हिंदी साहित्य की गद्य विधाओं में जीवनी साहित्य की
अपनी एक परंपरा है । यद्यपि हमारे यहाँ भारतीय परंपरा में व्यक्तिगत बातों को
लिखना अनुचित माना जाता रहा । एक तरफ जहां राम-कृष्ण जैसे उच्च आदर्शों की स्थापना
की परंपरा हो वहाँ अपने जीवन और कार्यों की चर्चा जीवनी या आत्मकथा के माध्यम से
करना शायद भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं रहा होगा । हम देखते हैं कि हमारे कई
रचनाकारों,कवियों इत्यादि का जीवन वृत्त नहीं
मिलता। उनके संदर्भ में तो बस क़यास लगाए जाते हैं या फ़िर प्रचलित क्विदंतियों से
कुछ तथ्य जोड़े-घटाए जाते हैं ।
जीवन में शाश्वत मूल्यों और आदर्श की स्थितियों को धर्म और दर्शन दोनों
स्तरों पे महत्वपूर्ण माना गया । भारत धर्म और दर्शन की धरती रही है,इसलिए यहाँ इन्हें महत्व मिलना ही था । लेकिन हिंदी
साहित्य में आधुनिक युग की शुरुआत के साथ-साथ जीवन के प्रति वैज्ञानिक,तार्किक और यथार्थवादी दृष्टिकोण अधिक व्यापक रूप से
मुखर होने लगा। साथ ही साथ पूरी दुनियाँ में साहित्य की जो विधाएँ प्रचलन में थीं
उनका बड़े पैमाने पे अनुसरण किया जाने लगा । इसतरह कई नई विधाओं को प्रस्फुटित होने
का अवसर हर जगह मिला । हिंदी मे हाईकु लिखे जाने लगे तो जापानी में दोहे । जीवनी साहित्य
के मुख्य रूप से दो प्रकार माने गए हैं । आत्मकथा और पर कथा । अँग्रेजी भाषा में
इनके लिए क्रमशः दो शब्द हैं – Autobiography और Biography । Autobiography को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि
- An account of a
person's life written or otherwise recorded by that person.
ओमप्रकाश
कश्यप जी अपने आलेख “दलित साहित्य : आत्मकथाओं से आगे
जहाँ और भी हैं”( http://www.srijangatha.com/) में लिखते हैं कि,“आत्मकथा व्यक्ति के जीवनानुभव और भोगे हुए सत्य का
लेखा होता है। साथ ही उसमें कुछ ऐसा अंतरंग भी होता है, जो उस साहित्यकार के सामाजिक जीवन के दौरान सामने आने से छूट जाता है, किंतु साहित्यकार के जीवन, व्यक्तित्व, उसकी परिस्थितियों और जटिल मानसिक
स्थितियों को समझने के लिए उसका विश्लेषण अत्यावश्यक होता है। किंतु उनके
प्रस्तुतीकरण के समय यह भी संभव है कि साहित्यकार के भीतर व्यक्तिगत मुद्दों और
सामाजिक मुद्दों के बीच प्राथमिकता को लेकर द्वंद्व छिड़ जाए। उस समय यदि ईमानदारी
और उचित तालमेल के साथ काम न लिया जाए तो आत्मकथा एकपक्षीय बन सकती है। इसीलिए
आत्मकथा लेखन को बड़ी चुनौती माना गया है। हालाँकि आत्मकथा के सार्वजनिक महत्त्व को
बनाए रखने के लिए दलित लेखक उन्हीं मुद्दों पर अधिक ज़ोर देता है, जो सार्वजनिक महत्त्व के हों, जिनसे उसके पूरे समाज की वेदना ध्वनित होती हो। यहाँ वही प्रश्न दुबारा खड़ा हो
जाता है कि यदि सार्वजनिक सत्य को ही रचना की कसौटी माना जाए तो उसके लिए आत्मकथा
पर ही निर्भरता क्यों? विशेषकर तब जब दूसरी विधाओं में
सामाजिक मुद्दों की गहराई में जाने की अधिक छूट की संभावना हो? इससे आत्मकथा की मर्यादा क्षीण नहीं होती। कभी-कभी
व्यक्तिगत प्रसंगों को आत्मकथा में लाना इसलिए आवश्यक हो जाता है, ताकि उसके माध्यम से लेखक के व्यक्तित्व की अनजानी
पर्तें खुल सकें, जिनके बिना उसकी रचनात्मकता को समझना
असंभव-सा हो।’’
हिंदी में आत्मकथा अधिक नहीं लिखे गए हैं। बनरसीदास जैन लिखित “अर्द्ध कथा’’ हिंदी की पहली आत्मकथा मानी जाती है । इसका प्रकाशन
वर्ष सन 1641 है । यह आत्मकथा पद्य में लिखी गयी है जिसमें बड़े ही तटस्थ भाव से
अपने गुण और दोषों को बनारसीदास जी ने स्वीकार किया है । मध्यकाल में लिखे किसी
अन्य आत्मकथा का जिक्र सामान्य रूप से नहीं मिलता,लेकिन आधुनिक काल में यह विधा काफी
आगे बढ़ी और कई लोगों ने अपनी आत्मकथाएं लिखी ।
जिन रचनाकारों की आत्मकथाएं हिंदी साहित्य में काफ़ी चर्चित रही हैं,उनकी में से कुछ चुने हुए लेखकों की एक सूची यहाँ दे
रहा हूँ । बहुत संभव है कि इस सूची में कई महत्वपूर्ण नाम छूट भी गए हों लेकिन ऐसा
मैंने जान-बूझ के नहीं किया । इसे मेरे अध्ययन की सीमा या मेरा अज्ञान ही समझा
जाये । इसके पीछे किसी तरह की कोई रणनीति या विद्वेष का भाव किसी के प्रति मेरे मन
में नहीं है । वैसे भी शोध आलेखों की अपनी सीमा होती है । एक शोध आलेख में मैं सभी
के नाम गिना सकूँ ये मेरे लिए मुश्किल है । फ़िर भी जिनकी जानकारी मुझे मिल सकी,वो यहाँ इस टेबल के माध्यम से आप लोगों के साथ साझा
कर रहा हूँ ।
लेखक का नाम
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आत्मकथा का शीर्षक
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प्रकाशन वर्ष
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स्वामी दयानंद
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जीवन चरित्र
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संवत वि. 1917
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सत्यानंद अग्निहोत्री
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मुझ में देव जीवन का विकास
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1910 ई .
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भाई परमानंद
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आप बीती
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1921 ई .
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रामविलास शुक्ल
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मैं क्रांतिकारी कैसे बना
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1933 ई .
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भवानी दयाल संन्यासी
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प्रवासी की कहानी
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1939 ई .
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डॉ श्यामसुंदरदास
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मेरी आत्म कहानी
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1941 ई .
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राहुल सांकृत्यायन
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मेरी जीवन यात्रा
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1946 ई .
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डॉ राजेंद्र प्रसाद
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आत्म कथा
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1947 ई .
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वियोगी हरि
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मेरा जीवन प्रवाह
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1948 ई.
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सेठ गोविंददास
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आत्मनिरीक्षण
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1958 ई .
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पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’
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अपनी खबर
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1960 ई .
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आ. चतुरसेन शास्त्री
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मेरी आत्म कहानी
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1963 ई .
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हरिवंशराय बच्चन
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क्या भूलूँ क्या याद करूँ
नीड़ का निर्माण फिर
बसेरे से दूर
दशद्वार से सोपान तक
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1969 ई .
1970 ई.
1978 ई.
1985 ई.
|
इनके अतिरिक्त वृंदावनलाल वर्मा,
डॉ रामविलास शर्मा, बलराज साहनी, शिवपूजन सहाय, हंसराज रहबर,यशपाल जैन,कन्हैयालाल मिश्र, फणीश्वरनाथ रेणु, अमृतलाल नागर,रामदरश मिश्र,डॉ नगेन्द्र जैसे हिंदी लेखकों की
आत्मकथाएं काफी चर्चित रहीं । रवीन्द्र कालिया की “गालिब छुटी शराब” की भी काफी चर्चा
हुई । हिंदी में अन्य भाषाओं से अनूदित
होकर कई आत्मकथाएं छपीं हैं । इनमें अमृता प्रीतम की आत्मकथा “रसीदी टिकट” काफी
सराही गयी ।
हिंदी में महिला लेखिकाओं द्वारा भी आत्मकथा लेखन की एक परंपरा बन गयी है ।
काल क्रम की दृष्टि से हिंदी की कुछ प्रमुख महिला लेखिकाओं द्वारा लिखित आत्मकथा की
एक सूची अपनी अध्ययन सीमा के अंतर्गत देने की कोशिश कर रहा हूँ । वैसे सुधा सिंह जी का एक आलेख “राससुन्दरी दासी के
बहाने स्त्री आत्मकथा पर चर्चा” नामक शीर्षक से
http://www.deshkaal.com
पे पढ़ने को मिला । वो
लिखती हैं कि,“राससुन्दरी
दासी की आत्मकथा 'मेरा जीवन' नाम से सन् 1876 में पहली बार छपकर आई। जब वे साठ बरस
की थीं तो इसका पहला भाग लिखा था। 88 वर्ष की उम्र में राससुन्दरी देवी ने इसका
दूसरा भाग लिखा जिस समय राससुन्दरी देवी
यह कथा लिख रही थीं, वह उस समय 88 वर्ष की बूढ़ी विधवा और नाती-पोतों वाली
स्त्री के लिए भगवत् भजन का बतलाया गया है। इससे भी बड़ी चीज कि परंपरित समाजों में
स्त्री जैसा जीवन व्यतीत करती है, उसमें केवल दूसरों द्वारा चुनी हुई परिस्थितियों में
जीवन का चुनाव होता है। उस पर टिप्पणी करना या उसका मूल्यांकन करना स्त्री के लिए
लगभग प्रतिबंधित होता है। स्त्री अभिव्यक्ति के लिए ऐसे दमनात्मक माहौल में
राससुन्दरी देवी का अपनी आत्मकथा लिखना कम महत्तवपूर्ण बात नहीं है। यह आत्मकथा कई
दृष्टियों से महत्तवपूर्ण है। सबसे बड़ा आकर्षण तो यही है कि यह एक स्त्री द्वारा
लिखी गई आत्मकथा है। स्त्री का लेखन पुरुषों के लिए न सिर्फ़ जिज्ञासा और कौतूहल का
विषय होता है वरन् भय और चुनौती का भी। इसी भाव के साथ वे स्त्री के आत्मकथात्मक
लेखन की तरफ प्रवृत्ता होते हैं। प्रशंसा और स्वीकार के साथ नहीं; क्योंकि स्त्री का
अपने बारे में बोलना केवल अपने बारे में नहीं होता बल्कि वह पूरे समाजिक परिवेश पर
भी टिप्पणी होता है। समाज को बदलने की इच्छा स्त्री-लेखन का अण्डरटोन होती है। इस
कारण स्त्री की आत्मकथा चाहे जितना ही परंपरित कलेवर में परंपरित भाव को अभिव्यक्त
करनेवाल क्यों न हो, वह परिस्थितियों का स्वीकार नहीं हो सकता; वह परिस्थितियों की
आलोचना ही होगा ।’’
हाल ही में यह जानकारी पत्रिकाओं और इन्टरनेट के माध्यम से सामने आयी है कि
हिंदी की पहली महिला आत्मकथा लेखिका “स्फुरना देवी’’रही हैं और उनकी आत्मकथा का शीर्षक है “अबलाओं का इंसाफ ”। इसका प्रकाशन वर्ष 1927
ई. है । यह दावा किया है डॉ नामवर सिंह जी के निर्देशन में शोध कार्य कर रही नैया जी
ने । http://mohallalive.comके अनुसार “नैया जेएनयू से आरंभिक
स्त्री कथा-साहित्य और हिंदी नवजागरण (1877-1930) विषय पर पीएचडी कर रही हैं।
हिंदी की प्रथम दलित स्त्री – रचना छोट के चोर
(1915) लेखिका श्रीमती मोहिनी चमारिन तथा आधुनिक हिंदी की प्रथम मौलिक उपन्यास
लेखिका श्रीमती तेजरानी दीक्षित के प्रथम उपन्यास (1928) को प्रकाश में लाने का
श्रेय नैया को जाता है। स्त्री कथा-साहित्य के गंभीर अध्यता के रूप में अपनी
विशिष्ट पहचान बनाने वाली नैया की अनेक शोधपरक रचनाएं आलोचना, इंडिया टुडे, पुस्तक-वार्ता, आजकल, जनसत्ता, तहलका, वसुधा, हरिगंधा आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित हो चुकी है।”’ लेकिन इस संदर्भ में
कोई अधिक जानकारी मुझे प्राप्त नहीं हो पायी है ।
लेखिका का नाम
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आत्मकथा का शीर्षक
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प्रकाशन वर्ष
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प्रतिभा अग्रवाल
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दस्तक जिंदगी की
मोड़ जिंदगी का
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1990 ई.
1996 ई.
|
कुसुम अंसल
|
जो कहा नहीं गया
|
1996 ई.
|
कृष्णा अग्निहोत्री
|
लगता नहीं है दिल मेरा
|
1997 ई.
|
पद्मा सचदेव
|
बूँद बावड़ी
|
1999 ई.
|
शीला झुनझुनवाला
|
कुछ कही कुछ अनकही
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2000 ई.
|
मैत्रेयी पुष्पा
|
कस्तूरी कुण्डल बसे
|
2002 ई.
|
उपर्युक्त महिला लेखिकाओं की आत्मकथाएं चर्चा के
केंद्र में रहीं । हम जानते हैं की आजकल हिंदी साहित्य कतिपय विमर्शों के माध्यम
से आगे बढ़ रहा है । स्त्री,दलित और आदिवासी
विमर्श अधिक मुखर हैं । हिंदी के दलित लेखकों द्वारा भी कई आत्मकथाएं प्रकाशित हुई
हैं । मोहन नैमिश राय की आत्मकथा “अपने –अपने पिंजरे”दो भागों में क्रमश 1995 ई. और
2000 ई . में प्रकाशित हुई । ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा “जूठन” ने भी लोगों का ध्यान
अपनी तरफ खींचा ।
इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी में आत्मकथा लेखन की एक
अच्छी और समृद्ध परंपरा आधुनिक काल से शुरू हुई है । विभिन्न विमर्शों के माध्यम से
इसमें लगातार वृद्धि भी हो रही है । बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में यह विधा गद्य
की उतनी ही लोकप्रिय विधा बने जितनी की कहानी या उपन्यास वर्तमान में है ।
डॉ मनीषकुमार मिश्रा
असोसिएट – IIAS शिमला