Wednesday, 28 April 2021

मराठी भाषा में राष्ट्रीय गौरव

 

            मराठी भाषा की बात करें तो 1188 ई. के आस-पास नाथपंथीय मुकुंदराज के विवेकसिंधु की चर्चा सबसे पहले होती है, जो अद्वैत भक्ति से संबन्धित है । इन्हें मराठी का आदिकवि भी माना जाता है । 1128 से 1200 ई. के बीच इनका जीवनकाल माना जाता है । "विवेकसिंधु" और "परमामृत" नामक इनके दो ग्रंथों की चर्चा मिलती है ।  ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी को कैसे भुलाया जा सकता है ? जो कि 1290 ई. के आस-पास की रचना मानी जाती है । कृष्ण पर केंद्रित वामन पंडित की रचना यथार्थदीपिका भी बहुत महत्वपूर्ण है । नारायनदास कृत नारायण किर्ति और रत्नाकर कृत रत्नाकर भी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । मुगलकाल के संत एकनाथ के साहित्य से सभी परिचित हैं । रामायण पर केंद्रित सबसे अधिक ग्रंथ बांग्ला और मराठी में लिखे गये हैं । कवि गिरिधर के सात अलग संस्करण, माधव स्वामी का एक और मोरेश्वर रामचंद्र पराड़कर / मोरोपंत(1729-1794) के 108 संस्करण की बात अद्भुद हैं । वैसे मोरेश्वर रामचंद्र पराड़कर / मोरोपंत के लिखे 94-95 संस्करण मिलते हैं । बाकी के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती । लेकिन एक ही व्यक्ति द्वारा रामायण को केंद्र बनाकर इतने संस्करण लिखना विलक्षण है ।   

 

           19वीं शती के अंत तक मराठी भाषा में भी राष्ट्रीय गौरव का भाव अधिक प्रबल हुआ । विष्णू शास्त्री चिपलूंकर निबंधमाला में अपने लेख शुरू करने से पहले संस्कृत की कोई सूक्ति लिखते थे । प्राचीन कथाओं को समकालीन समस्याओं से जोड़ते हुए उपन्यास लिखने की परंपरा महाराष्ट्र से ही शुरू हुई । साने गुरुजी, जी.एन. दांडेकर और वी.एस.खांडेकर कुछ ऐसे ही उपन्यासकार थे । पांडुरंग सदाशिव साने (24 दिसम्बर 1899 – 11 जून 1950) मराठी भाषा के प्रसिद्ध लेखक, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे साने गुरूजी के नाम से प्रसिद्ध हुए । आप ने कुरल नामक तमिल ग्रंथ का मराठी अनुवाद किया । आंतरभारती’ नामक संस्था की स्थापना साने गुरुजी ने  प्रांत-प्रांत के मध्य चल रही घृणा को कम करने हेतु की । क्षेत्रवाद और प्रांतवाद भारत की अखंडता के लिए घातक है, इस बात को वे अच्छे से समझते थे । ‘आंतरभारती’ का उद्देश्य ही था कि विभिन्न राज्यों के लोग एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को सीखें, उनकी प्रथा,परंपरा और मान्यताओं को समझें ।

 

            गोपाल नीलकंठ दांडेकर / जी.एन. दांडेकर (1916- 1998) ने सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं जिनमें 26 उपन्यास थे ।स्मरणगाथा के लिए आप को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । वी.एस.खांडेकर / विष्णु सखाराम खांडेकर (1898-1976 ) ने ययाति सहित कुल16 उपन्यास लिखे। जिनमें  हृदयाची हाक, कांचनमृग, उल्का, पहिले प्रेम, अमृतवेल, अश्रु  शामिल हैं। नाटकों के क्षेत्र में भी ऐसा ही प्रयोग हुआ । विष्णुदास भावे (1819-1901) ऐसे ही नाटककार थे । आप को मराठी रंगभूमि के जनक के रूप में भी जाना जाता है । आप ने ही  1843 में "सीता स्वयंवर" नामक मराठी का पहला नाटक रंगमंच पर प्रस्तुत किया । रामायण को आधार बनाकर आप ने विविध विषयों पर दस नाटक लिखे । "इंद्रजीत वध" , "राजा गोपीचंद" और "सीता स्वयंवर" जैसे नाटकों का लेखन और दिग्दर्शन आप ने सफलतापूर्वक

 किया।

 

          समग्र रूप में हम यह कह सकते हैं कि हमें अपनीय मानवीय उदारता और  विस्तार देना होगा,ताकि विस्तृत दृष्टिकोण हमारी थाती रहे ।  निरर्थकता में सार्थकता का रोपण ऐसे ही हो सकता है । स्वीकृत मूल्यों का विस्थापन और विध्वंश चिंतनीय है । विश्व को बहुकेंद्रिक रूप में देखना, देखने की व्यापक,पूर्ण और समग्र प्रक्रिया है । समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । जीवन की प्रांजलता, प्रखरता और प्रवाह को निरंतर क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । वैचारिक और कार्मिक क्रियाशीलता ही जीवन की प्रांजलता के प्राणतत्व हैं । जीवन का उत्कर्ष इसी निरंतरता में है । भारतीय संस्कृति के मूल में समन्वयात्मकता प्रमुख है । सब को साथ देखना ही हमारा सही देखना होगा । अँधेरों की चेतावनी और उनकी साख के बावजूद हमें सामाजिक न्याय चेतना को आंदोलित रखना होगा । खण्ड के पीछे अख्ण्ड के लिये सत्य में रत रहना होगा । सांस्कृतिक संरचना में प्रेम, करुणा और सहिष्णुता को निरंतर बुनते हुए इसे अपना सनातन सत्य बनाना होगा ।

 

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