खजुरन : जोगियों का गांव ।
उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले अन्तर्गत आनेवाले बदलापुर तहसील का एक गांव है खजुरन । यह गांव "जोगियों का गांव" के रूप में भी जाना जाता है । ऐसा नहीं है कि इस गांव के सभी लोग जोगी हैं, अपितु यहां जोगियों की पूरी एक बस्ती / टोला है । लगभग साठ से सत्तर घरों का यह जोगियान 400 से 500 की आबादी का है ।
ये सभी मुस्लिम परिवार हैं जो कई पुश्तों से यहां रह रहे हैं । कितनी पुश्तों से ? यह ठीक से कोई नहीं बता सकता । इनमें से अधिकांश के पास अपनी खेती बाड़ी की ज़मीन नहीं है । कुछ के पास है भी तो बड़ी मामूली सी । आवास भी अधिकांश लोगों को इंदिरा आवास एवं प्रधानमंत्री आवास योजना के माध्यम से मिली हुई "कालोनी" है । बस्ती तक जानेवाली सड़क पक्की है, लेकिन बस्ती इनकी तंगहाली और ग़रीबी को उघार कर रख देती है ।
अब इनमें से अधिकांश लोग चीनी मिट्टी के बने बर्तन और कांच के कप और ग्लास बेचने का काम करते हैं । बेचने का यह सारा सामान ये मछलीशहर नामक जगह से लाते हैं । कुछ लोग पढ़ लिखकर दूसरे प्रतिष्ठित कार्य भी करने लगे हैं । नन्हें मास्टर ऐसे ही व्यक्ति हैं जो पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं । बस्ती के सभी लोग अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने में रुचि रखते हैं । आबादी के हिसाब से इनकी संख्या स्थानीय चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाने लगी है । यही कारण है कि ग्राम प्रधान इत्यादि इन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ देते रहते हैं । बस्ती में ही एक छोटी सी मस्जिद भी है जहां मोहम्मद नज़ीर शाह मौलवी के रूप में कामकाज देखते हैं । बुज़ुर्ग मौलवी धर्म को इंसानों का बनाया हुआ और सर्व धर्म समभाव की बात करते हुए भी इस्लाम की श्रेष्ठता को साबित करना नहीं भूलते । अपने आप को अबुल उलाइया सिलसिले से जुड़ा हुआ कहते हैं ।
जो लोग अभी भी सारंगी के साथ घर घर घूम कर गीत गाने और मांगने का काम करते हैं वे सुबह पांच बजे तक बस्ती से निकल जाते हैं और आस पास के इलाकों में अपना गीत सुनाकर अनाज और पैसे मांगते हैं । कई बार तो ये हप्तों, महीनों की लंबी यात्रा पर निकल जाते हैं । राजा भर्तहरि और गोपीचंद प्रसंग को ये विशेष रूप से गाते हैं ।
कथा शुरू होती है उज्जयिनी शहर के राजा विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन से जिनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि वो विक्रमादित्य से बड़े थे। कथाओं के अनुसार भर्तृहरि की दो पत्नियां होने के बावजूद उन्होंने पिंगला नामक रानी से तीसरा विवाह किया को कि बहुत सुंदर थीं । भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे।
इसी बीच गुरु गोरखनाथ का आगमन भर्तृहरि के यहां हुआ। गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया गया। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा को एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।
भर्तृहरि ने वह फल स्वयं न खाकर अपनी तीसरी पत्नी को दे दिया । रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। अतः रानी ने फल कोतवाल को दे दिया । वह कोतवाल एक वेश्या से प्रेम करता था अतः उसने फल उसे दे दिया। वेश्या अपने घृणित कार्य को सदा जवान रहकर नहीं करना चाहती थी । उसे लगा फल तो राजा को खाना चाहिए ताकि वे लंबे समय तक प्रजा की सेवा कर सकें ।
जब वही फल घूम फिर कर राजा के पास वापस आ गया तो उन्होंने इसकी गहरी छानबीन कराई । छानबीन से उन्हें अपनी प्रिय रानी पिंगला की बेवफ़ाई का पता चला । इससे आहत होकर उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में तपस्या शुरू कर दी। कहते हैं कि इसी गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी। उन्होंने वैराग्य शतक ,श्रृंगार शतक और नीति शतक नामक ग्रंथों की रचना भी की । वैसे लोक में इस कथा के अन्य कई रूप भी प्रचलित हैं जिनमें मृग शिकार की भी घटना का वर्णन है ।
खजुरन के अतिरिक्त भी आस पास के कई गावों में जोगी रहते हैं जो कि हिंदू हैं । गांव में स्थायी रूप से बसकर जोगी के रूप में इनका कार्य जारी है । इनकी नई पीढ़ी इस पेशे को नहीं अपना रही । उनके रहन सहन में भी काफी बदलाव आ गया है । सारंगी के साथ इनके गायन की यह विशेष शैली कई अन्य लोक कलाओं के साथ धीरे धीरे दम तोड़ रही है ।
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
डॉ. उषा आलोक दुबे
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