्थिक तंगी में जीवन व्यतीत कर रही होती है। तंगी इतनी की हर कोई भरपेट खाना भी ना खा सके। पर इस विडंबना को घर का हर सदस्य एक दूसरे से छुपाता रहात है। दोपहर के भोजन को खाते समय जब माँ सिद्धेश्वरी बच्चों से अधिक रोटी खाने को कहती है तो वे बिगड़ जाते हैं। क्योंकि उन्हें भी पता है कि उनके अधिक खाने पर घर का कोई न कोई सदस्य भूखा ही रह जायेगा। शायद अंत के खानेवाली सिद्धेश्वरी ही। इसलिए कोई भी भर पेट नहीं खाता, पर भरपेट न खाने का कारण सभी भी स्पष्ट नहीं करना चाहता। इन सब के चलते अंत में सिद्धेश्वरी के हिस्से में एक रोटी बचती है। जिसमें से भी आधी को छोटे बेटे प्रमोद के लिए रखकर आधी ही खाती है।
      इस तरह अपने जीवन के अभाव की विडम्बना को यह परिवार अपने में ही समेटे जिये जा रहा था। अमरकांत की इस कहानी के संदर्भ में यदुनाथ सिंह ने लिखा है कि, ''दोपहर का भोजन` के सीधे-सपाट घटनाक्रम में एक गृहस्वामिनी, सिद्धेश्वरी के भय और दुख की जो अन्तर्धारा प्रवाहित होती है वह आज के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवनचर्या के मूल में प्रवाहित भय और दु:ख की वह अन्तर्धारा है जिसमें बहते हुए अनगिनत, परिवारों के असंख्य प्राणी, एक दूसरे से अपरिचित, अशांकित, वर्तमान के अभावों से पूरी तरह टूटे, भविष्य को लेकर दहशत से भरे न केवल पारिवारिक स्तर पर बिखरते बल्कि सामाजिक स्तर पर भावात्मक दृष्टि से टूटते सम्बन्ध सूत्रों को संदर्भित करते हैं। परंपरा प्राप्त भावात्मक संबंध सूत्रों और उनके माध्यम से बिखरने को आ रहे ढाँचे को कायम रखने की एक निष्फल दयनीय चेष्टा पूरे संदर्भ को बेहद कारूणिक बना जाती है।``5
      अमरकांत की यह कहानी बहुत प्रसिद्ध हुई। स्वयं अमरकांत भी यह माने हैं कि यह कहानी उन्होंने पूरे मनोयोग से लिखी है। कहानी छोटी है। इस पर भी अमरकांत जी का कहना है कि, इस कहानी में जितनी मौन की जरूरत थी उतनी भाषा की नहीं।``6 हिंदी के अन्य समीक्षकों ने भी अमरकांत की इस कहानी की बडी प्रशंसा की है। 
 

अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 1

क) अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 1 
      इस खण्ड में संग्रहित कहानियों को '1950 का दशक` और '1960 का दशक` नामक दो भागों में मुख्य रूप से विभक्त किया गया है। '1950 का दशक` के अंतर्गत कुल 19 कहानियाँ हैं तो '1960 का दशक` में कुल 20 कहानियाँ संग्रहित हैं। 333 पृष्ठों की इस पुस्तक में अमरकांत द्वारा दो दशकों में लिखी गयी कुल 39 कहानियाँ हैं। इन कहानियों में से कुछ का हम संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे।
1) इंटरव्यू :
      'इंटरव्यू` अमरकांत द्वारा लिखी वह पहली कहानी थी जिससे उन्हें 'कहानीकार` कहलाने का सौभाग्य मिला। आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में अमरकांत ने डॉ. रामविलास शर्मा और अन्य मित्रों के सम्मुख यह कहानी सुनायी। अमरकांत खुद एक इंटरव्यू में सम्मिलित हुए थे, उसी घटना का विस्तार से वर्णन करके उन्होंने यह कहानी लिखी थी। इस कहानी के छपने के पहले अमरकांत श्रीराम वर्मा के नाम से ही जाने जाते थे। स्वयं अमरकांत कहते हैं कि, ''मैं तब श्रीराम वर्मा था। अमरकांत मेरा पेननेम है। 1953 में बदला। मेरी पहली साहित्यिक कहानी 'इंटरव्यू` 1953 में 'कल्पना` में छपी थी। तभी पेननेम अमरकांत कर लिया।.........।``2
      इस कहानी में राशनिंग विभाग में 60 रूपये की क्लर्की के एक रिक्त पद के लिए आये उम्मीदवारों की बेचैनी, दिखावा, अपने को अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयास आदि का बड़ा ही रोचक एवम् व्यंग्यात्मक वर्णन अमरकांत ने किया है। कहानी में किसी भी पात्र को कोई भी नाम नहीं दिया गया है। जो कि कथावस्तु के अनुरूप ही है।
      इस कहानी के संदर्भ में अजित कुमार लिखते हैं कि, ''इंटरव्यू` एक छोटी-सी कहानी है जो अपने देश में इंटरव्यू के नाम से चलते जा रहे एक बहुत बड़े ढोंग या मखौल का हल्का-फुल्का बल्कि सीधा-सपाट बयान करती है। खुलासा या पर्दाफाश नही, महज एक दिलचस्प और पाठनीय ब्यौरा। अपनी इस प्रकृति में 'इंटरव्यू` कहीं-कहीं प्रेमचंद की याद भी दिलाती है, जिनके यहाँ कहानी रोजमर्रा की जिंदगी में मौजूद रहती है, वह विचित्र या असामान्य स्थितियों को तलाशना जरूरी नहीं समझती। ....... निश्चय ही अमरकांत की यह आरंभिक कहानी न तो समस्या का कोई सरलीकरण करती है न एक विशेष अर्थ में वह कोई सपाट कहानी है। मेरे लिए उस कहानी का महत्व जिन कारणों से है, उनमें यह भी उल्लेखनीय है कि वृत्ति से पत्रकार पर मनोवृत्ति से लेखक अमरकांत की यात्रा का यह प्रस्थान बिंदु है, जहाँ से उनकी प्रतिबद्धता क्रमश: मुखर और सुदृढ़ होती चली गई।3
2) गले की जंजीर :
      इस कहानी के संदर्भ में श्रीपतराय जी लिखते हैं कि, ''गले की जंजीर` का मुखर व्यंग्य इतना प्रिय है कि चित्त में एक स्फूर्ति का संचार होता है। इसमें वर्णित घटना हम सबके साथ कभी न कभी अवश्य घटी होगी पर इसको इतने सहज, आयासहीन, विनोदी ढंग से वर्णन करने की क्षमता कितने लोगों में होगी?``4
      'गले की जंजीर` अमरकांत द्वारा लिखी ऐसी कहानी है जिसमें वे एक ही समस्या पर अलग-अलग लोगों की विचार दृष्टि को बड़े ही व्यंग्यात्मक एवम् हास्य के पुट के साथ प्रस्तुत करते हैं। लेखक अपने मित्र जगदीश के गले की सोने की जंजीर देखकर मोहित हो जाते है। उसे वे बेशर्मी से पहनने के लिए माँग भी लेते हैं। लेकिन सुबह जब लेखक सो कर उठे तो, जंजीर गले में नहीं थी।
      इसके बाद यह खबर पूरे प्रेस में फैल गयी। मिश्र दादा, प्रेस-मैनेजर गुलजारी लालजी, रामविलास, प्रधान संपादक, जोसफ, परेश बनर्जी और ठाकुर साहब सभी ने जंजीर खोने के विषय में बनावटी चिंता व्यक्त करते हुए अपने-अपने तरीके से उसे बचाने का उपाय बताने लगे। कोई कहता कि उसे ट्रंक में रखना चाहिए था, कोई दराज में रखने की सलाह देता। कोई कहता कि किताबों के बीच रख्ना अधिक युक्ति संगत है।
      अलग-अलग लोगों की सलाह सुनते हुए, लेखक अपनी मूल समस्या को तो जैसे भूल ही गये और अंत तक यह तँय नहीं कर पाये कि वे किसकी सलाह माने।
 

कहानियों एवम् उपन्यासों के अतिरिक्त अमरकांत का साहित्य

कहानियों एवम् उपन्यासों के अतिरिक्त अमरकांत का साहित्य 
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 एक पुस्तक संस्मरण के रूप में लिखा। इस पुस्तक में अमरकांत ने अपने बचपन से लेकर अपने लेखक बनने की पूरी कथा को विस्तार से लिखा है। अमरकांत को समझने में यह पुस्तक बहुत ही सहायक है। इस पुस्तक का शीर्षक व प्रकाशन वर्ष निम्न प्रकार है।
      (1) कुछ यादें कुछ बातें
                  प्रथम संस्करण  - सन् 2005
                  प्रकाशन  - राजकमल प्रकाशन
      अमरकांत ने बाल साहित्य भी भरपूर लिखा है। उनके द्वारा लिखित बाल साहित्य की कुल पुस्तकें निम्नलिखित हैं।
      (1) नेउर भाई
      (2) बानर सेना
      (3) खूँटा में दाल है
      (4) सुग्गी चाची का गाँव
      (5) झगरूलाल का फैसला
      (6) एक स्त्री का सफर 
      इन सभी पुस्तकों का प्रकाशन 'कृतिकार` प्रकाशन के माध्यम से इलाहाबाद से हुआ है। अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक है। अमरकांत के उपन्यासों की चर्चा उतनी नहीं हुई जितनी की उनकी कहानियों की हुई है। इस पर स्वयं अमरकांत का कहना है कि, ''...... चर्चा तो हुई है। लेकिन उपन्यास 'सूखा पत्ता` छोड़ दे तो बाकी मैंनें बहुत जल्दी-जल्दी लिए। उनमें 'पूरी एनर्जी` नहीं लगी। इनमें से बहुत पैसों की जरूरत पर लिखे। जीवन से संघर्ष और फिर संघर्ष के निचोड़ के तौर पर ये कृतियाँ नहीं लिखी। पहले तो लोग स्वीकार नहीं करते थे लेकिन अब लोग मानते हैं कि ये उपन्यासकार भी हैं। वैसे चर्चा न होने का एक कारण यह भी रहा कि इनमें से कुछ हमनें प्रकाशित किया जिससे 'डिस्ट्रिब्युशन` बराबर हो नहीं पाया। एक कारण यह भी है कि आलोचकों ने अपना एक ढर्रा बना लिया है। बहुत से उपन्यास वे समझ नहीं पाते हैं। उपन्यास आलोचना की समीक्षा दृष्टि उतनी विकसित नहीं हुई। उपन्यासों की आलोचना व्यापक तरीके से जीवन को देखते हुए होनी चाहिए। वैसे इधर उपन्यासों की भी चर्चा हो रही है।.......।``1
      बात सच भी है। अमरकांत के उपन्यासों की इधर काफी चर्चा हुई है। अमरकांत के कथा साहित्य का एक समग्रावलोकन जरूरी है। हाँ कहानियों, उपन्यासों के साथ-साथ उनके द्वारा लिखित बाल-साहित्य का भी। इससे कथाकार के रूप में अमरकांत के संपूर्ण व्यक्तित्व को समझना आसान हो जायेगा। 
 

राहत इंदौरी के 20 चुनिंदा शेर...

 राहत इंदौरी के 20 चुनिंदा शेर... 1.तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो 2.गुलाब, ख़्वाब, ...