क्या मैं मरने वाला हूं ? या फ़िर यह एक भ्रम है ? या फ़िर उस समय का मानसिक तनाव कि जिसमें सुबह से शाम बस मौत के आंकड़े परोसे जा रहे हैं । सारी दुनियां से काटकर, सारी दुनियां से मौत के आंकड़े दिखाए जा रहे हैं । यह भी कि कैसे कब्रिस्तानों में जगह कम हो गई है, लोग अपने सगे संबंधियों की लाशें नहीं ले रहे, अस्पताल की व्यवस्थाएं चरमरा गई हैं और दुनियां अब तक की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी से जूझ रही है । बाहर निकलने की सख़्त मनाही है । ख़बरों के अनुसार इसकी चपेट में आए लोगों की संख्या एक करोड़ बारह लाख से ज़्यादा हो चुकी है । अब तक इस महामारी से पांच लाख इकतीस हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है । बाहर सन्नाटा है और सारा शोर सिमट कर मेरे अंदर फ़ैल चुका है । इस शोर में कुछ सूझ नहीं रहा,बस लग रहा है कि मैं भी मरने वाला हूं । अगर यह सच है तो घर में कैद क्यों हूं ? कुछ ज़रूरी काम फ़ौरन निपटा लेने होंगे, चाहे कुछ भी हो । इसके पहले कि मैं मर जाऊं ये काम तो निपटाने होंगे, लेकिन कैसे ? .....
रात के ठीक तीन बजे हैं । मैंने लैपटॉप आन कर दिया । भाई साहब को ईमेल के जरिए सारी डिटेल भेज देना ठीक समझा । थोड़ी झिझक भी महसूस हुई लेकिन मुझे यह जरूरी लगा । बीमा, मेडिक्लेम और मकान के सारे कागज़ स्कैन कर भेज दिये । बैंक खाते और शेयर की जानकारी भी । उन्हें घुमा फ़िरा के यह भी लिख दिया कि अगर मुझे कुछ होता है तो चिंता की कोई बात नहीं, सारे लोन का बीमा है । ऐसी ही बहुत सी चीजें जो मुझे ज़रूरी लगीं, सब लिखकर भाई साहब को ईमेल पर भेज दिया । ऐसा लगा जैसे मरने की पूर्व तैयारी में बहुत ज़रूरी काम हो गया । फ़िर लगा जैसे कुछ और भी है जो करना है। तीन साल हो गए निष्ठा से रिश्ता टूटे, कभी तो नहीं लगा कि उस घमंडी और मतलबी लड़की से बात करूं । लेकिन आज, जब कि मैं मरने वाला हूं तो लगता है कि उसे भी एक ईमेल भेज दूं ।
कांपती उंगलियों से उसे ईमेल लिखना शुरू किया । मैंने जो लिखा था वह सब ठीक से तो याद नहीं पर मैंने उसके प्रति अपने बर्ताव के लिए माफ़ी मांगी थी । यह भी लिखा था कि वह दुनियां की सबसे सुंदर लड़की है और उसे अपना खयाल रखना चाहिए । ईमेल भेजकर मैंने उसका ईमेल ब्लाक कर दिया । उसका कोई जवाब नहीं पढ़ना चाहता था । अब उसकी कोई जरूरत ही नहीं महसूस हो रही थी । मुझे लगा कि मुझे निष्ठा की मनपसंद डार्क चॉकलेट भी एक आखरी बार उसे ज़रूर भेजनी चाहिए । लेकिन आनलाईन खरीदारी की कोशिश नाकाम रही । अतः उस चाकलेट की फोटो ही ईमेल करने की सोची । पर ईमेल ब्लॉक कर चुका था । ईमेल अनब्लाक करने की हिम्मत नहीं हुई । इतनी देर में अगर उसने भी कोई ईमेल भेज दिया हो तो ? यह सोच कलेजा मुंह में आ गया । सांसे तेज़ हो गई । नहीं, नहीं मैं नहीं पढ़ सकता उसका जवाब । अब जब कि मैं मरने वाला हूं तो क्यों जानूं कि वह मेरे बारे में क्या सोचती है ? नहीं, बिलकुल नहीं । मैंने लैपटाप बंद कर दिया । सुबह के साढ़े पांच हो रहे थे और सर भारी । मैं बिस्तर पर लेट गया इस उम्मीद में कि थोड़ी नींद आ जाए । लेकिन क्या मरने वाले को भी नींद आती है ? कहते हैं मरने के बाद आदमी चिर निद्रा में चला जाता है । मेरी जो मानसिक स्थिति है उसमें तो लगता है कि मरने के बाद भी नींद नहीं आयेगी ।
निष्ठा याद आ रही थी । पिछले दिनों जब उसकी माँ की अचानक मौत की ख़बर सुनी तो दंग रह गया । उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक ईमेल भी लिखा था जो भेजने की हिम्मत ही नहीं हुई । उस ईमेल का ड्राफ़्ट पढ़ने का मन हुआ । मोबाइल में ही पढ़ने लगा –प्रिय निष्ठा,
जानता हूं कि यह साल तुम्हें बहुत उदास छोड़कर जा रहा है । लेकिन ये उदासी तुम उन लोगों के लिए छोड़ दो जो सारे मौसम तुम्हारी आंखों से पाते हैं । जिनकी मुस्कान तुम्हारी मुस्कान के बाद खिलती है । जिनके लिए सुकून का अर्थ सिर्फ़ तुम हो । आगे बढ़ो, मुस्कुराओ कि ज़िंदगी तुम्हारी इसी मुस्कुराहट में सांस लेगी, नहीं तो सांस ख़ुद जिंदगी पर बोझ हो जायेगी ................. ।
ऐसा ही बहुत कुछ लिखकर उसे ईमेल कर देना चाहता था । मैं आज उसे समझाने का प्रयास कर रहा था जिसकी समझदारी का मैं ख़ुद कायल रहा हूं । जो हर मोड़ पर मुझे सही गलत के बीच उचित रास्ता दिखाती रही है । उसे भला मैं क्या समझाऊंगा ? फ़िर भी मैं ऐसा कर रहा था क्योंकि मां की यूं अचानक मौत के बाद वह अकेली हो चुकी थी । शायद अभी वह इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थी । या फ़िर मैं कम से कम यही समझ पा रहा था । या कि उसे समझाने के बहाने मैं खुद को किसी बात के लिए तैयार कर रहा था । लेकिन उसे नहीं भेज़ पाया कुछ भी ।
और आज़ उसे नहीं, ख़ुद को बहुत कुछ समझाते हुए थक गया । पता नहीं बड़े भईया भी ईमेल देखकर क्या सोचें ? यही सब सोचते कब नींद आ गई मालूम नहीं । इस तरह की नींद भी वैसे ही आती है जैसे कोई ख़ुशी दबे पाँव आकार ओझल हो जाये । आँख खुली तो शाम के साढ़े चार बज रहे थे । बाहर सूरज भी ढलान पर था । जैसे वह भी थककर लौट जाना चाह रहा हो। बिस्तर से सोफे पर लुढ़कते हुए महसूस हुआ कि भूख लगी है । भूख़ लगी तो थी ही पर उसे टाल रहा था । पर भूख ऐसे टलती कहां है ? कुछ और समझती भी कहां है ? बस डटी रहती है, अधिक ज़िद्दी होते हुए । इसे टालने का एक ही तरीक़ा था कि मैं इसे टालने का ख़्याल छोड़कर कुछ बनाऊं और खा लूं । मरता क्या न करता । मैगी जितने झटपट बनी उतने ही शीघ्र उसका भक्षण करते हुए मैं कृतार्थ हुआ ।
मैगी नूडल्स वालों को प्रॉफिट के साथ साथ हम जैसे लोगों का आशीष भी मिलता है । सोचता हूं अगर ये नेस्ले कंपनी मैगी न बनाती तो हम जैसे लोग क्या बना के खाते ? पिछले दिनों जब लेड की मात्रा को लेकर मैगी पर संकट के बादल छाए थे तो हम जैसे लोगों का दर्द सोशल मीडिया पर खूब छलका । उधर मौका ताड़ते हुए बाबा जी ने आँख दबाकर अपना मैगी प्रोडक्ट लांच कर दिया । दावा था कि यह वाला पहले वाले से बेहतर है । हमें क्या ? भकोसने से मतलब । पर लोग बताते हैं कि पूरा मामला करोड़ों का था । यह स्वास्थ के लिए उचित अनुचित वाला मामला अस्वस्थ तो था ही, इसकी पूरी बनावट में सरकारी मंशा भी शक के दायरे में रही । लेकिन अब सरकार ही माई बाप है और माई बाप को गरियाना ठीक होगा ? फ़िर पता नहीं क्या सही क्या गलत ? जितने समाचार चैनल, उतने ही खुलासे । इस देश को आज अधिक खतरा इस मीडिया से ही नज़र आता है । लाक डाऊन पीरियड में यह मैंने अच्छे से महसूस किया । इनका बस चलता तो तीसरा महायुद्ध चीन के खिलाफ़ करा चुके होते । ख़ैर मुझे क्या ?
जब भूख मिटी तो निष्ठा फ़िर याद आयी । सोचा निष्ठा मेरे लिए इतना कुछ करती थी । ऐसे दुख के समय में क्या मुझे उसके पास नहीं जाना चाहिए था ? एक औपचारिकता ही सही पर शायद उसे अच्छा लगता । फ़िर पुणे तीन घंटे का तो रास्ता है। सिर्फ़ लफ्फाजी करते हुए ईमेल कर देना कहां तक ठीक है ? वह भी तो नहीं भेज़ सका । उसे शायद उम्मीद भी हो कि मैं उसके पास जाऊं । लेकिन नहीं जा सका । तीन साल बीत गए, कभी बात तक नहीं की निष्ठा से । आज जब लगता है कि मैं मरने वाला हूं तो अचानक निष्ठा बहुत याद आ रही है । जिसे कभी अपनी जिंदगी मानता था आज उसकी तरफ़ मुड़ा भी तो तब जब कि जीने को लेकर नाउम्मीद हो चुका हूं । इतना स्वार्थी भी होना ठीक नहीं कि ख़ुद से ही घृणा हो जाये ।
इतने में मोबाइल के नोटिफ़िकेशन से पता चला कि भाई साहब का ईमेल आया है । साँसे तेज़ हों गई । पता नहीं भईया ने क्या लिखा होगा ? डरते डरते उनका ईमेल खोलता हूँ । भाई साहब का एक लंबा चौड़ा ईमेल मेरे सामने था । लगा जैसे वे मेरी हताश मनःस्थिति को भांप गए हों । पर सीधे सीधे उन्होंने ने भी कुछ नहीं पूछा था । उन्होने कोई डांट भी नहीं लगाई, लेकिन बहुत कुछ कह गये थे । मैं उनके कहे हुए के साथ साथ उनके अनकहे को भी अच्छी तरह समझ रहा था । उनका ईमेल एक वरिष्ठ प्राध्यापक का अपने सहयोगी या शोध छात्र को बहुत कुछ समझाने जैसा ही था । वह ईमेल कुछ इस तरह था -
प्रिय मनीष,
तुम्हारा ईमेल मिला । महत्वपूर्ण दस्तावेजों को इस तरह साझा करना अच्छा आइडिया है । मैं भी ऐसा ही करूंगा । तुमसे कितना कुछ सीखने जैसा है !!
इधर कोरोना की वजह से काफ़ी चिंता रहती है । मेरा विश्वविद्यालय भी बंद है । घर से ही आन लाईन कक्षाएं संचालित हो रही हैं । शुरू में थोड़ा अटपटा लगा लेकिन अब सब कर लेता हूं । वेबिनार भी खूब कर रहा हूं । यह सब करते हुए महसूस कर रहा हूं कि बहुत कुछ बदल गया है, अभी और भी बदलेगा । इस बदलाव के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष जो भी हों, इतना तो निश्चित है कि यह समय सिर्फ़ डरने का नहीं, अपितु लोहा लेने का भी है । जूझने और टकराने का समय, शून्य में खो जाने से पहले कितना कुछ है जो हमें कर लेना है ।
यह ठीक है कि जिस विश्व व्यवस्था की अंधी दौड़ में हम शामिल थे उसके प्रति एक निराशा भाव जागृत हुआ है । लेकिन इसी के परिणाम स्वरूप ग्लोबल के बदले लोकल के महत्व को हम समझ सके इसकी स्वीकार्यता बढ़ी । आत्मनिर्भरता को नए तरीके से समझने की पहल शुरू हुई । हमारी आत्मकेंद्रियता,आत्मविस्तार के लिए प्रेरित हुई ।
तकनीक का शैक्षणिक क्षेत्र में बोलबाला बढ़ा । ऑनलाईन व्याख्यानों, वेबिनारों इत्यादि की बाढ़ सी आ गई । सोशल मीडिया पर गंभीर अकादमिक दखल बढ़े ।अध्ययन अध्यापन से जुड़ी सामग्री बड़े पैमाने पर इंटरनेट पर उपलब्ध हो सकी ।ऑनलाईन व्याख्यानों, कक्षाओं इत्यादि से जिम्मेदारी और पारदर्शिता दोनों बढ़ी । घर से कार्य / work from home अधिक व्यापक और व्यावहारिक रूप में दिखाई पड़ा । तकनीक का बाज़ार अधिक संपन्न हुआ । रचनात्मक कार्यों में रुचि बढ़ी ।करोना काल को लेकर अकादमिक शोध और चिंतन की नई परिपाटी शुरू हुई ।ऑनलाईन शिक्षा नए विकल्प के रूप में अधिक संभावनाशील होकर प्रस्तुत हुई । अकादमिक गुटबाज़ी और लिफाफावाद की संस्कृति क्षीण हुई । अकादमिक आयोजनों में पूंजी का हिस्सा कम हुआ ।पत्र पत्रिकाओं के ई संस्करण निकले जो अधिकांश मुफ़्त में उपलब्ध कराए गए ।भारतीय भाषाओं के तकनीकी प्रचार प्रसार को बल मिला । शिक्षकों के शिक्षण प्रशिक्षण का अकादमिक खर्च कम हुआ । सामाजिक भाषाविज्ञान की नई अवधारणाएं शोधपत्रों एवं आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत हुईं ।ऑनलाईन पुस्तकालयों का महत्व बढ़ा । पारिवारिक मनोविज्ञान और "स्पेस सिद्धांतों" को लेकर नई अकादमिक चर्चाओं ने जोर पकड़ा ।धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं इत्यादि को करोना काल में नए संदर्भों के माध्यम से प्रस्तुत करने की पुरजोर कोशिश लगभग सभी धर्म और पंथों के लोगों ने की ।
इतना ही नहीं भाई, कलाओं और संगीत के बड़े आयोजन ऑनलाईन किए गए । मोबाईल अपनी स्क्रीन से स्क्रीनवाद का प्रणेता बनकर उभरा ।नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, ज़ी फाइव, मैक्स प्लयेर, अल्ट बालाजी और डिजनी हॉट स्टार की वेब सिरीज़ सिनेमाई जादूगरी की वो दुनियां है जो लॉक डॉउन के बीच अधिक लोकप्रिय रही । सिनेमा और लोकप्रियता के अकादमिक अध्ययन को इन्होंने नई चुनौती दी । सिनेमा तो तुम्हारा प्रिय विषय रहा है, यह सब तुमने भी निश्चित ही महसूस किया होगा ।
और सुनो, वैक्सीन के शोध और उत्पादन की क्षमता में क्रांतिकारी बदलाव के संकेत मिले । साफ़ सफ़ाई और स्वच्छता को लेकर जागरुकता न केवल बढ़ी अपितु व्यवहार में भी परिवर्तित हुई । इस पर गंभीर लेखन कार्य भी बढ़ा । दूरस्थ शिक्षा संस्थानों एवं उनकी प्रणालियों का महत्व बढ़ा । प्रवासी भारतीय मजदूरों को लेकर भी साहित्य प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हुआ । करोना काल का पर्यावरण एवं प्रदूषण पर प्रभाव को लेकर भी कई शोध पत्र सामने आए जिनकी व्यापक चर्चा भी हुई । नए तकनीकी जुगाड इजाद होने लगे जिससे कम से कम खर्चे में अकादमिक गतिविधियों को संचालित किया जा सके या उनमें शामिल हुआ जा सके । फेसबुक, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया के लोकप्रिय माध्यम अकादमिक गतिविधियों के बड़े प्लेटफॉर्म बनकर उभरे । तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध कराने वाली बड़ी कंपनियों में स्पर्धा बढ़ी जिसका फायदा अकादमिक जगत को हुआ ।ऑनलाईन लेनदेन की प्रवृति बढ़ी जिससे ऑनलाईन वित्तीय प्रबंधन और कॉमर्स को लेकर नए डेटा के साथ शोध कार्यों की अच्छी दखल देखने को मिली ।
रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में आयुर्वेदिक नुस्खे खूब पढ़े गए और वैश्विक स्तर पर इनपर नए शोध कार्यों की संभावना को बल मिला । पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर करोना काल के प्रभाव को लेकर समाज विज्ञान में नई अकादमिक बहसों और मान्यताओं/ संकल्पों इत्यादि की चर्चा जोर पकड़ने लगी ।कई अनुपयोगी और बोझ बन चुकी सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं का अंत हो गया जिसे साहित्य की अनेकों विधाओं के माध्यम से लेखकों, चिंतकों ने सामने भी लाया ।शिक्षक और विद्यार्थी अधिक प्रयोगधर्मी हुए । तकनीक के माध्यम से "टीचिंग टूल्स" का प्रयोग बढ़ा ।शिक्षण प्रशिक्षण सामग्री का "इनपुट" और "आऊट पुट" दोनों बढ़ा ।मौलिकता और कॉपी राईट को लेकर भी नए सिरे से अकादमिक गतिविधियों की शुरुआत हुई ।शुद्धतावाद को किनारे कर के तमाम भारतीय भाषाओं ने दूसरी भाषा के कई शब्दों को आत्मसाथ किया । फ़िर इन शब्दों का भारतीयकरण होते हुए उसके कई रूप और अर्थ विकसित होने लगे ।
गोपनीय समूह भाषाओं और समूह गत आपराधिक भाषाओं में करोना काल के कई शब्दों का उपयोग बढ़ा जो अध्ययन और शोध की एक नई दिशा हो सकती है ।सरकारी नीतियों और योजनाओं में आमूल चूल परिवर्तन हुए जो भविष्य की राजनीति और अर्थवयवस्थाओं के परिप्रेक्ष्य में किए गए । इनकी गंभीर और व्यापक चर्चा अर्थशास्त्र और वाणिज्य के क्षेत्र में शुरू हुई है ।
वैश्विक राजनीति की दशा और दिशा दोनों में बड़े व्यापक बदलावों की चर्चा भी राजनीति शास्त्र के नए अकादमिक विषय बने । भविष्य में शिक्षक और शिक्षण संस्थानों की स्थिति और उनकी भूमिका को लेकर भी गंभीर चर्चाएं शुरू हुई ।देश में परीक्षा प्रणाली में सुधार और बदलाव दोनों को लेकर चर्चा तेज हुई । COVID 19 के विभिन्न पक्षों पर शोध के लिए सरकारी गैर सरकारी संगठनों / संस्थानों द्वारा आवेदन मंगाए गए ।बड़े स्तर पर अकादमिक संस्थानों में आपसी ताल मेल बढ़ा । अंतर्विषयी संगोष्ठियों एवं शोध कार्यों को अधिक मुखर होने का मौका मिला ।
ऐसे ही अनेकों बदलावों को मैंने महसूस किया । निश्चित ही यह सब तुमने भी महसूस किया होगा । तुम जीवन में हमेशा सकारात्मक रहे । बड़ी से बड़ी मुसीबत का तुमने साहस से सामना किया है । तुम्हारी अकादमिक गतिविधियों की जानकारी मुझे मिलती रहती है । हम सभी को तुम पर गर्व है। निश्चित तौर पर तुमने ख़ूब कवितायें और कहानियाँ लिखी और पढ़ी होंगी । शोध कार्यों और उनके विषयों के चयन में तो तुम्हारा जबाब नहीं । डटकर काम करो और ख़ूब नाम करो । खुश रहो, आगे बढ़ो ।
भाई साहब का ईमेल पढ़कर रोना आ गया । इतनी सारी सकारात्मक बातें वो सिर्फ़ मेरी निराशा को दूर करने के लिए लिख गए, अन्यथा भाई साहब कभी दो पंक्ति से अधिक नहीं लिखते । मुझे ग्लानि महसूस हुई । मैंने अनजाने में ही उन्हें दुखी किया,मुझे पाप पड़ेगा । ऐसा नहीं है कि वो इस विकट परिस्थिति में भी जो सकारात्मकता दिखाना चाह रहे थे उसे मैं नहीं समझ पा रहा था । समस्या यह थी कि दूसरा पक्ष मेरे ऊपर हावी हो गया था । लेकिन भाई साहब की बातों से बल मिला और मैं कुछ और बातें सोचने लगा । सर फ़िर भारी लगा तो सोचा चाय के साथ सर दर्द की एक गोली खा लूँ । वैसे भी आज नींद का सारा टाइम टेबल गड़बड़ा गया था ।
चाय बनाते बनाते अचानक बाबूलाल की याद आ गई । महाविद्यालय में चपरासी बाबूलाल ने बताया था कि मोतिहारी जहां कि उसका गाँव है, वहाँ औरते नौ लड्डू के साथ कोरोना माई की पूजा कर रही हैं । उसकी बीबी ने भी पूजा की । गाँव के खेत में सारी औरतें नहा धोकर कोरोना माई का गीत गाते हुए पहुंचती हैं और जमीन में थोड़ा खड्डा बनाकर फूल,अक्षत और नौ लड्डू चढ़ा के माई से रक्षा की प्रार्थना करती हैं । उस गाँव की अन्य औरतों की तरह बाबूलाल की पत्नी का भी पूरा विश्वास है कि इससे कोरोना माई का प्रकोप शांत हो जायेगा । यह विश्वास उस शाश्वत और सनातन की न्याय व्यवस्था पर विश्वास का भी प्रतीक है जो हमें पश्चिमी समाज की तरह हिंसक होने से रोकता है। चूंकि विश्वास बना हुआ है इसलिए यह समाज वर्तमान त्रासदी पर पश्चिम की तरह हिंसक नहीं हुआ है, अन्यथा रंगभेद के विरोध में पूरा अमेरिका किस तरह जला और संभ्रांत लोगों द्वारा लूटा गया यह हम सभी ने देखा । इस घटना के स्मरण ने मुझे एक आंतरिक शक्ति और संतोष दिया । यह बहुत विशेष तरह की अनुभूति थी ।
लोक विश्वास और आस्था की ऐसी तस्वीरें कुछ पल सोचने के लिए मज़बूर ज़रूर कर देती हैं । कोरोना का भी अंततः माई बन जाना हमारी लंबी सांस्कृतिक एवं लोक परंपरा का ही तो हिस्सा है । इसी परंपरा में हम शीतला माई, छठी माई, दुरदुरिया माई और संतोषी माता तक से परिचित हुए हैं । मुझे याद है कि माँ मुझे गोंद में लिये कई किलोमीटर पैदल झाड़ फूँक कराने ले जाती थी । क्या माँ मूर्ख थी ? नहीं, बिलकुल नहीं । वह माँ थी इसलिए वह ऐसा कर पाती थी । यह बात शहरों की कतिपय तथाकथित पढ़ी लिखी और संभ्रांत उन माताओं को कभी समझ में नहीं आयेगी जो सिर्फ़ अपनी शारीरिक सुंदरता बनाये रखने के लिये अपने बच्चों को स्तनपान नहीं कराती । यहाँ तक कि बच्चे को जन्म देने की पीड़ा से बचने के लिये “किराये की कोख” तलाशती हैं । मुझे ख़ुशी है कि मेरी माँ ऐसी नहीं थी । वह अनपढ़ ज़रूर थी लेकिन ममता से भरी हुई थी ।
चाय पक चुकी थी । सेरीडान की गोली के साथ पहली चुस्की ली तो जहन में पलायन करते प्रवासी मज़दूर भी अनायास ही आ गये । आख़िर इसी त्रासदी में पूरे देश से पलायन करने को मज़बूर मज़दूर भी दिखाई दिये । हजारों किलोमीटर की लंबी यात्रा, भूखे प्यासे और पुलिस की लठियों को खाते हुए लाखों ने पूरी की । इन्हीं यात्राओं के दौरान गर्भवती माताओं ने “लाक डाऊन यादव”,”क्वारंटाईन”, “करोना” और “सेनेटाइज़र” नामक बच्चों को जन्म दिया । इन गुदड़ी के लालों को उनके माँ बाप इन नामों के साथ याद रखना चाहते हैं । वे इस त्रासद समय को भी अपनी उत्सवधर्मिता का रंग देना चाहते हैं । यही बच्चे जब बड़े होंगे तो इन्हें पुकारने भर से वे अपने अतीत को कई कई बार दुहरायेंगे । हताशा और अभाव के बीच अपने पुरषार्थ पर गर्व करते हुए सजल नैनों से खिस निपोरेंगे । आख़िर “लाक डाऊन यादव”,”क्वारंटाईन”, “करोना” और “सेनेटाइज़र” का बाप बनना सब के बूते का नहीं है । पश्चिम के तो बिलकुल भी नहीं ।
‘लाक डाऊन’ और ‘करोना’ का बाप अपने बड़े होते बच्चों को देखकर खुश होगा तो उनकी किसी गलती पर डांट लगाते हुए ठेठ अवधी में कहेगा – “करोना ससुर, तोहरे ढ़ेर मस्ती चढ़े त लतियाई के कुल भूत उतार देब बच्चा !! तोर बाप हई । जेतना कही ओतना सुना कर....................।“ या कि वह कहेगा –“ देख करोनवा, लाकडाउन तोर बड़ा भाई है । ओकरा से अड़ी बाजी मत किया कर ..........।‘’
यह सब सोचते हुए मन थोड़ा हलका हुआ और नींद सी महसूस हुई । रात के बारा बज चुके हैं और अब तेज़ नींद आ रही थी । मोबाईल की घंटी बजी तो आँख खुल गई । सुबह के दस बज चुके थे । इतिहास विभाग के श्रीवास्तव जी का फ़ोन आया था । उनकी माता जी का अलीगढ़ में देहांत हो गया । श्रीवास्तव जी अपने मां बाप के इकलौते पुत्र हैं । इस लाक डॉउन की वजह से, वे मां की अंतिम क्रिया में चाहकर भी नहीं पहुंच सकते थे । बेचारे सर पटक कर रह गए, कहीं कोई सुनवाई नहीं । वो दुकान वाले शुक्ला जी, उनका बेटा अमेरिका में था । अच्छा कमा रहा था । इधर नौकरी से हांथ धो बैठा, ऊपर से कोरोना की चपेट में आने से मौत से जूझ रहा है । मां बाप का रो रो के बुरा हाल है, लेकिन क्या करें ? उसके पास भी नहीं जा सकते । मेरे दो विद्यार्थी इसी कोरोना की वजह से अब नहीं रहे । ऐसी खबरें सारी सकारात्मकता की ऐसी की तैसी कर देती हैं । कल जितना निश्चिंत हुआ था आज़ सुबह की खबरों ने फ़िर उदास कर दिया ।
इतने में फ़िर जहन में लाकडाउन यादव का बाप आता है । वह लाकडाउन से कह रहा है –“रोज़ रोज़ तोहका न समझाउब । अब काम करइ में तई तनिकौ अड़ीबाजी करबे, त तोर हांथ गोड़ तोरि के बइठाई देब । जब तक भगवान हांथ गोड़ सलामत रखले बाटें,तब तक काम करइ क बा, बस ।’’ इस ख़याल ने मुझे भी उत्साहित किया । और मैंने भी लाकडाउन यादव के पिताजी की वह बात गाँठ बाँध ली कि – “ .........जब तक भगवान हांथ गोड़ सलामत रखले बाटें,तब तक काम करइ क बा, बस ।’’
==========================================
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग
के एम अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण
महाराष्ट्र ।
8090100900,9082556682
No comments:
Post a Comment
Share Your Views on this..