Thursday, 14 November 2013

हिंदी सिनेमा के विविध आयाम .

             
                     03 मई 1913 से 03 मई  2013 तक का हिंदी फिल्मों का सफर सौ सालों का हो गया है । हिंदी सिनेमा का यह 100 सालों का इतिहास हम से बहुत कुछ कहता है । यह सिर्फ हिंदी सिनेमा का इतिहास नहीं अपितु भारतीय समाज के आर्थिक,सांस्कृतिक,धार्मिक एवं राजनीतिक नीतियों,मूल्यों और स्ंवेदनाओं का ऐसा इंद्र्धनुष है जिसमें भारतीय समाज की विविधता उसकी सामाजिक चेतना के साथ सामने आती है । भारतीय समाज का हर रंग यहाँ मौजूद है ।
                   सिनेमा दुनियाँ को फ़्रांस की देन है । भारत में सिनेमा के पहले क़दम 7 जुलाई 1896 को पड़े । फ़्रांस से ही आये लुमिअर बंधुओं ने मुंबई के वारसंस होटल में 06 लघु फ़िल्मों का पैकेज़ “मैजिक लैम्प” का प्रदर्शन कर भारत की जनता का फ़िल्मों से परिचय कराया । 3 मई 1913 को “राजा हरिश्चंद्र” नामक भारत की पहली फीचर फिल्म भारतीय दर्शकों के सामने थी । इस फ़िल्म के निर्माता थे मराठी भाषी धुंडीराज गोविंद फाल्के। जिन्हें हम दादा साहेब फाल्के के नाम से जानते हैं और भारतीय सिनेमा का पितामह मानते हैं ।
                  कुछ लोग भारत में फीचर फ़िल्म की शुरुआत “पुंडलिक’’ नामक फ़िल्म से मानते हैं,जिसका निर्माण 1912 में हुआ । आर.जी.तोरने और एन.जी.चित्रे द्वारा यह फ़िल्म 18 मई 1912 को मुंबई के “कोरेनेशन सिनेमा” में रिलीज़ की गयी थी। इसकी पृष्ठभूमि धार्मिक थी । लेकिन यह एक थिएट्रिकल फ़िल्म थी । कोई कहानी आधारित पहली फीचर फ़िल्म हिंदू पौराणिक कहानी पे बनी  “राजा हरिश्चंद्र”  ही है । यह फ़िल्म भी मुंबई के “कोरेनेशन सिनेमा” में रिलीज़ की गयी थी। दादा साहेब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा था । उस फिल्म को देखकर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई।
                 फिल्म “राजा हरिश्चंद्र” की अपार सफलता के बाद दादा साहब फाल्के ने वर्ष 1914 में सत्यवान सावित्री  का निर्माण किया। लंका दहन,श्री कृष्ण जन्म,कालिया मर्दन,कंस वध, शकुंतला, संत तुकाराम और भक्त गोरा जैसी फिल्में उन्होने 1917 तक बना ली थी । वर्ष 1919 मे प्रदर्शित दादा फाल्के की फिल्म कालिया र्मदन महत्वपूर्ण फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म मे दादा फाल्के की पुत्री मंदाकिनी फाल्के ने कृष्णा का किरदार निभाया था। 16 फरवरी 1944 को दादा फाल्के का देहांत महाराष्ट्र के नाशिक में हुआ ।
            सन 1913 से सन 1930 तक का हिंदी सिनेमा ‘मूक सिनेमा’ के नाम से जाना गया । यह भारत के लिए गौरव की बात है कि सन 1926 में बनी फिल्म  “बुलबुले परिस्तान” पहली फिल्म थी जिसका निर्देशन किसी महिला ने किया था। बेगम फातिमा सुल्ताना इस फिल्म की निर्देशिका थीं। वर्ष 1921 में बनी  फिल्म  “भक्त विदुर” कोहिनूर स्टूडियो के बैनर तले बनायी गयी एक सफल फिल्म साबित हुई थी। बाबूराव पेंटर ने 1920 में बनी अपनी फ़िल्म “वत्सला हरण” के लिए पोस्टर जारी किया ।  इसी वर्ष 1921 मे प्रदर्शित फिल्म “द इंग्लैंड रिटर्न” पहली सामाजिक हास्य फिल्म साबित हुई । 1920 में बनी सुचेत सिंह की फ़िल्म “शकुंतला” में अमेरिकी अभिनेत्री डोरोथी किंगडम ने काम किया था । इस फिल्म का निर्देशन धीरेन्द्र गांगुली ने किया था। इन 17 वर्षों के कालखंड में लगभग 1300 से अधिक फिल्मों  के निर्माण की बात स्वीकार की जाती है ।
          सन 1913 से 1930 तक का समय हिंदी सिनेमा का प्रारंभिक काल माना जा सकता है । देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था । अपनी आज़ादी के लिए तड़फड़ा रहा था । 1926 में ‘वंदे मातरम आश्रम” नामक फ़िल्म पे प्रदर्शन से पहले ही सरकार ने  रोक लगा दी थी । इस दौर की मूक फिल्में भी बोलनें के लिए कुलबुला रहीं थी । 1931 से इन फिल्मों ने बोलना सीख लिया । यद्यपि मूक फिल्में लगभग 1934 तक बनती रहीं । लेकिन 1931 से 1934 के बीच में ही निर्मित कुछ फिल्में ऐसी भी बनीं जिन्होंने ख़ूब जम के बोला । मसलन 1932 में बनी ‘इंद्रसभा” नामक फ़िल्म में 69 या इससे अधिक गाने फिल्माए गए जबकि आलम आरा में 07 गाने फ़िल्माये गए थे ।
          1930 का हिंदी फ़िल्मों का दशक अपने केंद्र में पौराणिक और धार्मिक कथाओं को समेटे हुए था । लेकिन तत्कालीन सामाजिक संदर्भों को लेकर भी कुछ फिल्में बनने लगी थीं । पहली बोलती फ़िल्म “आलम आरा” को माना जाता है जिसे आर्देशिर ईरानी ने 1931 में निर्मित किया । इस फिल्म की शूटिंग रेलवे लाइन के पास की गई थी इसलिए इसके अधिकांश दृश्य रात के हैं। रात के समय जब ट्रेनों का आना-जाना  बंद हो जाता था तब इस फिल्म की शूटिंग की जाती थी। 1933 में बनी “कर्मा” भारत की पहली बोलती अंग्रेजी फ़िल्म थी । “kissing seen” की शुरुआत भी इसी फ़िल्म से हुई । स्टंट फिल्मों की शुरुआत भी 1934 में बनी फ़िल्म ‘हंटरवाली” से हुई जिसकी अभिनेत्री नाड़िया स्टंट क्वीन के नाम से जानी गयी ।  फ़िल्मकार मोहन भवनानी के लिए मुंशी प्रेमचंद ने फ़िल्म लिखी ।यह फ़िल्म ‘मिल मज़दूर” और “गरीब मज़दूर” नाम से भी पंजाब में प्रदर्शित हुई । 1934 में प्रेमचंद की ही कृतियों पे ‘नवजीवन’ और “सेवसादन’ नामक फिल्में बनी । इस फ़िल्म का प्रभाव इतना अधिक था कि इसे कई शहरों में सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था । 1935 में देवदास फ़िल्म ने के.एल.सहगल को हिंदी फ़िल्मों का स्टार बना दिया । अमृत मंथन भी इसी दौर की फ़िल्म थी जिससे जूम शॉट की शुरुआत हुई । 1933 में प्रदर्शित फिल्म कर्मा इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उस फिल्म की नायिका  देविका रानी  को लोग फिल्म स्टार के नाम से संबोधित करने लगे और वे भारत की प्रथम महिला फिल्म स्टार बनीं। इसी दशक ने के.एल.सहगल, अशोक कुमार, मोतीलाल, सोहराब मोदी और पृथ्वीराज़ कपूर जैसे अभिनेता दिये । यह फ़िल्मों को लेकर सीखनें और प्रयोग का दशक था ।
                1940 का हिंदी फ़िल्मों का दशक गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फ़िल्मों के निर्माण का समय था  । इटली में उभरे नवयथार्थवाद की गहरी छाप इस दशक के फ़िल्मों में दिखाई पड़ती है । समकालीन चेतना इस दौर के फ़िल्मों के केंद्र में थी । आज़ादी की ख़ुशी और गुनगुनाहट इस दौर की फ़िल्मों थी । दिलीप कुमार जैसे सशक्त नायक थे । हिंदी सिनेमा में संगीत का जादू भी इन्ही दिनों शुरू हुआ । प्रेमचंद की कहानी “त्रिया चरित्र” के आधार पर ‘स्वामी’ नामक फ़िल्म बनी । 1946 में ‘रंगभूमि’ पे भी इसी नाम से फ़िल्म बनी । राजकपूर की “बरसात” 1949 में ही आयी । लता मंगेशकर जैसी गायिकाएं सामने आयीं । दिलीप कुमार की पहली हिट फ़िल्म “मिलन” इन्ही दिनों आयी । अन्य फिल्मों में ज्वार भाटा, प्रतिमा प्रमुख रहीं । आर.के.फ़िल्म्स, नवकेतन, राजश्री समेत कई प्रोडक्शन हाउस के आगमन भी इसी दशक में हुआ । खलनायक के रूप में प्राण का आगमन इसी दशक में हुआ । 1941 में बनी फ़िल्म ‘किस्मत’ ने राक्सी टाकीज़(कलकत्ता) में तीन साल और आठ महीने तक लगातार प्रदर्शित होने का रिकार्ड बनाया । इफ्टा द्वारा निर्मित पहली फ़िल्म “धरती के लाल” भी इसी दशक में 1946 में बनी । चेतन आनंद की 1946 में बनी फ़िल्म “नीचा नगर” कान फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट फ़िल्म अवार्ड का ख़िताब जीतने में कामयाब रही । जुबली स्टार के नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र कुमार, ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी, अप्रतिम सौंदर्य की रानी मधुबाला और नरगिस ने भी इसी दशक में हिंदी सिनेमा जगत  के अभिनय क्षेत्र में पदार्पण किया । गुरूदत्त, के. आसिफ., कमाल अमरोही, चेतन आंनद जैसे महत्वपूर्ण फिल्मकार और शंकर-जयकिशन, सचिन देव बर्मन, खय्याम, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे गीतकारों ने हिंदी सिनेमा को अपनी कला से इसी दशक से समृद्ध करना शुरू  किया। हुस्नलाल भगतराम जी की पहली संगीतकार जोड़ी भी 1944 की “चाँद” नामक फ़िल्म से सामने आयी ।  1940 का यह दशक परिष्कार, परितोष और परिमार्जन का दशक रहा ।
            1950 का हिंदी फ़िल्मों का दशक हिंदी फ़िल्मों का आदर्शवादी दौर था । आवारा, मदर इंडिया, जागते रहो, श्री 420, झाँसी की रानी, परिनिता, बिराज बहू, यहूदी, बैजू बावरा और  जागृति जैसी फिल्में इसी दौर में बनी । यह दौर गुरुदत्त,बिमल राय,राज कपूर,महबूब खान,दिलीप कुमार,चेतन आनंद,देव आनंद और के.ए.अब्बास का था । यह वह समय था जब हिंदी सिनेमा के नायक को सशक्त किया जा रहा था । भारतीय समाज का आदर्शवाद इस दशक के केंद्र में था । सामाजिक भेदभाव, जातिवाद,भ्रष्टाचार,गरीबी,फासीवाद और सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं को लेकर फिल्में इस दौर में बनायी जाने लगीं । आज़ादी को लेकर जो सपने और जिन आदर्शों की कल्पना समाज ने की थी, वह फिल्मों में भी नज़र आ रहा था । बिमल राय के निर्देशन में बनी “दो बीघा जमीन” इस दौर की महत्वपूर्ण फ़िल्म है । राज कपूर अभिनय के साथ – साथ फिल्मों के निर्माण और निर्देशन का भी कार्य कर रहे थे । इस दौर का नायक प्यार तो करता था लेकिन पारिवारिक दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा और सामाजिक प्रतिबद्धता के आगे वो प्यार को कुर्बान कर देता था । बिमल राय की “देवदास” और गुरुदत्त की “प्यासा” इसी तरह की फिल्में थीं । प्रेम के संदर्भ में इन नायकों में साहस का अभाव था । सामाजिक नैतिकता का आग्रह अधिक प्रबल था । साल 1954 में पी.के. आत्रे की फिल्म श्यामची आई (1953) को प्रेसिडेंट गोल्ड मेडल से नवाजा गया। 1951 में बनी “आन’ फ़िल्म में 100 वाद्य यंत्रों का उपयोग हुआ । यह अपने तरह का नायाब प्रयोग था । 1954 में सोवियत संघ में भारतीय फिल्म महोत्सव का आयोजन किया गया जहां राजकपूर की फिल्म आवारा बड़ी हिट साबित हुई। आवारा 1951 में बनी थी । 1954 में  वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे भी रिलीज हुई । हिंदी की कई श्रेष्ठ फिल्में इसी दौर में निर्मित हुई । हिंदी फ़िल्मों में नायक के निर्माण का यह दौर आदर्शों से समझौता नहीं कर रहा था ।
                 फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की शुरुआत भी 1954 से ही हुई। अभिनेता देवानंद की “सीआईडी” और “फंटूश” इसी दशक की कामयाब फ़िल्मों में रहीं। राजकपूर और नर्गिस की एक फिल्म “ चोरी-चोरी” भी प्रदर्शित हुई । साल 1957 में आयी महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया रिलीज हुई।यह 1940 में बनी फ़िल्म “औरत” का रीमेक थी ।  इस दशक की सबसे अधिक  कमाई करने वाली फिल्म तो यह बनी ही, साथ ही प्रतिष्ठित ऑस्कर के लिए फॉरेन लैंग्वेज फिल्म कैटगरी में नॉमीनेट होने वाली पहली भारतीय फिल्म बनी। इसी फ़िल्म के लिए अभिनेत्री नरगिस को कार्लोवी फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार पाने वाली पहली भारतीय अभिनेत्री बनीं । यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा के लिए महत्वपूर्ण पड़ाव था । दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला की फिल्म “नया दौर” भी इसी दशक में रिलीज हुई । साल 1957 में एक और फिल्म रिलीज हुई - गुरुदत्त की “प्यासा” । इस फ़िल्म को  टाइम मैग्जीन ने विश्व की 100 सबसे बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया है। दो आंखें बारह हाथ, पेइंग गेस्ट, मधुमती, चलती का नाम गाड़ी, यहूदी, फागुन, हावड़ा ब्रिज, दिल्ली का ठग, अनाड़ी, पैगाम, नवरंग, धूल के फूल जैसी फिल्में इस दशक  की महत्वपूर्ण फिल्में रहीं। कामयाब फ़िल्मों का यह दशक हिंदी सिनेमा के इतिहास में अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।

             1960 का हिंदी फ़िल्मों का दशक 1950 के दशक से काफ़ी अलग था । राज कपूर ने जिस प्रेम का ट्रेंड शुरू किया था वह अपने पूरे शबाब पे था ।1960 में रिलीज हुई ऐतिहासिक फिल्म मुगले आजम। फिल्म में लीड रोल में थे दिलीप कुमार और मधुबाला। के आसिफ निर्देशित इस फिल्म को बनने में 10 सालों का वक्त लगा था। ये फिल्म अब भी बॉलीवुड की सबसे मशहूर और बेहतरीन फिल्मों में से एक मानी जाती है। । मुगले आजम 05 अगस्त 1960 को देश के 150 सिनेमा घरों में एक साथ प्रदर्शित होनेवाली पहली हिंदी फ़िल्म थी ।  बरसात की रात, कोहीनूर, चौदवी का चांद, जिस देश में गंगा बहती है, दिल अपना और प्रीत पराई जैसी फिल्मों ने भी बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई की। 1961 में प्रदर्शित फिल्म जंगली से शम्मी कपूर “चाहे कोई मुझे जंगली कहे गीत गाकर” याहू स्टार बने वही बतौर अभिनेत्री सायरा बानु की यह पहली फिल्म थी। 1962 में पहली भोजपुरी फ़िल्म “ गंगा मईया तोहई पियरी चढ़इबो” बनी । वर्ष 1962 मे गुरूदत्त की “साहब बीबी और गुलाम” आयी । फिल्मों का दृष्टिकोण अब यथार्थपरक हो गया था । जिस देश में गंगा बहती है, मुगले आजम , गाइड, संगम और  तीसरी कसम जैसी फिल्में इसी दौर में बनीं ।
            इसी दशक से रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हुआ । 1962 की युद्ध में हार,1965 में फिर युद्ध, नेहरू युग की समाप्ति और इन  सब के बीच धीरे-धीरे आज़ादी से हो रहा जनता का मोह भंग, हताशा,निराशा और बढ़ती कुंठा के बीच प्रेम का भाव अधिक प्रबल हो रहा था । वास्तविक जीवन की विडंबनाओं के बीच जनता सुंदर और वास्तविकता से परे कुछ और तलाश रही थी । जो उसे सुंदर लगे, मन को भाये, बहलाये । 1967 मे मनोज कुमार ने अपनी पहली निर्देशित फिल्म उपकार बनायी। सिनेमा जगत के इतिहास की सबसे लोकप्रयि हास्य फिल्म पड़ोसन मे महमूद ने निगेटिव किरदार निभाकर दर्शकों को अचरज में डाल दिया ।  1969 मे ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म “सात हिंदुस्तानी” से अमिताभ बच्चन ने रूपहले पर्दे पर एंट्री की थी। 1964 में बनी ‘हक़ीक़त” युद्ध की पृष्ठभूमि पे बनी फ़िल्म थी । बिहारी बाबू शत्रुध्न सिंहा ने भी साजन में पहली बार एक छोटी भूमिका निभायी थी। वहीं शक्ति सामंत की 1969 में बनी फिल्म आराधना से राजेश खन्ना के रूप में फिल्म इंडस्ट्री को अपना पहला सुपरस्टार मिला।1969 से ही दादा साहेब फाल्के पुरस्कारों की शुरुआत हुई ।  प्रेम के जो गाने इस दशक में सामने आए वे बड़े लोकप्रिय हुए । कुछ  उदाहरण देखिये –
प्यार कर ले नहीं तो फाँसी चढ़ जाएगा – जिस देश में गंगा बहती है ।
जब प्यार किया तो डरना क्या  - मुगले आजम ।
गाता रहे मेरा दिल, तू ही मेरी मंजिल – गाइड ।
मेरे मन की गंगा और तेरे मन कि यमुना – संगम ।
              इस दौर का गीत – संगीत बेहद शानदार था । प्रेम की समाज में स्वीकारोक्ति बढ़ी । प्रेम विवाह को मान्यता मिलने लगी । पुराने बंधन शिथिल होने लगे । मनुष्य के अंदर निहित रागात्मक संवेदना प्रेम और सौंदर्य के द्वारा विकसित होती है। ये रागात्मक संवेदनाएँ ही मानवीय गुणों का विकास करती हैं। ये रागात्मक संवेदनाएँ ही हैं जिनके कारण व्यक्ति अपनी निजता से हटकर पारिवारिक और सामाजिक दायित्व को महसूस करता है। अपने से अधिक दूसरों के बारे में सोचता है। देश में तेजी से उभरता नया मध्यम वर्ग नई मानसिकता के साथ आगे बढ़ रहा था । राजेश खन्ना, देवानंद और शम्मी कपूर इस दशक के प्रतिनिधि नायक रहे । भारतीय सिनेमा जगत मे 1961-1970 के दशक को जहां एक ओर रोमांटिक फिल्मो के स्वर्णिम काल के रूप मे याद किया जायेगा, वहीं दूसरी ओर इसे हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, राजेन्द्र कुमार और धमेन्द्र के इंडस्ट्री मे आगमन का दशक भी कहा जायेगा। वहीं अभिनेत्रियों में प्रिया राजवंश, नरगिस, ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी, शर्मिला टैगोर, राखी आदि की अगवानी भी इसी दशक ने की ।फ़िल्मों का यह दशक अपने रोमांटिक मूड और आदर्श प्रेम के लिए हमेशा याद रखा जाएगा ।

              1970 का हिंदी फ़िल्मों का दशक व्यवस्था के प्रति असंतोष और विद्रोह का था । आज़ादी के साथ देशवासियों ने कई सपने सँजोये हुए थे। उन्हें यह विश्वास था कि स्वतंत्र भारत में उनके सारे सपने पूरे होंगे। उन्हें तरक्की के नये अवसर मिलेंगे। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाएँ सभी को मिलेंगी। लेकिन आज़ादी के मात्र 20-25  सालों में ही आम आदमी का मोह भंग हो गया। वह अपने आप को ठगा हुआ महसूस करने लगा, टूटते संयुक्त परिवार, आर्थिक परेशानियाँ, पुरानी मान्यताओं और रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, देश का विभाजन, आर्थिक परेशानियों का संबंधों पर पड़ता प्रभाव, बेरोजगारी, संत्रास, कुंठा, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, लालफीताशाही, अवसरवादिता और आत्मकेन्द्रियता के अजीब से ताने-बाने में समाज की स्थिति विचित्र थी। सरकार पे नायक का विश्वास नहीं था । वह व्यवस्था को अपने तरीके से बदलने की कोशिश करने लगा । वह असंतोष से भरा हुआ था । जंजीर, शोले,पाकीज़ा,मेरा नाम जोकर,किस्सा कुर्सी का, दीवार, और फरार जैसी फिल्में इसी दशक की देन हैं । 1973 की “बाबी” फ़िल्म से किशोर प्रेम कहानियों की पहल हुई । 1975 में आयी “शोले” ने कामयाबी की नयी इबारत लिखी । शोले ही वह पहली फ़िल्म थी जिसके संवादों का कैसेट बाजार में आया । 1974 में बनी “नया दिन नई रात” फ़िल्म में एक ही अभिनेता द्वारा नौ किरदार निभाए गए । 1977 में “शतरंज के खिलाड़ी” प्रदर्शित हुई ।
             यह वही दौर था जब जयप्रकाश नारायण ने जन आंदोलन चलाया। देश में आपातकाल लगा । अमिताभ और धर्मेन्द्र इस दशक के प्रतिनिधि नायक रहे । जय-वीरू की इस जोड़ी ने हिंदी सिनेमा के परदे पे धमाल मचाया । धर्मेन्द्र का मशहूर डायलाग – कुत्ते मैं तेरा ख़ून पी जाऊँगा, उस दौर के नायक के आक्रोश को दिखाता है । सत्तर के दशक में जिन अभिनेताओं की चर्चा हुई उनमें प्रमुख हैं अमिताभ बच्चन,अनिल कपूर,नवीन निश्चल,राकेश रोशन,राकेश बेदी और ओम पुरी आदि, वहीं अभिनेत्रियों में रेखा,मुमताज़,ज़ीनत अमान,परवीन बॉबी,नीतू सिंह,शबाना आज़मी,प्रीति गाँगुली आदि चर्चित रही । हिंसा और मार-धाड़ इन दिनों की फिल्मों में ख़ूब रही । वर्ष 1972 मे मीना कुमारी की 14 वर्षों मे बनी पाकीजा प्रदर्शित हुई।
              1980 का हिंदी फ़िल्मों का दशक यथार्थवादी फ़िल्मों का दौर था । अब सिनेमा का नायक जीवन की वास्तविकता की तरफ झुका हुआ दिखाई पड़ रहा था । वह समझौतावादी भी हो गया था । राम तेरी गंगा मैली और  मशाल जैसी हिट फिल्में इस दौर में बनी । इस घोर यथार्थवादी दौर में सच्चाई को दिखाने की होड़ सी लग गयी थी । समानांतर सिनेमा का आंदोलन भी इसी दौर में चला । “नियो वेव” सिनेमा का यह युग था । अंकुर,आक्रोश,अर्ध सत्य और सारांश जैसी फिल्में इसी दशक में बनीं।
             अर्थ फ़िल्म  महेश भट्ट की प्रतिभा का लोहा मनवाने में कामयाब रही । भीम सेन की घरौंदा और बासु चटर्जी जी की फ़िल्म सारा आकाश भी इसी दशक में सामने आयी । नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी , शबाना आज़मी , अनुपम खेर , स्मिता पाटिल, ऋषि कपूर, अनिल कपूर, जैकी श्राफ़, सनी देओल और  संजय दत्त ने अपने अभिनय का जादू इस दशक में दिखाया । अस्सी के दशक में संजय दत्त,सनी देओल,शाहरुख़ ख़ान,आमिर ख़ान,सलमान ख़ान आदि अभिनेताओं का धमाकेदार प्रवेश हुआ, वहीं अभिनेत्रियों में माधुरी दीक्षित,जूही चावला,अमिता नाँगिया आदि की ।अनिल कपूर का मावलियों वाला अंदाज़ ख़ूब पसंद किया गया ।
           1990 का हिंदी फ़िल्मों का दशक आर्थिक उदारीकरण का था । विदेशी पूँजी और सामान का देश में आना सहज हो गया था । प्रवासी भारतीयों का महत्व बढ़ गया था । विदेशों में बसने, लाखों के पैकेज़ की नौकरी, हवाई यात्राएं, मंहगी गाडियाँ इत्यादि नौ जवानों के सपने बन गए । सिनेमा ने भी अपने स्वरूप को व्यापक किया । विदेशों में जाकर शूटिंग की जाने लगी । दिल वाले दुलहनियाँ ले जायेंगे, ताल  और परदेश इसी दशक की कामयाब फिल्में रहीं । शाहरुख खान इस दौर के सबसे सफ़ल फ़िल्म अभिनेता रहे । फ़ारेन रिटर्न नायकों का यह दौर था । 80 के हिंदी फिल्मों का  दशक जमींदारी, स्त्री शोषण,भ्रष्टाचार,दोहरे शोषण,लालफ़ीताशाही, सहित उन सभी मुद्दों पर आधारित होती थी जो समाज को प्रभावित करते थे। उनका उद्देश्य सिर्फ व्यावसयिक न होकर सामजिक प्रतिबद्धता से भी जुड़ा होता था।
              लेकिन 90 के हिंदी फिल्मों का दशक काफी हद तक बदल गया था । अधिकांश हिंदी सिनेमा के पहली पंक्ति के फ़िल्मकारों ने अपनी फिल्मों के लिए ऐसे विषय चुनने शुरू कर दिए, जो भले ही एक वर्ग विशेष से ही संबंधित हों, लेकिन मोटी कमाई होने की उन्हें पूरी गारंटी थी । वे इस बात को लेकर आश्वस्थ थे कि उनके व्यावसायिक हितों को कोई नुकसान नहीं होने वाला था। परिणाम स्वरूप अब  अधिकांश फिल्में समाज हित से हटकर पूरी तरह से व्यावासिक हित में रच-बस गयी। अधिकांश फिल्म  निर्माताओं का उद्देश्य  फिल्म में वास्तविकता/सच्चाई/यथार्थ  दिखाने की बजाये उन चीजों को प्रस्तुत करने  का होता जो दर्शक को मनोरंजन कराये ।
                    इस दौर के प्रमुख फिल्मकारों में आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, राकेश रोशन, रामगोपाल वर्मा,फरहान अख्तर के नाम लिए जा सकते हैं और दूसरी तरफ फ़िल्मकारों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आया जो प्रवासी भारतीयों और अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों कि पसंद को ध्यान में रखकर ही अपनी अधिकांश फ़िल्में बना रहा था । गुरिन्दर चङ्ढा, नागेश कुकुनूर (हैदराबाद ब्लूज),महेश दत्तानी (मैंगो सौफल), मीरा नायर (मानसून वेडिंग), शेखर कपूर (द गुरू), दीपा मेहता आदि के नाम इसी श्रेणी के फ़िल्मकारों में लिए जा सकते हैं । बजारीकरण,भूमंडलीकरण और वैश्विक व्यापर कि लालसा इन फ़िल्मकारों के ऊपर साफ दिखाई पड़ती है । नई उपभोक्ता संस्कृति की कतिपय विकृतियाँ सिनेमा जगत पे भी दिखाई पड़ने लगीं ।
           नब्बे के दशक में संजय कपूर,अक्षय कुमार,सुनील शेट्टी,सैफ़ अली ख़ान,अजय देवगन आदि अभिनेताओं का तो वहीं अभिनेत्रियों में दिव्या भारती,बिपाशा बसु,करिश्मा कपूर,करीना कपूर,मनीषा कोइराला,काजोल देवगन,रानी मुखर्जी,प्रीति ज़िंटा आदि का आगमन हुआ ।
             2000 का हिंदी फ़िल्मों का दशक NDA सरकार के इंडिया शाइनिंग का दशक था । सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति का दौर था । भारत के विकास को गति मिल चुकी थी । प्रदर्शन इस दौर के फिल्मों में आम हो गया । नायक और नायिका खुलकर अंग प्रदर्शन कर रहे थे । तकनीक का सहारा लिया जा रहा था । फिल्मों का मुख्य विषय मनोरंजन ही हो गया। बिना किसी गंभीर तर्क के मनोरंजन । नो एंट्रि , ओम शांति ओम और थ्री इडियट्स इसी दशक की कामयाब फिल्में रहीं । फिल्मों के कथ्य और शिल्प को लेकर प्रयोग भी शुरू हुए । नई तरह की फिल्में भी आयीं । नि: शब्द और चीनी कम जैसी फिल्में भी इसी दौर में बनी ।
              आज़ का रावण,आगाज़,फिज़ा,हर दिल जो प्यार करेगा,मोहब्बते,फ़िर भी दिल है हिंदुस्तानी,आवारा-पागल-दिवाना,चलते-चलते, पिंजर, चमेली, मैंहूँना, मस्ती, मडर, वीरजारा, युवा,बरसात,गरम मसाला, मैं ऐसा ही हूँ, मंगल पांडे जैसी फिल्में इसी दशक की रही । पैसा कमाना इस दौर के फिल्मों का मकसद रहा । लेकिन इसके बाद भी सामाजिक प्रतिबद्धता से जुड़ी कई फिल्में सामने आयीं । मुन्ना भाई एमबीबीएस इसी तरह की फ़िल्म थी । प्रेम और प्रेम संबंधों के नए आयाम भी तलाशने की कोशिश की गयी । 2000 के दशक में शाहिद कपूर,ऋतिक रोशन,अभिषेक बच्चन,फ़रदीन ख़ान आदि अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों में प्रियंका चोपड़ा,कटरीना कैफ,नीतू चन्द्रा,दीपिका पादुकोण,अनुष्का शर्मा,सोनम कपूर,अमीशा पटेल,प्रीति झंगियानी अपनी फिल्मों से मशहूर हुई ।

                  2010 का हिंदी फ़िल्मों का दशक हिंदी फिल्मों का वर्तमान दशक है । यह समय वैश्विक परिप्रेक्ष में आर्थिक मंदी से जूझने और उबरने के बीच का समय है । आर्थिक मंदी कब हावी हो जाएगी यह चर्चा का विषय है । राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम पे है । लाखों हजार करोड़ के घोटालों के बीच अन्ना हज़ारे का जन आंदोलन आम आदमी की कुलबुलाहट दर्शाता है । कामयाबी के नए फ़ार्मूले खोजे जा रहे हैं । देश के मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ी है । प्लास्टिक मनी का प्रचलन बढ़ा है । क्रेडिट कार्ड यह सुविधा देता है  कि आज ख़रीदो और किश्तों में चुकाओ । देश अधिक अमीर हो गया यह तो नहीं कह सकता पर देश का मध्यम वर्ग अधिक सुविधा भोगी ज़रूर हो गया । इस मध्यमवर्ग में आत्म केंद्रियता बढ़ी है । सुविधा शुल्क देने में इस वर्ग को परहेज नहीं है । “ पैसे लो लेकिन सर्विस अच्छी दो ।’’ इस वर्ग की आम राय है । तो सिनेमा भी अच्छी सर्विस देने में लग गया । शानदार वातानुकूलित मल्टी प्लेक्स सिनेमा घरों में लगभग सोते हुए फिल्म देखने की व्यवस्था हो गयी । नए सिरे से 3 D फ़िल्मों का नया दौर शुरू हो गया है । अच्छी सर्विस के ख़याल से निश्चित कर लिया गया कि ढाई – तीन घंटे की फ़िल्म में दर्शकों का पूरा मनोरंजन होना चाहिए । आइटम सॉंग फिल्मों की अनिवार्यता सी बनने लगी ।2010 के दशक में सोनाक्षी सिन्हा का धमाकेदार आगमन हुआ । मलाइका अरोरा ख़ान, कटरीना कैफ, प्रियंका चौपड़ा और लगभग सभी बड़ी नायिकाएँ आइटम सॉंग करने लगीं हैं । 200- 300 करोड़ की कमाई फिल्मों के द्वारा होने लगी है । किस फ़िल्म ने कितने करोड़ कमाये ? यही फिल्मों की सफलता का पैमाना हो गया है । रा-वन,चेन्नई एक्सप्रेस और क्रिश थ्री अब तक इस दशक की सबसे कामयाब फिल्में हैं ।
                  एक बात तो साफ है कि हिंदी फिल्मों पे अपने परिवेश का हमेशा प्रभाव पड़ा । आज हम जिस आत्म केंद्रियता और कतिपय एबसर्ड मानसिकता के बीच जी रहे हैं, वह आज की हमारी फिल्मों और इसके संगीत पे भी दिखाई पड़ता । ये समय का ही खेल है कि
--       “ छोड़ छाड़ के अपने सलीम कि गली,
अनारकली डिस्को चली ।”
                               
 डॉ मनीष कुमार मिश्रा
प्रभारी- हिंदी विभाग
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण- पश्चिम
ठाणे, महाराष्ट्र
मो-8080303132
ई मेल – manishmuntazir@gmail.com

संदर्भ ग्रंथ सूची :-

1- बहुवचन, अंक 39 अक्टूबर-दिसंबर 2013
2- विकीपीडिया/ www.wikipedia.org
3- वर्तमान साहित्य , सिनेमा विशेषांक – 2002
4- हंस पत्रिका,हिंदी सिनेमा के सौ साल,- फरवरी 2013
5- www.hindinest.com
6- www.dainikjagran.com
7- www.hindinest.com
8- www.raaga.com
9- www.boxofficeindia.com
10- www.movieindustrymarketing.com
11- www.0nlinehindijournal.blogspot.in






3 comments:

  1. अति सुन्दर आलेख ..

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  2. gurudev pranam .....hindi cinema par ek sarthak aur gyanvardhak lekh likhane ke liya dhnyavaad .....exam me achche ank prapt karvane ke liye aabhar

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  3. Gurudev, aapka ye pravachan sun krr hum toh dhanya ho gye.

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