Sunday 9 August 2020

हिन्दी : पक्ष – प्रतिपक्ष

 

हिन्दी : पक्ष – प्रतिपक्ष

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक , हिन्दी विभाग

के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण – पश्चिम , महाराष्ट्र

manishmuntazir@gmail.com

8090100900 / 9082556682

 

          हिंदी के पक्ष में जिस भावुकता के साथ तर्क रखे जाते हैं उन्होंने हिंदी का कोई भला नहीं किया अपितु नुकसान ही अधिक हुआ । हिंदी की पक्षधरता में ही व्यापक दोष रहा है । आजादी के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के निर्धारण के बाद भी अगर कोई देशज / क्षेत्रीय भाषाओं के वर्चस्व को नहीं समझ पा रहा है तो निश्चित ही यह विचार उसे निष्पक्षता से आकलन नहीं करने देगा । इस देश की संरचना ही बहुवचनात्मक है । इस संरचना के बीच अगर किसी एक भाषा को व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता दिलानी है तो वह इन तमाम भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय और आदान - प्रदान की व्यापक श्रृंखला के माध्यम से ही हो सकता है । क्योंकि जिस भाषा को भी आप "राष्ट्र भाषा" का ताज देना चाहते हैं, उस भाषा का प्राण तत्व इन्हीं भारतीय भाषाओं में निहित होना चाहिए । अगर ऐसा नहीं हुआ तो विरोध,संघर्ष और अस्मिता मूलक विचारधाराओं के बोझ के नीचे "राष्ट्र भाषा" का सपना टूट या बिखर जायेगा । शायद आज तक यही हुआ भी । बावजूद इसके कि आप के पास वो सारे आंकड़े हैं जो ये बताते हैं कि हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा है, यह विश्व के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है इत्यादि ।

          इन आकड़ों की बाजीगरी के साथ हिंदी की श्रेष्ठता को लेकर चर्चा करते हुए हम फ़िर एक बहुत बड़ी गलती करते हैं । हिंदी के श्रेष्ठ या अधिक व्यापक हो जाने से अन्य भारतीय भाषाओं का महत्व कम नहीं हो जाता, इस बात को हम भूल जाते हैं । लेकिन अपरोक्ष रूप से हम उन्हें कमतर आंकने लगते हैं और फ़िर तुलना की नई बहस शुरू हो जाती है । तमिल जैसी प्राचीन और समृद्ध भाषा को अपनी तुलना ही करवानी होगी तो वह संस्कृति से एक बार करवा भी ले, हिंदी से क्यों करवाए ? ऐसी ही तमाम बातें अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी हैं ।

         ख़ुद हिंदी पट्टी में हिंदी की सहायक कई भाषाओं ने इधर अपने तेवर कड़े कर लिए तो हम यह तर्क देने लगे कि बोलियां भाषा होने का स्वप्न देख रही हैं । अब ऐसी बातों से संघर्ष की स्थिति बन गई । भोजपुरी, राजस्थानी इत्यादि इसका उदाहरण है । फ़िर हमारा तर्क भी कितना अपमानजनक है । जिन्हें आप सिर्फ़ बोली समझने या मानने की भूल कर रहे हैं उनकी व्याप्ति विश्व की कई भाषाओं से बड़ी है । इसलिए हमें ऐसे तर्कों से बचना चाहिए । भोजपुरी को लेकर तो स्वर अधिक ही मुखर है ।

          दूसरी गलती हम यह करते हैं कि अंग्रेजी को अपना दुश्मन सिद्ध करने में लग जाते हैं जबकि उसी अंग्रेजी को भारतीय संविधान ने 343(1) के तहत आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया हुआ है । अंडमान, अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, गोवा, मेघालय, मिज़ोरम और नागालैंड जैसे प्रदेशों की अंग्रेजी एकमात्र आधिकारिक भाषा है ।1 सह आधिकारिक भाषा तो कई राज्यों की है । हमारा संविधान इसी अंग्रेजी भाषा में लिखा गया । उच्च शिक्षा और शोध के तमाम कार्य अंग्रेजी में हो रहे हैं । सच कहूँ तो भारत के पिछले 700-800 वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो सबसे अधिक “व्याप्ति, रोज़गार और पसंद” की भाषा के रूप में अंग्रेजी का कोई मुक़ाबला ही नहीं है ।  लगभग 600 वर्षों तक राज़ करने वाली फ़ारसी भी नहीं ।

          डॉ. रामविलास शर्मा जी लिखते हैं कि,’’इस दास्ता में भी हमने अंग्रेजी को क्यों नहीं अपनाया ? इसलिए कि हमारी भाषा हमारी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक है ।’’2 रामविलास जी बड़े आलोचक हैं,लेकिन क्या वे नहीं जानते कि हमने अंग्रेजी को बड़ी शिद्दत के साथ अपनाया ? रोज़गार एवं उच्च शिक्षा की भाषा के रूप में अपनाया । विश्व के ज्ञान से जोडनेवाली एक व्यापक भाषा के रूप में अपनाया । इसी अंग्रेजी भाषा में उच्च शिक्षा ग्रहण करने बाद भारत लौटे डॉ. आंबेडकर और महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा दी । अंग्रेजी सीखने वाले कैसे राष्ट्रनिष्ठ नहीं थे यह समझ में नहीं आता । जहां तक प्रश्न राष्ट्रीय चेतना का है तो इस संदर्भ में 1951 में गठित राधाकृष्णन समिति की रिपोर्ट में साफ़ लिखा गया है कि,”यह सत्य है कि अंग्रेजी भाषा देश की एकता के उत्थान में एक महत्वपूर्ण तथ्य रही है । दरअसल, राष्ट्रीयता की संकल्पना तथा राष्ट्रीयता की भावना मुख्य रूप से भारत में अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य के उपहार हैं ।’’3

 

         भारत में आज़ादी के बाद भाषा के रूप में अंग्रेजी का व्यापक प्रसार हुआ । यह आधुनिक ज्ञान – विज्ञान, तकनीक, शोध और उच्च शिक्षा की प्रमुख भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुई । भारतीय भाषाओं के बीच आपसी वर्चस्व और विरोध की क्षेत्रीय राजनीति ने अंग्रेजी की राह को अधिक सुगम बनाया । “रोज़गार के अवसर वाली भाषा” के रूप में अंग्रेजी के मुक़ाबले कोई भाषा खड़ी ही नहीं हो पाई । इस तरह हिन्दी समेत तमाम भारतीय भाषाओं का जो नुकसान हुआ उसके लिए हमारी वैचारिक संकीर्णता और राजनीतिक अकर्मण्यता ही जिम्मेदार है न कि अंग्रेजी ।

 

         संपर्क भाषा के रूप में हिंदी भी लगातार विकसित हुई । हिंदी पट्टी में तो इसका विस्तार सबसे अधिक है । देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी हिंदी है । किंतु हिंदी इस देश में “अवसर और प्रभाव” की भाषा उस तरह नहीं बन सकी जैसे अंग्रेजी बनी । इस देश के राजनेताओं और हिंदी सेवा के नाम पर मलाई काट रहे मठाधीसों ने हिंदी के नाम पर सिर्फ भावनाएं भड़काईं तथा खाये, पीये और अघाये साँप की तरह कुण्डली मारकर बैठे रहे । आज़ भी वे यही कर रहे हैं । अपनी अकर्मण्यता छिपाने के लिये वो सारा ठीकरा अंग्रेजी पर फोड़ देते हैं । अंग्रेजी को चार गलियाँ देते हुए हिंदी को लेकर बड़ी-बड़ी भावुकतापूर्ण बात करना मानों हिंदी दिवस का राष्ट्रीय फ़ैशन हो गया है । आप तर्क और तथ्यों के साथ इनकी कलई खोलो तो आप देशद्रोही तक बना दिये जाओगे । राष्ट्र भक्ति / राष्ट्र द्रोही  का प्रमाण पत्र तो जैसे ये अपनी जेब में लेकर टहलते हैं । केंद्र सरकार द्वारा संचालित देश भर के केंद्रीय विद्यालयों में हिंदी और सामाजिक अध्ययन को छोडकर बाक़ी सभी विषय अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाये जाते हैं ।4

 

                    बीसवीं शती की शुरुआत तक अनुमानतः इस देश में एक करोड़ के आस-पास की आबादी अंग्रेजी में शिक्षित थी । इसका कारण यह था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार और प्रशासन का जो ढाँचा विकसित किया वह इस देश के लिए एकदम नया और संभावनाओं से  भरा हुआ था । अनुवादक, द्विभाषिये, मुंशी, डाक़कर्मी, सिपाही, वकील, शिक्षक, क्लर्क, रेल कर्मचारी, कारखानों के मज़दूर, प्रेस के कारीगर, फोटोग्राफी, सिनेमा, संपादक, लेखक, वितरक, दलाल, बैंक कर्मचारी, चिकित्सक इत्यादि को लेकर एक सुनियोजित संगठनात्मक ढाँचा जो अंग्रेज़ खड़ा कर रहे थे उसमें भारतीय युवाओं को अपना भविष्य नज़र आ रहा था । वो इन अवसरों का लाभ उठाते हुए अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर करना चाहते थे । इसलिए उन्होने अंग्रेजी भाषा में रुचि दिखाई और उसे अपनाया । अंग्रेजी को अपनाने के पीछे उनके अंदर कोई राष्ट्रद्रोह की भावना काम नहीं कर रही थी ।

 

                    जहाँ तक अंग्रेजी को भारतीयों पर धोपने का आरोप है इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूँगा कि 26 जनवरी 1835 को अंग्रेजों ने यह नीति स्पष्ट कर दी कि तकनीकी और चिकित्सा क्षेत्र की शिक्षा सिर्फ़ और सिर्फ़ अंग्रेजी में ही दी जायेगी । इस नीति के पीछे  एक महत्वपूर्ण कारक राजाराम मोहनराय जैसे विचारकों की अंग्रेजी शिक्षा के हक में मांग भी थी । लेकिन ये वही अंग्रेज़ ही थे जो 1835 के पहले स्थानीय भाषाओं में ऐसी शिक्षा के हिमायती थे और उसे प्रोत्साहन भी दे रहे थे । 1783 के आस-पास उन्होने उच्च न्यायालय से फ़ारसी को हटाकर वह जगह अंग्रेजी को दे दी । यह काम उन्होने / ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में आते ही नहीं किया अपितु यह करने के लिए उन्होने लगभग दो शताब्दियों का इंतजार किया ।

 

                 इन दो शताब्दियों में उन्होने आधुनिक भारतीय भाषाओं को अपने प्रक्षेत्रों में प्रोत्साहित किया । जैसे-जैसे उनके व्यापार/शासन का क्षेत्र बढ़ता गया उन्होने हिंदुस्तानी और अंग्रेजी को अधिक प्रोत्साहित किया । यह प्रोत्साहन उन्होने भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान या प्रेम में नहीं अपितु अपनी प्रशासनिक एवं व्यावसायिक मजबूरियों के नाते दिया । ठीक वैसे ही जैसे भारतीय अवसरों की तलाश में अंग्रेजी को अपना रहे थे । यह पूरा मामला आर्थिक समृद्धि और शक्ति का था जिसमें भाषा एक साधन मात्र थी । अंग्रेजों को जब यह लगने लगा कि शासन- प्रशासन के कार्यों को अब अंग्रेजी के ही बूते चलाया जा सकता है तो उन्होने उस दिशा में कदम उठाये । वैसे भी 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकार खत्म करते हुए भारत की बागडोर सीधे अपने हांथ में ले चुकी थी ।

 

           अंग्रेज़ अब सीधे-सीधे शासक बन गये थे । फ़िर अंग्रेजी का भारत में कोई व्यापक विरोध भी नहीं था अपितु भारतीयों द्वारा समर्थन के स्वर अधिक मुखर थे । विष्णू शास्त्री चिपलूंकर जैसे विद्वानों ने अंग्रेजी को “शेरनी का दूध” कहकर संबोधित किया ।  अनुमानतः 1882 तक देश के 60% विद्यालयों में किसी न किसी रूप में अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही थी । इन तमाम बातों के परिप्रेक्ष्य में यह अधिक तर्क संगत लगता है कि भाषा के रूप में अंग्रेजी को अंग्रेजों ने अपनी व्यवस्थित नीतियों द्वारा इतना संभावनापूर्ण बनाया कि इसके समर्थन में एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग खड़ा हो गया । विरोध का स्वर उस तुलना में क्षीण था । अतः व्यापारी और शासक के रूप में उनके हितों को कोई नुकसान नहीं पहुँच रहा था । ऐसे अवसर का एक चतुर शासक के रूप में निश्चित तौर पर उन्होने लाभ उठाया ।   

 

         किसी दूसरे की लकीर को छोटी करके हम अपनी लकीर बड़ी नहीं कर सकते । अपनी लकीर को बड़ी करने के लिये दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति का होना बड़ा आवश्यक है । हाल ही में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की अनिवार्यता को जिस तरह से स्वीकार किया गया है उससे लगता है कि बदलाव की सकारात्मक स्थितियाँ बनेंगी । इस तरह की पहल का स्वागत होना चाहिये । हिंदी को अगर सही अर्थों में राष्ट्रभाषा बनना है तो उसे इन्हीं आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच अपने प्राण तत्वों को सिंचित करना होगा । इन भाषाओं के साथ आदान-प्रदान की व्यापक शृंखला की शुरुआत करनी होगी । “भारतीय भाषा और संस्कृति विश्वविद्यालय” जैसी कोई नई शृंखला बड़े स्तर पर शुरू करनी होगी ।

 

           किसी भी भारतीय भाषा में परास्नातक की उपाधि लेने वाले के लिये यह अनिवार्य हो कि वह उस भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भारतीय भाषा में भी लिखने और बोलने का विधिवत ज्ञान हासिल करे । क्षेत्रीय नौकरियों में डोमेसाइल की अनिवार्यता की जगह उस क्षेत्र विशेष की भाषा में स्नातक या परास्नातक वाले आवेदकों को वरीयता दी जाये । कहने का तात्पर्य यह है कि भाषिक स्तर पर आदान-प्रदान की संभावनाओं को अधिक से अधिक प्रोत्साहन देना । जब तक भारतीय भाषाओं को “अवसर की भाषा” के रूप में प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी तब तक “इच्छित भाषा” के रूप में उनकी लोकप्रियता नहीं बढ़ेगी । किसी भाषा विशेष के विरोध से तो बिलकुल भी नहीं ।

         निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के साथ जो सपने सँजोये गये हैं वे बिलकुल पूरे किये जा सकते हैं लेकिन उसके लिये चरणबद्ध तरीके से ढाँचागत संरचना पर कार्य करना होगा । कुछ बुनियादी बातों का विशेष खयाल रखना होगा । जैसे कि –

1.  अंग्रेजी सहित विश्व की किसी भी भाषा के प्रति दुराग्रह उचित नहीं । यह हमारी सोच को संकीर्ण करेगा ।

2.  भारतीय भाषाओं को समान स्तर पर आदर और सम्मान देना, हिंदी के विकासात्मक भविष्य के लिये अनिवार्य है ।

3.  हिंदी और समस्त भारतीय भाषाओं / बोलियों के बीच व्यापक और सतत आदान-प्रदान की आवश्यकता है ।

4.  यह आदान-प्रदान किसी प्रकल्प की तरह समितियों या अकादमियों के सीमित व्यक्तियों के बीच में नहीं बल्कि जीवन शैली और दैनिक व्यवहार के बीच शामिल हो ।

5.  भारतीय भाषा और संस्कृति के व्यापक अध्ययन और अंतर्विषयी शोध कार्यों के लिये सैकड़ों शैक्षणिक संस्थाओं का गठन IIT की तरह चरण बद्ध तरीके से हो ।

6.  हिंदी पट्टी के छात्रों को दक्षिण भारतीय और दक्षिण के छात्रों को हिंदी पट्टी की भाषा को पढ़ने हेतु प्रोत्साहित किया जाय ।

7.  अधिक से अधिक भारतीय भाषाओं के ज्ञान पर नौकरी में विशेष भत्ते की योजना रहे । इन्हें नौकरी और पदोन्नति में विशेष वरियता भी मिले ।

8.  भारतीय भाषाओं में सभी प्रकार की उच्च शिक्षा सहज रूप से सुलभ हो सके इस पर गंभीरता पूर्वक कार्य होना चाहिये ।

9.  हमें हिंदी विरोध के प्रतिउत्तर में किसी भाषा का विरोध नहीं करना है अपितु उस विरोध के कारणों के समूल नाश के लिये कार्य करना होगा ।

10.  हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं को “आर्थिक प्रगति और रोज़गार के व्यापक अवसर वाली भाषा” के रूप में बदलना होगा ।

                      इन सभी बातों के लिये दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना बहुत ज़रूरी है । हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, सभी की भावनाओं का ख्याल रखना ज़रूरी है । इसलिए तमाम वाद – विवादों के बीच संवादों के माध्यम से धैर्य और दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ना होगा । भारतीय भाषाओं को जिद्दी नहीं ज़मीनी होते हुए नाम से अधिक काम के बारे में सोचना होगा । जिस भाषा के पास जितना अधिक काम / रोजगार का अवसर होगा उतना ही उसका नाम होगा । अन्यथा कौन सी भाषा का अख़बार अधिक छपता है और किस भाषा को बोलने वाले लोग कितने अधिक हैं, ऐसे आकड़ों के साथ हम आत्ममुग्ध होकर अपने आप को सिर्फ़ छलते रह जायेंगे ।

 

 

 

 

संदर्भ :

1.       भारत में विदेशी लोग एवं विदेशी भाषाएँ, समाजभाषा – वैज्ञानिक इतिहास – श्रीश चौधरी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -2108 । पृष्ठ संख्या – 419 ।

2.       भारत की भाषा समस्या – रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, सातवाँ संस्करण-2017 । पृष्ठ संख्या – 24

3.       राधाकृष्णन समिति रिपोर्ट ( 1951 : 316 ) नई दिल्ली, भारत सरकार प्रकाशन विभाग ।

4.       भारत में विदेशी लोग एवं विदेशी भाषाएँ, समाजभाषा – वैज्ञानिक इतिहास – श्रीश चौधरी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -2108 । पृष्ठ संख्या – 421 ।

 

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