Tuesday, 16 June 2020

नेपोटिज्म ( Nepotism) : हिंदी सिनेमा का घृणित चेहरा ।

नेपोटिज्म  ( Nepotism) : हिंदी सिनेमा का घृणित चेहरा ।

सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद फिल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज्म / भाई भतीजावाद / कुनबा परस्ती की चर्चा गरम है । फ़िल्म निर्माण से लेकर वितरण तक की पूरी प्रणाली पर कुछ घरानों का कब्ज़ा है । सरकार का इनमें कोई दखल नहीं । ये सच्चाई भयानक है । इसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । इस संगठित अपराध की कलई खोलकर इनके खिलाफ़ मुखर होने का समय है । जिन कंपनियों एवं व्यक्तियों पर आरोप लग रहे हैं उन्हें अपनी सफ़ाई देनी चाहिए ताकि सच्चाई का आकलन किया जा सके । सिनेमा के दुनियां की यह घृणात्मक सच्चाई हो सकती है, इसका इलाज़ ज़रूरी है ।
किसी को उसकी योग्यता के आधार पर काम मिले न कि किसी की कुंठा और घमंड की पूर्ति के रूप में । परिवारवाद हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री पर कितनी हावी है यह हम सब देख रहे हैं ।
अयोग्य माथे पर तिलक न लगे यह जितना ज़रूरी है उतना ही यह भी ज़रूरी है कि योग्य लोगों के ख़िलाफ़ सामोहिक षड्यंत्रों का विरोध हो ।
कंगना राणावत, शेखर कपूर, रवीना टंडन,अभिनव कश्यप जैसे कलाकार जो गंभीर आरोप लगा रहे हैं उनपर गंभीरता से जांच होनी चाहिए । विवेक ओबेरॉय, अर्जित सिंह और नील जैसे कलाकारों के पीछे क्यों कुछ स्थापित कलाकार शिकारी कुत्तों के तरह लग जाते हैं ?
ऐसे प्रोडक्शन हाउस के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए । ये समाज का चेहरा और विचार दोनों विभत्स करने में लगे हुए हैं ।
किसी की विवशता और लाचारी का कारक बनकर फलने फूलने वाले लोग मनुष्य कहलाने के हकदार कैसे हो सकते हैं ? इनका पर्दाफाश ज़रूरी है ।
ये वही कुनबा परस्ती है जिसने आजादी के बाद से ही इस देश की व्यवस्था रूपी जड़ों को दीमक की तरह चाटना शुरु कर दिया । ये वही कुनबा परस्ती है जो आप को काटने नहीं सिर्फ चाटने के लायक बनाना चाहती है ।
इस मानसिकता के जबड़ों में ईमानदार व्यक्ति का विश्वास टूट जाता है । वह हताशा, निराशा और कुंठा का शिकार हो जाता है । इसी हताशा में कई बार कितनी ही प्रतिभाएं आत्महत्या तक कर लेती हैं।
ये वही फ़िल्म इंडस्ट्री है जहां
1. ब्लैक मनी का बोल बाला जग जाहिर है ।
2. जहां कास्टिंग काउच जैसा घिनौना खेल होता है ।
3. जहां अंडर वर्ड का दखल हमेशा से रहा है ।
4. जहां परिवारवाद हावी है ।
5. जहां कुछ लोग / समूह भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नीचा दिखाने का लगातार प्रयास करते रहे हैं ।
6. ये वही हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री है जिसने हिंदी के कंधे पर हमेशा बंदूक रखकर चलाई । हिंदी को कमतर आंका ।
   ऐसी इंडस्ट्री पर नकेल नहीं कसा गया तो यह राष्ट्रीय और मानवीय हितों के लिए बहुत घातक होगा ।

                         डॉ मनीष कुमार मिश्रा
                          कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र ।

No comments:

Post a Comment

Share Your Views on this..

What should be included in traning programs of Abroad Hindi Teachers

  Cultural sensitivity and intercultural communication Syllabus design (Beginner, Intermediate, Advanced) Integrating grammar, vocabulary, a...