Saturday, 23 May 2015
ज़ल्द ही आप लोगों के बीच
Tuesday, 28 April 2015
कुछ था कि जो
होकर ही महसूस किया
न होने के फ़लसफ़े को
और यह भी कि
तुम आवेग के आगे
प्रेम के आगे
अपनी मतलब परस्ती के बाद
टूंट की गूँज के बाद
बिना किसी अपराध बोध के
जब कभी फ़िर
चाहोगी तो
वो सब पुराना
पहले से कंही जादा
नया और चटक होकर
मिलेगा फ़िर तुम्हें
बिना किसी शिकायत के
तुम में डूबा हुआ
तुमसे ही पूरा हुआ
वो सब
जो बिखरा पड़ा है
टूटा और बेकार सा
उसी किसी कोने में
जहाँ कि
तुम लौटो कभी
या कि फ़िर पल दो पल
चाहो रुकना
खेलना
तोड़ना
या डूबना
ताकि उबर सको
मुस्कुरा सको
और कह सको कि
तुम्हें ज़रुरत तो नहीं थी पर
कुछ था कि जो
हो जाता तो
बेहतर था ।
सोचता हूँ
यह क्या था ?
यह क्या है ?
जो मेरे अंदर
तुम्हारे होने न होने से
परे है
लेकिन है
तुम्हारे लिये ही
जब कि तुम्हें
ज़रूरत नहीं है
और
कोई शिकायत भी नहीं ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
न होने के फ़लसफ़े को
और यह भी कि
तुम आवेग के आगे
प्रेम के आगे
अपनी मतलब परस्ती के बाद
टूंट की गूँज के बाद
बिना किसी अपराध बोध के
जब कभी फ़िर
चाहोगी तो
वो सब पुराना
पहले से कंही जादा
नया और चटक होकर
मिलेगा फ़िर तुम्हें
बिना किसी शिकायत के
तुम में डूबा हुआ
तुमसे ही पूरा हुआ
वो सब
जो बिखरा पड़ा है
टूटा और बेकार सा
उसी किसी कोने में
जहाँ कि
तुम लौटो कभी
या कि फ़िर पल दो पल
चाहो रुकना
खेलना
तोड़ना
या डूबना
ताकि उबर सको
मुस्कुरा सको
और कह सको कि
तुम्हें ज़रुरत तो नहीं थी पर
कुछ था कि जो
हो जाता तो
बेहतर था ।
सोचता हूँ
यह क्या था ?
यह क्या है ?
जो मेरे अंदर
तुम्हारे होने न होने से
परे है
लेकिन है
तुम्हारे लिये ही
जब कि तुम्हें
ज़रूरत नहीं है
और
कोई शिकायत भी नहीं ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
Saturday, 18 April 2015
होकर औरत ही
धूप सी सुनहली
गर्म और बिखरी हुई
सर्दियों सी कपकपाती
ठिठुरती और सिमटी हुई
बारिश की बूंदों सी टिपटिपाती
बरसती और भिगोती हुई
रात सी ख़ामोश
दिन के कोलाहल से भरी हुई
सीधी और सरल सी
नरम गरम और पथराई हुई
ज़िन्दगी सी
उलझी हुई
तुम जो सुलझाती हो
वो गाँठें
ख़ुद को बांधे
इतने बंधनों में
इतने जतन से
सालों
शताब्दियों
सहस्त्राब्दियों से
तुम
औरत होकर भी
नहीं नहीं
तुम औरत हो
और
होकर औरत ही
तुम कर सकती हो
वह सब
जिनके होने से ही
होने का कुछ अर्थ है
अन्यथा
जो भी है
सब का सब
व्यर्थ है ।
----- मनीष
गर्म और बिखरी हुई
सर्दियों सी कपकपाती
ठिठुरती और सिमटी हुई
बारिश की बूंदों सी टिपटिपाती
बरसती और भिगोती हुई
रात सी ख़ामोश
दिन के कोलाहल से भरी हुई
सीधी और सरल सी
नरम गरम और पथराई हुई
ज़िन्दगी सी
उलझी हुई
तुम जो सुलझाती हो
वो गाँठें
ख़ुद को बांधे
इतने बंधनों में
इतने जतन से
सालों
शताब्दियों
सहस्त्राब्दियों से
तुम
औरत होकर भी
नहीं नहीं
तुम औरत हो
और
होकर औरत ही
तुम कर सकती हो
वह सब
जिनके होने से ही
होने का कुछ अर्थ है
अन्यथा
जो भी है
सब का सब
व्यर्थ है ।
----- मनीष
Friday, 17 April 2015
मुझे मेरी तलाश है लेकिन
मुझे मेरी तलाश है लेकिन
लोग कहते हैं नासमझ हूँ ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
लोग कहते हैं नासमझ हूँ ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
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मुझे मेरी तलाश है लेकिन
Sunday, 22 February 2015
होली के हुडदंग का
भंग छान सब मस्त रहें
काशी में शिव संग ।
होली के हुडदंग का
यहाँ अनोखा रंग ।
शाहन का भी शाह फकीरा
फ़िरे घाट होइ झंट ।
बम बम बोल भक्त यहाँ
ठेउने पर पाखंड ।
बोल कबीरा के बोले
और झूमें तुलसी संग ।
हरफन मौला,छोड़ झमेला
यही बनारसी ढंग ।
रोम रोम पुलकित हो जाये
जब भी देखूं पावन गंग ।
बड़े बड़े बकैत यहाँ
अड़ीबाज हो करते जंग ।
पान चबाकर कुर्ता झारकर
बातों से करते दंग ।
लंकेटिंग की बात निराली
जादा तर अड्बंग ।
बना रहे ये रंग बनारस
हो ना टस से मस ।
सांड सुशोभित गलियों में
बच्चे फिरते नंग धडंग ।
मुर्दों का मेला ठेला
दाह हो रहे अंग ।
इच्छाओं को दाह कर
मुस्काते हैं मलंग ।
काशी की है बात निराली
अर्धचंद्र इसका अलंग ।
अड़ी खड़ी भोले त्रिशूल पर
उनको भी अति प्रिय ।
----------
डॉ मनीषकुमार सी. मिश्रा
काशी में शिव संग ।
होली के हुडदंग का
यहाँ अनोखा रंग ।
शाहन का भी शाह फकीरा
फ़िरे घाट होइ झंट ।
बम बम बोल भक्त यहाँ
ठेउने पर पाखंड ।
बोल कबीरा के बोले
और झूमें तुलसी संग ।
हरफन मौला,छोड़ झमेला
यही बनारसी ढंग ।
रोम रोम पुलकित हो जाये
जब भी देखूं पावन गंग ।
बड़े बड़े बकैत यहाँ
अड़ीबाज हो करते जंग ।
पान चबाकर कुर्ता झारकर
बातों से करते दंग ।
लंकेटिंग की बात निराली
जादा तर अड्बंग ।
बना रहे ये रंग बनारस
हो ना टस से मस ।
सांड सुशोभित गलियों में
बच्चे फिरते नंग धडंग ।
मुर्दों का मेला ठेला
दाह हो रहे अंग ।
इच्छाओं को दाह कर
मुस्काते हैं मलंग ।
काशी की है बात निराली
अर्धचंद्र इसका अलंग ।
अड़ी खड़ी भोले त्रिशूल पर
उनको भी अति प्रिय ।
----------
डॉ मनीषकुमार सी. मिश्रा
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