Monday, 26 September 2022

भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक

 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक

के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण-पश्चिम

महाराष्ट्र

 

               कहते हैं कि संपूर्णता में देखना ही समग्रता में देखना है । भारतेन्दु हरिश्चंद्र का मूल्यांकन भी 1857 के बाद की निष्पत्तियों के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिये । अंग्रेज़ राज के भक्त होने के बावजूद स्वराज्य, संस्कृति और कौशल विकास की बात करने वाले भारतेन्दु का समय जनजागरण की पुरानी परंपरा का एक विशेष और महत्वपूर्ण समय था । बोलचाल की सहज और सरल भाषा में साहित्य रचते हुए समाज प्रबोधन का समय । स्वाधीनता के महत्व को समझते हुए अंग्रेजी राज के स्वरूप को पहचानने का समय । स्वदेशी आंदोलन को व्यापक और बड़े धरातल पर उतारने का समय । भारतीय समाज की पतनोन्मुखता पर चिंतन का समय । हिन्दी गद्य को विकसित करते हुए अनेकानेक विधाओं में समाजोपयोगी साहित्य रचने का समय । अपने समय की इन सारी चुनौतियों को भारतेन्दु ने न केवल स्वीकार किया अपितु 34 साल और 04 महीने की पूरी आयु में एक कुशल संगठन कर्ता, साहित्यिक मार्गदर्शक और खुले आलोचक के रूप में अपना जीवन समर्पित रखा ।

 

             भारतेन्दु हरिश्चंद्र एक नाम नहीं बल्कि एक आंदोलन के रूप में जाना गया । अपने व्यक्तित्व की तमाम सीमाओं एवं विरोधाभासों के बावजूद, भारतेन्दु बाबू पुनर्जागरण के कद्दावर नायक के रूप में जाने गये । जनसंख्या नियंत्रण, श्रम के महत्व, आत्मबल , स्वदेशी का महत्व, स्त्री शिक्षा, धार्मिक कर्मकांड और आडंबर, तकनीक के महत्व और अपनी भाषा और संस्कृति की चिंता उनके विचारों एवं साहित्य में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है । राष्ट्रीय स्वाधीनता को लेकर उनके उद्देश्य हमेशा से स्पष्ट रहे । हिन्दी पट्टी के परिवेश एवं आर्थिक स्थिति को भारतेन्दु बाबू ने गहराई से समझा था । हिन्दी को नई चाल में ढालते हुए आपने छोटे – बड़े लगभग 175 ग्रंथ लिखे । अपने श्रम एवं साहित्य साधना के माध्यम से ही आप ने इस आधुनिक हिन्दी गद्य के परिष्कार और परिमार्जन की नई परिपाटी शुरू की । आप हिन्दी के प्रथम समर्थ नाटककार बने । हिन्दी गद्य की अनेकों विधाओं के लिए आप एक आदर्श, प्रादर्श और प्रतिदर्श ( Ideal, Model, Sample)  के रूप में सामने आये ।

 

                     उन्होने अपने समय और समाज की आवश्यकताओं को समझते हुए भाषा के नए चलन या नई चाल को आंदोलित किया । जीवन के सामान्य अनुभव और आवश्यकताओं को गद्य के रूप में लिखने का काम स्वयं भी कर रहे थे और अपनी मित्र मंडली को भी प्रोत्साहित कर रहे थे । आज कई संदर्भों में उनकी अनेकों रचनाएँ बचकानी लग सकती हैं लेकिन जिस समय और परिस्थिति में वे गद्य पल्लवन की नीव डाल रहे थे, वह यह स्पष्ट करता है कि भारतेन्दु जडताओं से नहीं जड़ों से जुड़े हुए युग दृष्टा थे । परिनिष्ठित हिन्दी की नीव डालने वाले भारतेन्दु बाबू एक राष्ट्र वत्सल नायक थे । उनके गद्य को “हंसमुख गद्य” लिखने वाले आलोचक भी इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि उनकी भाषा में देशज मिट्टी की महक है । 1873 में हिन्दी को नई चाल में ढालने वाले भारतेन्दु बाबू के बाद आज 2022 तक 149 वर्षों का समय बीत चुका है । लेकिन आज की हिन्दी अपने इतने बड़े सेवक को भूल नहीं सकती ।

 

                  भारतेन्दु बाबू के नाटकों के संदर्भ में बात की जाय तो उनके द्वारा लिखे एवं अनुदित नाटक लगभग 850 पृष्ठों में छपे । उनके नाटकों में रत्नावली(संदिग्ध), विद्या सुंदर, पाखंड विडंबन, धनंजय विजय, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेम जोगिनी , सत्य हरिश्चंद्र , कर्पूरमंजरी , श्री विषस्य विषमौषधम,  चंद्रावली, मुद्राराक्षस , दुर्लभ बंधु,  भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, नील देवी, प्रेम प्रलाप, सती प्रताप, भारत जननी,इत्यादि । डॉ. दशरथ ओझा के अनुसार “भारतेन्दु के 18 नाटकों में 10 मौलिक और 07 अनुदित हैं । इनके अतिरिक्त प्रवास नामक उनका एक और नाटक था जो अब अप्राप्य है ।....हिन्दी –नाट्य-मंदिरमें विविध भाषाओं के नाटकों का वातायन बनाकर अभिनव विचार के स्वास्थ्य प्रद वायु प्रवेश के लिए भारतेन्दु ने मार्ग खोल दिया ।“1  आदर्श, यथार्थ, स्वच्छंदता, समाज सुधार और राष्ट्रीयता का भाव भारतेन्दु के नाटकों का केंद्र बिन्दु रहा है ।

 

                भारतेन्दु बाबू अपने पूर्ववर्ती नाटककारों में नेवाज़ एवं ब्रजवासीदास के नामों का उल्लेख करते हैं लेकिन इनके नाटकों को काव्य की भाँति” बताते हैं । 2 अपने पिता गोपालचन्द्र उपनाम गिरिधरदास द्वारा लिखित नाटक “नहुष” को आप विशुद्ध नाटक रीति से हिन्दी का पहला नाटक एवं राजा लक्ष्मण सिंह के शकुंतला नाटक को हिन्दी का दूसरा नाटक स्वीकार करते हैं जो कि एक अनुदित नाटक था। 3  डॉ. रामविलाश शर्मा भारतेन्दु के नाटक के क्षेत्र में अवदान को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि,”भारतेन्दु ने अपने मौलिक एवं अनुदित नाटकों के जरिये एक साथ कई काम किये । उन्होने नाटकों के माध्यम से नयी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया, पारसी रंगमंच का विरोध किया और प्राचीन नाटकों का उद्धार किया । .....’’4

 

          भारतेन्दु के नाटकों के संदर्भ में एक बात और महत्वपूर्ण है कि अपने नाटकों को उन्होंने कई नामों से संबोधित किया जो कि संस्कृत नाटकों के रूप हैं । जैसे कि – रूपक, व्यायोग, सट्टक, नाट्यरासक, गीति रूपक, प्रहसन, नाटिका इत्यादि । अपने दो नाटकों को छोडकर बाकी सभी नाटकों को उन्होने संस्कृत परंपरा के अनुसार अंकों में विभाजित किया है । दृश्यों में विभाजित दो नाटकों में “विद्यासुंदर एवं “प्रेमजोगिनी” नाटक हैं । “पाखंड –विडंबन,धनंजय विजय” और “विषस्य विषमौषधम” एकांकी नाटकों में गिने जाते हैं । ये इस बात का साफ प्रमाण है कि वे औपनिवेशिक भाषा परिणाम से प्रभावित नहीं थे । पूरे समाज का चित्त जिस भाषा में गड़ा हुआ था वे उसी को नवीन प्रयोगों के साथ आगे बढ़ा रहे थे । भाषा और साहित्य को युगानुरूप प्रासंगिक एवं लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होने नाटकों का लेखन कार्य किया ।

         नाटक की व्याख्या करते हुए भारतेन्दु लिखते हैं कि,”काव्य के सर्व गुण संयुक्त खेल को नाटक कहते हैं । इसका नाटक कोई महाराज (जैसा दुष्यंत) व ईश्वरांश (जैसा श्रीराम ) वा प्रत्यक्ष परमेश्वर (जैसा श्रीकृष्ण ) होना चाहिये । रस शृंगार वा वीर । अंक पाँच के ऊपर और दस के भीतर । आख्यान मनोहर और अत्यंत सुंदर उज्जवल होना चाहिये । उदाहरण – शाकुंतल, वेणी संहार आदि ।’’5  लेकिन अपने आप को महा अंहकारी घोषित करने वाले भारतेन्दु बाबू अपनी ही परिभाषा के उलट विद्यासुंदर और सत्य हरिश्चंद्र को नाटक लिखते हैं जब कि इनमें क्रमशः तीन और चार अंक हैं । इससे यह स्पष्ट है कि प्राचीन रूपों का उपयोग वे करते तो हैं लेकिन अपनी आवश्यकता के अनुरूप उसमें बदलाव से भी चूकते नहीं हैं । भारतेन्दु नाटक के कथावस्तु को यथार्थवादी बनाते हुए नाटकों में यथार्थवाद की नींव डालते हैं । रमविलाश शर्मा लिखते हैं कि,”...हर नाटक लिखने के पीछे एक उद्देश्य है । नाटकों की कथावस्तु उनके अपने जीवन से और उनके चारों ओर के सामाजिक जीवन से ली गयी हैं । सत्य हरिश्चंद्र के हरिश्चंद्र में उन्होने अपने जीवन की करुणा उड़ेल दी है, प्रेमजोगिनी में उन्होने अपनी परिचित काशी का चित्र खींचा । .......भारतेन्दु ने नाटकों को देशभक्ति की भावना जगाने और चरित्र निर्माण करने का साधन बनाया, यही उनकी सफलता का रहस्य है  ।“6  

          भारतेन्दु बाबू के नाटकों की विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन्होने अपनी संस्कृति में रची-बसी नाट्य परंपरा के साथ यूरोपीय नाट्य परंपरा का कुशलता पूर्वक संलयन किया । कथानक के अनुसार उन्हें जो शैली जिस रूप में ठीक लगी,उसे आवश्यक बदलाओं के साथ उन्होने अपना लिया । डॉ दशरथ ओझा के कथनानुसार रचना शैली में उन्होने मध्यम मार्ग पकड़ा – न तो अंग्रेजी नाटकों का अंधा अनुकरण किया और न बांग्ला नाटकों की भांति भारतीय शैली की नितांत उपेक्षा ही की …… तात्पर्य यह कि नाटक का गतिरोध करनेवाले सभी बंधनों से उन्होने अपने को मुक्त रखा ।“7

 

             

 

 

संदर्भ ग्रंथ :

1.                ओझा, डॉ. दशरथ हिन्दी नाटक उद्भव और विकास , राजपाल अँड सन्स, नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ संख्या 172

2.                शर्मा, रामविलाश - भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ , राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली , ग्यारहवाँ संस्करण, पृष्ठ संख्या 111

3.        वही

4.        वही

5.        वही , पृष्ठ संख्या – 112

6.        वही , पृष्ठ संख्या – 113

7.                ओझा, डॉ. दशरथ हिन्दी नाटक उद्भव और विकास , राजपाल अँड सन्स, नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ संख्या 172

8.         

 

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