Tuesday, 4 August 2020

स्वराज्य का सपना और प्रेमचंद ।

          स्वराज्य का सपना और प्रेमचंद ।

                                                       डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग

के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण (पश्चिम), महाराष्ट्र

manishmuntazir@gmail.com

 

 

             हिन्दी पट्टी के लोगों के लिए सचमुच यह गर्व का विषय है कि उनके पास प्रेमचंद जैसा कद्दावर कथाकार “है” । एक ऐसा कथाकार जिसने भारतीय साहित्य की अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान बनाया । प्रेमचंद ने जो लिखा वो लोगों को अपना सा लगा । हिन्दी पट्टी को साहित्य के मंच से समाज सुधार के लिए वैचारिक स्तर पर आंदोलित करने वाले प्रेमचंद प्रमुख और अगुआ लेखक हैं ।

            हिन्दी पाठकों की जमीन प्रेमचंद के पूर्व जासूसी और अइयारी उपन्यासों से देवकीनंदन खत्री जैसे लेखक कर चुके थे । इन उपन्यासों की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोगों ने इन उपन्यासों को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी । कल्पना, जासूसी, ऐय्यारी, तिलिस्म  की दुनिया में भ्रमण करने वाले इन पाठकों को यथार्थ की ठोस जमीन पर समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ़ वैचारिक स्तर पर गंभीर बनाना आसान नहीं था । यह वैसा ही था जैसे दिनभर अपनी मर्जी से कहीं भी घूमने-फ़िरने वाले किसी बालक का अचानक स्कूल में दाखिला करा देना । दाख़िला कराना आसान है लेकिन बच्चे के अंदर अनुशासन और अध्ययन रुचियों का निर्माण कराना कठिन है । इस कठिन कार्य को प्रेमचंद ने कर दिखाया ।

           प्रेमचंद इसलिए नहीं बड़े लेखक हैं कि उन्होने बड़ा लोकप्रिय साहित्य लिखा अपितु समाज के लिए उपयोगी साहित्य को लिखना एवं उसे लोकप्रिय बनाने के लिए, प्रेमचंद को  अधिक याद किया जायेगा । प्रेमचंद ने हिन्दी पट्टी के पाठकों की रुचियों का परिमार्जन किया । समाज और समाज की समस्याएँ जो कि साहित्य के हाशिये पर थी उसे केंद्र में स्थापित करने का श्रेय प्रेमचंद को है । 1918 से लेकर 1936 तक के समय में प्रेमचंद ने बेहतरीन कथा साहित्य लिखा । हंस जैसी पत्रिका का संपादन किया । उर्दू और हिन्दी के बीच में एक सेतु बनाने का कार्य भी प्रेमचंद ने किया । अपने समय के दबाव के बावजूद अपनी रचना को नया कलेवर दिया ।  

             प्रेमचंद के प्रशंसकों में पंडित जवाहरलाल नेहरू भी एक थे । अपूर्वानंद अपने आलेख में लिखते हैं कि, “नेहरू ने आर. के. करंजिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि हम सब गाँधी-युग की संतान हैं। हिन्दी साहित्य में किसी प्रेमचंद-युग की चर्चा नहीं होती, उर्दू साहित्य में भी शायद नहीं। लेकिन यह कहना बहुत ग़लत न होगा कि अज्ञेय हों या जैनेंद्र या और भी लेखक, वे प्रेमचंद-युग की संतान हैं।’’1 प्रेमचंद ने सिर्फ़ गाँव-जवार को ही अपने साहित्य में चित्रित नहीं किया अपितु उनके साहित्यिक क़नात के नीचे गाँव और शहर दोनों थे । शायद यही कारण था कि अपने समय के समाज को अधिक व्यापक रूप में वो चित्रित कर सके ।

            प्रेमचंद का समय आंतरिक जटिलताओं के संघर्ष का समय था । हिन्दी – उर्दू का झगड़ा चरम पर था । एक तरफ़ अल्ताफ हुसैन हाली तो दूसरी तरफ़ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी – अपनी पताका संभाले हुए थे । बंगाल का विभाजन हो चुका था। महात्मा गांधी भारत की आज़ादी के नये नायक के रूप में लोकप्रिय हो रहे थे । गहरे उपनिवेशवाद की छाप गाँव से लेकर शहर तक दिखाई पड़ रही थी । यद्यपि प्रेमचंद के गावों में उसतरह की कुलबुलाहट नहीं थी जैसी कि आज़ादी के तुरंत बाद फणीश्वरनाथ रेणु के “मैला आँचल” में दिखाई पड़ती है । फ़िर भी बहुत कुछ था जो बदल रहा था । रेलवे, फैक्ट्रियाँ, सड़कें, चीनी मिलें, सिनेमा, अंग्रेज़ों के वफ़ादार जमीदार, रायसाहब इत्यादि के ताने-बाने के बीच समाज में बदलाव और संघर्ष की एक आंतरिक धारा थी । इसकी एक झलक किसानों के अंदर पनप रहे विद्रोह में भी देखी जा सकती है । रमा शंकर सिंह लिखते हैं कि  “बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में अवध में किसान आंदोलनों की श्रृंखला चल पड़ी थी। प्रतापगढ़ में बाबा रामचंद्र किसानों से कह रहे थे कि वे अंग्रेजों को टैक्स न दें।“2

          जगह-जगह छापे खाने खुल रहे थे । तरह-तरह की पत्र – पत्रिकाओं के माध्यम से समाज प्रबोधन का कार्य हो रहा था । राजा रवि वर्मा जैसे कलाकार मंदिरों में कैद देवी-देवताओं को पोस्टर चित्रों के माध्यम से घर-घर पहुंचा चुके थे । अछूतानंद जैसे नायक दलित समाज को आंदोलित कर रहे थे तो डॉ. भीमराव आंबेडकर अपनी शिक्षा पूरी कर के भारत आ चुके थे । स्त्रियाँ शिक्षित हो रहीं थी । उनके अधिकारों एवं शिक्षा को लेकर पक्षधरता बढ़ रही थी । 1894 के भूमि अधिग्रहण क़ानून का विरोध और दमन दोनों हुआ । जालियावाला बाग जैसा जघन्य हत्याकांड अंग्रेज़ सरकार पहले ही कर चुकी थी । इन तमाम घटनाओं के बीच से प्रेमचंद सेवा सदन, गोदान और रंगभूमि जैसे उपन्यास लिखते हैं । प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जिस तरह से ब्रिटिश सरकार उपनिवेशवाद की जड़ों को भारत में जमा रही थी उसका एक व्यापक चित्र प्रेमचंद के साहित्य में मिलता है । 

         स्वामी दयानंद सरस्वती का “आर्य समाज” जिस तरह से देश में सक्रिय था उससे प्रेमचंद भी प्रभावित हुए । समाज में व्याप्त वेश्यावृत्ति की समस्या का निराकरण जिस तरह वे “सेवा सदन” बनाकर दिखाते हैं, उससे उनपर आर्य समाज के प्रभाव को साफ़ देखा जा सकता है । कुछ विद्वानों का मानना है कि यह प्रभाव सिर्फ़ आर्य समाज का नहीं था । इस संदर्भ में रमा शंकर सिंह अपने लेख में लिखते हैं कि,“विक्टोरियन नैतिकताबोध से भारतीय समाज के ऊपर कानून लाद दिए गए थे और भारतीय पुरुष समाज सुधारक जैसे मान चुके थे कि स्त्री का उद्धार करना उनका पुनीत कर्तव्य है।’’3 इन्हीं सब के बीच प्रेमचंद साहित्य के समाज और समाज के साहित्य दोनों को बदल रहे थे । उनके इस बदलाव को समाज ने भी स्वीकार किया क्योंकि वह कोई वैचारिक या काल्पनिक बदलाव मात्र नहीं था । इस बदलाव का एक अंडर करेंट समाज महसूस कर रहा था जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है ।

             प्रेमचंद लेखन की शुरुआत उर्दू से करते हैं । उनकी कृतियों को अंग्रेज़ सरकार प्रतिबंधित करती है । प्रेमचंद सहज,सरल और सपाट भाषा में लिखते हैं ताकि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सके । वे प्रगतिशील विचारों के अगुआ बनते हैं । साहित्य को उस मशाल की संज्ञा देते हैं जो राजनीति के आगे-आगे चलकर उसका पथ प्रदर्शन करे । 1906 से 1936 तक लिखा गया उनका पूरा साहित्य अपने समय और समाज की त्रासदी का बयान है । मंगलसूत्र उपन्यास वो पूरा नहीं कर सके । कफ़न उनकी लिखी अंतिम कहानी साबित हुई । अंतिम पूर्ण उपन्यास के रूप में उन्होने गोदान जैसी सशक्त रचना दी । कमल किशोर गोयनका ने उनकी 25 से 30 लघु कहानियाँ भी खोजी हैं जो पाठकों के लिए सहज रूप से उपलब्ध हो चुकी है । बलराम अग्रवाल अपने आलेख – प्रेमचंद की लघु कथा रचनाएँ में इसकी विस्तार से चर्चा कर चुके हैं ।4 प्रेमचंद ने तीन सौ के आस-पास कहानियाँ लिखीं । अधिकांश कहानियों के केंद्र में समाज की कोई न कोई समस्या है । पंच परमेश्वर, पूस की रात, ठाकुर का कुआं , नमक का दरोगा, आत्माराम, बड़े घर की बेटी, आभूषण, कामना, बड़े भाई साहब, सत्याग्रह, घासवाली और कफ़न जैसी उनकी कहानियाँ अधिक लोकप्रिय रही हैं । लेकिन उनकी समस्त कहानियों में समस्याओं और सूचनाओं का इतना अंबार है कि हिन्दी पट्टी के समाज और समाज मनोविज्ञान को समझने में ये बहुत सहायक हैं । साहित्य को सामाजिक सरोकारों एवं प्रगतिशील मूल्यों के साथ जोड़कर प्रेमचंद ने एक नई परिपाटी शुरू की ।  

          डॉ. कमल किशोर गोयनका ने तमाम प्रमाणों एवं साक्ष्यों के आधार पर यह साबित किया है कि प्रेमचंद को जिस तरह रामविलास शर्मा जी गरीब और जीवन भर तंगी में ही रहने की बात करते हैं वह गलत है ।5 प्रेमचंद की माली हालत हमेशा ठीक ठाक रही । लेकिन उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से हमेशा ही उस शोसित-वंचित की चिंता की जो ब्रिटिश कालीन उपनिवेशिक समाज में सम्पन्न वर्ग द्वारा निचोड़ा जा रहा था । प्रेमचंद का समय कई विचारधाराओं के उत्थान का भी समय था । निश्चित था कि प्रेमचंद भी किसी न किसी रूप में इनसे प्रभावित होते । किसान आंदोलन, भूमि अधिग्रहण कानून, रुसी क्रांति, लियो टोल्सटाय, गांधी और डॉ आंबेडकर की विचारधाराओ ने प्रेमचंद को प्रभावित किया । 1927 से डॉ. अम्बेडकर के आंदोलनों की तीव्रता ने पूरे देश को प्रभावित किया । प्रेमचंद की कई महत्वपूर्ण कहानियाँ इसी के बाद ही आयीं । जैसे किठाकुर का कुँआ”, “दूध का दाम”, “सद्गति” और उनकी अंतिम कहानी “कफ़न” । यद्यपि कफ़न को लेकर दलित साहित्य समीक्षकों ने प्रेमचंद की कड़ी निंदा भी की है लेकिन वह एक ख़ास नजरिये से देखना भर है, उसमें समग्रता का अभाव है ।

         31 जुलाई 1880 को जन्में प्रेमचंद ने 08 अक्टूबर 1936 को अंतिम सांस ली । तमाम सामाजिक,राजनीतिक परिस्थितियों और विचारधाराओं के बीच प्रेमचंद जिस भारत की संकल्पना को अपने साहित्य के माध्यम से साकार कर रहे थे वहाँ समतामूलक सर्वसमावेशी स्वराज्य का सपना था । उनकी राष्ट्रियता की छवि में जन्मगत वर्ण व्यवस्था की गंध तक स्वीकार्य नहीं थी । नवजागरण की पृष्ठभूमि से उठे सारे सवालों को वे अपने साहित्य के माध्यम से उठा रहे थे । राष्ट्रीय रंगमंच पर गांधी और आंबेडकर के विचारों से उस भारत को गढ़ना चाह रहे थे जिसमें मनुष्यता महत्वपूर्ण है । चित्त की उदारता सिर्फ़ विचारों और ग्रंथों तक सीमित न होकर वह व्यवहार का हिस्सा बने, यह प्रेमचंद की इच्छा थी । उपनिवेशिक दबाव और प्रभाव के बीच भारत का जो छविकरण “Land of Religion and Philosophy” के रूप में किया जा रहा था वह इस भारत की समग्र आत्मा का प्रतिनिधित्व नहीं था । उसमें वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में भविष्य की संकल्पना स्पष्ट नहीं थी ।

         प्रेमचंद ने साहित्य को अपने समाज और समय की धड़कन में बदलते हुए नायकत्व की पूरी परिपाटी को बदल दिया । मनुष्यता को साहित्य के केंद्र में स्थापित किया । अनुभूति की जीवंतता को प्रेमचंद ने महत्वपूर्ण माना । उत्तर भारत की स्मृतियों, अनुभूतियों, रंग, रूप, रस और गंध सबकुछ प्रेमचंद ने अपने साहित्य में समेटा । भूत और भविष्य की चिंता को व्यर्थ का भार मानने वाले प्रेमचंद अपने वर्तमान को पूरी समग्रता से चित्रित करते हैं । समाज के दबे – कुचले और शोषित वर्ग को मनुष्यता का स्वर प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से ही दिया । कठिनाइयों से लड़ने के लिये गति और बेचैनी को प्रेमचंद महत्वपूर्ण मानते थे । वे एक ऐसे साहित्य के हिमायती थे जो संघर्ष के लिये बेचैनी पैदा करे । प्रेमचंद के साहित्य में समय विशेष का लोक चित्त और उसका इतिहास धड़कता है ।

              प्रेमचंद ने गाँव के जिस जीवंत परिवेश का चित्रण करते हैं उसने उनकी बाद की पीढ़ी के लिए एक रास्ता प्रसस्त किया । सरोकारजन्य साहित्य की परिपाटी उन्हीं की देन है । प्रेमचंद के बाद शिव प्रसाद सिंह, फणीश्वरनाथ रेणु, चन्द्र्किशोर जायसवाल, अमरकांत, संजीव, रामधारी सिंह दिवाकर, राकेश कुमार सिंह, मैत्रयी पुष्पा, काशीनाथ सिंह, देवेन्द्र, अखिलेश, महेश कटारे, सत्यनारायण पटेल और शिवमूर्ति जैसे कथाकारों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया । प्रेमचंद की परंपरा में कई शाखाएँ मानी जा सकती हैं जो उनके विचारों को अग्रगामी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

             प्रोफ़ेसर चित्त रंजन मिश्र के अनुसार  गोरखपुर के बाले मियाँ के मैदान में गाँधी जी का भाषण सुनने के बाद ही उन्होने सरकारी नौकरी से 1921 में त्यागपत्र दिया । बाद में वे लमही अपने गाँव लौट गये थे । प्रेमचंद के साहित्य की एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि प्रेमचंद अपने पात्रों की आर्थिक स्थिति का वर्णन अवश्य करते हैं । न केवल वर्णन करते हैं अपितु उस पैसे के आने और जाने के संदर्भ को भी बड़े सलीके से चित्रित करते हैं । यह अर्थ उस व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में क्या बदलाव लाता है, उसकी सोच को किस तरह प्रभावित करता है, इसका व्यापक चित्र खींचते हैं । कबीर और तुलसी के बाद संभवतः प्रेमचंद का ही पाठक वर्ग सबसे बड़ा हो । इन पाठकों तक प्रेमचंद धर्म और कर्मकांडों के माध्यम से नहीं अपितु धार्मिक पाखंडों की पोल खोलते हुए पहुँचते हैं । सामाजिक विसंगतियों की गाँठों को लेकर अपने पाठकों तक जाते हैं ।  प्रेमचंद ख़ुद भी अपने आप को वैचारिक स्तर पर माँजते रहे । सन 1916 से 1936 तक आते-आते प्रेमचंद में यह बदलाव साफ़ दिखायी पड़ता है । प्रेमचंद की हिन्दी वह हिंदुस्तानी थी जिसकी बात गाँधी जी करते थे । ठेठ जन की भाषा को उन्होने अपनाया ।

            फ़िल्मों की दुनियाँ में भी प्रेमचंद ने क़दम तो रक्खा लेकिन वे यहाँ से निराश अधिक हुए ।  प्रेमचंद की लिखी फिल्म ‘द मिल मजदूर’ मुंबई में 5 जून 1939 को इंपीरियल सिनेमाघर में लंबी लड़ाई के बाद रिलीज हुई थी। वैसे तो यह फिल्म 1934 में ही बनकर  तैयार हो चुकी थी, लेकिन उस समय मुंबई के बीबीएफसी (बॉम्बे बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) ने इसे प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं प्रदान की । उन्हें यह लगता था कि फ़िल्म मजदूरों को बरगला सकती है और वे हड़ताल कर सकते हैं । तत्कालीन सेंसर बोर्ड में सदस्य के रूप में शामिल बेरामजी जीजीभाई मुंबई मिल एसोसिएशन के भी अध्यक्ष थे, वे इस फ़िल्म को मिल  एसोसिएशन के हितों के अनुकूल नहीं समझते थे । 1937 में बीबीएफसी का फिर से गठन हुआ और नए सदस्य चुने गए। तब जाकर इस फ़िल्म को प्रदर्शित करने का रास्ता साफ हुआ । यह फ़िल्म प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रदर्शित हुई ।

          प्रेमचंद खेतिहर भारतीय जनमानस के सबसे बड़े और सबसे अधिक स्वीकृत कथाकारों में रहे हैं । उनके साहित्य के माध्यम से बहस और चिंतन की गुंजाइस लगातार बनी हुई है । वे अपनी किरदार निगारी में अद्भुद रहे । प्रेमचंद का साहित्य अपने समय की वास्तविकता की तलाश है । इस तलाश की केन्द्रिय इकाई मानवीयता है । प्रेमचंद ने अपने पाठकों के साथ जिस विश्वास की परंपरा का निर्माण किया, उतनी मज़बूत और व्यापक कड़ी उनके बाद का कोई भी लेखक अभी तक नहीं बना पाया है । अपने समय के संघर्ष का मानो प्रेमचंद इक़बालिया बयान दर्ज़ कर रहे हों ।

       

संदर्भ :

1.   प्रेमचंद 140 : सातवीं कड़ी : हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद-युग की चर्चा क्यों नहीं? –अपूर्वानंद https://www.satyahindi.com/literature/140-years-of-premchand-part-7

2.   प्रेमचंद का सूरदास आज भी ज़मीन हड़पे जाने का विरोध कर रहा है और गोली खा रहा है! – रमा शंकर सिंह, https://junputh.com/open-space/rama-shankar-singh-on-premchand-jayanti

3.   वही 

4.   प्रेमचंद की लघु कथा रचनाएँ – बलराम अग्रवाल https://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/articles/606/premchand-ki-laghukatha-rachanayein

5.   प्रेमचंद गरीब थे, यह सर्वथा तथ्यों के विपरीत है – रोहित कुमार हैप्पी’, https://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/articles/600/grib-nahi-the-premchand.html?

  

 

 

                                            


Wednesday, 22 July 2020

फणीश्वरनाथ रेणु : जन्मशती के बहाने ।


      फणीश्वरनाथ रेणु : जन्मशती के बहाने ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग
के एम अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र

  
                भारत की आत्मा जिन ग्रामीण अंचलों में बसती है, उन्हीं अंचलों के जीवनानुभव को जिस सलीके और शैली से रेणु प्रस्तुत करते रहे, वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है । यह प्रेमचंद की परंपरा ही नहीं अपितु कई संदर्भों में उसका विकास भी था । विकास इस रूप में कि प्रेमचंद के विचारों और स्वप्नों को उन्होने अग्रगामी बनाया । प्रेमचंद का समय औपनिवेशिक था जब कि रेणु के समय का भारत स्वतंत्र हो चुका था । स्वाभाविक रूप से रेणु के ग्रामीण अंचलों में गतिशीलता और जटिलता दोनों अधिक थी । प्रेमचंद की तुलना में रेणु के गाँव अधिक डाईमेनश्नल हैं । इसलिये जैसी गलियाँ, गीत और नांच रेणु के यहाँ मिलते हैं वे प्रेमचंद के यहाँ नहीं हैं । आज़ादी के तुरंत बाद मैला आँचल जैसे उपन्यास के माध्यम से उन्होने इस देश की भावी राजनीति की नब्ज़ को जिस तरह से टटोला वह उन्हें एक दृष्टा बनाता है । अपने साहित्य के माध्यम से रेणु ने भारतीय ग्रामीण अंचलों की पीड़ा का सारांश लिखा है । अशिक्षा, रूढ़ियाँ, सामंती शोषण, गरीबी, महामारी, अंधविश्वास, व्यभिचार और धार्मिक आडंबरों के बीच साँस ले रहे भारतीय ग्रामीण अंचलों के सबसे बड़े रंगरेज़ के रूप में रेणु को हमेशा याद किया जायेगा ।  
                आज़ अगर रेणु होते तो आयु के सौ वर्ष पूरे कर रहे होते । रेणु हमारे बीच नहीं हैं, है तो उनका लिखा हुआ साहित्य । यह साहित्य जो रेणु की उपस्थिति हमेशा दर्ज़ कराता रहेगा । संघर्ष के पक्ष में और शोषण के खिलाफ़ दर्ज़ रेणु का यह इक़बालिया बयान है । रेणु के साहित्य में जितनी गहरी और विवेकपूर्ण स्त्री पक्षधरता दिखायी पड़ती है वह अद्भुद है । रेणु के लिये जीवन कुछ और नहीं अपितु गाँव हैं । अपने पात्रों के माध्यम से रेणु ने विलक्षणता नहीं आत्मीयता का सृजन किया । गाँव उनके यहाँ मज़बूरी नहीं आस्था के केंद्र हैं । गाँव के प्रति उनकी यह आस्था अंत तक बनी रही ।
               रेणु अपने समाज की जटिलता को अच्छे से समझते थे । एक सृजक के अंदर जिस तरह के नैतिक साहस की आवश्यकता होती है, वह रेणु में थी । जिस वैचारिकी का वे समर्थन करते थे उसके भी वे अंधभक्त नहीं रहे,अपितु उसकी कमियों या उसके पथभ्रष्ट होने की स्थितियों का भी उन्होने विरोध किया । वे एक ईमानदार सृजक थे अतः अपने अतिक्रमणों के नायक रहे । अपने साहित्य और नैतिक साहस के दम पर सत्ता का प्रतिपक्ष खड़ा करते रहे । हाशिये के समाज को केंद्र में लाते रहे । प्रोफ़ेसर जितेंद्र श्रीवास्तव जी के अनुसार पूरे हिन्दी साहित्य में आदिवासी चेतना के प्रारम्भिक उभार को बड़े सलीके से रेणु ही प्रस्तुत करते हैं ।
            यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि रेणु पर शुरू में ही आंचलिकता का टैग लगा दिया गया । इससे उन्हें पढ़ने-पढ़ाने की पूरी परिपाटी ही बदल गई । बहस के केंद्र में संवेदनायें, विचारधारायें, सूचनायें और शिल्प न होकर आंचलिकता हो गई,जो की विडंबनापूर्ण थी  । आंचलिकता की अवधारणा ने उनकी ऊंचाई को कम किया । इसतरह एक पेजोरेटिव ( pejorative ) कैटेगरी रेणु के लिये बनाना उन्हें कमतर आँकने का षड्यंत्र लगता है । आज़ यह सुनने में अजीब लगता है कि मैला आँचल को शुरू में कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था । नलिन विलोचन शर्मा ने पहली समीक्षा इस पर पटना आकाशवाणी के माध्यम से  प्रस्तुत की थी । उसके बाद प्रकाशक इसे छापने को तैयार हुआ ।
              मैला आँचल’ सबसे पहले सन 1953 में  समता प्रकाशन,पटना, द्वारा प्रकाशित हुआ था । बाद में 1954 में  राजकमल प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया । हालांकि बाद में कुछ समीक्षकों ने इसे एक “असंगत कृति” कहकर भी संबोधित किया । इस तरह की बातें तो समीक्षक प्रेमचंद के गोदान को लेकर भी करते रहे । लेकिन समय के साथ हर कृति अपने महत्व को स्वयं स्थापित कर देती है । प्रोफ़ेसर रमेश रावत का स्पष्ट मानना है कि – विचारधारा उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी की किसी रचना विशेष से मिलने वाली सूचनाएँ / जानकारियाँ महत्वपूर्ण हैं । गियर्सन तुलसीदास को बड़ा साहित्यकार इसीलिए मानता है क्योंकि तुलसी के साहित्य में आम व्यक्ति से लेकर विद्वान से विद्वान के लिये भी भरपूर सूचनाएँ और संदर्भ हैं ।
             रेणु के लेखन में यद्यपि गाँव केंद्र में हैं पर उसकी परिधि में पूरा भारत है । तेजी से बदलती हुई दुनियाँ इस गाँव की तस्वीर को भी बदल रही है । महकउआ साबुन और फ़िल्मी नायिकाओं की तस्वीर गाँव में भी आ रही हैं । रेणु जब लिख रहें हैं तो वह समय महानगरों का है । लेखन के केंद्र में भी महानगर हैं । ऐसे में गाँव की तमाम समस्याओं, सीमाओं, दुर्बलताओं, विकृतियों के बावजूद वो अपनी आस्था को यहीं केन्द्रित करते हैं । गाँव से शहर में पलायन की मज़बूरी को रेणु लगातार चित्रित करते हैं । मज़बूरी इसलिये क्योंकि पलायन के मूल में रोजी रोटी की समस्या है न कि गांवों के प्रति कोई अनास्था ।
          रेणु की एक बहुत बड़ी विशेषता यह भी रही कि वे अपनी रचनाओं के शिल्प के लिए पश्चिम के मान्य एवं स्वीकृत ढाँचों की तरफ़ आकर्षित नहीं होते अपितु भारतीय लोक परंपराओं में प्रचलित रूपों को अपनाते हैं । अपनी भाषा शैली के माध्यम से भी वे बोली और भाषा के बीच ताना-बाना बुनने की कोशिश करते हैं । रेणु का शिल्प उस परिवेश का ही है जिसे वे लगातार चित्रित करते रहे । रेणु एक लेखक के रूप में लिखकर जो दिखाना चाहते हैं ,दरअसल वह उनकी दृष्टि ही बड़ी महत्वपूर्ण है । रेणु आज़ादी के तुरंत बाद के भारत की राजनीति की जो छवि “मैला आँचल” जैसे उपन्यास में दिखाते हैं, वह उन्हें एक भविष्य दृष्टा के रूप में स्थापित करता है ।   
               रेणु जो देख रहे थे वह निश्चित ही निराशा जनक था । वे पक्ष प्रतिपक्ष की तमाम आलोचनाओं के बीच अपनी रचनधर्मिता के माध्यम से उस आम आदमी की राजनीति को बख़ूबी दर्ज़ कर रहे थे जो राज़नीति के वास्तविक फ़लक पर हाशिये की ओर ठेल दिया गया था । यह एक जिम्मेदार लेखक की उपयोगी परंतु चुनौतीपूर्ण राजनीति थी । एक लेखक के रूप में उन्होने आम आदमी की राजनीति को बख़ूबी अंजाम दिया । इस बात के परिप्रेक्ष्य में मैं यह कह सकता हूँ कि रेणु कभी भी राजनीति से अलग नहीं हुए । जिस इलाक़े में सन 1942 के बाद भी राजनीतिक बातें अफ़वाहों के रूप में पहुँच रही थी ( मैला आँचल) वहाँ इतनी जबरजस्त राजनीतिक चेतना रेणु के अतिरिक्त कौन चित्रित कर सकता था ?
              ये रेणु का ही साहस था कि वे पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान में, जे पी की उपस्थिति में पद्मश्री को पापश्री कहकर लौटा देते हैं । आंदोलनों को जीने की चेष्टा मानने वाले रेणु,स्वयं को राजनीतिक नेता नहीं मानते थे । यद्यपि वे 1972 में विधानसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ते हैं । रेणु इस संदर्भ में अपने एक साक्षात्कार में कहते भी हैं कि, “अतः मैंने तय किया था कि मैं खुद पहन कर देखूं कि जूता कहां काटता है। कुछ पैसे अवश्य खर्च हुए, पर बहुत सारे कटु-मधुर और सही अनुभव हुए। वैसे भविष्य में मैं कोई चुनाव लड़ने नहीं जा रहा हूं। लोगों ने भी मुझे किसी सांसद या विधायक से कम स्नेह और सम्मान नहीं दिया है। आज भी पंजाब और आंध्र के सुदूर गांवों से जब मुझे चिट्ठियां मिलती हैं तो बेहद संतोष होता है। एक बात और बता दूं, 1972 का चुनाव मैंने सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ लड़ा था।’’1 यह चुनाव रेणु हार गये थे ।
            जिन आलोचकों ने रेणु के ऊपर यह आरोप लगाया कि उनके अंदर आभिजात्य के प्रति मोह है, उन्होने शायद समग्रता और गहराई में रेणु का मूल्यांकन नहीं किया । आदिवासी समाज़ और आधी आबादी की जैसी वैचारिक पक्षधरता रेणु ने दिखाई, उसके बाद भी ऐसे आरोप समझ में नहीं आते । रेणु की आलोचना यह कहकर भी होती रही है कि उन्होने काल्पनिक आदर्शवादी पात्रों को गढ़कर एक झूठा आशावाद सामने लाया जिससे शोषण के विरुद्ध जो जन आक्रोश पैदा हो सकता था वो दब गया । इस तरह की आलोचना रेणु के लेखकीय अधिकारों का हनन है । रेणु ने ग्रामीण जीवन के अँधेरे उजाले संदर्भों का जिस तरह से आलिंगन किया और जैसी एकनिष्ठता उन्होने दिखाई वह अन्यत्र दुर्लभ है ।
             रेणु के आंचलिक वितान के फलस्वरूप प्रेमचंद के बाद गाँव फिर से हिन्दी साहित्य में मज़बूत दखल के साथ दर्ज़ होता है । यह दखल रेणु की कहानियों और उपन्यासों के साथ संयुक्त रूप से होता है । यहाँ तक कि जब उनकी कहानी मारे गये गुलफाम के आधार पर तीसरी कसम फ़िल्म बनी तो वहाँ भी रेणु ने सम्झौता बिलकुल नहीं किया । फ़ायनानसर का बहुत मन था कि फ़िल्म के अंत में रेलगाड़ी की चैन खीचकर हीरामन और हीराबाई को मिला दिया जाय । लेकिन रेणु ने साफ़ कह दिया कि अगर ऐसा करना है तो फ़िल्म से लेखक के रूप में उनका नाम हटा दिया जाय । इस पूरी फ़िल्म ने उस ग्रामीण परिवेश,उसके लोकगीतों और लोक कथाओं को सदा के लिये अमर कर दिया ।
            रेणु अपने कथा साहित्य के साथ ही अपने लिखे रिपोर्ताज़ के लिये भी जाने जाते हैं । यह साहित्य को द्वितीय विश्व युद्ध की देन है । रेणु इस संदर्भ में लिखते भी हैं कि, गत महायुद्ध ने चिकित्साशास्त्र के चीर-फाड़ विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा-विभाग को रिपोर्ताज !’2 रिपोर्ताज़ घटनाओं का सजीव वर्णन है । यह शब्दों के माध्यम से विडिओग्राफ़ी जैसा है । घटित घटनाओं के क़रीब जाकर संवेदना के धरातल पर रिपोर्ताज़ का लेखन आसान नहीं । महामारी के दिनों में रेणु ख़ुद ऐसी जगहों पर जाकर उनपर रिपोर्ताज़ लिखते, तस्वीरें लेते या कि रिपोर्टिंग करते ।
            कई बार ऐसी सजीव रिपोर्टिंग से सत्ता पक्ष की चूलें खड़ी हो जाती थीं । रेणु इस संदर्भ में स्वयं कहते हैं कि, “.....बिहार में 1967 में जब भयंकर अकाल पड़ा था तो पहले – पहल मैंने और अज्ञेय जी ने अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था। उसकी रपट दिनमान में छपी थी। उस दौरे के दौरान हमने अकाल की विभीषिका दिखाने वाले अनेक चित्र लिये थे जिन पर सरकार को एतराज भी हो सकता था और वह हमें गिरफ्तार भी कर सकती थी। पर वह काम उसने तब नहीं किया। गत 9 अगस्त, 1974 को फारबिसगंज (पूर्णिया) में किया जहां हमने बाढ़ पीड़ितों की राहत के लिए प्रदर्शन किया था। साहित्यकारों की भूमिका के संबंध में एक बात और कह दूं। 1967 में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के चित्रों की कनाट प्लेस में प्रदर्शनी लगाई गयी थी और उससे प्राप्त पैसे सूखा पीड़ितों की सहायता में भेज दिये गये थे।’’3  
         पश्चिम की इस लोकप्रिय शैली से रेणु भी गहरे प्रभावित हुए । रेणु इस संदर्भ में ‘सरहद के उस पार’ नामक अपने रिपोर्ताज में स्वयं लिखते भी हैं कि ‘‘मुझे नेपाल के जंगलों में ही राजनीति और साहित्य की शिक्षा मिली है। नेपाल की काठ की कोठरी में ही मैने समाजवाद की प्रारंभिक पुस्तकों से लेकर महान ग्रंथ ‘कैपिटल” तक को पढ़कर समझने की धृष्टता की है। पहाड़ की कंदराओं में बैठकर बंसहा कागज की बही पर ‘रशियन रिवोल्युशन” को नेपाली भाषा में अनुवाद करते हुये उस पागल नौजवान की चमकती हुई आँखों को मैने अपनी जिंदगी में मशाल के रूप में ग्रहण किया है।’’4 हिन्दी साहित्य में इस विधा को शुरू करने का कार्य शिवदान सिंह चौहान ने किया जिसे रेणु जैसे रचनाकारों ने नई ऊंचाई प्रदान की । इसकी परंपरा को अग्रगामी बनाने में जिन अन्य साहित्यकारों की महती भूमिका रही उनमें रांगेय राघव, अश्क, धर्मवीर भारती,  श्रीकांत वर्मा, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा और विवेकी राय का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है ।
           रेणु हिन्दी साहित्य में अपनी मौलिकता, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के लिये सदैव याद किये जाते रहेंगे । रेणु की संवेदना, शिल्प और शब्द एकसाथ मिलकर पाठकों के समक्ष जो चित्र प्रस्तुत करते हैं, वह अपने समय का आख्यान बनकर संघर्ष के लिये रोमांच एवं रोमांस पैदा करता है । यह रोमांच ही हमारी चेतना को रिक्त नहीं होने देता ।
         
                           
      
        संदर्भ :
1.   यह साक्षात्कार सुरेन्द्र किशोर द्वारा की गई बातचीत है जो प्रतिपक्ष के 10 नवंबर 1974 के अंक में छपी थी। हमें https://phanishwarnathrenu.com पर यह उपलब्ध मिला ।
2.   लेख / अनंत – रेणु और रिपोर्ताज जो कि https://phanishwarnathrenu.com पर उपलब्ध है ।
3.   संदर्भ 1
4.   संदर्भ 2

संदर्भ ग्रंथ सूची :
1.       फणीश्वरनाथ रेणु : संभवंति युगे-युगे – शिवमूर्ति, कंचनजंघा : पीअर रिव्यूड छमाही ई-जर्नल । अंक-01,वर्ष -01, जनवरी – जून 2020 ।
2.       https://atmasambhava.blogspot.com/2016/08/blog-post_14.html नलिन विलोचन शर्मा बनाम रामविलास शर्मा (अर्थात् ‘मैला आँचल’ पर पक्ष-विपक्ष)
4.       कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु : प्रेमकुमार मणि https://samalochan.blogspot.com/

     


Saturday, 18 July 2020

लाकडाउन यादव का बाप ।



                                     
            क्या मैं मरने वाला हूं ? या फ़िर यह एक भ्रम है ?  या फ़िर उस समय का मानसिक तनाव कि जिसमें सुबह से शाम बस मौत के आंकड़े परोसे जा रहे हैं । सारी दुनियां से काटकर, सारी दुनियां से मौत के आंकड़े दिखाए जा रहे हैं । यह भी कि कैसे कब्रिस्तानों में जगह कम हो गई है, लोग अपने सगे संबंधियों की लाशें नहीं ले रहे, अस्पताल की व्यवस्थाएं चरमरा गई हैं और दुनियां अब तक की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी से जूझ रही है । बाहर निकलने की सख़्त मनाही है । ख़बरों के अनुसार इसकी चपेट में आए लोगों की संख्या एक करोड़ बारह लाख से ज़्यादा हो चुकी है । अब तक इस महामारी से पांच लाख इकतीस हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है । बाहर सन्नाटा है और सारा शोर सिमट कर मेरे अंदर फ़ैल चुका है । इस शोर में कुछ सूझ नहीं रहा,बस लग रहा है कि मैं भी मरने वाला हूं । अगर यह सच है तो घर में कैद क्यों हूं ? कुछ ज़रूरी काम फ़ौरन निपटा लेने होंगे, चाहे कुछ भी हो । इसके पहले कि मैं मर जाऊं ये काम तो निपटाने होंगे, लेकिन कैसे ? .....
       रात के ठीक तीन बजे हैं । मैंने लैपटॉप आन कर दिया । भाई साहब को ईमेल के जरिए सारी डिटेल भेज देना ठीक समझा । थोड़ी झिझक भी महसूस हुई लेकिन मुझे यह जरूरी लगा ।  बीमा, मेडिक्लेम और मकान के सारे कागज़ स्कैन कर भेज दिये । बैंक खाते और शेयर की जानकारी भी । उन्हें घुमा फ़िरा के यह भी लिख दिया कि अगर मुझे कुछ होता है तो चिंता की कोई बात नहीं, सारे लोन का बीमा है । ऐसी ही बहुत सी चीजें जो मुझे ज़रूरी लगीं, सब लिखकर भाई साहब को ईमेल पर भेज दिया । ऐसा लगा जैसे मरने की पूर्व तैयारी में बहुत ज़रूरी काम हो गया । फ़िर लगा जैसे कुछ और भी है जो करना है। तीन साल हो गए निष्ठा से रिश्ता टूटे, कभी तो नहीं लगा कि उस घमंडी और मतलबी लड़की से बात करूं । लेकिन आज, जब कि मैं मरने वाला हूं तो लगता है कि उसे भी एक ईमेल भेज दूं ।
            कांपती उंगलियों से उसे ईमेल लिखना शुरू किया । मैंने जो लिखा था वह सब ठीक से तो याद नहीं पर मैंने उसके प्रति अपने बर्ताव के लिए माफ़ी मांगी थी । यह भी लिखा था कि वह दुनियां की सबसे सुंदर लड़की है और उसे अपना खयाल रखना चाहिए । ईमेल भेजकर मैंने उसका ईमेल ब्लाक कर दिया । उसका कोई जवाब नहीं पढ़ना चाहता था । अब उसकी कोई जरूरत ही नहीं महसूस हो रही थी । मुझे लगा कि मुझे निष्ठा की मनपसंद डार्क चॉकलेट भी एक आखरी बार उसे ज़रूर भेजनी चाहिए । लेकिन आनलाईन खरीदारी की कोशिश नाकाम रही ।  अतः उस चाकलेट की फोटो ही ईमेल करने की सोची । पर ईमेल ब्लॉक कर चुका था । ईमेल अनब्लाक करने की हिम्मत नहीं हुई । इतनी देर में अगर उसने भी कोई ईमेल भेज दिया हो तो ? यह सोच कलेजा मुंह में आ गया । सांसे तेज़ हो गई । नहीं, नहीं मैं नहीं पढ़ सकता उसका जवाब । अब जब कि मैं मरने वाला हूं तो क्यों जानूं कि वह मेरे बारे में क्या सोचती है ? नहीं, बिलकुल नहीं । मैंने लैपटाप बंद कर दिया । सुबह के साढ़े पांच हो रहे थे और सर भारी । मैं बिस्तर पर लेट गया इस उम्मीद में कि थोड़ी नींद आ जाए । लेकिन क्या मरने वाले को भी नींद आती है ? कहते हैं मरने के बाद आदमी चिर निद्रा में चला जाता है । मेरी जो मानसिक स्थिति है उसमें तो लगता है कि मरने के बाद भी नींद नहीं आयेगी ।
             निष्ठा याद आ रही थी । पिछले दिनों जब उसकी माँ की अचानक मौत की ख़बर सुनी तो दंग रह गया । उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक ईमेल भी लिखा था जो भेजने की हिम्मत ही नहीं हुई । उस ईमेल का ड्राफ़्ट पढ़ने का मन हुआ । मोबाइल में ही पढ़ने लगा –प्रिय निष्ठा,
        जानता हूं कि यह साल तुम्हें बहुत उदास छोड़कर जा रहा है । लेकिन ये उदासी तुम उन लोगों के लिए छोड़ दो जो सारे मौसम तुम्हारी आंखों से पाते हैं । जिनकी मुस्कान तुम्हारी मुस्कान के बाद खिलती है । जिनके लिए सुकून का अर्थ सिर्फ़ तुम हो । आगे बढ़ो, मुस्कुराओ कि ज़िंदगी तुम्हारी इसी मुस्कुराहट में सांस लेगी, नहीं तो सांस ख़ुद जिंदगी पर बोझ हो जायेगी ................. ।
ऐसा ही बहुत कुछ लिखकर उसे ईमेल कर देना चाहता था । मैं आज उसे समझाने का प्रयास कर रहा था जिसकी समझदारी का मैं ख़ुद कायल रहा हूं । जो हर मोड़ पर मुझे सही गलत के बीच उचित रास्ता दिखाती रही है । उसे भला मैं क्या समझाऊंगा ? फ़िर भी मैं ऐसा कर रहा था क्योंकि मां की यूं अचानक मौत के बाद वह अकेली हो चुकी थी । शायद अभी वह इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थी । या फ़िर मैं कम से कम यही समझ पा रहा था । या कि उसे समझाने के बहाने मैं खुद को किसी बात के लिए तैयार कर रहा था । लेकिन उसे नहीं भेज़ पाया कुछ भी ।
          और आज़ उसे नहीं, ख़ुद को बहुत कुछ समझाते हुए थक गया । पता नहीं बड़े भईया भी ईमेल देखकर क्या सोचें ? यही सब सोचते कब नींद आ गई मालूम नहीं । इस तरह की नींद भी वैसे ही आती है जैसे कोई ख़ुशी दबे पाँव आकार ओझल हो जाये । आँख खुली तो शाम के साढ़े चार बज रहे थे । बाहर सूरज भी ढलान पर था । जैसे वह भी थककर लौट जाना चाह रहा हो। बिस्तर से सोफे पर लुढ़कते हुए महसूस हुआ कि भूख लगी है ।  भूख़ लगी तो थी ही पर उसे टाल रहा था । पर भूख ऐसे टलती कहां है ? कुछ और समझती भी कहां है ? बस  डटी  रहती है, अधिक ज़िद्दी होते हुए । इसे टालने का एक ही तरीक़ा था कि मैं इसे टालने का ख़्याल छोड़कर कुछ बनाऊं और खा लूं । मरता क्या न करता ।  मैगी  जितने झटपट बनी उतने ही शीघ्र उसका भक्षण करते हुए मैं कृतार्थ हुआ ।
              मैगी नूडल्स वालों को प्रॉफिट के साथ साथ हम जैसे लोगों का आशीष भी मिलता है । सोचता हूं  अगर ये नेस्ले कंपनी मैगी न बनाती तो हम जैसे लोग क्या बना के खाते ? पिछले दिनों जब लेड की मात्रा को लेकर मैगी पर संकट के बादल छाए थे तो हम जैसे लोगों का दर्द सोशल मीडिया पर खूब छलका । उधर मौका ताड़ते हुए  बाबा जी ने आँख दबाकर अपना मैगी प्रोडक्ट लांच कर दिया । दावा था कि यह वाला पहले वाले से बेहतर है । हमें क्या ? भकोसने से मतलब । पर लोग बताते हैं कि पूरा मामला करोड़ों का था । यह स्वास्थ के लिए उचित अनुचित वाला मामला अस्वस्थ तो था ही, इसकी पूरी बनावट में सरकारी मंशा भी शक के दायरे में रही । लेकिन अब सरकार ही माई बाप है और माई बाप को गरियाना ठीक होगा ?  फ़िर पता नहीं क्या सही क्या गलत ?  जितने समाचार चैनल, उतने ही खुलासे । इस देश को आज अधिक खतरा इस मीडिया से ही नज़र आता है । लाक डाऊन पीरियड में यह मैंने अच्छे से महसूस किया । इनका बस चलता तो तीसरा महायुद्ध चीन के खिलाफ़ करा चुके होते ।  ख़ैर मुझे क्या ?
             जब भूख मिटी तो निष्ठा फ़िर याद आयी । सोचा निष्ठा मेरे लिए इतना कुछ करती थी । ऐसे दुख के समय में क्या मुझे उसके पास नहीं जाना चाहिए था ?  एक औपचारिकता ही सही पर शायद उसे अच्छा लगता । फ़िर पुणे तीन घंटे का तो रास्ता है। सिर्फ़ लफ्फाजी करते हुए ईमेल कर देना कहां तक ठीक है ? वह भी तो नहीं भेज़ सका । उसे शायद उम्मीद भी हो कि मैं उसके पास जाऊं । लेकिन नहीं जा सका । तीन साल बीत गए, कभी बात तक नहीं की निष्ठा से । आज जब लगता है कि मैं मरने वाला हूं तो अचानक निष्ठा बहुत याद आ रही है । जिसे कभी अपनी जिंदगी मानता था आज उसकी तरफ़ मुड़ा भी तो तब जब कि जीने को लेकर नाउम्मीद हो चुका हूं । इतना स्वार्थी भी होना ठीक नहीं कि ख़ुद से ही घृणा हो जाये ।
            इतने में मोबाइल के नोटिफ़िकेशन से पता चला कि भाई साहब का ईमेल आया है । साँसे तेज़ हों गई । पता नहीं भईया ने क्या लिखा होगा ? डरते डरते उनका ईमेल खोलता हूँ । भाई साहब का एक लंबा चौड़ा ईमेल मेरे सामने था । लगा जैसे वे मेरी हताश मनःस्थिति को भांप गए हों । पर सीधे सीधे उन्होंने ने भी कुछ नहीं पूछा था । उन्होने कोई डांट भी नहीं लगाई, लेकिन बहुत कुछ कह गये थे । मैं उनके कहे हुए के साथ साथ उनके अनकहे को भी अच्छी तरह समझ रहा था । उनका ईमेल एक वरिष्ठ प्राध्यापक का अपने सहयोगी या शोध छात्र को बहुत कुछ समझाने जैसा ही था । वह ईमेल कुछ इस तरह था -
प्रिय मनीष,
तुम्हारा ईमेल मिला । महत्वपूर्ण दस्तावेजों को इस तरह साझा करना अच्छा आइडिया है । मैं भी ऐसा ही करूंगा । तुमसे कितना कुछ सीखने जैसा है !!
इधर कोरोना की वजह से काफ़ी चिंता रहती है । मेरा विश्वविद्यालय भी बंद है । घर से ही आन लाईन कक्षाएं संचालित हो रही हैं । शुरू में थोड़ा अटपटा लगा लेकिन अब सब कर लेता हूं । वेबिनार भी खूब कर रहा हूं । यह सब करते हुए महसूस कर रहा हूं कि बहुत कुछ बदल गया है, अभी और भी बदलेगा । इस बदलाव के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष जो भी हों, इतना तो निश्चित है कि यह समय सिर्फ़ डरने का नहीं, अपितु लोहा लेने का भी है । जूझने और टकराने का समय, शून्य में खो जाने से पहले कितना कुछ है जो हमें कर लेना है ।
       यह ठीक है कि जिस विश्व व्यवस्था की अंधी दौड़ में हम शामिल थे उसके प्रति एक निराशा भाव जागृत हुआ है । लेकिन इसी के परिणाम स्वरूप ग्लोबल के बदले लोकल के महत्व को हम समझ सके इसकी स्वीकार्यता बढ़ी । आत्मनिर्भरता को नए तरीके से समझने की पहल शुरू हुई । हमारी आत्मकेंद्रियता,आत्मविस्तार के लिए प्रेरित हुई ।
       तकनीक का शैक्षणिक क्षेत्र में बोलबाला बढ़ा । ऑनलाईन व्याख्यानों, वेबिनारों इत्यादि की बाढ़ सी आ गई । सोशल मीडिया पर  गंभीर अकादमिक दखल बढ़े ।अध्ययन अध्यापन से जुड़ी सामग्री बड़े पैमाने पर  इंटरनेट पर उपलब्ध हो सकी ।ऑनलाईन व्याख्यानों, कक्षाओं इत्यादि से जिम्मेदारी और पारदर्शिता दोनों बढ़ी । घर से कार्य / work from home  अधिक व्यापक और व्यावहारिक रूप में दिखाई पड़ा । तकनीक का बाज़ार अधिक संपन्न हुआ । रचनात्मक कार्यों में रुचि बढ़ी ।करोना काल को लेकर अकादमिक शोध और चिंतन की नई परिपाटी शुरू हुई ।ऑनलाईन शिक्षा नए विकल्प के रूप में अधिक संभावनाशील होकर प्रस्तुत हुई । अकादमिक गुटबाज़ी और लिफाफावाद की संस्कृति क्षीण हुई । अकादमिक आयोजनों में पूंजी का हिस्सा कम हुआ ।पत्र पत्रिकाओं के ई संस्करण निकले जो अधिकांश मुफ़्त में उपलब्ध कराए गए ।भारतीय भाषाओं के तकनीकी प्रचार प्रसार को बल मिला । शिक्षकों के शिक्षण प्रशिक्षण का अकादमिक खर्च कम हुआ । सामाजिक भाषाविज्ञान की नई अवधारणाएं  शोधपत्रों एवं आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत हुईं ।ऑनलाईन पुस्तकालयों का महत्व बढ़ा । पारिवारिक मनोविज्ञान और "स्पेस सिद्धांतों" को लेकर नई अकादमिक चर्चाओं ने जोर पकड़ा ।धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं इत्यादि को करोना काल में नए संदर्भों के माध्यम से प्रस्तुत करने की पुरजोर कोशिश लगभग सभी धर्म और पंथों के लोगों ने की ।
             इतना ही नहीं भाई,  कलाओं और संगीत के बड़े आयोजन ऑनलाईन किए गए । मोबाईल अपनी स्क्रीन से स्क्रीनवाद का प्रणेता  बनकर उभरा ।नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, ज़ी फाइव, मैक्स प्लयेर, अल्ट बालाजी और डिजनी हॉट स्टार की वेब सिरीज़ सिनेमाई जादूगरी की वो दुनियां है जो लॉक डॉउन के बीच अधिक लोकप्रिय रही । सिनेमा और लोकप्रियता के अकादमिक अध्ययन को इन्होंने नई चुनौती दी । सिनेमा तो तुम्हारा प्रिय विषय रहा है, यह सब तुमने भी निश्चित ही महसूस किया होगा ।
           और सुनो, वैक्सीन  के शोध और उत्पादन की क्षमता में क्रांतिकारी  बदलाव के संकेत मिले । साफ़ सफ़ाई और स्वच्छता को लेकर जागरुकता न केवल बढ़ी अपितु व्यवहार में भी परिवर्तित हुई । इस पर गंभीर लेखन कार्य भी बढ़ा । दूरस्थ शिक्षा संस्थानों एवं उनकी प्रणालियों का महत्व बढ़ा । प्रवासी भारतीय मजदूरों को लेकर भी साहित्य प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हुआ । करोना काल का पर्यावरण एवं प्रदूषण पर प्रभाव को लेकर भी कई शोध पत्र सामने आए जिनकी व्यापक चर्चा भी हुई । नए तकनीकी जुगाड इजाद होने लगे जिससे कम से कम खर्चे में अकादमिक गतिविधियों को संचालित किया जा सके या उनमें शामिल हुआ जा सके । फेसबुक, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया के लोकप्रिय माध्यम अकादमिक गतिविधियों के बड़े प्लेटफॉर्म बनकर उभरे । तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध कराने वाली बड़ी कंपनियों में स्पर्धा बढ़ी जिसका फायदा अकादमिक जगत को हुआ ।ऑनलाईन लेनदेन की प्रवृति बढ़ी जिससे ऑनलाईन वित्तीय प्रबंधन और कॉमर्स को लेकर नए डेटा के साथ शोध कार्यों की अच्छी दखल देखने को मिली ।
          रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में आयुर्वेदिक नुस्खे खूब पढ़े गए और वैश्विक स्तर पर इनपर नए शोध कार्यों की संभावना को बल मिला । पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर करोना काल के प्रभाव को लेकर समाज विज्ञान में नई अकादमिक बहसों और मान्यताओं/ संकल्पों इत्यादि की चर्चा जोर पकड़ने लगी ।कई अनुपयोगी और बोझ बन चुकी सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं का अंत हो गया जिसे साहित्य की अनेकों विधाओं के माध्यम से लेखकों, चिंतकों ने सामने भी लाया ।शिक्षक और विद्यार्थी अधिक प्रयोगधर्मी हुए । तकनीक के माध्यम से "टीचिंग टूल्स" का प्रयोग बढ़ा ।शिक्षण प्रशिक्षण सामग्री का "इनपुट" और "आऊट पुट" दोनों बढ़ा ।मौलिकता और कॉपी राईट को लेकर भी नए सिरे से अकादमिक गतिविधियों की शुरुआत हुई ।शुद्धतावाद को किनारे कर के तमाम भारतीय भाषाओं ने दूसरी भाषा के कई शब्दों को आत्मसाथ किया । फ़िर इन शब्दों का भारतीयकरण होते हुए उसके कई रूप और अर्थ विकसित होने लगे ।
        गोपनीय समूह भाषाओं और समूह गत आपराधिक भाषाओं में करोना काल के कई शब्दों का उपयोग बढ़ा जो अध्ययन और शोध की एक नई दिशा हो सकती है ।सरकारी नीतियों और योजनाओं में आमूल चूल परिवर्तन हुए जो भविष्य की राजनीति और अर्थवयवस्थाओं के परिप्रेक्ष्य में किए गए । इनकी गंभीर और व्यापक चर्चा अर्थशास्त्र और वाणिज्य के क्षेत्र में शुरू हुई है ।
            वैश्विक राजनीति की दशा और दिशा दोनों में बड़े व्यापक बदलावों की चर्चा भी राजनीति शास्त्र के नए अकादमिक विषय बने । भविष्य में शिक्षक और शिक्षण संस्थानों की स्थिति और उनकी भूमिका को लेकर भी गंभीर चर्चाएं शुरू हुई ।देश में परीक्षा प्रणाली में सुधार और बदलाव दोनों को लेकर चर्चा तेज हुई । COVID 19  के विभिन्न पक्षों पर शोध के लिए सरकारी गैर सरकारी संगठनों / संस्थानों द्वारा आवेदन मंगाए गए ।बड़े स्तर पर अकादमिक संस्थानों में आपसी ताल मेल बढ़ा ।  अंतर्विषयी संगोष्ठियों एवं शोध कार्यों को अधिक मुखर होने का मौका मिला ।
            ऐसे ही अनेकों बदलावों को मैंने महसूस किया । निश्चित ही यह सब तुमने भी महसूस किया होगा । तुम जीवन में हमेशा सकारात्मक रहे । बड़ी से बड़ी मुसीबत का तुमने साहस से सामना किया है । तुम्हारी अकादमिक गतिविधियों की जानकारी मुझे मिलती रहती है । हम सभी को तुम पर गर्व है। निश्चित तौर पर तुमने ख़ूब कवितायें और कहानियाँ लिखी और पढ़ी होंगी । शोध कार्यों और उनके विषयों के चयन में तो तुम्हारा जबाब नहीं । डटकर काम करो और ख़ूब नाम करो । खुश रहो, आगे बढ़ो ।
           भाई साहब का ईमेल पढ़कर रोना आ गया । इतनी सारी  सकारात्मक बातें वो सिर्फ़ मेरी निराशा को दूर करने के लिए लिख गए, अन्यथा भाई साहब कभी दो पंक्ति से अधिक नहीं लिखते । मुझे ग्लानि महसूस हुई । मैंने अनजाने में ही उन्हें दुखी किया,मुझे पाप पड़ेगा । ऐसा नहीं है कि वो इस विकट परिस्थिति में भी जो सकारात्मकता दिखाना चाह रहे थे उसे मैं नहीं समझ पा रहा था । समस्या यह थी कि दूसरा पक्ष मेरे ऊपर हावी हो गया था । लेकिन भाई साहब की बातों से बल मिला और मैं कुछ और बातें सोचने लगा । सर फ़िर भारी लगा तो सोचा चाय के साथ सर दर्द की एक गोली खा लूँ  । वैसे भी आज नींद का सारा टाइम टेबल गड़बड़ा गया था ।
                चाय बनाते बनाते अचानक बाबूलाल की याद आ गई । महाविद्यालय में चपरासी बाबूलाल ने बताया था कि मोतिहारी जहां कि उसका गाँव है, वहाँ औरते नौ लड्डू के साथ कोरोना माई की पूजा कर रही हैं । उसकी बीबी ने भी पूजा की । गाँव के खेत में सारी औरतें नहा धोकर कोरोना माई का गीत गाते हुए पहुंचती हैं और जमीन में थोड़ा खड्डा बनाकर फूल,अक्षत और नौ लड्डू चढ़ा के माई से रक्षा की प्रार्थना करती हैं । उस गाँव की अन्य औरतों की तरह बाबूलाल की पत्नी का भी पूरा विश्वास है कि इससे कोरोना माई का प्रकोप शांत हो जायेगा । यह विश्वास उस शाश्वत और सनातन की न्याय व्यवस्था पर विश्वास का भी प्रतीक है जो हमें पश्चिमी समाज की तरह हिंसक होने से रोकता है। चूंकि विश्वास बना हुआ है इसलिए यह समाज वर्तमान त्रासदी पर पश्चिम की तरह हिंसक नहीं हुआ है, अन्यथा रंगभेद के विरोध में पूरा अमेरिका किस तरह जला और संभ्रांत लोगों द्वारा लूटा गया यह हम सभी ने देखा । इस घटना के स्मरण ने मुझे एक आंतरिक शक्ति और संतोष दिया । यह बहुत विशेष तरह की अनुभूति थी ।
             लोक विश्वास और आस्था की ऐसी तस्वीरें कुछ पल सोचने के लिए मज़बूर ज़रूर कर देती हैं । कोरोना का भी अंततः माई बन जाना हमारी लंबी सांस्कृतिक एवं लोक परंपरा का ही तो हिस्सा है । इसी परंपरा में हम शीतला माई, छठी माई, दुरदुरिया माई और संतोषी माता तक से परिचित हुए हैं । मुझे याद है कि माँ मुझे गोंद में लिये कई किलोमीटर पैदल झाड़ फूँक कराने ले जाती थी । क्या माँ मूर्ख थी ? नहीं, बिलकुल नहीं । वह माँ थी इसलिए वह ऐसा कर पाती थी । यह बात शहरों की कतिपय तथाकथित पढ़ी लिखी और संभ्रांत उन माताओं को कभी समझ में नहीं आयेगी जो सिर्फ़ अपनी शारीरिक सुंदरता बनाये रखने के लिये अपने बच्चों को स्तनपान नहीं कराती । यहाँ तक कि बच्चे को जन्म देने की पीड़ा से बचने के लिये “किराये की कोख” तलाशती हैं । मुझे ख़ुशी है कि मेरी माँ ऐसी नहीं थी । वह अनपढ़ ज़रूर थी लेकिन ममता से भरी हुई थी ।     
              चाय पक चुकी थी । सेरीडान की गोली के साथ पहली चुस्की ली तो जहन में पलायन करते प्रवासी मज़दूर भी अनायास ही आ गये । आख़िर इसी त्रासदी में पूरे देश से पलायन करने को मज़बूर मज़दूर भी दिखाई दिये । हजारों किलोमीटर की लंबी यात्रा, भूखे प्यासे और पुलिस की लठियों को खाते हुए लाखों ने पूरी की । इन्हीं यात्राओं के दौरान गर्भवती माताओं ने “लाक डाऊन यादव”,”क्वारंटाईन”, “करोना” और “सेनेटाइज़र” नामक बच्चों को जन्म दिया । इन गुदड़ी के लालों को उनके माँ बाप इन नामों के साथ याद रखना चाहते हैं । वे इस त्रासद समय को भी अपनी उत्सवधर्मिता का रंग देना चाहते हैं । यही बच्चे जब बड़े होंगे तो इन्हें पुकारने भर से वे अपने अतीत को कई कई बार दुहरायेंगे । हताशा और अभाव के बीच अपने पुरषार्थ पर गर्व करते हुए सजल नैनों से खिस निपोरेंगे । आख़िर “लाक डाऊन यादव”,”क्वारंटाईन”, “करोना” और “सेनेटाइज़र” का बाप बनना सब के बूते का नहीं है । पश्चिम के तो बिलकुल भी नहीं ।
             ‘लाक डाऊन’ और ‘करोना’ का बाप अपने बड़े होते बच्चों को देखकर खुश होगा तो उनकी किसी गलती पर डांट लगाते हुए ठेठ अवधी में कहेगा – “करोना ससुर, तोहरे ढ़ेर मस्ती चढ़े त लतियाई के कुल भूत उतार देब बच्चा !! तोर बाप हई । जेतना कही ओतना सुना कर....................।“ या कि वह कहेगा –“ देख करोनवा, लाकडाउन तोर बड़ा भाई है । ओकरा से अड़ी बाजी मत किया कर ..........।‘’
                 यह सब सोचते हुए मन थोड़ा हलका हुआ और नींद सी महसूस हुई । रात के बारा बज चुके हैं और अब तेज़ नींद आ रही थी । मोबाईल की घंटी बजी तो आँख खुल गई ।  सुबह के दस बज चुके थे । इतिहास विभाग के श्रीवास्तव जी का फ़ोन आया था । उनकी माता जी का अलीगढ़ में देहांत हो गया । श्रीवास्तव जी अपने मां बाप के इकलौते पुत्र हैं । इस लाक डॉउन की वजह से, वे मां की अंतिम क्रिया में चाहकर भी नहीं पहुंच सकते थे । बेचारे सर पटक कर रह गए, कहीं कोई सुनवाई नहीं । वो दुकान वाले शुक्ला जी,  उनका बेटा अमेरिका में था । अच्छा कमा रहा था । इधर नौकरी से हांथ धो बैठा, ऊपर से कोरोना की चपेट में आने से मौत से जूझ रहा है । मां बाप का रो रो के बुरा हाल है, लेकिन क्या करें ? उसके पास भी नहीं जा सकते । मेरे दो विद्यार्थी इसी कोरोना की वजह से अब नहीं रहे । ऐसी खबरें सारी सकारात्मकता की ऐसी की तैसी कर देती हैं । कल जितना निश्चिंत हुआ था आज़ सुबह की खबरों ने फ़िर उदास कर दिया । 
                इतने में फ़िर जहन में लाकडाउन यादव का बाप आता है । वह लाकडाउन से कह रहा है –“रोज़ रोज़ तोहका न समझाउब । अब काम करइ में तई तनिकौ अड़ीबाजी करबे, त तोर हांथ गोड़ तोरि के बइठाई देब । जब तक भगवान हांथ गोड़ सलामत रखले बाटें,तब तक काम करइ क बा, बस ।’’ इस ख़याल ने मुझे भी उत्साहित किया । और मैंने भी लाकडाउन यादव के पिताजी की वह बात गाँठ बाँध ली कि – “ .........जब तक भगवान हांथ गोड़ सलामत रखले बाटें,तब तक काम करइ क बा, बस ।’’
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                                                                                डॉ मनीष कुमार मिश्रा
                                 सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग
                              के एम अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण
                              महाराष्ट्र ।
8090100900,9082556682

                                               
         
         
           

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