Friday, 28 September 2012

मेरी कवितायें भाग- 2


          51. गाँव से शहर

गाँव से शहर को आती सड़क के किनारे
कई लोग हांथ हिलाते दिखते हैं
किसी की नम आँखों में
सुनहरे सपने दिखते हैं ।

शहर गाँव को सपने दिखाता है
सपनों से पास बुलाता है
लेकिन गाँव से शहर के बीच में
बहुत कुछ छूट जाता है ।

शहर जितना भरमाता है
गाँव उतना ही तरसाता है
जरूरतों के हाथ बिककर ही
कोई गाँव से शहर आता है ।





          52. अब तो यह ज़िंदगी
          मौत से जितना बच पाता हूँ
          उतना जीने की कोशिश करता हूँ
          आज़ कल ज़िंदगी ,
          बहुत डराने लगी है

          हादसों के बीच दबी सहमी
          हमेशा डरी- डरी सी
          अब तो यह ज़िंदगी
          बोझ लगने लगी है  ।











53. इस देश में संवेदनाएं
सुबह का अख़बार/ नाश्ता
कुछ देर से मिला
चुसकियों के साथ
सिसकियों का
अंदाज-ए-बयान

इस देश में संवेदनाएं
वेदनाओं के साथ
नहीं फूट रहीं हैं
आत्मकेंद्रियता में
बस टूट रही हैं









               54. तब वह भी मेरी तरह
 उसके भीगे हुए बालों से
 शबनम जब टूट कर बिखरती होगी
 उसकी पलकों के सहारे
 जब नजर कंही रुकती होगी
 उसके सुर्ख ओठों से
जब मुस्कान बिखरती होगी
उसकी नर्म और गर्म हथेली को
जब हवा छूकर गुजरती होगी
उसके कदमों की हर आहट पे
जब खुशबू बिखरती होगी
यादों में खोकर
जब वह भी मचलती होगी
तब वह भी मेरी तरह
शायद छत पे जाकर
बस चाँद देखती होगी ।





              55. तेरी इन आँखों ने
तेरी इन आँखों ने
जितने भी बयान दिये
गुनाह सारे
मेरे ही नाम किए
मैं सोचता रहा
फकत इतना कि
हालात पे अपने हम
हँस लें
या कि रो लें ।













56. तेरा मुझसे लिपट जाना
हर शाम गुजरती है
इन घने कोहरों के बीच
छा जाना कोहरे का
इन पहाड़ों पे
वैसे  ही लगा जैसे
तेरा मुझसे लिपट जाना ।





                                       








57. मैंने कुछ गालियां सीखी हैं
मैंने पूछा –
इन दिनों नया क्या सीख रही हो
उसने कहा-
पता है
मैंने कुछ गालियां सीखी हैं
यहाँ की प्रादेशिक भाषा में
मैंने कहा –
तुम्हें गालियों की क्या जरूरत पड़ गयी
उसने कहा –
यहाँ अब देश नहीं
प्रादेशिकता महत्वपूर्ण होने लगी है
प्रादेशिक भाषा में गाली देने से ही
हम अपने सम्मान की रक्षा कर पाते हैं
पराये नहीं अपने समझे जाते हैं
इस देश के कई प्रदेशों में
आत्मसम्मान से जीने के लिए
अब गालियां जरूरी हैं ।
             


58. वो मौसम 
मैंने बातों बातों में
फोन पे ही पूछा –
इतने दिनों बाद आ रहा हूँ
बोलो ,
तुम्हारे लिए क्या लाऊँ
उसने कहा-
वो मौसम 
जो हमारा हो
हमारे लिए हो
और हमारे साथ हो ,
हमेशा ।









59. टार्च
इन पहाड़ों पे हमेशा
एक टार्च, छाता और पानी की बोतल
साथ रखनी पड़ती है
एक आदत सी पड़ गयी है
टार्च
शाम के धुंधलके में रास्ता दिखाता है
छाता अचानक हुई बारिश से बचाता है
और चलते-चलते थक जाने पे
पानी सूखते गले को तर कर देता है
थोड़ा अजीब लगता है
यहाँ अचानक भी
अमूमन इससे जादा
कुछ भी नहीं होता है ।







60. नेल पालिश
अपनी लंबी,पतली और गोरी उँगलियों पे
लगे नेल पालिश को दिखाते हुए
उसने पूछा –
तुम्हें ये अच्छे लगे
आज ही लगाए हैं
लेटेस्ट पैटर्न   है
मैंने मुस्कुराते हुए कहा –
बहुत अच्छे हैं
तुम्हारे हांथ बहुत अच्छे हैं
तुम  बहुत अच्छी हो
तुमसे जुड़ी हर चीज बहुत अच्छी है
कुछ चीजें पुराने पैटर्न की भी हैं
बस उनके बारे में नहीं कह सकता
वह बोली-
नहीं,
तुम बहुत अच्छे हो




61. कैमरा
हर सुंदर नजारे को
अपनी यादों में कैद करने के लिए
हमने एक कैमरा खरीदा था
लेकिन हम भूल गए थे कि
कैमरा यादों को कैद कर सकता है
लौटा नहीं सकता
वैसे ही जैसे कि
यादों को जिया जाता है
तुम्हारे बाद तो
वह पड़े-पड़े ख़ुद ही ख़राब हो गया
या कहूँ तो
ख़ुद एक याद बन गया
वो भी
बिना एलबम के ।






62. चश्मा
इन आँखों को भी
आंखे चाहिए होती हैं
करीब की चीजों को
साफ-साफ देखेन के लिए
मुझे करीब की चीजों को
साफ-साफ देखने में दिक्कत होती है
चश्मे से
चीजें तो साफ दिख जाती हैं लेकिन
करीब के लोगों को पहचानने में
अभी भी दिक्कत होती है
चश्मा वहाँ काम नहीं करता ।









63. लाईटर
जेब टटोली तो
सिगरेट का पैकेट और लाईटर
दोनों मिल गए 
लेकिन पैकेट में सिगरेट नहीं थे
रात के दो बजे,
 कंही मिल भी नहीं सकते थे
सिगरेट का पैकेट फ़ेक दिया
और लाईटर
इस उम्मीद में जला ली कि
शायद कंही कोई सिगरेट
यहाँ-वहाँ रख भूल गया हूँ
ऐश ट्रे के पास
जली सिगरेटों की
नाउम्मीदी के सिवा कुछ ना था
लाईटर वापस जेब में रखकर
मैं और लाईटर
एक नई उम्मीद के साथ
सो गए / बुझ गए ।


64. स्वैटर
ठंडी से बचने के लिए
जब आलमारी में
गर्म कपड़े खोजने लगा तो
ढेरों शालों, सूट और ब्लेज़र के बीच
नीले रंग का
एक पुराना स्वैटर भी दिखा
सालों पहलें
तुमने अपने हांथों से बुनकर
किसी सर्दी में दिया था
पहन के देखा तो
थोड़ा चुस्त तो लगा लेकिन
मुझे आरामदायक और गर्म लगा
ना जाने कितनी सर्दियों की गर्माहट
आज मैं महसूस कर रहा था ।






       65.पेन
 वो पेन
 जो लैपटाप लाने के बाद
 मैं कम इस्तमाल करता हूँ
 स्टडी टेबल पर रखा तो है
 लेकिन सिर्फ़
 शोभा के लिए
 मैं भी सिर्फ़ शोभा या आदर का
 पात्र बनने से डरता हूँ इसलिए
 नई चीजों से जुड़ता रहता हूँ
 मेरा डर मुझे
 जोड़ता रहता है ।









66. पावर प्वाइंट 
पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन
के द्वारा
एक विद्वान महिला
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में
नदियों पे बिजली के लिए
बाँध बनाने की योजना पे
विद्वतापूर्ण चिंता व्यक्त कर रही थी
अपना आलेख समाप्त कर
हर्षित और खिली –खिली
वो महिला
तब अवाक रह गयी जब
मैंने पूछ लिया कि-
मैडम,
बिना पावर के
आपका पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन
कैसे होगा ?




          67. समाचार
बी.ए. की कक्षा में
चुलबुली सी उस लड़की ने
मुझसे पूछा कि-
सर, समाचार क्या होता है
मैंने कहा –
हर लड़की
एक समाचार होती है
और जो नहीं होती
उसका दर्द
सिर्फ़ वो ही जानती है ।
                     









      68. लिफ़ाफ़ा
 लिफ़ाफ़ा फाड़ के ख़त
 निकाल लिया जाता है
 फिर ख़त को संभालकर
 रखने के बाद
 लिफाफे को मोड़कर
 फ़ेक दिया जाता है
इसीतरह एक लिफ़ाफ़े को फेकते हुए
एकाएक जहन में
 ख़्याल आया कि
कई लोगों ने मुझे भी
सिर्फ़ और सिर्फ़
लिफ़ाफ़ा ही समझा ।










      69. नेलकटर
 बढ़े हुए नाखूनों को देखकर
 नेलकटर खोजने लगा
 फ़िर नाखूनों को काटते हुए
 सोचने लगा कि –
 अनावश्यक और अनचाही
 हर बात के लिए
 मेरे पास
 एक नेलकटर
 क्यों नहीं है ?











     70. वैलेट
3 साल की
छोटी बिटिया
स्कूल से पैदल घर आते हुए
अचानक मेरे पैरों से
 लिपट गयी
 मैंने उसकी तरफ देखा तो
उसने मांजिनीश की दुकान की तरफ
इशारा कर दिया
मैंने जब वैलेट देखा तो
वह लगभग खाली था
मैंने बिटिया से कहा –
आज पैसे नहीं हैं
 वह बोली –
पैसे नहीं
मुझे केक चाहिए
अब मैं उसे
 कुछ नहीं बताना चाहता था
मैंने लगभग खाली वैलेट को
पूरी तरह
 खाली हो जाने दिया
बिटिया
 केक पाकर खुश थी
और मैं
पूरी तरह खाली होकर ।

                                                                        

















71. पुरानी डायरी के पन्ने
पलटे हुए
 पुरानी डायरी के पन्ने
पलटता रहा
 अपना अतीत
और जीता रहा
उन सपनों के साथ
जो कभी
पूरे तो नहीं हुए लेकिन
हमेशा के लिए
मेरे साथ रहने लगे ।










  72. तेरे हांथों के लिखे ख़त
आज  पुरानी रद्दी को
रद्दी घोषित करने से पहले
जब देख रहा था तो
तेरे हांथों के लिखे
कुछ ख़त भी
ख़जाने की तरह मिल गए
अब यह ख़जाना
बेचैन किए रहता है ।












73. इंटरनेट
इस दुनिया से जुड़कर भी
इससे जुड़े रहने के लिए
एक वर्चुअल दुनिया
तकनीक ने इजात की है
जिसे इंटरनेट कहते हैं
दो फेस के बीच
अब फ़ेसबुक है
मिल –बैठ बातें करने के लिए
आन लाईन चैटिंग है
विडियो कान्फ्रेंसिंग है
इस वर्चुअल दुनिया में
हम ख़ुद को बनाते हैं
कोई ब्रह्मा नहीं
लेकिन ख़ुद को बनाने में
अक्सर हम बनाने लगते हैं
लगभग हर किसी को
जबकि सच्चाई
कंही और होती है
वर्चुअल और रियल के बीच
दमित भावनाओं और इच्छाओं के साथ
टहलती हुई
हमारी सच्चाई
जिसे हम लगातार
झुठलाते रहते हैं ।

















74. मेरी आँखें
मैंने कइयों से
यह सुना है कि
मेरी आँखें
बहुत बोलती हैं
सुबकुछ बोलती हैं
शायद इसीलिए
तुम हमेशा कहती थी
तुम्हारी आँखें
इजहार करना जानती हैं
तुम कुछ मत बोला करो ।










75. जूते
घिसे हुए जूते
और घिसा हुआ आदमी
बस एक दिन
रिप्लेस कर दिया जाता है
क्योंकि घिसते रहना
अब किस्मत नहीं चमकाती ।















75. तुम
तुम जो भी हो
तुम्हारा नाम जो भी हो
इतना तो सच है कि
तुम बराबर शामिल रही हो
और शामिल रहोगी
मेरे कुछ होने और
न होने के बीच ।














76. विजिटिंग कार्ड्स
एक शाम
इच्छा हुई कि
किसी से मिल आते हैं
किसी के यहाँ हो आते हैं
लेकिन किसके
टेबल पे रखे
सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स मे से
एक भी ऐसा न मिला
जिससे मिल आत
बिना किसी काम
बस ऐसे ही
सिर्फ मिलने के लिए
ऐसा कोई नहीं मिला ।







      77. परफ़्यूम
आज जब अचानक
एक परफ्यूम की दुकान
के सामने पहुँच कर
लगा वही परफ्यूम खरीदूँ
जिसकी ख़ुशबू में
तुम लिपटी रहती थी
वही नाम भी बताया
लेकिन उस परफ्यूम में
वो ख़ुशबू नहीं मिली
जो तुम्हारे बदन से आती थी
शायद वह
कंही और नहीं मिलेगी ।

















IIAS SHIMLA ASSOCIATE GROUP SEPTEMBER 2012


डॉ देवेन्द्र कुमार

मेरे ब्लाग सहयोगी एवं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अँग्रेजी विभाग में असिसटेंट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत डॉ देवेन्द्र कुमार ने हरियाणवी लोक संस्कृति के ऊपर अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया एवं कुछ गीतों को गुनगुनाया भी । इन गीतों की एक झलक आप यू ट्यूब के http://youtu.be/ws9yHPP-csA इस लिंक पे देख और सुन सकते हैं। डॉ देवेन्द्र स्वयं भी एक अच्छे कवि हैं । आप की एक कविता यहाँ दे रहा हूँ



                                                          खामोश चिड़िया
चिड़िया, तुम चुप हो ?
मै तो सोचता था अब तक
कि चिड़ियाँ चहकती ही रहती हैं—
सुबह हो, शाम हो, ढलती दोपहर हो ।
बरसों से मेरे घर के आँगन में तुम
भरी दुपहरी में भी चिकचिक करती रहती थीं ।
खेत से लौटी थकी-हारी मेरी माँ को तुम
कच्ची दालान में
                 दो पल भी चैन न लेने देती थीं ।
पसीने से तर माँ के मुंह पर पड़ी
ओढनी से उठती ललकार पर भी तुम
ज़रा न सहमती थीं ।
उसके हाथ आए ज्वार के फरड़े के
लहरने पर भी तुम न घबराती थीं ।
क्या हुआ जो पलभर  तुम
दालान कि कड़ियाँ छोड़
ड्योढ़ी पर लटक गयीं !
लेकिन मुझे याद है तुम्हारा चहकना
कभी दुलार से
अपने बच्चों के लिए,
कभी माँ की डांट खाकर
गुस्से में,
कभी फरड़े की चपेट से बचकर
क्षणिक पलायन के दौरान
तुम्हारा वो गुस्से से चिर्राना
और माँ पर तरह-तरह के
तिनके, तन्तु और तार गिराना ।
मैने देखा है तुम्हारा चहकना
असंख्य दुपहरियों की नोक-झोंक में ।
मैने तुम्हें ऐसे ही देखा है चिड़िया ।
मैं सोचता था अब तक
तुम हो ही ऐसी ।
लेकिन आज
विश्वविद्यालय के परीक्षा-भवन में तुम
अपने बच्चों के साथ रोशनदान में बैठी
खामोश हो, मौन हो, सहमी हो !
मुझे तो तब पता चला जब तुमसे
शायद अनजाने में
तुम्हारी सूखी बींठ के ढेर से
कुछ कण लुढ़क गए और
परीक्षा-भवन की तंद्रा तोड़ गए ।
तुम शायद किसी काम से
इस रोशनदान से उस रोशनदान तक गयीं
और वापिस आ गयीं — चुपचाप ।
आज भी वही गर्मी की दोपहर है
लू और धूल-भरी,
वही खामोशी पसरी है
तुम्हारी मनमाफिक ,
लेकिन, चिडिया, तुम खामोश हो !
क्या तुम जान गयी हो
यहाँ महत्त्वपूर्ण परीक्षा चल रही है
और शोर करना मना है?
या तुम्हें डर है
की कोई तुम्हें इस ठंडे कमरे से बेदखल कर देगा ?
शायद इसीलिए तुम खामोश हो
क्योंकि पहले
न तो मेरी माँ परीक्षा दे रही होती थी,
और न ही उसकी कच्ची दालान में
तुम्हारी मनचाही ठंडक होती थी
जिसके लालच में तुम
खामोश रहतीं ।

Two days online international Conference

 International Institute of Central Asian Studies (IICAS), Samarkand, Uzbekistan (by UNESCO Silk Road Programme ) Alfraganus University, Tas...