Saturday, 14 September 2024

हम अगर कोई भाषा हो पाते

 

हम अगर कोई भाषा हो पाते

 

भाषाओं के इतिहास में

भाषाओं का ही

परिमल, विमल प्रवाह है ।

 

वह

ख़ुद को माँजती

ख़ुद से ही जूझती

तमाम साँचों को

झुठलाती और तोड़ती है ।

 

वह

इस रूप में शुद्ध रही कि

शुद्धताओं के आग्रहों को

धता बताती हुई

बस नदी सी

बहती रही

बिगड़ते हुए बनती रही है

और

बनते हुए बिगड़ती भी है ।

 

दरअसल वह

कुछ होने न होने से परे

रहती है

अपनी शर्तों पर

अपने समय, समाज और संस्कृति की

थाती बनकर ।

 

उसकी अनवरत यात्रा में

शब्द ईंधन हैं

और अर्थ बोध ऊर्जा

हम अगर

कोई भाषा हो पाते

तो हम

बहुद हद तक

मानवीय होते ।

 

                डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

                 विजिटिंग प्रोफ़ेसर

                 ICCR हिन्दी चेयर

                 ताशकंद, उज़्बेकिस्तान ।

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