Monday, 18 May 2020

कोरोना काल में कविता

9. वे जा रहे हैं ।

मजबूर, असहाय और साधनहीन
हजारों स्त्री,पुरष, वृद्ध और बच्चे
सब चले जा रहे हैं
जाने की सबसे त्रासद
क्रिया के रूप में
जीवन व्याकरण की
जटिल संरचना के रूप में ।

भाषा के पास
उनके संबोधन के लिए
सिर्फ़ कुछ सर्वनाम हैं
जो अभागे विशेषणों से
त्राहि त्राहि कर रहे हैं
और संवेदनाएं
शिलाधर्मी होकर
आकाशधर्मिता का 
स्वांग रच रही हैं ।

मनुष्यता की पूरी संकल्पना
कितनी खोखली निकली
सारी शिक्षा, सारा ज्ञान
सिर्फ़ और सिर्फ़
कूड़े का कागज़ी ढेर
और विकास के सारे वादे
कागज़ की नाव ।

ऐसे समय में
बचे रहने की संभावनाओं को
ग्रहण लगा हुआ है
किसी कोरोना वायरस के कारण ही नहीं
मरते सपनों
हारते संकल्पों
और निकम्मी व्यस्थाओं के
खूनी पंजों में
आत्मविश्वास हारते
सर्वहारा के
टूटकर बिखर जाने से
बचे रहने की संभावनाओं को
ग्रहण लगा हुआ है ।

      --------------- डॉ मनीष कुमार मिश्रा
                        कल्याण ।

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