Tuesday, 6 April 2010

बोध कथा १७ : नमकहराम

बोध कथा १७ : नमकहराम
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                                राजा तेजबहादुर सिंह को शिकार का बड़ा शौख  था. वे न्यायप्रिय भी थे. जनता का ख़याल अपने परिवार से भी बढ़ कर रखते थे. वे अन्याय और अत्याचार के घोर विरोधी थे. उनके सारे मंत्री किसी भी गलत काम को करने से डरते थे. राज्य पूरी तरह से  संपन्न था.  
                                 राजा एक बार हमेशा क़ी तरह ही जंगल में  शिकार खेलने के लिए गए.दिन भर जंगल में कड़ी मेहनत करने के बाद वे एक हिरन का शिकार करने में कामयाब हुवे. सैनिक जब हिरन को पकाने क़ी तैयारी कर रहे थे,तभी उनको ज्ञात हुवा क़ि वे अपने साथ नमक लाना तो भूल ही गए हैं. एक सैनिक राजा के पास आकर इस बात क़ी सूचना देता है. राजा दो पल चुप रहे ,फिर जेब से एक सोने क़ी अशर्फी निकाल कर सैनिक को देते हुवे बोले,''कोई बात नहीं.तुम पास के गाँव में जाओ और किसी भी भी घर से नमक मांग लाओ .याद रहे ,जिसके पास से भी नमक लेना उसे नमक के मूल्य स्वरूप ये एक सोने क़ी अशर्फी दे देना .''
                           राजा क़ी बात सुनकर साथ आये मंत्री को आश्चर्य हुवा. वे बोले ,''महाराज,आस -पास के गाँव भी हमारी सत्ता के ही अंदर हैं. थोड़े से नमक के लिए मूल्य चुकाने क़ी क्या जरूरत है.? कोई भी गाँव वासी खुशी-ख़ुशी  नमक यूं ही दे देगा.फिर ये अशर्फी क्यों ?'' 
                              मंत्री क़ी बात सुन कर राजा मुस्कुराये,फिर बोले ,''मंत्री जी, बात समझने क़ी कोशिस कीजिये .हम यंहा के राजा हैं. अगर हम अपनी प्रजा का नामक यूं ही खा  लेंगे तो हमारे लोगों को नमकहराम बनने में कितना समय लगेगा ? हम अपने लोगों के लिए कोई गलत उदाहरण नहीं बनना चाहते .''
                             राजा क़ी बात मंत्री जी की समझ में आ गयी. और वे राजा क़ी जयजयकार करने लगे. 
 इस कहानी से हमे यह सीख मिलती है क़ि- 
''हमे सिर्फ आदर्शों क़ी बात नहीं बल्कि अपने जीवन में उसे उतारना भी चाहिए.सिर्फ व्यवस्था को दोष देने से काम नहीं चलेगा,हमे अपने अस्तर पर उसे बदलने की कोशिस भी करनी चाहिए.''  
 किसी ने लिखा भी है क़ि ---------------------------------
                         '' सिर्फ उपदेश नहीं ,आचरण भी वैसा चाहिए 
                  हमे खुद अपनी बातों का,मिसाल होना चाहिए '' 
 

Monday, 5 April 2010

बोध कथा -१६ :कल आना

बोध कथा -१६ :कल आना 
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                                 किसी राज्य में हर्षवर्धन  नामक एक राजा राज्य करता था. वह बड़ा ही दानी और सरल ह्रदय का था.उसकी दानवीरता क़ी कहानी दूर-दूर तक फैली हुई थी. राज्य क़ी प्रजा अपने राजा का बड़ा आदर करती थी. उन्हें इस बात का गर्व था क़ी उनके पास इतना महान राजा है.
                               एक दिन जब दरबार खत्म होनेवाला था लगभा तभी एक ब्राह्मण राजा के दरबार में आया. उस ब्राह्मण ने अपनी कन्या के विवाह के लिए राजा से १०० स्वर्ण मुद्राएँ मांगी.राजा दरबार खत्म कर जल्दी जाना चाहते थे,इसलिए उन्होंने उस ब्राह्मण से कहा क़ि,''आप कल आइये ,हम आप को १०० स्वर्ण मुद्राएँ दिलवा देंगे .'' राजा क़ि बात सुन कर वह ब्राह्मण ख़ुशी-ख़ुशी जाने को हुआ तभी राजा के विद्वान महामंत्री ने उठकर जोर-जोर से घोषणा शुरू कर दी क़ि ,''महाराज क़ी जय हो !महाराज क़ी जय हो !! आपने काल को जीत लिया ,आप महाकाल हो गए !आप क़ी जय हो !आप क़ी जय हो !''
                              राजा कुछ समझ नहीं पा रहे थे. उन्होंने कब काल को जीता ? वे महाकाल कैसे हो गए ? आखिर उन्होंने महामंत्री से इस घोषणा का कारण पूछा तो महामंत्री ने विनम्रता पूर्वक कहा ,''महाराज ,अभी-अभी आप ने इस ब्राह्मण को कल आने के लिए कहा है. साथ ही साथ कल आप ने इन्हें १०० स्वर्ण मुद्राएँ देने का वचन भी दिया है.लेकिन महाराज कल किसने देखा है ? कल का क्या भरोसा है ? कोन जाने कल तक आप या मैं रहूँ या ना रहूँ ? लेकिन आप को कल का विश्वाश है,तो आप महाकाल हुवे क़ी नहीं ?''
                          राजा को अपनी गलती समझ में आ गयी. उन्होंने ब्राह्मण से क्षमा मांगते हुवे उन्हें तुरंत  १०० स्वर्ण मुद्राएँ दिलाई .सब राजा और महामंत्री क़ी जय-जयकार करने लगे.
                          इस कहानी से हमे सीख मिलती है क़ी हमे कभी भी आज का काम कल पे नहीं डालना चाहिए .किसी ने लिखा भी है क़ि------------------------------
                      '' काल करे सो आज कर,आज करे सो अब 
                 पल में प्रलय होयगी ,बहुरी करोगे कब ''  

Sunday, 4 April 2010

hindi translation and content writer/teacher

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बिन प्यासा पानी चाहूँ , बिन तरसे प्यार /

बिन प्यासा पानी चाहूँ , बिन तरसे प्यार ;
राई के पर्वत पे बैठा , कैसे जायु पार;
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इक तरफ है आइना , इक तरफ तस्वीर पुरानी ,
कुछ यादें हैं और चलती जिंदगानी ;
ना शौक है आइना देखूं , न चाहता हूँ पुरानी कहानी ;
ना जोर है दिले मोहब्बत पे , ना मांगूं तेरी मेहरबानी /
.
बिन प्यासा पानी चाहूँ , बिन तरसे प्यार ;
राई के पर्वत पे बैठा , कैसे जायु पार
/
.
तेरे चेहरे के नूर , तेरे व्यंगों का तीर ;
खिलाता ह्रदय , बेध जाता जिगर ;
मोहब्बत के मजमून , सदायें रंगीन ;
वो उलझे इरादे , वो जफ़ाएं हसीन ;
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इक ओर दिल है , इक ओर अच्छाई ;
बिना भावों की , क्या कोई सच्चाई ;
वो मान्यताओं की सांकल , ये प्यार का खुला हुआ आँचल ;
उधर है ज़माने की रीती , इधर है मोहब्बत और प्रीती ;
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बिन प्यासा पानी चाहूँ , बिन तरसे प्यार ;
राई के पर्वत पे बैठा , कैसे जायु पार /
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Saturday, 3 April 2010

थी क्या तलाश जो तू मेरा ना हुआ ,

थी क्या तलाश जो तू मेरा ना हुआ ,
वो भी क्या मुलाकात जो अँधेरा न हुआ ;
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शिद्दत की चाहों से ,
बेपनाह मोहब्बत की राहों से ,
क्या शिकायत थी मेरी भावों से ,
क्यूँ नहीं लौटा क्यूँ मेरा ना हुआ ,
ऐसी भी क्या रात जो सबेरा न हुआ;
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थी क्या तलाश जो तू मेरा ना हुआ ,
ऐसों का भी क्या साथ जो तेरा न हुआ ;
थी क्या वो रात जों चेहरा सुनहरा ना हुआ ,

वो भी क्या मुलाकात जों अँधेरा ना हुआ /

थी क्या तलाश जो तू मेरा ना हुआ ,
वो भी क्या मुलाकात जो अँधेरा न हुआ ;

अमरकांत का परिवार

amerkant

ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन

✦ शोध आलेख “ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन लेखक : डॉ. मनीष कुमार मिश्र समीक्षक : डॉ शमा ...