

मैं ने इस मंदिर की मूर्तियों की कई तस्वीरें ली
और साथ ही पत्थर का छोटा सा कोणार्क पहिया भी जो इस मंदिर का प्रतीक है । उड़ीसा के
कई घरों और होटलों के प्रवेश द्वार पे आप को यह पहिया दिख जाएगा ,
मानो यह पहिया उनके इतिहास के साथ-साथ उनके भविष्य को भी गति प्रदान करता है ।
उनका विश्वाश तो कम से कम यही बताता था ।
कोणार्क की यादों को मन में सजोएं हमने भी अपनी गाड़ी के पहिये के साथ पुरी की तरफ
रवाना हुवे । रास्ते में पिपली करके एक जगह भी पड़ा जो अपने विशेष प्रकार की
कलाकृतियों और कपड़ों पर नक्काशी और कढ़ाई के काम के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है ।
उड़ीसा की कलात्मक पहचान में पिपली का महत्वपूर्ण योगदान है । वहाँ सड़क के दोनों
किनारों पर सजी दुकानों को देखकर आप बिना रुके नहीं रह सकते । हम भी रुके और थोड़ी
ख़रीदारी के बाद आगे बढ़ गए ।

हम पुरी पहुंचे और नन्दा
बाबू ( कमलनी जी के जीजाजी ) के आदेशानुसार भाई रमेश हमारे इंतजार में खड़े थे ।
रमेश जो पुलिश विभाग में हैं और मंदिर मे ही तैनात थे ,
इसलिए उनका साथ रहना हमारे लिए बड़ा फायदेमंद रहा । जगन्नाथ पुरी देश का एक मात्र
मंदिर है जिसके अंदर के प्रशासन में भारत सरकार का दखल नहीं चलता । अंदर की सारी
व्यवस्था मंदिर ट्रस्ट और मंदिर के पुजारियों और पंडों द्वारा की जाती है । लेकिन
रमेश जी स्थानिक थे और पुलिश में थे इसलिए उन्हे सभी पहचानते थे । हम लोग मोबाईल,
कैमरा, लेदर का पर्स , बेल्ट और जूते गाड़ी में ही छोडकर मंदिर की तरफ चल
पड़े । ये व्स्तुए मंदिर परिसर में वर्जित हैं , वैसे हम नियम से कार भी
मंदिर के उतने करीब नहीं ले जा सकते थे लेकिन रमेश जी के कारण किसी ने हमारी गाड़ी
रोकी नहीं ।



रात के खाने में बड़ी दीदी
ने बाँस की चटनी खिलाई जो मैंने पहले कभी नहीं खाई थी । दीदी थी तो क्राइम ब्रांच
फोरेंसिक विभाग में लेकिन धर्म और क्लाकृतियों में उनकी बहुत रुचि थी । उन्होने
मुझे जगन्नाथ जी की मूर्ति भी उपहार में दी । दूसरे दिन जब सुबह मुझे स्टेशन छोडने
आयी तो भाऊक हो उठी , मैं पाणिग्रही परिवार से पहली बार मिला था ,
लेकिन अब यह परिवार अपना ही लग रहा है । उड़ीसा की यह पहली यात्रा हमेशा याद रहेगी
।