Wednesday 21 October 2020

धमाल : संघर्ष का इकबालिया बयान ।



धमाल : संघर्ष का इकबालिया बयान   ।

सूफी संगीत के प्रभाव से जो गायन - शैली भारत में विकसित हुई उनमें ‘कव्वाली’ प्रमुख रही है। कव्वाली के साथ ही गुजरात के   ‘सिद्दी’  संप्रदाय के नृत्य और गायन शैली ‘गोमा’ और ‘धमाल’ भी सूफियों की परंपरा से ही विकसित हुए हैं। पश्चिमी गुजरात के राज पीपला जंगलों के नजदीक गोरीपीर ( सोलहवीं शताब्दी )की खानकाह है।  सिद्दी  पूर्वी अफ़्रीका के लोग हैं,जो गुजरात, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में स्थायी निवास करते हैं। ‘मलंगा’ एक अफ़्रीकी मूल का वाद्ययंत्र है। ‘गोमा’ शब्द सवाहिली ( Swahili)  भाषा का है जिसका अभिप्राय धार्मिक उत्सव मनाने से है। अफ्रीकी मूल के सिद्दी समुदाय के इस लोक नृत्य में विशिष्ट मुखाभिनय और वन्य जीवन से अनुप्राणित आहार्य के साथ  संगीत की जादुई लय-ताल का समावेश विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है ।

‘धमाल’ एक धार्मिक नृत्य की शैली रही है जो कि 19 वी शताब्दी से हिंदू - मुस्लिम सभी द्वारा समान रूप से मनायी /प्रस्तुत की जाती रही है। वैसे धमाल नामक एक शैली खुसरो ने शुरू की थी । इस शैली में लोग खड़े होकर अपने पैरों से एक गोल वृत्त बनाते हैं और विशेष ताल पर नृत्य करते हैं । सिद्दी  फकीर औरतों, बच्चों  के साथ रहते थे और मुस्लिम व हिंदू दोनों समाज के पीर, फ़कीर, साधू-संत, दरवेश इत्यादि से संबंध रखते थे । इसी तरह ही बाउल फकीरी  परंपरा बंगाल -बांग्लादेश में पायी जाती है। आऊल, बाउल,फ़कीर,साई,दरबेस,जोगी, सेन, नेरा- नेरी, कर्ताभाजा, किशोरी भाजा, सिद्दी  और भाट जैसे समुदायों में काफ़ी समानता रही है । इनमें हिन्दू, मुसलमान दोनों ही रहते हैं । 

अफ़्रीकी मूल के लोगों का गुजरात आना कब और कैसे हुआ, इस संदर्भ में विचारकों के अलग अलग मत एवं मान्यताएं हैं । कुछ लोग यह दावा करते हैं कि पहली बार  सूडान, तंजानिया, युगांडा आदि से विभिन्न कबीलों के लोग गुजरात के भरुच पोर्ट पर उतरे थे।  लेकिन ये कैसे और किन परिस्थितियों में यहां आए यह अज्ञात है । एक दूसरा वर्ग यह  मानता है कि पुर्तगालियों ने अफ्रीकी कबीलाइयों को जूनागढ़ के तत्कालीन नवाब को भेंट में दिया था। लेकिन इसके भी ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलते । लेकिन यह मान्यता अधिक ठोस ज़रूर लगती है ।  कबीले के लोग यह मानते हैं कि हजरत बाबा गोर ने इन कबीलाइयों को संगठित कर इनके समुदाय को ’सिद्धि’ /सीद्दी घोषित किया। यह स्थान भरुच से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 
         बाबा हजरत जहां रहे वह स्थान हजरत बाबा गोर कहलाया। जहां सिद्धि समुदाय बाबा हजरत की अकीदत में हर साल जून या जुलाई महीने में इकट्ठा होकर उनकी आराधना करता है। भारत में इस समुदाय के करीब 70 हजार लोग हैं। इनमें से लगभग 10 हजार गुजरात में हैं। 
सिद्दी जनजाति गुजरात के प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक है और इस जनजाति को सिद्धि, शीदी और हब्शी के नामों से भी जाना जाता है। गुजरात के अलावा, सिद्दी आदिवासी समुदाय कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में रहता है। सिद्दी शब्द अरबी शब्द `सय्यिद` या` स्यादि` की व्युत्पत्ति है। इसका अर्थ है बंदी, या दास। इस समाज के कई कलाकार पढ़े लिखे भी हैं और वे पूरी दुनियां में अपनी कला के प्रचार प्रसार का काम कर रहे हैं ।

         कुछ चिंतकों का यह भी मानना है कि वर्तमान के इस सिद्दी आदिवासी समुदाय के मूल अफ्रीकी पूर्वज 10 वीं शताब्दी के दौरान अरब व्यापारियों के साथ भारत आए थे। पहले ये लड़ाई के सैनिक या रजवाड़ों में मेहनतकश मजदूरों के रूप में  काम कर रहे होंगे ।  कालांतर में  इन सिद्दी जनजातियों में से कई ने घरेलू नौकरों के रूप में और खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करना शुरू किया होगा । आम लोगों के बीच आसानी से घुल मिल न पाने या अपना अलग समुदाय बनाने के लिए, इन सिद्दी जनजातियों में से कुछ ने वन क्षेत्रों के अंदरूनी हिस्सों में शरण ली। आगे चलकर इन्होंने अपने आप को धीरे धीरे अधिक व्यवस्थित करते हुए 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में, जंजीरा और जाफराबाद प्रांतों में, छोटी सिद्दी भूमि बनाई । 
 मुगलों के समय से ही ऐसे अफ़्रीकी मूल के गुलाम भारत में आने लगे थे । इन्हें भारत लाने और कई तरह के कार्यों में  जोड़ने की परंपरा पुर्तगालियों ने ही शुरू की । कई इतिहाकारों का यह भी मानना है कि मराठों और मुगल शासकों के बीच संघर्ष में सिद्दी जनजातियों ने भी पश्चिम भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । इतना ही नहीं अपितु अंग्रेजों के शासन काल में सिद्दी जनजातियों से कई  लोग सैन्य और सरकारी नौकरी में शामिल रहे ।
           आज इनकी स्थिति में काफ़ी बदलाव आ चुका है । खान पान, रहन सहन , बोली भाषा सभी कुछ व्यापक स्तर पर बदल चुकी है । अपनी मूल भाषा भूल चुके इस सिद्दी समाज की नई पौध  ने  हिंदी भाषा  के साथ साथ स्थानीय बोली - भाषा में  बात व्यवहार करना सीख लिया है।वर्तमान में  इनकी आबादी गुजरात के कच्छ,ताला गीर, जाजपीपला, अहमदाबाद, भारूच, रतनपुर, झगडिय़ा और सूरत के अलावा कर्नाटक और अंदमान निकोबार द्वीप समूह तक फैली हुई दिखाई पड़ती है । 

            समय बीतने के साथ इनकी प्राचीन परंपरा और संस्कृति को भी नया रूप मिला । अपने नृत्य, संगीत, लोकगीत, आदि कलाओं का इन्होंने कई परिवर्तनों के साथ जतन भी किया है । सिद्दी  समुदाय अपने पूर्वजों की पूजा करने की पुरानी प्रथा का आज भी  पालन करता है। इसे हिरियारू भी कहा जाता है। समय के साथ साथ इन्होंने कई धर्मों, पंथों और मान्यताओं को अपना लिया । हिंदू , ईसाई और इस्लाम धर्म इन्होंने समय समय पर अपना लिया । शादी विवाह के मामले में, इन सिद्दी जनजातियों को कुछ आरक्षण मिला हुआ है। अंतर्जातीय विवाह सिद्धियों के बीच कड़ाई से निषिद्ध है लेकिन इसमें भी व्यावहारिक स्तर पर बदलाव की सुगबुगाहट दिखने लगी है ।
        धमाल के नर्तक पहले भेड़िये या बाघ की खाल का उपयोग कमर के नीचे पहनने के लिए करते थे। समय के साथ इसमें बदलाव आया और वे कपड़े पहनकर उसपर मोरपंख बांधने लगे ।  अपने सिर में ये नर्तक खपच्चियों की टोपी, बाजूूूबंद और गले से कमर तक का खास तरह का बना पट्टा पहनते हैं। अपने चेहरे और शरीर पर  ये कई तरह के आदिवासी परंपरा के चिन्ह आज भी बनाते हैं । 

       यह लोकप्रिय नृत्य सिद्धि समुदाय के लोग अपने पूर्वज बाबा हज़रत की आराधना में करते हैं।  इस नृत्य को सिद्दी समुदाय के लोग अफ्रीकी ’गोमा’ संगीत पर  प्रस्तुत करते हैं, गोमा शब्द न्गोमा से बना है जिसका अर्थ ’ड्रम्स’ होता है।इस  नृत्य शैली में ड्रम के संगीत का अहम स्थान है। नृत्य के समय तेज और धूम-धड़ाके वाला संगीत दर्शकों को लय में थिरकने को मजबूर कर देता है। इस डांस के लिए जो ड्रम बाबा की मजार पर रखा हुआ है, वह इतना बड़ा और भारी है कि उसे चार लोग मिलकर ही नहीं  उठा सकते हैं, किसी अकेले के लिए उसे उठाना संभव नहीं । नृत्य के बीच समूह के कलाकार कई तरह के करतब भी दिखाते हैं । जैसे कि हवा में नारियल को उछाल उसे सर से फोड़ना, मुंह से आग के गोले निकालना इत्यादि ।
           इस आदिवासी समाज और इसके नृत्य को लेकर धमाल शीर्षक से कवियत्री  मुक्ता की एक कविता भी है जो इस समाज के संघर्ष को बड़ी सूक्ष्मता से दर्ज़ करता है । मुक्ता की यह कविता मनो इस समाज के संघर्ष का इकबालिया बयान हो । कविता निम्न रूप से है - 

"आदिवासी नर्तकियाँ नाचती हैं ‘ सिद्धी धमाल ‘
आदिवासी नर्तकियों की उफनती छातियों से दूध की नदी बहती है
अग्निगर्भा ऋतंभरायें परिक्रमा करती हैं पृथ्वी की
‘ सिद्धी धमाल ‘ नाचती आदिवासी नर्तकियों नें
सुरक्षित रखा है काली नस्लों को गर्भ में
आदिवासी नर्तकियों के पूर्वज गुम नहीं हुए हीरे की खदानों में
वे उतरते हैं नृत्य की थाप पर
संगीत की प्रतिध्वनियों में गूँजते हैं पूर्वजों के स्वर
आज भी वे नाचते प्रतीत होते हैं आदिवासी नृत्य ‘ सिद्धि धमाल ‘
आदिवासी नर्तकियाँ नाचती हैं घने जंगलों में, सागर तट पर
और कभी-कभी घनी बस्तियों में
सिद्धि नर्तकियों के पुरुष साथी अभिनय करते हैं वन्य पशुओं का
बाघ, भालू, शेर और जंगली भैसे जैसे दुर्दांत पशुओं का........."

          यह समाज समय के साथ अपनी संगति को बिठाते हुए भी अपनी प्राचीन कला के संरक्षण में जुटा हुआ है । ये कलाएं वर्तमान के कटघरे में अतीत के संघर्ष का इकबालिया बयान हैं । ये धमाल का कमाल है ।

 डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
    सहायक प्राध्यापक 
   के . एम. अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण पश्चिम महाराष्ट्र

    डॉ. उषा आलोक दुबे
    सहायक प्राध्यापिका
एम. डी. कॉलेज, परेल, मुंबई 



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