Saturday, 26 January 2019
Tuesday, 25 December 2018
9. विरुद्धों का सामंजस्य ।
हमारे सोचने
और
होने की विच्छिन्नता
हमारी दरिद्रीकृत अवस्था का
प्रमाण है ।
और
होने की विच्छिन्नता
हमारी दरिद्रीकृत अवस्था का
प्रमाण है ।
अपनी
विभूतिवत्ता को लिथाड़कर
परंपरागत
शब्दावली के कवच में
मज़हबी
पूर्वाग्रहों के साथ
हम
बिलबिला गये हैं ।
विभूतिवत्ता को लिथाड़कर
परंपरागत
शब्दावली के कवच में
मज़हबी
पूर्वाग्रहों के साथ
हम
बिलबिला गये हैं ।
संपूर्ण नकारवाद
और अपनी
निरपेक्षता की पर्याप्तता के
अर्थहीन दावों के बीच
हम दिव्य
और पावन
किसी भी अवतरण की
संभावना को
लगातार
ख़ारिज कर रहे हैं ।
और अपनी
निरपेक्षता की पर्याप्तता के
अर्थहीन दावों के बीच
हम दिव्य
और पावन
किसी भी अवतरण की
संभावना को
लगातार
ख़ारिज कर रहे हैं ।
समाज की
अंतरात्मा जैसे
चराचरवादी
भाष्य कर्म
अवधारणात्मक
वशीकरण अभियान में
भुला दिये गए हैं ।
अंतरात्मा जैसे
चराचरवादी
भाष्य कर्म
अवधारणात्मक
वशीकरण अभियान में
भुला दिये गए हैं ।
हे समशील !!
हमारी बनावट में ही
विरुद्धों के सामंजस्य का
मूलमंत्र है
समग्र और साक्षी
चेतना के लिए
चेतना का संघर्ष ही
जीवन है ।
हमारी बनावट में ही
विरुद्धों के सामंजस्य का
मूलमंत्र है
समग्र और साक्षी
चेतना के लिए
चेतना का संघर्ष ही
जीवन है ।
यह संघर्ष ही
वह अच्युता अवस्था है
जिसकी कृतार्थता
हमारे अस्तित्व के साथ
बद्धमूल है ।
वह अच्युता अवस्था है
जिसकी कृतार्थता
हमारे अस्तित्व के साथ
बद्धमूल है ।
वह सर्वोत्कृष्ट
प्रभासिक्त
मानवी मध्यवर्ती
चेतना की अग्नि का
अलभ्य वरदान
विश्व की नींव है ।
प्रभासिक्त
मानवी मध्यवर्ती
चेतना की अग्नि का
अलभ्य वरदान
विश्व की नींव है ।
-- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।
( वरिष्ठ विद्वान श्री रमेश चंद्र शाह के व्याख्यान "पावनता का पुनर्वास" सुनने के बाद । )
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9. विरुद्धों का सामंजस्य ।
8. ग़लीज़ दिनों की माशूक़ ।
उन दिनों
आवारा बदचलन रातें
गलीज़ दिनों की माशूक़ थीं
शायद वह समय
सबकुछ ख़त्म होने का था ।
आवारा बदचलन रातें
गलीज़ दिनों की माशूक़ थीं
शायद वह समय
सबकुछ ख़त्म होने का था ।
ये वही दिन थे
जब सारी अफ़वाहें
लगभग सच होतीं
आधी रात के बाद भी आसमान
बिना सितारों का होता
मुसीबतों से स्याह
मग़र चुप ।
जब सारी अफ़वाहें
लगभग सच होतीं
आधी रात के बाद भी आसमान
बिना सितारों का होता
मुसीबतों से स्याह
मग़र चुप ।
ऐसे समय में
न कोई हमसुखन
न हमजुबांन
इश्क़ ओ अदब पर
मानों कर्बला का साया हो
सारंगी पर
सिर्फ़ वह फ़कीर सुनाता
तहजीब-ओ-अदब की
आख़री बात ।
न कोई हमसुखन
न हमजुबांन
इश्क़ ओ अदब पर
मानों कर्बला का साया हो
सारंगी पर
सिर्फ़ वह फ़कीर सुनाता
तहजीब-ओ-अदब की
आख़री बात ।
तीख़ी घृणा के बीच
वीभत्स हत्याओं का ज़श्न
यादें मिटाती नफ़रतें
इंसानियत
लाचारी की हद तक बीमार
लिजलिजी
और असहाय ।
वीभत्स हत्याओं का ज़श्न
यादें मिटाती नफ़रतें
इंसानियत
लाचारी की हद तक बीमार
लिजलिजी
और असहाय ।
ऐसे खोये हुए समय में
सब के सब
खेलने भर के खिलौनें थे
यह कोई
देखा हुआ स्वप्न था
या फ़िर
हमारी आत्मकेंद्रियता की
खोह में छुपा
सचमुच कोई वक्त !!!!
सब के सब
खेलने भर के खिलौनें थे
यह कोई
देखा हुआ स्वप्न था
या फ़िर
हमारी आत्मकेंद्रियता की
खोह में छुपा
सचमुच कोई वक्त !!!!
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।
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8. ग़लीज़ दिनों की माशूक़ ।
7. झूठ के चटक रंग ।
रस्मी तौर पर ही सही
ख़यालों की किसी अंधी गुफ़ा में
ख़ुद को नजरबंद करके
मैं तथाकथित इंसानों
औऱ उनकी बस्तियों से दूर
अपनी जिंदगी का
इकलौता आशिक रहा ।
ख़यालों की किसी अंधी गुफ़ा में
ख़ुद को नजरबंद करके
मैं तथाकथित इंसानों
औऱ उनकी बस्तियों से दूर
अपनी जिंदगी का
इकलौता आशिक रहा ।
इस आशिक़ी में
कोई तेज़ नशा था
बेमतलब प्रार्थनाओं से दूर
सीधे
मौत से दो-दो हाँथ
मंजिलों से दूर
लंबे सफ़र का तलबगार
जितना ही लूटते जाऊं
उतना ही सुकून ।
कोई तेज़ नशा था
बेमतलब प्रार्थनाओं से दूर
सीधे
मौत से दो-दो हाँथ
मंजिलों से दूर
लंबे सफ़र का तलबगार
जितना ही लूटते जाऊं
उतना ही सुकून ।
सभ्य समाज में
यकीनन
हम जैसे लोग
शक के क़ाबिल थे
इसलिए
हमारी पैबंद लगी झोली भी
व्यवस्था के आँख की
किरकिरी रही ।
यकीनन
हम जैसे लोग
शक के क़ाबिल थे
इसलिए
हमारी पैबंद लगी झोली भी
व्यवस्था के आँख की
किरकिरी रही ।
क्या सच ?
क्या झूठ ?
बात तो शब्दों को
छानने-घोटने भर की है
हाँ मुझे इसमें
थोड़ी महारत है
इसलिए
इतना बता सकता हूँ कि
झूठ के रंग
अधिक चटकदार होते हैं
औऱ जिंदगी
सुर्ख़ रंगों की
बहुत बड़ी दीवानी ।
क्या झूठ ?
बात तो शब्दों को
छानने-घोटने भर की है
हाँ मुझे इसमें
थोड़ी महारत है
इसलिए
इतना बता सकता हूँ कि
झूठ के रंग
अधिक चटकदार होते हैं
औऱ जिंदगी
सुर्ख़ रंगों की
बहुत बड़ी दीवानी ।
--------- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।
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7. झूठ के चटक रंग ।
6 . रंजिशों का रंज ।
हमारी
संवादहीनता का अंतराल
शब्दों से पटा है
औऱ हम
सूनी पड़ी किसी वीणा की तरह
बस छू लेने भर से
झंकृत होने को तैयार ।
संवादहीनता का अंतराल
शब्दों से पटा है
औऱ हम
सूनी पड़ी किसी वीणा की तरह
बस छू लेने भर से
झंकृत होने को तैयार ।
अपनी तटस्थता पर
हम दुःखी हैं
औऱ
इंतज़ार में हैं
इंतज़ार के अंतिम पल के
रंजिशों का
यह रंज
कितना अजीब है ?
हम दुःखी हैं
औऱ
इंतज़ार में हैं
इंतज़ार के अंतिम पल के
रंजिशों का
यह रंज
कितना अजीब है ?
लोच
इश्क़ की रूह है
यह
दर्द की राह पर
सुर्ख़ होती है
फ़िर
सर्द रातों की
ठंड हवाओं सी
यह हमारी रूह से लिपटती है ।
इश्क़ की रूह है
यह
दर्द की राह पर
सुर्ख़ होती है
फ़िर
सर्द रातों की
ठंड हवाओं सी
यह हमारी रूह से लिपटती है ।
इश्क़ में
ग़ाफ़िल होकर ही
जान पाया कि
इश्क़ में अकेलापन
कभी भी
किसी को भी
नसीब ही नहीं होता ।
ग़ाफ़िल होकर ही
जान पाया कि
इश्क़ में अकेलापन
कभी भी
किसी को भी
नसीब ही नहीं होता ।
----- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।
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6 . रंजिशों का रंज ।
5. बदख्याल सी वह जिंदगी ।
वह ज़िन्दगी क्या थी
बस कि
शिकायतों की
एक लंबी सी उम्र थी
बस कि
शिकायतों की
एक लंबी सी उम्र थी
जिसके नसीब में
घुप्प अँधेरे में घिरा
एक मुसलसल रास्ता था
जहाँ से
उसकी सदा को
आवाज़ दी
कई-कई बार
लेकिन
मेरी तैरती आवाज़
रंज और जुनून के
किसी जुलूस में शामिल हो
न जाने कहाँ
खो जाती ।
घुप्प अँधेरे में घिरा
एक मुसलसल रास्ता था
जहाँ से
उसकी सदा को
आवाज़ दी
कई-कई बार
लेकिन
मेरी तैरती आवाज़
रंज और जुनून के
किसी जुलूस में शामिल हो
न जाने कहाँ
खो जाती ।
अपने ही
ख़ून में डूबी हुई
आख़िर वह जिंदगी
किसी नरक की तरह
गुलज़ार रही
वह भी
बड़े ही
घिनौने ढंग से
ख़ून में डूबी हुई
आख़िर वह जिंदगी
किसी नरक की तरह
गुलज़ार रही
वह भी
बड़े ही
घिनौने ढंग से
रंजिशों की हिरासत में
कुछ था जो
टूटता रहा
उस बदख़्याल सी
ज़िन्दगी को
कौन समझाये कि
उम्र भर तो
हवस भी कहाँ साथ रहती है ?
कुछ था जो
टूटता रहा
उस बदख़्याल सी
ज़िन्दगी को
कौन समझाये कि
उम्र भर तो
हवस भी कहाँ साथ रहती है ?
नहीं समझा पाया
और नतीज़तन
ढोता रहा
बदख़्याल सी
वह जिंदगी ।
और नतीज़तन
ढोता रहा
बदख़्याल सी
वह जिंदगी ।
--- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।
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5. बदख्याल सी वह जिंदगी ।
4. निर्वासित जीवन की किसी स्याह रात में ।
निर्वासित जीवन की
किसी स्याह रात में
मुसलसल गिरती बारिश के बीच
भीगते हुए महसूस किया
कि अंदर की बंज़र ज़मीन
सूखी की सूखी रही ।
किसी स्याह रात में
मुसलसल गिरती बारिश के बीच
भीगते हुए महसूस किया
कि अंदर की बंज़र ज़मीन
सूखी की सूखी रही ।
उस ज़मीन पर ही
एक पागलखाना है
जहाँ के दिन धूसर
रातें
आवारगी, संगदिली
और लापरवाही से गुलज़ार ।
एक पागलखाना है
जहाँ के दिन धूसर
रातें
आवारगी, संगदिली
और लापरवाही से गुलज़ार ।
वहाँ की राह
फ़क़ीरी की राह
जिन पर न जाने कौन सी
परछाईयों का जुलूस
जो थोड़े से गुनाहों के अरमान में
शब्दों से रंग छानते
भावों में उन्हें गूँथते
चले जा रहे हैं
अपनी ख़ुशी व ख़याल से ।
फ़क़ीरी की राह
जिन पर न जाने कौन सी
परछाईयों का जुलूस
जो थोड़े से गुनाहों के अरमान में
शब्दों से रंग छानते
भावों में उन्हें गूँथते
चले जा रहे हैं
अपनी ख़ुशी व ख़याल से ।
वहाँ
किसी अंधी गली के भीतर
कुछ लोग
अपनी भाषा
भूल गये हैं
और
तरह-तरह के
हादसों के ख़ौफ़ में
वे
एक हाँथ चाहते हैं
अपनी पीठ पर ।
किसी अंधी गली के भीतर
कुछ लोग
अपनी भाषा
भूल गये हैं
और
तरह-तरह के
हादसों के ख़ौफ़ में
वे
एक हाँथ चाहते हैं
अपनी पीठ पर ।
लेकिन
यहीं वह भी है जो
पूछता है कि
क्या किसी की याद नहीं आती ?
और आती है तो
फीते से ज़िन्दगी को नापना क्यों ?
आख़िर
नमाज़ों, घंटों,घाटों औऱ
तमाम निज़ामों के बीच
कोई बेनियाज़ क्यों नहीं ?
यहीं वह भी है जो
पूछता है कि
क्या किसी की याद नहीं आती ?
और आती है तो
फीते से ज़िन्दगी को नापना क्यों ?
आख़िर
नमाज़ों, घंटों,घाटों औऱ
तमाम निज़ामों के बीच
कोई बेनियाज़ क्यों नहीं ?
---- डॉ मनीष कुमार मिश्रा
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