Monday, 10 August 2020

टिटिहरी की काँद

 1. टिटिहरी की काँद


बाँसों में मरमराती 

हवा के साथ

टिटिहरी की काँद

कानों में पड़ रही थी

उस गहराती हुई रात में हवा 

पानी को हिलोरती रही 

मन - मिट्टी को 

भिगोती रही ।


सुबह अनमनी सी 

धूप तो निकली 

पर खिली नहीं 

बल्कि बादलों से

संवरा गई 

उसका श्यामल सौंदर्य

आलस का अनुष्ठान रचे था ।


उछार के बाद

अघायी धरा का

प्रीतिस्निग्ध चटक रंग

सतरंगी था 

शकुंतिका मुंडेर पर थी 

मोर मंदिर के कलश पर 

और मन

दूर किसी प्याजी रंग की आंखों में

कैद ।


       डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।

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