Saturday, 27 June 2020

शकुंतिका : विश्वास की परंपरा का निर्माण ।


शकुंतिका : विश्वास की परंपरा का निर्माण ।
                                           डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
                                                                       



                  भगवनदास मोरवाल का जन्म 23 जनवरी 1960 को नगीना, मेवात में हुआ । आप ने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की । पत्रकारिता में डिप्लोमा भी किया । आप के अभी तक प्रकाशित उपन्यास हैं काला पहाड़ (1999), बाबल तेरा देस में (2004), रेत (2008), नरक मसीहा (2014), हलाला (2015), सुर बंजारन (2017), वंचना (2019) तथा शकुंतिका (2020) इनके आतिरिक्त चार कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह और कई संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आप के लेखन में मेवात क्षेत्र की ग्रामीण समस्याएं प्रमुखता से उभर कर सामने आती हैं। आप अपनी रचना शीलता के लिए कई सम्मानों से विभूषित हो चुके हैं ।

               शकुंतिका आप का नवीनतम उपन्यास है । उपन्यास का कथानक सपाट और भाषा सहज – सरल है । यह छोटा सा उपन्यास भारतीय समाज की उस धारणा में आये बदलाव को रेखांकित करता है जो लड़कियों को लड़कों से कमतर आँकती रही है । लेकिन जिस बदलाव को लेखक दिखा रहा है और जितनी सहजता से चित्रित कर रहा है वह भारत के समाज का कितना वास्तविक चित्र है, यह विचारणीय है ।

                “बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ” जैसी सरकारी योजनाएँ हरियाणा से शुरू हुई । यह वही राज्य है जहां लड़के – लड़कियों का अनुपात पूरे देश में सबसे ख़राब रहा है । विवाह के लिए दूसरे राज्यों से लड़कियों को लाने के लिए यह समाज मजबूर हुआ । दूसरे राज्यों से आयी ये लड़कियां “पारो” कहलाईं । इसी राज्य से जुड़े मोरवाल जी अगर शकुंतिका जैसे उपन्यास को लिखते हैं तो निश्चित तौर पर यह समाज की उस कटु सच्चाई की पृष्ठभूमि ही रही होगी जिसने उन्हें ऐसे विषय को चुनने के लिए मजबूर किया होगा । ऐसे विषयों पर सरकारी अभियान, फिल्में इत्यादि भी लगातार इस दशक में हमें झकझोरती रहीं । “ मारी छोरियाँ छोरों से कम हैं के ?” दंगल फ़िल्म का यह संवाद उस बराबरी की ही वकालत करता हुआ दिखाई पड़ता है । इसी दशक के अंतिम पड़ाव पर मोरवाल जी शकुंतिका लिखते हैं ।
           
            पुनर्वासित लोगों की कालोनी के दो परिवार इस उपन्यास के केंद्र में हैं । अपितु ऐसा कहना चाहिए कि इन दोनों परिवारों की मनोदशा ही इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र है । वैसे ही जैसे अमरकांत के उपन्यास “इन्हीं हथियारों से” के केंद्र में बलिया है । वही केंद्रीय पात्र भी है । दुर्गा और अग्रसेन चार पोतों पर इतराते तो भगवती और दशरथ तीन पोतियों से चिंतित रहते । दूसरे बेटे को शादी के इतने वर्षों बाद भी बच्चे न होने से उनका दुख दोगुना हो जाता । लेकिन समय के साथ यह साबित हो जाता है कि पोतियाँ पोतों से अधिक योग्य होती हैं । भगवती अपने दूसरे बेटे को इस बात के लिये मना लेती है कि वे  बच्चा अनाथालय से गोद ले आयें । इतना ही नहीं अपितु वे एक लड़की को ही गोद लें इसपर भी परिवार में सहमति बनती है ।

           इस सहमति और विचार की सबसे बड़ी सूत्रधार चार पोतों वाली दुर्गा है जो अपने अनुभव के आधार पर भगवती को पोतियों के महत्व को समझा पाती है । इस तरह दुर्गा और भगवती का व्यक्तिगत अनुभव संयुक्त रूप से लड़कियों के पक्ष में दिखाई पड़ता है । वह भगवती से कहती है,“भगवती, उनसे जाकर पूछो जिनके लड़कियाँ नहीं हैं l अब हमारे यहीं देख लो l सारी की सारी कौरवों की फ़ौज़ पैदा हो गयी l मैं तो ऊपरवाले से रात-दिन यही बिनती करती रहती हूँ कि बस हमें एक पोती दे दे l”1 परिवार में इनका कोई विरोध भी नहीं है ।



        दुर्गा भगवती को सलाह देते हुए कहती है कि, सुन, भगवती बुरा मत मानियो l इस वंश बढ़ाने की भूख ने हमारी बेटियों की दुर्गत की हुई है l थोड़ी देर के लिए मान लो तुमने लड़के को गोद ले लिया, तो इसकी क्या गारुंटी है कि वह तेरी इन पोतियों को बहन का दर्ज़ा दे ही देगा l कहीं ऐसा ना हो कि वह सारी जायदाद पर कब्जा कर बैठे, और तेरी ये पोतियाँ यहाँ के रुख़ों के लिये भी तरस जाएँ l इस बारे में अच्छी तरह सोच लेना l”2 इसतरह दुर्गा और भगवती अपने अपने भोगे हुए यथार्थ के आधार पर पोतियों के पक्ष में लगातार अपनी सकारात्मक राय रखती हैं । अग्रसेन और दशरथ दोनों ही अपनी पत्नियों से सहमत हैं । भगवती के बेटे बहू भी आज्ञाकारी हैं । इसतरह बड़ी सहजता से पूरा परिवार भगवती कि बात से सहमत होते हुए अनाथालय से लड़की गोद लेने के निर्णय को स्वीकार करता है । यद्यपि  इतनी अधिक सहजता और अनुकूलता उपन्यास को एकांगी तो बनाता है लेकिन अविश्वसनीय नहीं होने देता ।

          यही सहजता उपन्यासकार तब भी दिखाता है जब सिया और गार्गी के किसी बंगाली और पंजाबी से विवाह की बात सामने आती है । भारतीय समाज में अभी भी इतनी सहजता थोड़ी असहज़ लगती है । इस असहजता को उपन्यासकार बुलबुल की बिरादरी में ही शादी के माध्यम से छुपाता भी है लेकिन इसी विवाह में समस्या को दिखाकर वापस वे यह साबित करने में लग जाते हैं कि जरूरी नहीं कि माँ-बाप अपनी मर्ज़ी से जहां लड़कियों की शादी करें वहाँ सब ठीक ही हो । इसी बात को अधिक पुष्ट करने के लिये वे सिया,गार्गी और पीहू के वैवाहिक जीवन में कोई समस्या नहीं दिखाते । पूरे उपन्यास के कथानक को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि उपन्यासकार एक निश्चित फ़ार्मूले के साथ उपन्यास लिखता है जिसमें उपन्यास शिल्प के कई पक्ष कमजोर तो होते हैं लेकिन लेखन का उद्देश्य शत प्रतिशत पूर्ण होता है ।

        पीहू की कहानी उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । इसने उपन्यास के सौंदर्य को बढ़ाया है । यहाँ सहजता और स्वाभाविकता अधिक है । संदेश भी अधिक मुखर और व्यापक है । अनाथालय से गोद ली गयी पीहू विदेश में पढ़ने जाती है और बड़ी कार्पोरेट कंपनी में काम करती है । लेकिन वह हर साल अपने परिवार में लौटती है । उस अनाथालय में भी लौटती है जहां से वह गोद ली गयी थी । उस अनाथालय को मोटी रकम दान करती है ताकि उसके जैसी लड़कियों को बेहतर सुविधायें मिल सकें । उसका यह लौटना संवेदना और करुणा की मानवीय प्रतीति है जो विज्ञापित नारों और मूल्यों से परे है । यह जीवन की बेचैनियों का वह इंद्र्धनुष है जो सामाजिक न्याय चेतना को झकझोरता है ।

      अग्रसेन और दुर्गा के माध्यम से मोरवाल जी ने एक और सामाजिक समस्या की तरफ़ ध्यान खींचा है । बुढ़ापे में एकाकी जीवन जीने के लिये अभिशप्त माँ-बाप की समस्या । आज के आधुनिक जीवन की यह बहुत बड़ी समस्या है । अग्रसेन जीवन भर अपने बच्चों के लिये संघर्ष करते रहे । यही बेटे जब आर्थिक रूप से संपन्न हो गये तो माँ – बाप को अकेला छोडकर चले जाते हैं । लेकिन माँ-बाप की संपत्ति में उनकी रुचि बराबर बनी रहती है । जब अग्रसेन अपने बच्चों के बीच संपत्ति का बटवारा करते हैं तो वह मकान किसी को नहीं देते जिसमें वे रहते हैं । क्योंकि कहीं न कहीं उनके मन में यह आशंका रहती है कि अगर वे अपने जीते जी मकान किसी के नाम कर देंगे तो हो सकता है कि वह लड़का उन्हें घर से निकाल दे । इसी बात को लेकर उनके बेटों में दुख भी है । बटवारे के समय दुर्गा अभय से कहती है, नहीं कहा है, तो फ़िर भी कान खोलकर तुम सब सुन लो, अपने  जीते-जी मैं इस मकान के किसी को हाथ भी नहीं लगाने दूँगी l फ़िर चाहे कोई हमारी सेवा करे या ना करे ! किसी का क्या भरोसा कि इसे भी वसीयत में लिखवाकर कल हमें दर-बदर कर दे l एक यही तो आसरा बचा है, इसे भी तुम्हारे हवाले कर देंl”3  यह चिंता समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की चिंता है । जिस उपभोगतावादी संस्कृति में हम रह रहे हैं वहाँ क़ीमत हमारे सामाजिक मूल्यों पर कितना हावी हो चुकी है, उसका प्रमाण यहाँ मिलता है ।

         अग्रसेन की मृत्यु के बाद भी दुर्गा किसी बेटे के पास रहने नहीं जाती । वह बुढ़ापे और अकेलेपन से परेशान तो है लेकिन अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं करती । उसकी इसी स्थिति का जिक्र अपनी बेटी से करते हुए भगवती कहती है कि,  कुछ तो अकेलापन और कुछ बुढ़ापा l नहीं हुई होगी हिम्मत कुछ बनाने की l मैं कई बार समझा चुकी हूँ कि दुर्गा  चली जा अपने किसी बेटे के पास l इस उमर में कब तक बना- बना कर खाएगी, पर नहीं मानती है l बड़ी स्वाभिमानी औरत है l कहती है कि जब उन्हें माँ- बाप की जरूरत नहीं है, तो मुझे भी किसी औलाद की जरूरत नहीं है l”4  इन संवादों से स्पष्ट है कि दुर्गा के मन में अपने बेटों के लिये कितनी निराशा और छोभ है । बुढ़ापे में जब माँ बाप को बच्चों की जरूरत है तो वे उनसे अलग हो जा रहे हैं । वृद्धाश्रमों में ऐसे ही न जाने कितने माँ बाप बस अपने मरने के दिन गिन रहे हैं । यह हमारे आज के समाज की एक कटु सच्चाई है ।

         समग्र रूप से इस उपन्यास के बारे में यह कहा जा सकता है कि उपन्यासकार इस बात का समर्थक है कि लड़कियाँ किसी भी तरह से लड़कों से कम नहीं हैं । अपितु संस्कारों में वे उनसे श्रेष्ठ ही हैं । पढ़ लिखकर वो भी अपना मुस्तकबिल बना सकती हैं । इसलिये लड़के-लड़कियों के फरक को मिटाते हुए बालीदगी की नई रवायत नई कैफ़ियत क़ायम होनी चाहिए । योग्यता आत्मा का गुण है इसलिये जाति,धर्म,भाषा,रंग और लिंग के आधार पर सामाजिक भेदभाव दरकिनार किये जाने चाहिए ।
        रूढ़ परंपरागत मान्यताओं का कवच हमारी रक्षा नहीं कर सकेगा अपितु हमारे लिये घातक होगा । हमें आधुनिक भाव बोधों का अग्रदूत बनना होगा । वंचित-विरहित के बीच संभावनाओं का नया द्वार खोलना होगा । वैचारिक दारिद्रीकृत अवस्था से खुद को और समाज को बाहर निकालना होगा । सामाजिक पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना होगा । इसके लिये अपने समय से टकराना होता है । इस उपन्यास के माध्यम से मोरवाल जी वही काम कर रहे हैं । जीवन की प्रांजलता और प्रखरता को सतत क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । इस क्रियाशीलता की निरंतरता में ही जीवन का उत्कर्ष है । इसीलिए जीवन को समन्वयन की प्रक्रिया भी कहा गया है । कहते हैं कि साध्य अच्छा हो तो कोई भी साधन अच्छा है । लेकिन जब साहित्य की बात होती है तो उसकी हर विधा का अपना एक गुण होता है जिसकी अपेक्षा उस विधा विशेष की रचना में की जाती है । यद्यपि शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास कमजोर कहा जा सकता है लेकिन अपने उद्देश्यों में निश्चित ही बहुत महत्वपूर्ण है ।
      


संदर्भ :
1.   शकुंतिका – भगवनदास मोरवाल, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली -  वर्ष 2020, पृष्ठ संख्या 21
2.   वही, पृष्ठ संख्या 36
3.   वही, पृष्ठ संख्या 41
4.   वही, पृष्ठ संख्या 93

संदर्भ ग्रंथ :
1.        शकुंतिका – भगवनदास मोरवाल, -  वर्ष 2020
2.        सुर बंजारन - भगवनदास मोरवाल,-  वर्ष 2017
3.        हलाला - भगवनदास मोरवाल,  -  वर्ष 2015  
4.        वंचना - भगवनदास मोरवाल,  -  वर्ष 2019
5.        हिन्दी साहित्य का इतिहास – रामचन्द्र शुक्ल
6.        हिन्दी उपन्यास का इतिहास – गोपालराय
7.        हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास – डॉ रामचन्द्र तिवारी
8.        हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास – डॉ बच्चन सिंह

No comments:

Post a Comment

Share Your Views on this..

International conference on Raj Kapoor at Tashkent

  लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति केंद्र ( भारतीय दूतावास, ताशकंद, उज्बेकिस्तान ) एवं ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज़ ( ताशकं...