1. टिटिहरी की काँद
बाँसों में मरमराती
हवा के साथ
टिटिहरी की काँद
कानों में पड़ रही थी
उस गहराती हुई रात में हवा
पानी को हिलोरती रही
मन - मिट्टी को
भिगोती रही ।
सुबह अनमनी सी
धूप तो निकली
पर खिली नहीं
बल्कि बादलों से
संवरा गई
उसका श्यामल सौंदर्य
आलस का अनुष्ठान रचे था ।
उछार के बाद
अघायी धरा का
प्रीतिस्निग्ध चटक रंग
सतरंगी था
शकुंतिका मुंडेर पर थी
मोर मंदिर के कलश पर
और मन
दूर किसी प्याजी रंग की आंखों में
कैद ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
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