भारतीय
क्षेत्रीय साहित्य किसी एक मूल तत्व को लेकर सबसे अधिक आंदोलित भक्तिकाल में दिखाई
पड़ता है । सभी सगुण-निर्गुण संतों ने मानवता को जीवन के सबसे बड़े सत्य के रूप में
स्वीकार किया है । आसाम में शंकरदेव, बंगाल में चंडीदास, उत्तर में सूरदास, तुलसीदास, कबीर और मीराबाई इत्यादि । कर्नाटक में पुरंदरदास, तमिलनाडु में कंबन, चेरुशशेरी केरला
में, त्यागराज आंध्रा, तुकाराम
महाराष्ट्र, नरसी मेहता गुजरात और बलरामदास
उड़ीसा में इसी मानवीय भाव के गीत गा रहे थे । इनके पहले के रासो ग्रंथ, आल्हा गीत, पोवाड़ा इत्यादि के अंदर भी ऐसे ही
राष्ट्रीय भाव थे । ठीक इसी तरह आगे चलकर पूरा भारत एक स्वर में आज़ादी के तराने
बुन रहा था । नवीनचंद्र सेन द्वारा लिखित ‘बैटल ऑफ प्लासी’ का हिंदी अनुवाद मैथिलीशरण गुप्त ने किया । काजी नज़रुल इस्लाम ने हिंदी
में ‘अग्निवीणा’ लिखी । ऐसे कई रचनाकार
रहे जिन्होंने क्षेत्रीय दायरे में अपने को समेटे नहीं रक्खा । कन्नड के पुटप्पा, गुजराती के नर्मदाशंकर दवे, असमिया के अंबिकागिरी
रामचौधरी और सावरकर, इक़बाल इसके उदाहरण
हैं ।
जमीदारों
द्वारा गरीबों, वंचितों के शोषण की कहानी भी भारतीय भाषाओं में
प्रमुखता से चित्रित हुई । प्रेमचंद का ‘गोदान’, जसवंत सिंह का पंजाबी उपन्यास ‘सूरजमुखी’, व्यंकटेश दिगम्बर माडगुलकर का मराठी उपन्यास ‘बनगरवाडी’, फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आंचल’, उर्दू में राजेंद्र सिंह बेदी की
‘एक चादर मैली सी’, बंगाली में शरतचंद्र
चटर्जी का ‘पल्ली समाज’, ताराशंकर
बंदोपाध्याय की ‘गणदेवता’, आसाम के
चाय बगानों पर केंद्रित बिरंचि कुमार बरुआ का उपन्यास ‘सेउजी पटर कहनी’(1955) उड़िया में फ़कीर मोहन सेनापति का ‘छह माण
आठ गुंठ’, तेलगू में उन्नवा लक्ष्मीनारायण का मालापल्ली, तमिल के अकिलन/ पेरुंगळूर वैद्य विंगम
अखिलंदम ( पी. वी. अखिलंदम) की 'पावै विलक्कु’, कन्नड़ के शिवराम कारंत / कोटा
शिवराम कारंत का 'मरलि मण्णिगे’, मलयालम के तकजि शिवशंकर पिल्लै /टी.एस.पिल्लै की 'रंटि टंगषी' (दो सेर धान) और गुजराती के पन्नालाल
पटेल लिखित ‘मलाला जीव’(मैला जीवन)
इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं ।
ऋतुओं के संदर्भ
में कालिदास का ‘ऋतुसंहार’ , गुरुनानक देव की ‘तुखारी राग’ तथा राजस्थानी, अवधी की बारहमासा एक ही परंपरा का
निर्वहन करते हैं । गुरु नानक देव ने तुखारी राग के बारहमाहा में वर्ष के बारह महीनों
का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया है। मलिक मोहम्मद जायसी भी इस परंपरा का
निर्वहन पद्मावत में करते हैं । कार्तिक मास में नागमती की विरह –वेदना
का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि-
कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल,हौं बिरहै जारी।।
चौदह करा चाँद परगासा। जनहुँ जरै सब धरति अकासा।।
सेक्स और हिंसा को किसी भी क्षेत्रीय साहित्य में उस तरह जगह
नहीं मिली जैसे यूरोप में पिछले बड़े युद्धों के बाद मिला । ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय
दर्शन जीवन की संपूर्णता में विश्वास करता है ।
श्वेताश्वतरोपनिषद(4/6) में वर्णन मिलता है
कि दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के
स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा
को देखता है। हमारा शरीर एक पीपल के वृक्ष समान है । आत्मा तथा परमात्मा सनातन सखा
अर्थात् दो पक्षी हैं जो शरीर रूपी वृक्ष पर हृदय रूपी घोसलें में एक साथ निवास
करते हैं । उनमें से एक तो कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता
रहता है।)
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं
परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो
अभिचाकशीति ॥
मानवीय उदारता का श्रेष्ठ साहित्य महाभारत को माना जा सकता है ।
अलग-अलग भारतीय भाषाओं में भिन्नता के बाद भी कुछ सूक्ष्म सूत्र ज़रूर हैं जो इसे
जोड़ता है । देवताओं और मनुष्यों के बीच पुल बनानेवाले भारतीय ऋषियों,मुनियों,संतों एवं कवियों ने दिव्य और पावन के अवतरण
की संभावनाओं को हमेशा जिंदा रखा । राम और कृष्ण के रूप में इन्होंने समाज को एक
आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श दिया ।
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