Saturday, 19 December 2020

ठुमरी की ठनक और ठसक का दस्तावेज़ ।

ठुमरी की ठनक और ठसक का दस्तावेज़ ।
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में अध्येता के रूप में दो वर्षों तक जिस समर्पण और निष्ठा के साथ डॉ. ज्योति सिन्हा अपने शोधकार्य में लगी रहीं, उसके प्रतिफल के रूप में 614 पृष्ठों की यह पुस्तक हमारे सामने है । पुस्तक का शीर्षक है –“बनारसी ठुमरी की परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी ) । पुस्तक का प्रथम संस्करण वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ । प्रकाशक रहा स्वयं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला, हिमाचल प्रदेश । डॉ. ज्योति सिन्हा अपने शोध आलेखों एवं पुस्तकों के माध्यम से संगीत के विभिन्न पक्षों पर अकादमिक योगदान देती रही हैं । लेकिन यह पुस्तक उनकी एक “नई पहचान” गढ़ती सी दिख रही है । इस पुस्तक के माध्यम से ज्ञात होता है कि इन ठुमरी गायिकाओं ने अपने संघर्ष को समयानुकूल रूपांतरित करने एवं उसे धार देने में कोई कमी नहीं छोड़ी । ऐसा इसलिए ताकि जीवन जीना थोड़ा सरल हो सके और कला का सफ़र अधिक खूबसूरत । ये गायिकायें अपने जीवन की ही नहीं अपितु अपनी कला की भी शिल्पी रहीं । इन डेरेवालियों, कोठेवालियों के निजी जीवन के नजाने कितने ही तहख़ाने अनखुले रह गये । कितनी ही सुरीली आवाज़ोंवाली बाई जी के नाम गुमनामी में ही दफ़न हो गये । लेकिन समय की धौंकीनी में इनके ख़्वाब हमेशा पकते रहे । इन गायिकाओं ने अपने दर्द को भी अपनी गायकी से एक ख़ास तेवर दिया । इन गायिकाओं के जीवन से बहुत से रंग और मौसम सामाजिक व्यवस्था ने बेदख़ल कर दिये थे । बावजूद इसके इनके जीवन में स्वाद लायक नमक की कोई कमी नहीं थी । ये हमेशा नयेपन का उत्सव मनाते हुए आगे बढ़ी । इनके जीवन में संघर्ष और संगीत की निरंतरता असाधारण रही । इनकी ठुमरी आज़ लोकचित्त के इंद्र्धनुष सी है । यह ठुमरी न जाने कितनी ही खोई हुई आवाज़ों का इक़बालिया बयान है । बड़ी मोती बाई , रसूलन बाई, विद्याधरी बाई, काशी बाई, हुस्ना बाई, जानकी बाई, सिद्धेश्वरी देवी, अख्तरी बाई, जद्दन बाई, राजेश्वरी बाई, टामी बाई, कमलेश्वरी बाई, चंपा बाई , गौहर जान, मलका जान, केसर बाई केरकर, सितारा देवी और गिरजा देवी तक की पूरी ठुमरी गायकी की परंपरा इस पुस्तक के माध्यम से संरक्षित हो गई है । सामगान, ध्रुवागान, जातिगान, प्रबंध, ध्रुवपद, धमार, ख़्याल, ठुमरी, टप्पा, गजल, क़व्वाली, होरी, कजरी, चैती इत्यादि सांगीतिक रूपों से भारतीय संगीत हमेशा ही प्रस्तुति पाता रहा है । इन्हीं में बनारस की एक महत्वपूर्ण गायकी परंपरा “ठुमरी” की रही है जो गेय विधा के रूप में प्रसिद्ध मूल रूप में एक “नृत्य गीत भेद” है । ठुमरी भारतीय संगीत के “उपशास्त्रीय वर्ग” में स्थान बनाने में सफल रही है । यह शृंगारिक एवं भक्तिपूर्ण दोनों ही रूपों में प्रस्तुत की जाती रही है । 19वीं शताब्दी में ध्रुवपद और ख़याल की तुलना में इसकी लोकप्रियता अधिक बढ़ी । स्त्रियों के जिस वर्ग ने इस गायकी को अपनाया उन्हें गणिका, वेश्या, नर्तकी, बाई इत्यादि नामों से संबोधित किया गया । इसे “तवायफ़ों का गाना” कहते हुए इससे जुड़ी स्त्रियों को हेय दृष्टि से ही देखा गया । इन स्त्रियों को समाज के सम्पन्न और विलासी पुरुषों का संरक्षण प्राप्त होता था । ये अपनी कला के दम पर नाम और शोहरत पाती थी । आर्थिक और कलात्मक वर्चस्व के साथ - साथ अपरोक्षरूप से सामाजिक दबदबा भी ये हासिल करती थीं । इनका यह दबदबा इनके संरक्षकों के माध्यम से होता था । लेकिन जन सामान्य के बीच ये “बुरी स्त्री” के रूप में ही जानी जाती रहीं । इनके जीवन में पुरुषों की अधिकांश सहभागिता सिर्फ़ मनोरंजन और आनंद के लिए ही रही । इनका निजी जीवन संपन्नता के बावजूद संवेदना और प्रेम के स्तर पर त्रासदी का निजी इतिहास रहा है । इन्हें सामाजिक नैतिकता और आदर्श के लिए हमेशा “खतरनाक” माना गया । जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद इन गायिकाओं ने अपनी कला साधना में कोई कमी नहीं रखी । इनमें से कई गायिकायें 10 से 20 भाषाओं में गाती थीं । अपनी नज़्में ख़ुद लिखती एवं उनकी धुन बनाती । तकनीकी बदलाव के अनुरूप अपने आप को तैयार किया । गौहर जान और जानकी बाई ने ग्रामोंफोन की रिकार्डिंग में अपना परचम लहराया । गौहर जान ने बीस से अधिक भाषाओं में 600 से अधिक रिकार्डिंग किये । इसी रिकार्डिंग की बदौलत गौहर देश ही नहीं विदेश में भी मशहूर हुई । जद्दन बाई ने सिनेमा संगीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया । अपनी बेटी नरगिस को उन्होने कामयाब अभिनेत्री बनाया । ग्रामोंफोन, संगीत कंपनी, रंगमंच और सिनेमा में इन गायिकाओं ने अतुलनीय योगदान दिया । इनमें से अधिकांश की व्यापक चर्चा इस पुस्तक में की गई है । इस पूरी पुस्तक को अध्ययन-अध्यापन की सुविधा की दृष्टि से सात अध्यायों में वर्गीकृत किया गया है । प्रथम अध्याय ठुमरी की उत्पत्ति,विकास एवं ऐतिहासिक संदर्भों पर केन्द्रित है । इसमें ठुमरी की शैलियाँ, अंग, उपांग इत्यादि की भी चर्चा है । दूसरा अध्याय ठुमरी के सांगीतिक तत्व से संबन्धित है । इसमें राग, ताल, वाद्य, भाषा, साहित्य, रस, भाव, सौंदर्य, लोकतत्व और लोकधुन से जुड़ी जानकारी प्रस्तुत की गई है । तीसरा अध्याय बनारस संगीत परंपरा एवं बनारसी ठुमरी से संबंधित है । अध्याय चार ठुमरी गायिकाओं पर केन्द्रित है । उनकी परंपरा और सृजन संदर्भों की यहाँ व्यापक चर्चा है । अध्याय पाँच ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियों एवं उपलब्धियों से संबंधित है । अध्याय छः उन तमाम संदर्भों पर केन्द्रित है जो ठुमरी के विकास में महत्वपूर्ण कारक रहे । अध्याय सात उपसंहार के रूप में दर्ज़ है । अंत में संदर्भ ग्रंथ सूची है जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है । इस सूची में 222 पुस्तकों एवं पत्र- पत्रिकाओं की जानकारी है । भविष्य में इस तरह के शोध कार्यों के लिए यह सूची बहुत ही सहायक होगी । इस पुस्तक ने बनारस को ठुमरी के संदर्भ में चित्रित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । दालमंडी, नारियल बाजार, राजा दरवाजा का कोठेवालियों का इलाक़ा, इनकी शान ओ शौकत और संगीत परंपरा का व्यापक वर्णन है । साथ ही नौका विहार, जल विहार, होली, जन्माष्टमी, सावन, बुढ़वा मंगल और गुलाब बाड़ी की संगीत माफ़िलों की भी विधिवत चर्चा की गई है । ठुमरी को नवीनता और जनप्रियता इसी बनारस से मिली । संगीत घरानों एवं गुणी उस्तादों के बीच ठुमरी बनारस में ही चमकी । 1790 से 1850 तक का समय ठुमरी और ठुमरी गायिकाओं के लिये काफी उत्साह जनक रहा । लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद काफी कुछ बदल गया । अंग्रेज़ वेश्याओं में दिलचस्पी तो लेते रहे पर “नेटिव म्युजिक” को कोई तवज्जो नहीं देते थे । इसके संरक्षण की उन्होने कभी कोई ज़रूरत नहीं समझी । तवायफ़ों के क्रांतिकारियों से संबंध और उन्हें सहायता पहुंचाने की कई बातों के सामने आने के बाद अंग्रेज़ हुकूमत सख़्त हो गई । “ब्रिटिश क्राउन ला” इसी सख्ती का परिणाम था । इसी क़ानून द्वारा सभी तवायफ़ों को वेश्याओं की श्रेणी में रखकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित कर दिया गया । इसीतरह सन 1946 से 1952 तक एक सरकारी आदेशानुसार उन महिलाओं के गायन प्रसारण पर पाबंदी थी जिनका निजी जीवन सार्वजनिक तौर पर लांछित माना गया । ऐसे कई संदर्भ इस पुस्तक में मिलते हैं । हर तरह के शोध कार्यों की अपनी सीमाएं होती हैं । इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह बराबर महसूस हुआ कि - • कई ठुमरी गायिकाओं के नाम का उल्लेख तो पुस्तक में है लेकिन उनकी व्यापक चर्चा नहीं है । संभवतः यह उनसे जुड़ी सामग्री के अभाव के कारण भी हो सकता है । • ठुमरी गायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक क्रमबद्ध तरीके से जादा व्यवस्थित तरीके से सामने रखा जा सकता था । • स्त्रीवादी और मार्क्सवादी सिद्धांतों को कई जगह जिस तरह से उल्लेखित किया गया है वह महत्वपूर्ण तो है, लेकिन व्यापक विवेचना और संदर्भों की कमी खटकती है । • कई बार विश्लेषण बहुत एकांगी और सपाट सा लगता है । इसी तरह जो बातें इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती हैं, वे निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझी जा सकती हैं - • सहज, सरल भाषा और छोटे - छोटे वाक्यों में तथ्यों की प्रस्तुति । • विषय से जुड़ा बड़ा संचयन कार्य । • ठुमरी गायिकाओं की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों की तथ्यगत विवेचना का प्रयास । • बनारस की ठुमरी परंपरा को गहन रूप में प्रस्तुत करना । • स्त्री जीवन के संघर्ष को प्रेरक रूप में नई पीढ़ी के सामने रखना । समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि डॉ. ज्योति सिन्हा जी द्वारा किया गया बनारसी ठुमरी पर यह कार्य एक मील का पत्थर है । वे उस साहित्यिक परंपरा का हिस्सा बन चुकी हैं जिसमें कामेश्वरनाथ मिश्र, विश्वनाथ मुखर्जी, डॉ. शत्रुघ्न शुक्ल, भगवत शरण उपाध्याय और गजेन्द्र नारायण सिंह जैसे नाम लिये जाते रहे हैं । भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के महत्वपूर्ण प्रकाशन कार्यों में यह पुस्तक भी शामिल रहेगी । डॉ. मनीष कुमार मिश्रा सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण-पश्चिम, महाराष्ट्र Manishmuntazir@gmail.com मो- 8090100900

No comments:

Post a Comment

Share Your Views on this..

What should be included in traning programs of Abroad Hindi Teachers

  Cultural sensitivity and intercultural communication Syllabus design (Beginner, Intermediate, Advanced) Integrating grammar, vocabulary, a...