Thursday, 2 January 2020

मनीष : अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता के कवि



वर्तमान कविता जटिल जगत की यथार्थता तथा मानव की अनुभूतिजन्य आवश्यकता के मध्य संघर्ष कर रही है। त्रासदीपूर्ण विडंबना के दौर में अपने जीवन और साहित्य को लहूलुहान कर रहा है। ऐसे में कुछ कविताएं मूल्यों की रक्षा के लिए संजीवनली दे रही है तथा संबंधों को सहज बनाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान युग के भाव बोध को समझने और रंजीत करने की क्षमता जिन कवियों में नजर आती है उनमें से एक युवा कवि मनीष हैं।
हाल ही में उनकी दो रचनाएं ‘इस बार तेरे शहर में (2018)’ और ‘अक्टूबर उस साल (2019)’ प्रकाशित हुई हैं। दोनों रचना संग्रह भाव प्रवणता, विषय वैविध्य तथा प्रस्तुति योजना और शब्द शक्ति की दृष्टि से प्रशंसनीय हैं। इनमें जटिल यथार्थ को समेटने की शक्ति भी दिखाई पड़ती है।
‘कविताओं के शब्द’ कविता में कविता की भाषा के संवर्धन के महत्त्व व कवि की इस संदर्भ में दृष्टि स्पष्ट है। कवि काव्य की भाषा की उपयोगिता तथा संवेदनशीलता से भलीभांति परिचित है। स्त्री-पुरुष के यांत्रिक समानता के स्थान पर यथोचित समता व व्यक्तिनिष्ठता को महत्त्व दे कर स्त्रीत्व को पढ़ा गया है। ‘दुबली-पतली और उजली-सी लड़की’ ‘उसका मन’ ‘उसके संकल्पों का संगीत’ तुम जो सुलझाती हो’ यह निर्मला पुतुल के पठन के आग्रह को पूरा करने का प्रयास नजर आता है कि (तन के भूगोल से परे, स्त्री के मन की गाँठे खोल कर, पढ़ा है कभी तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास..)।
युवाकवि मनीष की दोनों रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता तथा उसके उलझे सूत्रों को स्पर्श किया गया है। प्रेम और आकर्षण के कार्यव्यापार में उद्दीपन व प्रतिकर्षण के पहलू प्रकाशित होते हैं। ‘तुम्हारे ही पास’, ‘तृषिता’, ‘कही अनकही’, ‘चांॅदनी पीते हुए’, ‘गांठा की गठरी’,‘बचना चाहता हूँ’ इत्यादि में प्रेम के प्रति जैविक व सामाजिक अंतर को उद्दात्ततापूर्वक परोसा गया है। संबंधों के प्रति ‘दूरी की छटपटाहट’ तथा ‘निकटता के अनछुएपन’ को आत्मीयतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। ‘मैं नहीं चाहता था’ में प्रेम के कलंकित विजय व गौरवपूर्ण पराजय को व्यंजित किया गया है। कई स्थानों पर प्रेम श्रद्धा के स्तर छूता प्रतीत होता है। अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता को कवि, ‘कि तुम जरूर रजना’ में उकेरने का सार्थक प्रयास करता है। ‘अनगिनत मेरी प्रार्थनाएं’,‘चाय का कप’ में कवि संबंधों की बुनियाद व उसके कोमलता व कांतता को प्रतिष्ठित करता है। ‘कही-अनकही’ में व्यिंतव की भिन्नता के बावजूद स्नेहशक्ति से दृढबंधित मनुष्य की विनम्र अपेक्षा झलकती है।
आधुनिक जीवन की जटिलताओं में प्रमुख है एक साथ कई भूमिकाओं को निभाना या उसमें अनुकूलतम उपलब्धि प्राप्त कर ल्ोना, कवि मनीष में ‘मौन प्रार्थना के साथ’ निष्पक्षतापूर्वक इसे समेटने और पाठकों में सहृदयता भर देने की प्रखर क्षमता है। सामाजिक आलोचनापरकता तथा व्यक्ति का इसमें उलझाव चिन्तनीय है। जो रचना संग्रह में कई बार उभर कर सामने आता है। आधुनिक जीवन का अजनबीपन, विसंगति बोध व रिक्त हृदय के त्रास में कवि ने ‘रिक्त स्थानों की पूर्ति’ जैसी रचनाएं भी हैं।
मनीष जी की कई रचनाओं में स्त्री सौंदर्यबोध व प्रेमदृष्टि छायावादी प्रतीत होती है विश्ोषकर पंत जी काव्य जैसी (सरल भौहों में था आकाश, हास में श्ौशव का संसार...)। स्निग्ध कोमल गात वर्णन व भावप्रवणता का स्तर मात्रात्मक दृष्टि से निःसन्देह कम होते हुए भी समान है परंतु ध्यातव्य है कि ‘जीवनराग’ जैसी कुछेक कविताओं को छोड़ दे तो अभिजात्यता की जगह मानक भाषा ही मिलती है। यह श्रद्धामूलक झुकाव ‘सवालों में बंधी’, ‘प्यार के किस्सों’ तथा ‘जीवन यात्रा’ में भावनात्मक पदचिन्ह छोड़ता चला जाता है।
अच्छा बिस्तर नींद की गारंटी नहीं है न ही धन सुख का है। कवि कई दैनिक जीवन की वस्तुओं जैसे ‘कैमरा’ से याद ‘पेन’ द्वारा नवीनता तथा ‘विजिटिंग कार्ड’ द्वारा मतलबी संबंधों पर व्यंग्य करते हैं।
आधुनिक साहित्य पर्यावरण चिंताओं व सतर्कतावों से भरा चिंतन बन गया है परन्तु ‘हे देवभूमि’ व ‘वह गीली चिड़िया’ में पर्यावरण भावभूमि पर समांगीकरण का प्रयास करता है। ‘अक्टूबर उस साल में’ कई कविताएं जैसे ‘मतवाल करुणामय पावस’, ‘बसंत का खाब कबीला’ में प्रकृति वर्णन व आयागमत विविधता की दृष्टि से श्रेष्ठ है। ‘भूली-भूली जनश्रुतियों ने’ में भी प्रकृति के प्रतीक बंद प्रतीत नहीं होते हैं।
अधिकांश कवियों के आरंभिक संग्रहों में स्वच्छंद भाववमन अधिक प्रदर्शित होता है परन्तु मनीष जी के संग्रह इससे भिन्न हैं जहाँ सहज भावनाओं का उच्छलन है। बावजूद इसके इसमें भाषाई साफगोई, तार्किकता व अनुभूति की विशिष्टता साहित्यिक संस्कारों से युक्त बना देती है जैसे ‘जब कोई किसी को याद करता है’, ‘जीवन के तीस बसंत’, ‘तुम मिलती तो बताता’, ‘यह पीला स्वेटर’, ‘कच्चे से इश्क’ आदि। प्रेम में अस्तित्व की अंतर्निभरता जो विलय तक पहुंचती है कहीं-हीं अचानक प्रखर हो उठती है जैसे ‘हे मेरी तुम’ रचना में हुई है।
इन काव्य संग्रहों में अन्तर्जगत की सिक्तता, मरुता और ग्रंथियाँ लंबे प्रवास पर निकल चुकी प्रतीत होती है। ‘आज मेरे अंदर की रुकी हुई नदी’, ‘विकलता के स्वप्न’,‘कृतघ्न यातना’ में कवि के उद्वेलन व संघर्ष के ताने-बाने बनते बिगड़ते गतिमान है।
मानवीय संबंधों की अनुभूती चेतना कई कविताओं में सहजता पूर्वक प्रवाहित होती गई है जो पाठकों के लिए कथ्य व कथन के अंतराल की नगण्यता के कारण अतिग्राह्य है, ‘मुझे आदत थी’ व ‘उस साल अक्टूबर’ जैसी कविताएं इस दिशा में आगे ल्ो जाती है।
कवि कलाकार होता है यह रंगरेज पाठकों के हृदय पृष्ठ पर शब्द तूलिका से मर्मस्पर्शी चित्र बनाता है। मनीष जी जैसा कवि हो और विषय बनारस जैसा शहर हो तो बस कहना ही क्या? लगता है जैसे ‘इस बार तेरे शहर में’, ‘बनारस के घाट’ देख ही आएं क्या? ‘लंकेटिंग’ फीलिंग भला कविताओं में कहाँ तक समाए? बहरहाल ‘अयोध्या’ ओर ‘मणिकर्णिका’ जैसी कविताएं पाठकों में जीवनमूल्यों के प्रति यह गहरी समझ विकसित करती है की जीवन नश्वर है और परंपरा का प्रवाह शाश्वत है।
हिन्दी प्रदेश में भाषाई क्ष्ोत्रवाद की स्थिति विचित्र है यह एक साथ जोड़ती व बाँटती है। ‘मैंने कुछ गालियाँ सीखी है’ में रचनाकार ने पाठकों को इस स्थिति में डाल दिया है जहाँ वह यथ्ोष्ट की तलाश में बेचैन हो उठता है। भाषाई तमीज हाशिए पर लटक रही है।
वर्तमान काव्य प्रवृत्तियों में प्रमुख है उत्तर छायावाद जहाँ मानव जीवन में असंगति बढ़ी है तथा गुंथ्ो हुए यथार्थ को पकड़ने की सतर्कता काव्य में भी विद्यमान है। ‘आत्मीयता’ में स्थिर मान्यताओं से जुड़ा धोखा उद्धाटित होता है। कवि मनीष ने स्थितप्रज्ञ हो इस चुनौती को स्वीकार किया है। भावना व संवेदना भी बाजारवाद से बच नहीं सकी है तथा यह भी समय व वनज के घ्ोरे में आ गया है - ‘स्थगित संवेदनाएं’ में कवि ने त्रासद मानवीय स्थिति को व्यंजित किया है। कवि हृदय की आत्मीयता व प्रेम रिश्तों की गरमाहट ‘वो संतरा’ जैसी कविताओं में दिखाई देती हैं जहाँ आत्मपरकता तथा अभिव्यंजनात्मकता दोनों ही प्रखर हैं।
बाह्य व आंतरिक स्थिति लगातर सुसंगत होने तथा एकात्मकता का आनंद उठाने के बारे में कविताओं विश्ोषकर ‘अक्टूबर उस साल’ संग्रह तथा कविता ‘वह साल वह अक्टूबर’ में उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करती है। जो शब्द चयन में सटीकता, संगीतात्मकता तथा वातावरण की गतिशीलता पाठकों को आकर्षित करती है। ऋतु सौंदर्य व मौसमी बहार साहित्य के लिए लम्बे समय से कच्चा माल रहा है परन्तु यहाँ यह भावों के साथ आंदोलित होता है।
स्त्री-पुरुष प्रेम व्यापार इन रचना संग्रहों में पाठकों को अधिक संस्कारित करता है तथा प्रतिशोध आधारित त्रुटि की संभावना को कम करता है। ‘बहुत कठिन होता है’ में कवि प्रेम के यथार्थ बिम्ब को प्रस्तुत करता है जहाँ एकान्तिक ठहराव मिलता है।
परिवर्तन ही शाश्वत है, हर पीढ़ी अपने संक्रमण तथा उसकी पीड़ा को ल्ोकर सजग, उत्सुक पर शिकायती रही है। ‘कुछ उदास परम्पराएं’ में परम्पराओं से विचलन तथा नई व्यवस्था के साथ सामंजस्य की कमी दिखाई पड़ती है।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक मान्य माध्यम है ल्ोकिन इसमें भाषाई आवरण में अपने मंतव्य छिपा ल्ोना तथा कलात्मकता का दुरूपयोग भी नया नहीं है। भाषा कई बार विनम्रतापूर्वक अन्याय को पोषित करती है तथा उस पर प्रश्न नहीं खड़ा करती परंतु कवि भाषा के लिबास में अभिव्यक्ति की सुगमता तथा खतरे से भिज्ञ है जैसे (दरख्तों को, कुल्हाड़ी के नाखूनों पर भरोसा है)।
सभ्यता के इतिहास में अन्याय आधारित प्रथाओं को उद्दात प्रभाव प्रदान किया गया है, इसके परतों को उध्ोड़ना साहित्य का कर्तव्य है। कवि मनीष कई कविताओं में इस दिशा में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं। वर्जनाओं व सीमाओं की लकीर पर गुणा-गणित करने के बजाए इसके औचित्य पर तार्किक विचार करते हैं। साहित्य में सत्य की पड़ताल की दीर्घ परंपरा रही है, कवि मनीष ने दर्शन के वैचारिक वाद-विवाद की जगह अनुभूतिजन्य सत्य को अधिक समीचीन माना है। ‘इतिहास मेरे साथ’ कविता में सत्य के प्रति समझौता हो जाने की संभावना को उद््घाटित किया गया है। ‘गंभीर चिंताओं की परिधि में’ कवि ने वैयक्तिक चेतना को साध्य माना है। वे मनुष्य और समाज को प्रयोग शाला बना देने के पक्षधर नही हैं।
‘अक्टूबर उस साल’ की कुछ रचनाएं भविष्य में नारा बन जाने की संभावनाओं से युक्त हैं। समाज की लंबी कुलबुलाहट के बाद दबी चेतना को जैसे ही अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज द्वारा हाथों-हाथ ली जाती है। ऐसा दुष्यंत कुमार की रचनाओं में सिद्ध भी हो चुका है। कवि मनीष जी की रचनाओं में ‘यूंतो संकीर्णताओं को’ (वहन कर रहा हूं), ‘दौर-ए-निजाम’ जैसी कविताएं वर्तमान विडम्बनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर सटीकता से जनता का पक्ष रखती हैं तथा बाजार व सत्ता के कुचक्र में निस्सहाय व्यक्ति के सामग्री या दर्शक बन जाने की अभिशप्तता को उचित रूप में रखती हैं।
सिद्ध बहुरूपिये भूमण्डलीय बाजार ने व्यक्ति की इच्छाओं, वासनाओं व सुगमताओं को अधिक कठोरतापूर्वक परिभाषित कर लिया है, तंत्र द्वारा अव्यवस्था के प्रति व्यक्ति की सहनशीलता की सीमा को बढ़ा दिया गया है। तंत्र की जटिलता व अन्यायपरकता को समझते हुए भी व्यक्ति अभिशप्त है। इन संग्रहों में न्यूनतम शब्दों में अनुभव व चिंतन सहजतापूर्वक व्यक्त हुआ है। उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लोक प्रचलन के अनुपात में ही प्रयोग किया गया है। अर्थों के स्तर पर पर लय व तुर्कों का सृजनात्मक रूप् उभर कर सामने आया है। बहुअर्थी प्रतीक और उपमानों की ताजगी रचना संग्रह की आकर्षक विश्ोषता है। अलक्षित, संश्र्लिष्ट व गतिशील बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो सामग्री की ताजगी बरकरार रखती है।

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