Tuesday, 9 April 2013

मैं नहीं चाहता चिर दुख

मैं नहीं चाहता चिर दुख
,
सुख दुख की खेल मिचौनी

खोले जीवन अपना मुख!

सुख-दुख के मधुर मिलन से

यह जीवन हो परिपूरण,

फिर घन में ओझल हो शशि,

फिर शशि से ओझल हो घन!


जग पीड़ित है अति दुख से


जग पीड़ित रे अति सुख से,


मानव जग में बँट जाएँ


दुख सुख से औ' सुख दुख से!


अविरत दुख है उत्पीड़न,


अविरत सुख भी उत्पीड़न,


दुख-सुख की निशा-दिवा में,


सोता-जगता जग-जीवन।


यह साँझ-उषा का आँगन,


आलिंगन विरह-मिलन का;


चिर हास-अश्रुमय आनन


रे इस मानव-जीवन का!

Monday, 8 April 2013

सतारा


जब मेरे पास,मेरा क़ातिल नहीं होगा

इसतरह  तो कुछ, हासिल नहीं होगा
जब मेरे पास,मेरा क़ातिल नहीं होगा ।

डूब कर जाऊँ भी तो, कहाँ जाऊँ
जब जिक्र में, कोई साहिल नहीं होगा ।



खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं / वसीम बरेलवी



खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं

वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा
उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं

जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है ग़रूर
तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं

कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ दे
मेरे हाथों में मेरा घर तो है, दरवाज़ा नहीं

अपनों को अपना कहा, चाहे किसी दर्जे के हों
और अब ऐसा किया मैंने, तो शरमाया नहीं

उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी, जिनके चराग़
मैं भी कुछ होता, तो मेरा भी दिया होता नहीं

तुझसे क्या बिछड़ा, मेरी सारी हक़ीक़त खुल गयी
अब कोई मौसम मिले, तो मुझसे शरमाता नहीं

Thursday, 21 March 2013

24 मार्च को सातारा में सेमिनार

सातारा जिला हिंदी अध्यापक मण्डल एवं महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के संयुक्त तत्वावधन में आयोजित एक दिवसीय परिसंवाद में प्रमुख अतिथि के रूप में मैं सहभागी हो रहा हूँ ।

डॉ कामायनी सुर्वे मैडम के विशेष आग्रह और मित्रों से मुलाक़ात का एक बहाना मिल गया । 

ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन

✦ शोध आलेख “ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन लेखक : डॉ. मनीष कुमार मिश्र समीक्षक : डॉ शमा ...