Thursday 6 September 2012

hindi writer Amerkant


अमरकांत : संक्षिप्त जीवन वृत्त

      कथाकार अमरकांत : संवेदना और शिल्प
 कथाकार अमरकांत पर शोध प्रबंध
अध्याय - 1 

क)अमरकांत : संक्षिप्त जीवन वृत्त

1.जन्म

2.परिवार

3.शिक्षा-दीक्षा

4.रहन-सहन और स्वभाव

5.सेवा मार्ग

6.संघर्ष

7.व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ

8.पुरस्कार एवम् सम्मान
ख)अमरकांत : विचारधारा एवम् साहित्यिक दृष्टि

1.तरुण कवि के रूप में

2.साहित्यिक वातावरण

3.साहित्यिक प्रेरणा स्रोत

4.प्रभावित करने वाली विचार धाराएँ

5.कथा लेखन क) कहानी


ख) उपन्यास

6.साहित्यिक दृष्टि


 अमरकांत : संक्षिप्त जीवन वृत्त
1. जन्म :
      उत्तर प्रदेश के सबसे पूर्वी जिले बलिया में एक तहसील है - 'रसड़ा`। इस रसड़ा तहसील के सुपरिचित गाँव 'नगरा` से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव और है। यह गाँव है - 'भगमलपुर`। देखने में यह गाँव नगरा गाँव का टोला लगता है।
      भगमलपुर गाँव तीन टोलों में बँटा है। उत्तर दिशा की तरफ का टोला यादवों (अहीरों) का टोला है तो दक्षिण में दलितों का टोला (चमरटोली)। इन दोनों टोलों के ठीक बीच में कायस्थों के तीन परिवार थे। ये तीनों घर एक ही कायस्थ पूर्वज से संबद्ध कालांतर में तीन टुकड़ों में विभक्त होकर वहीं रह रहे हैं।
      इन्हीं कायस्थ परिवारों में से एक परिवार था सीताराम वर्मा व अनन्ती देवी का। इन्हीं के पुत्र के रूप में 1 जुलाई 1925 को अमरकांत का जन्म हुआ। अमरकांत का नाम श्रीराम रखा गया। इनके खानदान में लोग अपने नाम के साथ 'लाल` लगाते थे। अत: अमरकांत का भी नाम 'श्रीराम लाल` हो गया। बचपन में ही किसी साधू-महात्मा द्वारा अमरकांत का एक और नाम रखा गया था। वह नाम था - 'अमरनाथ`। यह नाम अधिक प्रचलित तो ना हो सका, किंतु स्वयं श्रीराम लाल को इस नाम के प्रति आसक्ति हो गयी। इसलिए उन्होंने कुछ परिवर्तन करके अपना नाम 'अमरकांत` रख लिया। उनकी साहित्यिक कृतियाँ इसी नाम से प्रसिद्ध हुई।
      अपने नामकरण की चर्चा करते हुए स्वयं अमरकांत ने लिखा है कि, ''मेरे खानदान के लोग अपने नाम के साथ 'लाल` लगाते थे। मेरा नाम भी श्रीराम लाल ही था। लेकिन जब हम लोग बलिया शहर में रहने लगे तो चार-पाँच वर्ष बाद वहाँ अनेक कायस्थ परिवारों में 'लाल` के स्थान पर 'वर्मा` जोड़ दिया गया और मेरा नाम भी श्रीराम वर्मा हो गया। ऐसा क्यों किया गया, इसे उद्घाटित करने के लिए भारत के बहुत से जातिवादी कचरे को उलटना - पुलटना पड़ेगा। बस इतना ही कहना पर्याप्त है कि जब मैंने लेखन का निश्चय कर लिया तो 'लाल` या 'वर्मा` अथवा किसी जाति सूचक 'सरनेम` से मुक्ति पाने के लिए अपना नाम 'अमरकांत` रख लिया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि मेरे दो नाम रखे गए थे, जिनमें एक 'अमरनाथ` भी था, जिसे एक साधू ने दिया था। यह नाम प्रचलित तो नहीं था, लेकिन मैंने इसमें हल्का संशोधन करके साहित्यिक नाम के रूप में इसे मान्यता दिला दी।``1
      बचपन की यादों का जिक्र करते हुए अमरकांत ने अपने कई लेखों में अनेकानेक घटनाओं का सविस्तार वर्णन किया है। ऐसी ही एक घटना है उनके कर्णछेदन संस्कार से संबंधित। इस घटना का वर्णन करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''कान छेदने के लिए एक बारिन आई थी, जिसके पास कपड़े के थैले में कुछ ज़रूरी सामान थे। वह किसी दूसरे कमरे में बैठी थी, इसलिए मैं देख नहीं सका कि वह कौन-सी तैयारी कर रहीं है। लेकिन कुछ फुसफुसाहटों - भुनभुनाहटों तथा संकेतों से मैं कुछ भाँप तो गया ही था। मैं जब मन-ही-मन डरा हुआ था, उसी समय मेरे दोनों हाथों में एक-एक लड्डू खाने के लिए दे दिया गया। दोनों हाथों में लड्डू क्यो ? इसलिए कि जब कार्रवाई हो तो मैं हाथ चलाकर कोई व्यवधान पैदा न कर सकूँ। काम निर्बाध हो भी गया, क्योंकि जब मैं उनकी चाल में आकर लड्डू खाने लगा तो बारिन ने चुपके-से पीछे-से आकर ताँबे के एक - पतले तार से मेरे दोनों कान, एक-के-बाद-एक छेद ही दिए। मैं रोया तो जरुर, लेकिन दादी के पुचकारने से कुछ कर न सका।``2
      इस तरह के कई अन्य प्रसंग भी हैं जिनका अमरकांत ने बड़े ही रुचिपूर्वक वर्णन किया है। अमरकांत का जन्म साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था और सभी परंपरागत संस्कारों के साथ-साथ साहित्य व लेखन का संस्कार अमरकांत ने स्वयं अर्जित किया। उनके घर में किसी तरह का कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। पुस्तकों को पढ़ते - पढ़ते उन्होंने अनुभव किया की वे लिख सकते हैं; और उन्होनें लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया।
2. परिवार
      अमरकांत जी के परिवार के लोग मध्यम कोटि के काश्तकार थे। आपके बाबा - गोपाल लाल जी - मुहर्रिर थे। आपके पिताजी - सीताराम वर्मा ने इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई की थी। यहीं की कायस्थ पाठशाला से उन्होंने एफ.ए. (आज का इन्टरमीडिएट) किया। फिर उन्होंने मुख्तारी की परीक्षा पास की और बलिया कचहरी में प्रैक्टिस करने लगे थे। आप के पूर्वज जौनपुर के किसी नवाब के सिपहसालार थे। लेकिन किन परिस्थितियों में उन्हें भगमलपुर आकर बसना पड़ा इस संबंध में स्वयं अमरकांत जी को भी कुछ ज्ञात नहीं।
      अमरकांत जी के पिताजी का सनातन धर्म में गहरा विश्वास था, किन्तु वे कर्मकांडो व धार्मिक रुढ़ियों में विश्वास नहीं करते थे। उनके आराध्य देव थे राम और शिव। आपका गला भी बड़ा अच्छा था। संगीत में आपकी रुचि थी। झूठ से आपको घृणा थी। कटु सत्य बोलने में भी आप हिचकते नहीं थे। शराब और जुए के भी आप विरोधी थे। आपने परिवार के प्रति अपने दायित्वों को अच्छी तरह से निभाया। सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवायी। जीवन भर आप बहुत सक्रिय रहे। आप 80 से कुछ अधिक वर्ष तक जीवित रहे।
      अमरकांत जी के पिताजी उर्दू और फारसी के ज्ञाता थे। उन्हें - हिन्दी का कामचलाऊ ज्ञान था। वे शान - शौकत से रहना पसंद करते थे। अपनी युवा अवस्था में उन्होंने घर पर ही पहलवानों का प्रबंध करके कसरत और कुश्ती में निपुणता हासिल की थी। अपने बच्चों से उन्हें कोई खास उम्मीद नहीं थी, सिवाय इसके कि वे कम से कम हाई स्कूल पास कर लें और फिर उनकी शादी-विवाह की जिम्मेदारी से भी वे मुक्त हो जायें। और बच्चे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए नौकरी-चाकरी का काम शुरू कर दें। और लड़कियों के संबंध में उनकी राय थी कि लड़कियों की शादी जल्दी करा देना ही श्रेयस्कर होता है।
      अपने पिता के संदर्भ में अमरकांत जी लिखते हैं कि, ''वह काफी भाव-प्रवण और उदार व्यक्ति थे और उनकी भाव-प्रवणता नाटकीयता को स्पर्श करने लगती थी। उनका गुस्सा बहुत जबरदस्त था, लेकिन वह बहुत जल्दी पश्चाताप तथा करुणा से विगलित हो जाते थे। फिर वह बच्चे की तरह रोने लगते और छोटे-से-छोटे बच्चे से क्षमा माँग लेते। फिर उनका एक लम्बा और करुण भाषण भी सुनना पड़ता। साल में एक या दो बार उसे अपने पिताजी का एक दूसरे ढंग का भी लेक्चर सुनना पड़ता, जिसका मुख्य विषय था कभी नागा न करना और रोज स्कूल जाना। इसके बाद वह 'नागा` विषय पर दो या चार लाइनें गाकर सुनाते थे। अद्भुत स्वर था उनका और बहुत अच्छा गाते थे वह। बुलन्द, चिकनी और फिसलती हुई आवाज, जो दूर तक सुनाई देती थी। मन्दिर में जब वह कोई भजन गाते तो सारा मन्दिर गूँजने-गमकने लगता। वह निश्चित रूप से कह सकता है कि यदि उनकी अच्छी ट्रेनिंग होती तो वह फैयाज खां की टक्कर के संगीतकार होते। सच्चाई पर वह बेहद जोर देते थे और खरी बात मुँह पर ही........ बिना किसी दुर्भावना के - कह देते थे।``3
      अपने पिता की सच्चाई और ईमानदारी के एक प्रसंग का वर्णन करते हुए अमरकांत ने लिखा है कि एक बार उनके (अमरकांत के पिता के) छोटे भाई बाजार के फलवाले के यहाँ से कोई फल चोरी से लेकर घर आ गये थे। यह बात जब अमरकांत के पिताजी को मालूम पड़ी तो उन्हें बहुत गुस्सा आया। उन्होंने छोटे भाई को हिदायत दी की वे फल वापस देकर आयें। और जब उनके भाई बाजार जाकर फल वापस कर आये तो वे अपने भाई को गले लगाकर खूब रोये।
      अमरकांत का परिवार बड़ा था। आप परिवार में सबसे बड़े थे। अमरकांत की एक बड़ी बहन थी जो अमरकांत के बचपन में ही बीमारी से मर गई थी। उनका नाम गायत्री था। अमरकांत को लेकर परिवार में सात भाई और एक बहन (चौथे नंबर पर) थी जिन्हें पिता सीताराम वर्मा ने योग्य तरीके से पढ़ाया - लिखाया।
      भगमलपुर स्थित अमरकांत का पैतृक मकान मिट्टी का बना हुआ बड़ा मकान था। मकान के अंदर दो आँगन थे। पहला आँगन दूसरे की अपेक्षा बड़ा था। दूसरा आँगन एक तरह से घर का पिछवाड़ा (पीछे का हिस्सा) था। इस पिछवाड़े के हिस्से में एक कुआँ और शौचालय था। घर का यह हिस्सा घर की औरतों की सुविधा के लिए था। घर के पहले आँगन के चारों तरफ कई कमरे बने हुए थे। कोठिला, पूजाघर, रसोई घर आदि कई कमरे थे। घर से बाहर निकलते समय एक बड़े से दालान से होकर गुजरना पड़ता था। परिवार के सदस्यों की संख्या भी अधिक थी। एक बड़े संयुक्त परिवार के लिए इस तरह के मकान आवश्यक भी हैं। भगमलपुर के संपन्न परिवारों में से अमरकांत का परिवार भी एक था।
3. शिक्षा-दीक्षा
      अपने शिक्षा-संस्कार के बारे में अमरकांत जी लिखते हैं कि, ''एक दिन मुझसे अक्षराम्भ कराया गया। इसको शिक्षा-संस्कार कहा जा सकता है। यह एक लघु समारोह ही था। बड़े आँगन में चौक पूरा गया था, जिसके बगल में मुझे नई पोशाक में एक पीढ़े पर बिठाया गया था। हमारे पुरोहित जी महाराज चौक की दूसरी तरफ बैठे थे। उन्होंने अक्षत, फूल, पान, सुपारी, जल आदि से पूजा-पाठ किया और मंत्रोच्चारण किए। वह मुझसे भी यह सब कराने के लिए मेंढ़क की तरह फुदक कर मेरे पास आ जाते थे। फिर वह मुझसे बोले, 'कहो, 'रामागति देहू सुमति।` मेरे बगल में घर के लोग भी खड़े थे, उनकी मदद से मैंने तीन बार वही कहा। फिर पण्डित जी ने मेरा हाथ पकड़ कर स्लेट पर 'राम, राम` और 'क, ख` लिखवाया। फिर माथे पर रोली का टीका लगा और चौक को, मुझसे सिर झुकाकर हाथ जोड़वाया गया। पूजा-समाप्ति के बाद कोई पकवान और सम्भवत: मिठाई भी खाने को मिली थी।``4
      अमरकांत का 'नगरा` के प्राइमरी स्कूल में नाम लिखाया गया। इस विद्यालय का भवन छोटा पर पक्का था। उस विद्यालय के हेडमास्टर एक मौलवी जी थे जो हमेशा हाँथ में छड़ी लेकर घूमते थे। यहीं से अमरकांत की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ हुई। लेकिन यह प्रारंभिक शिक्षा भी अमरकांत के लिए आसान नहीं थी। अपने इन्हीं दिनों की चर्चा करते हुए अमरकांत ने लिखा है कि, ''आरम्भ में ढेलू बाबा मुझे कंधे पर बिठाकर स्कूल ले जाते और छुट्टी के समय आ भी जाते। लेकिन कुछ समय बाद छुट्टी के समय में अनियमितता भी होने लगी। तब मुझे लड़कों के झुंड के साथ इमली के झंखाड़ वृक्षों तक आना पड़ता। वहाँ 'नगरा` गाँव में जाने के लिए दाहिनी तरफ रास्ता था, जिससे होकर वे सभी चले जाते और मैं अकेला रह जाता। मेरे गाँव का कोई लड़का स्कूल जाता ही न था, इसलिए कोई सहयात्री नहीं होता। सड़क भी एकदम सुनसान थी। मुझे बड़ा डर लगता, खास तरह से उन झंखाड़ वृक्षों से। लड़कों ने ही बताया था कि उन पर भूत रहते हैं और उनके तनों के खोड़लों में अजगर - साँप।``5
      इन परिस्थितियों में अमरकांत को अधिक दिनों तक नहीं रहना पड़ा। शीग्र ही वे रहने के लिए पिता सीताराम वर्मा के पास बलिया शहर में परिवार के कुछ लोगों के साथ आ गये। यहाँ पर बलिया शहर के तहसीली स्कूल में अमरकांत का नाम कक्षा 'एक` में लिखा दिया गया। यहाँ पर अमरकांत कक्षा 'दो` तक ही पढ़ पाये, बाद में उनका नाम गवर्नमेन्ट हाई स्कूल में, कक्षा 'तीन` में लिखाया लिया। यहाँ के प्रधानाध्यापक श्री महावीर प्रसाद जी थे।
      तीसरी कक्षा में अमरकांत का प्रवेश सन 1933 ई. के जुलाई में, एक प्रवेश-परीक्षा के पश्चात हो पाया था। उन दिनों बलिया शहर में आर्य समाज की अच्छी पकड़ थी। लोगों के बीच आर्य समाज का अच्छा प्रभाव था। आर्य समाज के ही एक पदाधिकारी बाबू जानकी प्रसाद जी के सफल प्रयासों के कारण ही एक 'चलता पुस्तकालय` की स्थापना हो पायी थी। इस 'चलता पुस्तकालय` के लाइब्रेरियन एक गरीब नवयुवक थे। हर पन्द्रह दिन में दो पुस्तकें वे हर सदस्य के घर पहुँचाते और पढ़ी किताबें वापस ले जाते। अमरकांत के पिताजी को भी इस 'चलता पुस्तकालय` का सदस्य बनाया गया था। लेकिन वे अपने काम में इतना व्यस्त रहते थे कि उन्हें इन किताबों की तरफ देखने का भी मौका नहीं मिलता था। पर इन किताबों ने अमरकांत का ध्यान अपनी तरफ खींचा। अमरकांत की रुचि इन किताबों में बढ़ने लगी। फिर क्या था, वे बड़े चाव से इन किताबों को पढ़ने लगे। रात-रात भर जागकर वो इन किताबों को पढ़ते। घर के लोगों से उन्हें डाँट भी पड़ती। पर वे किसी की बातों पर ध्यान न देकर निरंतर पढ़ते रहते।
      पाठ्या-पुस्तकें पढ़ने में अमरकांत का मन नहीं लगता था। अमरकांत के घर जो मास्टर साहब पढ़ाने आते थे, वो भी अपने अध्यापन कार्य से अधिक, आत्मप्रशंसा व गप्पबाजी किया करते थे। इसकारण भी शायद अमरकांत पाठ्या पुस्तकों की ओर आकर्षित नहीं हो पाये। 'चलता पुस्तकालय` से आने वाली पुस्तकों में कहानियाँ, उपन्यास, हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ, योगाभ्यास तथा धार्मिक और ऐतिहासिक किताबें हुआ करती थीं।
      उन दिनों बलिया शहर में बिजली की व्यवस्था नहीं थी। लालटेन व ढिबरी के रोशनी के सहारे अमरकांत रात-रात भर इन किताबों को पढ़ते रहते थे। इन किताबों में कई अनूदित किताबें भी होती थीं। यहीं पर अमरकांत ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर, परशुराम, शरत् व बंकिम के साहित्य का परिचय प्राप्त किया। इन पुस्तकों ने अमरकांत की भावभूमि और विचार को एक खास दिशा प्रदान की।
      सन 1938-39 ई. में अमरकांत कक्षा आठ में थे, और इसी समय उनके विद्यालय में हिंदी के नए शिक्षक के रूप में बाबू गणेश प्रसाद का आगमन हुआ। वे साहित्य के अच्छे जानकार थे और कभी-कभी निबंध की जगह कहानी लिखने को कहते थे। बच्चों को हस्तलिखित पत्रिका भी निकालने के लिए प्रेरित किया करते थे।
      सन 1946 ई. में अमरकांत ने बलिया के सतीशचन्द्र इन्टर कॉलेज से इन्टरमीडियेट की पढ़ाई पूरी कर बी.ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से करने लगे। बी.ए. पास करने के बाद अमरकांत ने पढ़ाई बंद कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी। बी.ए. पास करने के बाद कोई सरकारी नौकरी करने के बदले उन्होंने पत्रकार बनने का निश्चय कर लिया था। उनके अंदर यह विश्वास बैठ गया था कि हिंदी सेवा पर्याय है देश सेवा का। वैसे अमरकांत के मन में राजनीति के प्रति एक तरह का निराशा का भाव भी आ गया था। यह भी एक कारण था जिसकी वजह से अमरकांत पत्रकारिता की तरफ मुडे।़ अमरकांत के चाचा उन दिनों आगरा में रहते थे। उन्हीं के प्रयास से दैनिक 'सैनिक` में अमरकांत को नौकरी मिल गयी।
      इस तरह अमरकांत के शिक्षा ग्रहण करने का क्रम समाप्त हुआ और नौकरी का क्रम प्रारंभ हुआ।
4. रहन-सहन और स्वभाव
      अमरकांत के पिता अपने गाँव के गिने-चुने संपन्न लोगों में से एक थे। ठाट-बाट से रहना उन्हें पसंद था। गाँव का पैतृक निवास कच्चा पर बड़ा था। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। घर में नौकर चाकर भी थे। अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में यह परिवार पूरी तरह सक्षम था।
      अमरकांत बचपन में घर के अंदर अलग तरह का व्यवहार करते और घर के बाहर अलग। इस तरह 'घर के अंदर` और 'घर के बाहर` अमरकांत के दो रूप थे। घर के बाहर वे बेहद शर्मीले व चुप्पे किस्म के बालक थे। लेकिन घर के अंदर की स्थिति बिलकुल अलग थी। उन्हें बचपन में अपने छोटे भाइयों की नाक पकड़कर मलते हुए उसे लाल कर देने में बड़ा मजा आता था। घर के नौकर छबीला को लंगी लगाकर गिराने में भी अमरकांत पीछे नहीं रहते थे। उन्हें खेल-कूद का भी बड़ा शौक था। हॉकी - फुटबाल, गुल्ली - डंडा, चिक्का - कबड्डी आदि कई खेलों में वो भाग लेते थे। अमरकांत को बचपन में लड़कियों के साथ खेलना बड़ा अच्छा लगता था, पर कई बार लड़कियाँ उन्हे चिढ़ाकर भगा देती थीं।
      अमरकांत बचपन से ही बड़े संवेदनशील रहे। अपनी बड़ी बहन गायत्री की अर्थी को नम आँखों से चुपचाप मन मारकर अमरकांत देखते रहे थे। मानो जैसे उन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में ही जीवन व मृत्यु के सत्य को समझने की कोशिश कर रहे हों। बिमार बहन के जिंदा रहने पर उसे चुपके से अचार खाने को देते थे।
      अमरकांत से किसी का दुख देखा नहीं जाता था। आपस में झगड़ा व मनमुटाव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। बचपन में अमरकांत को मजदूरों की स्थिति को देखकर बड़ा दुख होता था। मजदूरों के पहनावे, उनके दुबले-पतले शरीर और दिन भर की जी तोड़ मेहनत के बाद भी मजदूरों का एक आना भी न कमा पाने वाली स्थितियों को देखकर अमरकांत को बड़ा दुख होता था।
      अमरकांत ने लिखा भी है कि उनका मन सबसे अधिक उस समय लगता जब दिन भर जी तोड़ मेहनत करके मजदूर शाम को हिसाब - किताब के लिए इकट्ठा होते। उनके शरीर पर जो कपड़ा होता, उसकी हालत देखकर उसे 'चिरकुट - चिथड़ा` से जादा कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। मजदूरों के दुबले - पतले शरीर, चेहरे पर गाल अंदर की तरफ धँसे हुए, चेहरे की हडि्डयाँ बाहर की तरफ निकली हुई होती थी। अमरकांत उस समय तक कुछ - कुछ गिनती और पहाड़ा सीख चुके थे। उन दिनों मजदूरों को उनकी मजदूरी कौड़ियों के रूप में प्रदान की जाती थी। पाई छोटा सा ताँबे का सिक्का होता था, जिसे 'दोकड़ा` भी कहते थे। बारह पाई के बराबर एक 'आना` होता व सोलह आनों का एक 'रुपया`। पर लेखक को ऐसा कोई दिन याद नहीं जब कोई मजदूर दिन-भर की मेहनत के बाद एक रुपया भी कमा पाता हो। मजदूरों की इस तरह की हालत देखकर अमरकांत उदास हो जाया करते थे।
      घर के अंदर अमरकांत एक आज्ञाकारी बालक थे। अपने से बड़ों की हर आज्ञा का वे पालन किया करते थे। किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे। अपने आस-पास के वातावरण के प्रति हमेशा ही सजग रहते। बचपन से शुरू-शुरू में शरत्चंद्र के उपन्यासों से प्रभावित होकर कोरी भावुकतापूर्ण रोमांटिक कहानियों से अमरकांत ने अपना लेखन कार्य शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे अमरकांत बड़े हुए उन्होंने समाज और राष्ट्र की यथार्थ स्थिति को समझा। आगे चलकर उनका लेखन भी यथार्थ के अधिक करीब हो गया।
      धीरे-धीरे अमरकांत का परिचय स्थानीय क्रांतिकारियों व उनके क्रांतिकारी साहित्य से हुआ। कई स्थानीय क्रांतिकारी मित्रों ने मिलकर राजनीतिक सतर्कता दिखायी। पर अमरकांत और उनके मित्रों की यह सतर्कता हास्यास्पद ही कही जायेगी। ऐसी ही कुछ घटनाओं को थोड़े परिवर्तन के साथ अमरकांत ने अपने उपन्यास 'सूखा पत्ता` में चित्रित किया है। उपन्यास में दिखाया गया है कि किस तरह चीनी और बोरे चुराकर युवकों का एक दल इसे महान क्रांतिकारी घटना मानता है।
      हाई स्कूल पास करने के बाद अमरकांत अपने कुछ मित्रों के माध्यम से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संपर्क में आये। उन दिनों इन पार्टियों की कक्षाएँ चलती थीं। यहीं से अमरकांत को कई छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने को मिली। स्वतंत्रता, समाजवाद, समाजवादी देश सोवियत रूस, वैज्ञानिक समाजवाद, आचार्य नरेन्द्र देव और राहुल जी के विचारों एवम् साहित्य से अमरकांत का परिचय हुआ। गांधी और नेहरू जी की आत्मकथाएँ अमरकांत ने पढ़ी। नेहरू जी भी समाजवादी हैं, अपने अध्ययन के द्वारा जब अमरकांत को यह पता चला तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हुआ।
      अब अमरकांत खद्दर पहनने लगे थे। गाँधीजी की कई बातें अमरकांत को पसंद नहीं आती थी। लेकिन यह समझ जरूर विकसित हो गई थी कि आजादी के लिए आतंकवादी कारवाइयों की जरूरत नहीं थी बल्कि देश की आम जनता तक पहुँचकर उन्हें संगठित और संघर्षशील बनाने की जरूरत थी। गांधी और नेहरू को अमरकांत एक दूसरे का पूरक मानते थे। जयप्रकाश नारायण के प्रति भी अमरकांत के मन में श्रद्धा थी। उनकी बातें व साहित्य अमरकांत को रोमांचित कर देते थे। अमरकांत जयप्रकाश नारायण की पार्टी के सदस्य थे अत: पार्टी के सर्वोच्च नेता के प्रति सम्मान स्वाभाविक भी था।
      समाजवाद, स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता जैसी बातों को आत्मसाथ कर अमरकांत बड़े हो रहे थे। अपनी कल्पनाओं में अमरकांत अपने आप को सबसे आगे पाते। बड़े-बड़े महान कार्य के लिए तत्पर रहते। अमरकांत की इन कल्पनाओं और स्वपनों में दो चीजें अनिवार्य रूप से रहती। पहली 'लड़की` और दूसरी 'रोमान्टिसिज्म`। अमरकांत के ऊपर शरदचन्द्र का काफी प्रभाव रहा। उन्होंने शरदचन्द्र की ही तर्ज पर प्रेम और करूणा से भरी कहानियाँ लिखनी प्रारंभ की। इन दिनों अमरकांत की अपनी मानसिक स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं थी, कारण यह था की वे समझ नहीं पा रहे थे की आखिर उन्हें क्या करना है? मन कभी निराश से भर जाता तो कभी काल्पनिक प्रेम में डूब जाता। जब ये बातें हास्यास्पद लगने लगती तो उन्हें देश की चिंता होने लगती। एक अजीब मानसिक द्ंवद्व से अमरकांत जूझ रहे थे। वो यह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि आखिर उन्हें करना क्या है? उन्हें जाना किस दिशा में है? साहित्य की सेवा की बात थोड़ी स्पष्ट जरूर थी पर वह भी किस रूप में करनी है इस बात को लेकर अमरकांत उन दिनों असमंजस की स्थिति में रहे।
      सन 1942 में जब महात्मा गांधी ने 'करो या मरो` का नारा दिया, तो उसका पूरे देश में बहुत प्रभावशाली असर देखने को मिला। देश के अनगिनत छात्रों ने पढ़ाई छोड़ देने का निश्चय किया। यह निश्चय करने वालों में अमरकांत भी एक रहे। गांधी जी का अमरकांत पर बहुत तगड़ा प्रभाव था। वे अपने आपको पूरी तरह पवित्र रखना चाहते थे। ठीक गांधीजी की तरह। पर इन सब प्रयासों में कई बार उन्होंने आत्महत्या तक की ठान ली। स्वयं अमरकांत लिखते हैं कि, ''गांधी जी के कारण ही वह पाप-पुण्य के फेर में भी पड़ गया। वह शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपने को पूर्ण पवित्र रखना चाहता था, पर बार-बार उसे भावनाएँ दबोच लेती थीं। वह जितनी ही महानता की उँचाइयों पर जाना चाहता था, उतना ही वह अपने को नीचे जाता हुआ महसुस करता था। वह सेक्स और प्रेम की भावनाओं से लगातार लड़ रहा था। उसने अपने अंदर से हर प्रकार की महत्वाकांक्षा निकालने की कोशिश की और उसके लिए अपने प्राकृतिक चिकित्सा, गांधीवादी एवं मानसिक रूप से वह इसका भयंकर असर हुआ और वह आत्महत्या का ख्वाब देखने लगा।``6
      इन निराशा के दिनों में ही अमरकांत ने डायरी लिखना शुरू किया। दिन भर जो भी उनके साथ होता वे उसे डायरी में लिखने लगे। निश्चय तो था ब्रिटिश सरकार से लड़ने का। लेकिन इन दिनों अमरकांत अपने आप से ही लड़ रहे थे। अपने आप को पूरी तरह अनुपयोगी समझ रहे थे। अपने प्रति हीन भावनाओं से भरे हुए थे। सन 1946 में जब यह तँय हो गया कि भारत को स्वतंत्रता मिल जायेगी तब उन्होंने अपनी पढ़ाई पुन: प्रारंभ की। इन्टर किया और अपने विवाह की भी स्वीकृति प्रदान कर दी। आजादी तो हमंें मिली पर वह जिस रूप में मिली उसने कई लोगों को निराश किया। विभाजन और विभाजन के परिणामस्वरूप जिस कत्ले आम का दौर पूरे देश में चला उसने अमरकांत को अंदर तक झकझोर के रख दिया।
      इसके बाद जब अमरकांत ने देखा की आजादी के बाद लोग गिरगिट की तरह रंग बदल रहे हैं तो उन्हें और कष्ट हुआ। भाषावाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद, अलगाववाद, फिरकापरस्ती, काला बाजारी, गुटबाजी और भ्रष्टाचार जैसी बातों ने अमरकांत को निराश किया। उनके सामने से रोमांटिसिज्म के रंगीन पर्दे हटने लगे और अमरकांत का लेखन यथार्थ की तरफ मुड़कर अधिक पैना होने लगा।
      अमरकांत का रचनात्मक जीवन अपनी पूरी गंभीरता के साथ प्रारंभ हुआ। जिन साहित्यकारों को अब तक वे पढ़ते थे या अपने कल्पना लोक में देखते थे उन्ही के बीच स्वयं को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी का क्रम भी प्रारंभ हो गया था। लेकिन सन 1954 में अमरकांत हृदय रोग के कारण बिमार पड़े और नौकरी छोड़कर लखनऊ चले गये। एक बार फिर निराशा ने उन्हें घेर लिया। अब उन्हें अपने जीवन से कोई उम्मीद नहीं रही। पर लिखने की आग कहीं न कहीं अंदर दबी हुई थी अत: उन्होनें लिखना प्रारंभ किया और उनका यह कार्य आज भी जारी है।
      अमरकांत को लेखन के द्वारा जीवन का एक सार्थक आधार मिल गया। अमरकांत अपने बारे में खुद ही कहते हैं कि, ''.......... उसमें शारीरिक मानसिक एवं आर्थिक क्षमताएँ बहुत नहीं थीं, पर उसे संतोष था कि वह अपने देश की साधारण जनता के साथ था, वह उनकी लड़ाई में शामिल था - अन्याय, शोषण एवम् निर्धनता से मुक्त होने की लड़ाई। उसको अपने देश के लोगों से प्यार था। उनका साहस, उनकी उद्भुत जीवन-शक्ति, त्याग-बलिदान और बरदाश्त करने की उनकी क्षमता, उनकी उदारता और विनम्रता, उनका आलस्य, हार को जीत में परिवर्तित करने की उनकी आदत, उनका साहस और उनकी विलक्षण प्रतिभा। उसके जीवन को एक सार्थक आधार मिल गया था।``7
      उम्र के इस पड़ाव पर भी अमरकांत का लेखन कार्य जारी है। मई 2006 में मैं इलाहाबाद स्थित उनके निवास पर जब साक्षात्कार हेतु पहुँचा तो कई नई बातें ज्ञात हुई। जैसे की 'बहाव` नामक पत्रिका का अमरकांत के संपादकत्व में निकलना। पहला अंक निकल चुका था और अमरकांत अपने छोटे पुत्र अरविंद के साथ मिलकर दूसरे अंक को निकालने की तैयारी में थे। अमरकांत ने बताया कि वे एक नाटक भी लिखना चाह रहे हैं। एक और पुस्तक 'खबर का सूरज आकाश में` पर भी उनका कार्य जारी था। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी अमरकांत नियमित रूप से लिखते रहते हैं। अभी वे बहुत कुछ लिखना चाहते हैं किंतु अब उनका स्वास्थ उनका साथ नहीं दे रहा।
5. सेवा कार्य
      प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद अमरकांत ने निश्चय कर लिया था कि उन्हें हिंदी साहित्य की सेवा करनी है। मन में पत्रकार बनने की इच्छा थी। और उन्होनें आगरा शहर से निकलने वाले दैनिक पत्र 'सैनिक` से अपनी नौकरी की शुरूआत की। 'सैनिक` के संपादकीय विभाग में अमरकांत को काम मिला था।
      यहीं पर अमरकांत की मुलाकात श्री विश्वनाथ भटेले से हुई जो अमरकांत के साथ 'सैनिक` में ही कार्यरत थे। श्री विश्वनाथ भटेले अमरकांत को अपने साथ आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में ले जाने लगे। इन्हीं 'बैठकों` में अमरकांत की मुलाकात डॉ. रामविलास शर्मा, राजेन्द्र यादव, रवी राजेन्द्र व रघुवंशी जैसे साहित्यकारों से हुई। अमरकांत ने अपनी पहली कहानी 'इंटरव्यू` इसी प्रगतिशील लेखक संघ में सुनायी जिसे सभी लोगों ने सराहा।
      आगरे के बाद अमरकांत इलाहाबाद आ गये और वहाँ से निकलने वाले 'अमृत पत्रिका` नामक दैनिक के संपादकीय विभाग में कार्य करने लगे। अमरकांत यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और ओमप्रकाश, मार्कण्डेय, कमलेश्वर व दुष्यंतकुमार जैसे लेखको के संपर्क में आये। पर यहाँ अमरकांत सुख से नहीं रह पाये। आर्थिक समस्या बड़ी थी। वे बहुत ही अल्प वेतन पर काम कर रहे थे। उनके प्रेस में आर्थिक लड़ाई शुरू हो गई थी। उन्हें कई तरह से अपमानित भी किया गया। अमरकांत का जीवन कष्ट में कट रहा था।
      सन 1954 में वे गंभीर रूप से बिमार पड़े। वे हृदय रोग के शिकार हो गये थे। जीवन में निराशा का नया दौर शुरू हुआ। नौकरी छोड़कर वे लखनऊ चले गए। अमरकांत अपने जीवन को निरर्थक समझने लगे। कहीं से कोई भी उम्मीद नजर न आती। पर अंत में उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना लेखन कार्य जारी रखेंगे। जितना हो सकेगा उतना वे लेखन करेंगे। लेखन ही उनके जीवन का आधार रहा। और उन्होंने किया भी यही।
6. संघर्ष
      अमरकांत ने बी.ए. करने के बाद पत्रकार के रूप में अपनी नौकरी की शुरूआत की। किंतु इससे उनकी आर्थिक दशा में सुधार न हुआ। अमरकांत का समय साहित्यिक और मित्रों के बीच ही बितता था। वे एक लापरवाही भरी जिंदगी जी रहे थे। उन्हें किसी बात की कोई विशेष चिंता भी नहीं थी।
      पर अमरकांत के चाचा को यह बात पसंद नहीं आयी। और वे अमरकांत के व्यवहार को लेकर के चिंतित रहने लगे। उन्होंने घर वालों को अपनी चिंता से अवगत भी कराया। और उन्होंने ही अमरकांत के पिताजी को सलाह दी की वे उसे आगरा से वापस बुला लें। अमरकांत के चाचा जी का नाम श्री साधुशरण वर्मा था। तीन वर्ष तक आगरा में रहने के बाद अमरकांत इलाहाबाद आ गये।
      इलाहाबाद आने के बाद अमरकांत ने यहाँ से निकलने वाले 'अमृत पत्रिका` में नौकरी पायी। पर यहाँ पर भी तनख्वाह बड़ी मामूली थी। यहाँ आकर के अमरकांत ने गहरी आर्थिक तंगी को महसूस किया। प्रेस में भी उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हुआ। प्रेस की अपनी आर्थिक समस्याएँ और झगड़े थें इसी बीच अमरकांत हृदय रोग के शिकार हुए और उन्हें लखनऊ जाना पड़ा।
      लखनऊ रहते हुए अमरकांत गहरे मानसिक द्ंवद्व से ग्रस्त रहे। उन्हें जीवन से एक तरह से निराशा हो गयी। उन्हें अब यह लगने लगा कि अब वे किसी काम के नहीं रह गये। साथ ही साथ उन्हें इस बात का पछतावा भी हुआ कि उन्होंने जिंदगी का बहुत सारा समय यूँ ही बर्बाद कर दिया। अब वे अपना एक मिनट भी बर्बाद नहीं करना चाहते थे और लिखने के प्रण के साथ वे इस काम में जुट गये।
      आय का कोई निश्चित साधन न होने के कारण उनकी माली हालत कोई बहुत अच्छी नहीं रही। स्वतंत्र लेखन के द्वारा ही वे जो अर्जित कर सके उसे ही आजीविका का साधन बनाया। अमरकांत ने अपना जीवन इसी तरह व्यतीत किया।
      शेखर जोशी जी ने अमरकांत के इसी संघर्षमय जीवन का वर्णन करते हुए लिखा है कि, ''पिछले 18-20 वर्षो में जब-जब वे इलाहाबाद में रहे अमरकांत को अनेकों स्थितियों में देखा है - अपनी या परिवार के सदस्यों की बीमारी से जूझते हुए, बेरोजगारी के लम्बे और कमरतोड़ देने वाले दौर में, आर्थिक संकटों में आकण्ठ डूबे हुए, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी और ब्याह-शादी की चिन्ताओं से ग्रस्त, समृद्ध भरे-पूरे परिवार के वरिष्ठतम सदस्य के रूप में अपेक्षित माँगों को पूरा न कर पाने की आत्मग्लानि से लाचार, नगण्य से पारिश्रमिक पर पाण्डुलिपि देने की विवशता में, रॉयल्टी के लिए झूठे या टालू वायदे झेलते हुए, अपर्याप्त वेतन पर खटते हुए, सहायता के नाम पर शोषण की चक्की में पिसते हुए। लेकिन ऐसे दौर से भी उनकी मन:स्थिति संक्रामक नहीं होती बल्कि उनकी जिजिविषा दूसरों के लिए भी प्रेरक शक्ति का काम करती है।``8
      जोशी जी की उपर्युक्त बातों से अमरकांत के जीवन संघर्ष को आसानी से समझा जा सकता है। अमरकांत ने अपने भीतर एक तरह का आत्मअनुशासन विकसित कर लिया था। शायद यही वह प्रेरक शक्ति थी जिसका जिक्र शेखर जोशी जी करते हैं। अमरकांत का यही आत्मअनुशासन उनकी रचनाओं में भी दिखायी देता है। आर्थिक तंगी और बिमारी के बीच अमरकांत ने लेखन को अपने जीवन का आधार बनाया। जितना हो सके उतना लिखने का उन्होंने निश्चय कर लिया। 
      परिवार की जिम्मेदारियों के प्रति वे सचेत थे। अपनी क्षमताओं से बढ़कर उन्होंने करने का हमेशा की प्रयत्न किया। एक सामान्य मध्यम वर्ग का जीवन जीते हुए अमरकांत ने स्वतंत्र लेखक के रूप में अपना कार्य जारी रखा। 'सैनिक` और 'अमृत पत्रिका` के अतिरिक्त अमरकांत दैनिक भारत और कहानी मासिक से भी जुड़े थे। 'मनोरमा` पाक्षिक का संपादन कार्य भी अमरकांत ने किया। अमरकांत खुद भी एक पत्रिका निकालना चाहते थे पर सबसे बड़ी समस्या आर्थिक ही थी। पर साधनों की समस्या ने उनकी साधना में खलल नहीं पड़ने दिया। हाल ही में उन्होने 'बहाव` नामक पत्रिका का संपादन कार्य प्रारंभ किया। यह पत्रिका 'अमर कृतित्व` प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होती है। अमरकांत के छोटे पुत्र 'अरविंद` इस प्रकाशन कार्य में मुख्य सहायक हैं। अरविंद जी खुद एक कहानीकार भी हैं।
      अमरकांत का जीवन संघर्षों से भरा रहा। और यही संघर्ष उनके साहित्य को अधिक पैना करता रहा।
7. व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ
      किसी के भी व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार, परिवेश और शिक्षा आदि का महत्वपूर्ण स्थान होता है। कथाकार अमरकांत का पारिवारिक वातावरण साहित्यिक नहीं था। फिर भी साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बहुत सारी बातें विरासत में अमरकांत को परिवार से ही मिली। 'जरि गइले एड़ी कपार` नामक लेख में शेखर जोशी ने इसी बात की चर्चा करते हुए लिखा है कि, ''किस्सागोई और व्यंग्य का ऐसा अनोखा वातावरण अमरकांत को अपने परिवार से विरासत में मिला है।``9 अमरकांत को अपनी कई कहानियों की प्रेरणा परिवार के सदस्यों के द्वारा ही प्राप्त हुई है।
      अपनी इन्हीं कुछ कहानियों के बारे में अमरकांत स्वयं कहते हैं कि, ''..... रजुआ - वो करेक्टर है उसमें। बलिया में ही देखा था उसे हमने। हमारे वाले मुहल्ले का ही था वह। करीब दस एक दिन लगे होंगे - कम्पलीट हो गयी। इसके पूरा होते ही दूसरी लठा ली। एक दिन की भी देर नहीं की। ये भी हमारे परिवार की थी। भाई लॉ करके बलिया आ गये थे। बलिया जैसे छोटे शहर में रहकर उनका बिना सुविधा, अपने बूते आई.ए.एस. में बैठना। सिम्पिली सिटी के मास्टर थे वे। .......उत्साह, पिता की आशाएँ, प्रतीक्षा .......आप 'डिप्टी कलक्टरी` में देख सकते हैं....।``10
      अमरकांत के व्यक्तित्व के निर्माण में उनके व्यक्तिगत संघर्ष की अहम भूमिका रही। उन्होंने कभी भी परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। हर हाल में वे एक आम व्यक्ति की तरह संघर्ष करते रहे, शोषण का शिकार होते रहे और पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के लिए हर तरह के कष्ट को गले लगाते रहे। उनका यही भोगा हुआ यथार्थ उनके कथा साहित्य में अपनी पूरी समग्रता के साथ प्रस्तुत हुआ है। 
      अमरकांत के व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण बात थी 'ईमानदारी`। अमरकांत ने हमेशा अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ किया। वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन कार्य से जुड़े रहे। इसके बावजूद वे 'अवसरवादी` नहीं बने। शेखर जोशी जी इसी बात की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि, ''आम तौर पर किसी पत्रिका के संपादन से जुड़ना नेतृत्व और आत्मप्रचार के लिए अच्छा अवसर प्रदान करता है। अनेकों महत्वाकांक्षी लोग इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते देखे गए हैं। लेकिन अमरकांत में या तो वैसी प्रतिभा नहीं थी या यह उनके मिजाज में नहीं है।``11
      अमरकांत अपने अंदर एक सीमा के निर्धारण के साथ जीते रहे। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने स्वयं भी कभी उस सीमा का उल्लंघन नहीं किया। अमरकांत बाहर से जितने सुलझे व सहज लगते हैं वास्तव में अंदर से वे उतने ही उलझे और परेशान रहते। कारण यह था कि वे अपनी परेशानियों को अपने तक रखना पसंद करते थे और बाहर उसकी छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे। पर यह प्राय: हो नहीं पाता। उनके मित्र उनकी परिस्थितियों से अच्छी तरह परिचित थे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि यह आदमी मर्यादाओं में रहनेवाला है। अपने लाभ के लिए अमरकांत दूसरे का नुकसान नहीं कर सकते थे। ममता कालिया ने लिखा है कि, ''........ उनके दोस्तों ने तजुर्बे से पाया है कि किसी गलत बात में अमरकांत को भागीदार बनाना बेहद मुश्किल काम है, सौजन्यवश भी वे हामी नहीं भरते और सही बात पर अकेले अड़े रहने का माद्दा रखते हैं।``12
      अमरकांत सदैव ही एक संकोची व्यक्ति रहे। आम जनता से जुड़ी हुई कोई भी बात उन्हें साधारण नहीं लगती थी। देश में होनेवाली हर महत्वपूर्ण घटना पर उनकी बारीक नज़र रहती थी। वे खुद यह कभी भी पसंद नहीं करते थे कि वे चर्चा के केन्द्र में रहें। इन सब बातों में उन्हें एक अलग तरह का संकोच होता था। सामान्य जनता, उससे जुड़ी हुई परेशानियाँ, जीवन और साहित्य इन सब में अमरकांत की गहरी संसक्ति थी। अमरकांत न केवल एक अच्छे साहित्यकार हैं बल्कि उतने ही अच्छे व्यक्ति भी हैं। उनका व्यक्तित्व बिना किसी बनावट के एकदम साफ और सहज है।
      अमरकांत के व्यक्तित्व के बारे में राजेन्द्र यादव लिखते हैं कि, ''अमरकांत टुच्चे, दुष्ट और कमीने लोगों के मनोविज्ञान का मास्टर है। उनकी तर्क पद्धति, मानसिकता और व्यवहार को जितनी गहराई से अमरकांत जानता है, मेरे खयाल से हिन्दी का कोई दूसरा लेखक नहीं जानता.......।``13 अमरकांत के कथासाहित्य से कई प्रसंगों को उठाकर के राजेन्द्र यादव ने अपनी इस बात की पुष्टि भी की है। अमरकांत जब किसी व्यक्ति की आँखों में आँखे डालकर देखते थे तो उसके अंदर बाहर का सारा नाटक समझ जाते थे। इसपर भी वे चुप रहना ही ज्यादा पसंद करते थे। शायद यही उनकी वह शक्ति तथा मारक क्षमता थी जिसको राजेन्द्र यादव स्पष्ट करते हैं।
      अमरकांत अपने समय और उसमें घटित होने वाले हर महत्वपूर्ण परिवर्तन से जुड़े रहे। उन्होंने जो देखा, समझा और जो सोचा उसी को अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी कहानियाँ एक तरह से 'दायित्वबोध` की कहानियाँ कही जा सकती हैं। यह 'दायित्वबोध` ही उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ता है। अमरकांत ने अपने जीवन और वातावरण को जोड़कर ही अपने कथाकार व्यक्तित्व की रचना की है। अमरकांत अपने समकालीन कहानीकारों से अलग होते हुए भी प्रतिभा के मामले में कहीं भी कम नहीं है। उनका व्यक्तित्व किसी भी प्रकार की नकल से नहीं उपजा है। उन्होंने जिन परिस्थितियों में अपना जीवन जिया उसी से उनका व्यक्तित्व बनता चला गया। और उन्होंने जीवन में जो भी किया उसी को पूरी ईमानदारी से अपने लेखन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी किया। इसलिए अमरकांत के व्यक्तित्व को निर्मित करने वाले घटक तत्वों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनका व्यक्तित्व आरंभ से लेकर अब तक एक उर्धगामी प्रक्रिया का परिणाम है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को किसी निश्चित योजना अथवा आग्रह के आधार पर विकसित न करके जीवन के व्यावहारिक अनुभव द्वारा आकारित किया। सारांशत: उनका व्यक्तित्व अनुभव सिद्ध व्यक्ति का व्यावहारिक संगठन है। यही कारण है कि उनमें आत्मनिर्णय, आत्मविश्वास और आत्मभिमान का चरम उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।
8. पुरस्कार एवम् सम्मान
      अमरकांत को जो प्रमुख पुरस्कार एवम् सम्मान मिले, वे इसप्रकार हैं।
1. सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार
2. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार
3. मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार
4. यशपाल पुरस्कार
5. जन-संस्कृति सम्मान
6. मध्यप्रदेश का 'अमरकांत कीर्ति` सम्मान
7. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का सम्मान 
८.साहित्य अकादमी सम्मान २००७ (इन्ही हथियारों से के लिए ) 
९.व्यास सम्मान २०१० (इन्ही हथियारों के लिए )
      इन सभी पुरस्कारों में अमरकांत सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार से जुड़ी बातों को याद करते हुए बताते हैं कि यह पुरस्कार उन्हें सन् 1984......... में मिला। संयोग की बात है कि जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई उसी दिन शाम को तार के माध्यम से इस पुरस्कार की सूचना अमरकांत को प्राप्त हुई। इस पुरस्कार में 15 दिन की सोवियत यात्रा भी शामिल थी।
      अगले वर्ष सन 1985...... की जुलाई में अमरकांत 15 दिन की सोवियत यात्रा पर भी गये। वहाँ पर उन्होंने मास्को सहित कई अन्य प्रमुख शहरों की यात्रा की। लेकिन वहाँ से लौटने के बाद अमरकांत गंभीर रूप से बिमार पड़ गये। विदेश यात्राओं के कई अन्य अवसर उनके पास आये मगर स्वास्थ के कारणों से वे कहीं जा ना सके।
      इन पुरस्कारों के अतिरिक्त अमरकांत की कई कहानियों का विदेशी एवम् प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। 'पेंग्विन इंडिया` के माध्यम से अंग्रेजी में प्रकाशित दो कहानी संग्रहों में अमरकांत की कहानियाँ शामिल की गई हैं। इनकी कुछ कहानियों का प्रदर्शन दूरदर्शन के द्वारा भी किया जा चुका है। राष्ट्रीय नाट्या विद्यालय, दिल्ली और गढ़वाल, कुमाँयू, गोरखपूर, इलाहाबाद और आगरा के कई संस्थाओं द्वारा अमरकांत की कहानियों का सफल मंचन किया गया है।
      देशभर के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्याक्रम में अमरकांत का साहित्य शामिल किया गया है। देशभर से निकलने वाले हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अमरकांत का साहित्य छपता रहा है। हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अमरकांत ने वह उँचाई बना ली जहाँ पुरस्कार एवम् सम्मान अमरकांत की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाते, अपितु अमरकांत से जुड़कर स्वयं सम्मानित हुए हैं।
ख) अमरकांत : विचारधारा एवम् साहित्यिक दृष्टि
1. कविता प्रेम
      अमरकांत जब बलिया के गवर्नमेंट हाई स्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ते थे, उसी समय श्री गणेश प्रसाद जी हिंदी शिक्षक के रूप में उस विद्यालय में नियुक्त हुए। गणेश प्रसाद एम.ए. पास नवयुवक थे। गणेश प्रसाद जी हमेशा अपने विद्यार्थियों को साहित्यिक गतिविधियों में रूचि लेने के लिए प्रेरित करते रहते थे। अमरकांत गणेश प्रसाद जी से बहुत प्रभावित थे। उन्हीं से प्रेरणा पाकर अमरकांत व मित्रों ने कहानियाँ लिखनी शुरू की, हस्तलिखित पत्रिकाएँ निकाली और अन्ताक्षरी टीम में शामिल हुए।
      विद्यार्थी कविताओं को याद करें इसलिए गणेश प्रसाद जी खुद भी मेहनत करते थे। उनके बारे में अमरकांत लिखते हैं कि, ''गणेश प्रसाद जी सादे कागज की पतली-पतली स्लिपों पर परिश्रमपूर्वक सुंदर अक्षरों में बहुत-सी कविताएँ लिखकर ले आए थे, जिनमें मुख्य रूप से घनानन्द, पद्माकर, रत्नाकर, देव, रसखान, मतिराम, हरिश्चन्द्र, तुलसीदास, सूरदास आदि की रचनाएँ थीं। भक्ति, शृंगार, वीर आदि सभी रसों की उन कविताओं की मधुरता एवं शब्द, ध्वनि और अर्थ की व्यंजनाएँ श्रोताओं को मुग्ध और आनन्दित करने में समर्थ थीं।``14
      अमरकांत ने इन्हीं दिनों से कविताएँ याद करनी शुरू की। उन दिनों आजादी का नशा पूरे भारत पर छाया हुआ था। हर भारतवासी गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद भारत में साँस लेना चाहता था। अमरकांत भी ऐसे ही आजादी के मतवाले थे। देश प्रेम से भरी कविताएँ गाने से उन्हें एक तरह की आंतरकि शक्ति मिलती थी। वे स्वयं लिखते हैं कि, ''उन दिनों जब आजादी की लड़ाई हो रही थी और बाद में भी संकट, दु:ख और निराशा के समय मैंने इस गीत को एकान्त में गा-गाकर साहस, शक्ति और सम्बल प्राप्त किया है। याद की गई अन्य कविताओं के बारे में भी मेरी यही स्थिति रहती है। भाव-विव्हल हृदय की भाषा है कविता, अत: हृदय से हृदय की बात होना आसान है। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि हृदय की गहराइयों से निकली शृंगार रस की कविताएँ भी हिम्मत देती हैं और आपको मानवीय सच्चाइयों के पक्ष में खड़ा होने की ताकत भी।``15
      जैसा की हम पहले उल्लेख कर चुके हैं। बी.ए. पास करने के बाद अमरकांत ने नौकरी करने का निश्चय किया। नौकरी का यह क्रम सन् 1948 से आगरा से शुरू हुआ। उन्होंने आगरा से निकलने वाले 'सैनिक` दैनिक पत्र के संपादकीय विभाग में नौकरी शुरू की। यहीं पर उनकी मुलाकात विश्वनाथ भटेले जी से हुई। भटेले जी ही उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में ले गये। यहीं पर अमरकांत की मुलाकात डॉ. रामविलास शर्मा जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से हुई।
      प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में अमरकांत का परिचय अच्छे गज़ल गायक के रूप में कराया गया। अमरकांत इससे खुश नहीं थे। वास्तव में उन्हें गज़ल व कविताएँ पसंद थी, वे उसे अकेले में या दोस्तों के आग्रह पर सुना भी देते थे पर उन्होंने स्वयं कोई कविता या गज़ल लिखकर कभी कोई प्रतिष्ठा पाने की कोशिश नहीं की थी। उर्दू के कुछ मित्रों का संग-साथ, अंताक्षरी टीम का सदस्य व कविताओं गज़लों में रूचि के कारण उन्हें बहुत सारी पंक्तियाँ याद जरूर हो गयीं थी पर इन सब के कारण वे अपने आप को कवि मानने के लिए तैयार नहीं थे।
      पर डॉ. रामविलास शर्मा जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार का आग्रह वे ठुकरा नहीं सकते थे। पर अब ये हर बार का किस्सा हो गया था। इससे छुटकारा पाने के लिए अमरकांत ने कहानी लिखने का निश्चय किया। अगली मीटिंग में इसके पहले कि कोई गज़ल या कविता सुनाने के लिए कहे, उन्होंने खुद यह घोषणा कर दी कि वे कहानी सुनायेंगे।
      इस तरह उन्होंने 'इंटरव्यू` नामक अपनी पहली कहानी लिखी और आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में उसे डॉ. रामविलास शर्मा एवम् अन्य सदस्यों को सुनाया। सभी लोगों ने यह कहानी सुनकर उसकी भरपूर प्रशंसा की। इस कहानी ने अमरकांत को एक नई पहचान दी। अब वे कहानीकार के रूप में पहचाने जाने लगे। अब उनसे कोई कविता या गज़ल सुनाने का आग्रह नहीं करता था। अमरकांत अपनी नई पहचान से खुश थे।
      कविताएँ व गज़ल उन्हें अभी भी पसंद हैं। वे कई कंठस्थ कविताएँ गुनगुनाना भी पसंद करते हैं। पर वे स्वयं कविता नहीं लिखते। इसलिए खुद को कवि कहलवाना भी पसंद नहीं करते।
2. साहित्यिक वातावरण :
      यह संकेत दिया जा चुका है कि अमरकांत के घर में कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। स्कूल के अध्यापक श्री गणेश प्रसाद जी ने जरूर लिखने के लिए अमरकांत को प्रेरित किया। बी.ए. अमरकांत ने इलाहाबाद के हिन्दू बोर्डिंग हाऊस में रहकर पूरा किया। उन दिनों डॉ. रघुवंश भी वही छात्रावास में रहकर शोध कर रहे थे। पर इस समय तक अमरकांत हिन्दी साहित्य जगत से परिचित नहीं थे। अमरकांत का विषय भी हिन्दी नहीं था।
      स्कूल के दिनों के ही कई मित्र अमरकांत को फिर हिन्दू बोर्डिंग हाऊस में मिले। इन्हीं मित्रों के साथ मिलकर अमरकांत ने फिर एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। इस तरह की एक-दो और पत्रिकाएँ अमरकांत व मित्रगण अपने प्रिय अध्यापक श्री गणेश प्रसाद जी की प्रेरणा से पहले भी निकाल चुके थे।
      औपचारिक रूप से हिंदी भाषा अथवा साहित्य अध्ययन का विषय न होने पर भी साहित्य में अमरकांत की गहरी रूचि थी। माध्यमिक कक्षा में उनके प्रेरणा पुरूष गणेश प्रसाद ने साहित्य निष्ठा का जो बीजारोपण किया था वह सदैव ही सचेतन व सक्रिय बना रहा। इसलिए इलाहाबाद के हिंदू हॉस्टल में जब पुराने मित्रों का साहचर्य मिला तो उन्होंने पत्रिकाएँ निकालकर अपनी साहित्यिक अभिरूचि का परिचय दिया।
      आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ में कविताओं, गीतों व गज़लों का आकर्षक पाठ भी उनके साहित्यिक संस्कार का ही अंग था। यह बीजांकुर उनके साहित्यिक होता गया और 'इंटरव्यु` नामक कहानी के रूप में उसका सुफल सामने आया। ध्यातव्य है कि उनकी पहली ही कहानी 'इंटरव्यु` डॉ. रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज समीक्षकों द्वारा प्रशंसित हुई। यहीं से अमरकांत के सशक्त रचनाकार का स्वरूप स्पष्ट होता है।
      तीन साल आगरा रहने के बाद अमरकांत वापस इलाहाबाद आ गये। यहाँ पर अमरकांत की पहचान भैरव प्रसाद गुप्त जी जैसे साहित्यकारों से हुई। यहाँ 'परिमल` और 'प्रगतिशीलों` की आपसी नोक-झोक से अमरकांत अवगत हुए। मार्कण्डेय व शेखर जोशी जैसे मित्र अमरकांत को यहीं पर मिले। इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश से अमरकांत अच्छी तरह जुड़ गये थे। शमशेर, अमृतराय, श्रीकृष्णदास, नेमिचन्द्र जैन, पहाड़ी और डॉ. एजाज हुसेन जैसे अनेक उर्दू व हिन्दी के लेखकों से परिचित होने का अवसर मिला। इलाहाबाद के बारे में स्वयं अमरकांत लिखते हैं कि, ''धर्म, राजनीति, शिक्षा एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र था इलाहाबाद। यहाँ का विश्वविद्यालय देशभर में मशहूर। प्रदेश के सर्वोत्तम लड़के शिक्षा के लिए इलाहाबाद आते थे। लगता था कि हिन्दी के तमाम प्रख्यात लेखक इलाहाबाद में ही रहते हैं। निराला, सुमित्रा नन्दन पंत, महादेवी वर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, प्रकाश चन्द्र गुप्त, श्रीपत राय, अमृतराय, भैरव प्रसाद गुप्त, श्री कृष्णदास, नेमीचन्द्र जैन, डॉ. भगवतशरन उपाध्याय, गंगा प्रसाद पांडेय, नरेश मेहता, पहाड़ी, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, लक्ष्मी कान्त वर्मा, लक्ष्मी नारायण लाल तथा अनेक अन्य उभरते युवा लेखक। तब भुवनेश्वर भी विक्षिप्तावस्था में यहीं रहते थे।.......``16
      हृदय रोग के कारण अमरकांत को इलाहाबाद छोड़ना पड़ा। वे लखनऊ चले आये। यहाँ पर आकर के वे गहरे मानसिक द्ंवद्व से लड़ते रहे। वे अपने जीवन से निराश हो गये थे। वहाँ से फिर वे अपने घर आ गये और बेकार बैठे रहे। 'दोपहर का भोजन` कहानी लिखकर अमरकांत ने अपनी शक्ति को संचित किया।
      इन दिनों की याद में अमरकांत ने 'प्रेमकुमार` जी को दिये एक साक्षात्कार में कहा, ''...... 1954 में मैं बीमार पड़ गया। बी.पी. की शिकायत हुई, फिर हार्ट ट्रबल। शाम की ड्याूटी में अचानक पेन! सॉस लेने में तकलीफ! मित्र ने घर पहुँचाया। उस समय इन बीमारियों के बारे में इतनी जागरूकता नहीं थी। चेक अप नहीं थे, हकीम थे। नौकरी डिसकंटीन्यू हुई। चीजें कुछ इस तरह बिगड़ती गयी कि ट्रीटमेंट भी गड़बड़ाता रहा। लखनऊ चला गया। मेडिकल कॉलेज में वहाँ जब ठीक से डायग्नोस हुआ, तब ठीक हुआ। अर्ली एज मेंं हुआ यह सब कोई खास एज नहीं थी - उनतीस वर्ष की उम्र रही होगी। नौकरी छूट ही गयी थी तो फिर बलिया में रहा।``17
      इस तरह अमरकांत फिर अपने आपको लेखन कार्य की तरफ मोड़ पाये। आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए भी उन्होंने लेखन का ही सहारा लिया। अब तक अमरकांत साहित्य जगत में अच्छी तरह पहचाने जाने लगे थे। स्वास्थ के कारणों से अब दौड़-भाग उनसे संभव नहीं थी। पर वे अपने लेखन के माध्यम से साहित्य जगत से जुड़े रहे।
3. साहित्यिक प्रेरणा स्रोत
      यह बताया जा चुका है कि अमरकांत को बचपन में शरच्चन्द्र की रचनाओं ने बेहद प्रभावित किया। अपने पिताजी से उन्होंने बहुत सी बातें सीखी थी। पर घर पे कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। घर पर आनेवाले 'चलता पुस्तकालय` की किताबोें को ही पढ़कर अमरकांत के मन में साहित्य के बीज अंकुरित हुए। अमरकांत ने अपने लिखने की प्रेरणा के बारे में स्वयं लिखते हैं कि, ''एक शाम की याद उसे आती है। मौसम में कुछ हल्की फुल्की सिहरन थी। उसने शरच्चन्द्र की कोई सशक्त कहानी पढ़ कर अभी-अभी समाप्त की थी। अंधेरा घिरने लगा था। पुस्तक समाप्त करते ही उसने अपने अंदर एक अद्भुत परिवर्तन का अनुभव किया, जैसे बिजली दौड़ गई हो। वह बरामदे से बाहर निकल आया। मकान और सामने की सड़क के बीच मजे की खुली जगह थी। वह वहाँ टहलने लगा। सहसा उसके अंदर से कोई आवाज उठी; ''मैं लिख सकता हूँ..... ठीक वैसा ही, उसी तरह....।`` यह सोचकर उसे रोमांच हो आया। एक असम्भव कल्पना थी। सब कुछ अविश्वसनीय। सामने धुँआए से आसमान में निर्मल चाँद निकल आया था। सिर के ऊपर पीपल के पत्ते हल्की हवा में चंचल हो रहे थे। जिसका वर्णन नहीं हो सकता, वैसे ही कोमलता, करूणा एवं खुशी उसके अंदर लबालब भरी हुई थी। उसकी आँखों में आँसू उमड़ने लगे....।``18
      स्कूल में सहपाठी चन्द्रिका व अध्यापक बाबू गणेश प्रसाद के व्यक्तित्व ने भी अमरकांत को प्रभावित किया। बाबू गणेश प्रसाद की प्रेरणा से अमरकांत ने अन्य मित्रों की मदद से 'हस्तलिखित पत्रिका` निकाली। उन दिनों पूरा देश आजादी के लिए तड़प रहा था। छोटे-छोटे बच्चे भी नेहरू व महात्मा गांधी के नाम से परिचित थे। अमरकांत भी इन नामों से परिचित हो चुके थे। क्रांतिकारियों के बारे में भी उन्होंने सुन रखा था। देश-प्रेम से भरे हुए बहुत से गीत उन्हें कंठस्थ थे। स्थानीय क्रांतिकारियों से मेल-जोल बढ़ने पर उन्हें क्रांति से संबंधित बहुत सी पुस्तकें पढ़ने को मिली। अपने मित्रों के साथ मिलकर अमरकांत ने कुछ हास्यास्पद क्रांतिकारी कार्य भी किया।
      धीरे-धीरे अमरकांत 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी` की क्लासेस में आने-जाने लगे। यहीं पर अमरकांत ने आचार्य नरेन्द्र देव व राहुल जी के साहित्य से परिचित हुए। महात्मा गांधी व पंडित जवाहर लाल नेहरू की आत्मकथाओं को पढ़ा। हाईस्कूल पास करने तक अमरकांत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मेम्बर बन गए थे। खद्दर पहनने लगे थे। साथ ही साथ यह समझ गये थे कि सबसे जरूरी है भारत माता की आजादी। और यह आजादी आतंकवाद के रास्ते पर चलने से नहीं मिलेगी अपितु जनता के बीच जाकर उन्हें जागृत करना पड़ेगा। अमरकांत एक लंबे समय तक यह नहीं तँय कर पाये कि उन्हें जीवन में करना क्या है? वे इसी मानसिक द्ंवद्व से जूझते रहे।  
      बी.ए. करने के बाद जब वे आगरा आये तो यहाँ के 'प्रगतिशील लेखक संघ` से जुड़े। यहीं पर अमरकांत को एक साहित्यिक पहचान मिली। डॉ. राम विलास शर्मा, राजेन्द्र यादव, राजेन्द्र रघुवंशी, घनश्याम अस्थाना, पद्मसिंह शर्मा कमलेश, रावी व रांगेय राघव जैसे साहित्यकारों से उनकी पहचान हुई। इनमें डॉ. रामविलास शर्मा के व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया। स्वयं अमरकांत ने लिखा है कि, ''....अगर मैं प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में नहीं गया होता और डॉ. रामविलास शर्मा की प्रेरणा मुझे नहीं मिली होती तो मैंं कब तक भटकता रहता।``19
      आगरा में तीन वर्ष बिताने के बाद अमरकांत इलाहाबाद आ गये। यहाँ के भी 'प्रगतिशील लेखक संघ` से वे जुड़े। यहाँ के साहित्यिक वातावरण में भैरव प्रसाद गुप्त व शमशेर बहादुर सिंह उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया। मार्कण्डेय व शेखर जोशी अमरकांत के प्रिय मित्रों में थे। इलाहाबाद में शुरू-शुरू में अमरकांत सभी के लिए अपरिचित ही थे। श्री प्रकाश चन्द गुप्त एक मात्र व्यक्ति थे जो अमरकांत को पहले से जानते थे।
      इलाहाबाद में ही रहते हुए अमरकांत हृदय रोग के शिकार हो गये। इसके बाद लखनऊ, आजमगढ़ व बलिया रहे। जीवन के निराशा व अवसाद भरे क्षणों में भी अमरकांत ने 'लिखते रहने` का संकल्प नहीं छोड़ा। और उनका यह संकल्प अभी भी जारी है। ढलती उम्र व बिमारी उन्हें विचलित नहीं कर पायी।
4. प्रभावित करनेवाली विचार धाराएँ
      अमरकांत के बचपन का समय वह समय था जब सारा देश आज़ादी के लिए तड़प रहा था। क्रांतिकारियों के किस्से हर गली हर मुहल्ले में गीतों के रूप में गाये जाते थे। अध्ययन के लिए सामग्री चोरी-छुपे उपलब्ध होती थी। मन्मथनाथ गुप्त की पुस्तक 'भारत में सशस्त्र क्रांति की चेष्टा`, 'चाँद` का 'फाँसी अंक` और ऐसी कई पुस्तकों ने अमरकांत की जीवन दिशा बदली।
      श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी जो कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की क्लासेस चलाते थे। उनके विचारों ने अमरकांत को खूब प्रभावित किया। गांधी जी की सच्चाई अमरकांत को सबसे अधिक प्रभावित करती थी। अमरकांत समाजवादी विचारों से जुड़े थे अत: उन्हें यह बात बहुत खुशी देती थी कि नेहरू जी भी समाजवादी हैं। जयप्रकाश नारायण से भी अमरकांत प्रभावित थे। डॉ. लोहिया के विचारों को भी वे पसंद करते थे। मार्क्सवाद, समाजवाद, गांधीवाद और ऐसे ही कई अन्य विचारों को साथ लेकर अमरकांत आगे बढ़ रहे थे। कारण यह था कि उन दिनों जो सबसे बड़ा प्रश्न था वह देश की स्वतंत्रता का था। और सभी तरह के विचार इस महान उद्देश्य से जुड़ ही जाते थे।
      अमरकांत को शरतचन्द्र के लेखन ने भी प्रभावित किया। इसके कारण को स्पष्ट करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''एक मध्यमवर्गीय परिवार में जिस लाड़-प्यार से वह पला था, जैसे बँधे, पिछड़े और ग्रामीण समाज में वह रहता था, जैसी कच्ची उम्र और उसका देश जिस कष्ट, पीड़ा, अन्याय और गुलामी के दौर से गुजर रहा था और जैसा वह स्वयं अव्यावहारिक एवं कल्पनाशील था - ऐसी स्थितियों में 'रोमान्टिसिज्म` एक अनिवार्य परिणाम था। .......... शरतचन्द्र का रोमांटिसिज्म व्यक्तिवाद, कोरी काल्पनिकता, कलाबाजी और छद्म आधुनिकता पर आधारित नहीं है। उनकी रचनाएँ अपने समय के प्रगतिशील यथार्थ की गहरी समझ के बल पर खड़ी होती है और परिवर्तन की कामना को तीव्रता से व्यक्त करती है।``20
      अमरकांत अपने ऊपर प्रेमचन्द और अन्य साहित्यकारों का भी प्रभाव स्वीकार करते हैं। उन दिनों अमरकांत के पास सभी साहित्य उपलब्ध नहीं होता था। जो पढ़ने को मिलता उन्हीं का प्रभाव भी पड़ना स्वाभाविक था। उन दिनों शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य उनके लिए उपलब्ध था। घर पर आने वाले 'चलता पुस्तकालय` के माध्यम से ही अधिकांश साहित्य उन्हें पढ़ने को मिला था। इन दोनों की ही कहानियों में रोमांटिक तत्व था जिसने अमरकांत को प्रभावित किया।
      आगे चलकर जब अमरकांत का परिचय प्रेमचंद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाचंद जोशी और विश्वसाहित्य से हुआ तो उनके अंदर एक दूसरे तरह की समझ विकसित हुई। रोमांस और आदर्श का प्रभाव उनके ऊपर से कम होने लगा। वैसे इस रोमांस और आदर्श से दूर होने का एक कारण अमरकांत विभाजन के दम पर मिली आज़ादी और उसके बाद हुए भीषण कत्ले आम को भी मानते हैं। अभी तक सभी का उद्देश्य एक ही था और वह था देश की आज़ादी। लेकिन पद, पैसा और प्रतिष्ठा के लालच में लोग अब विभाजन की बात करने लगे थे। इससे आदर्शो के प्रति जो एक भावात्मक जुड़ाव था उसे गहरा धक्का लगा।
      जयप्रकाश नारायण के कांग्रेस पार्टी से अलग होने की बात सुनकर भी अमरकांत को आघात पहुँचा। गोर्की, मोपासा, टॉलस्टॉय, चेखव, डास्टायवस्की, रोमा रोला, तुर्गनेव, हार्डी, डिकेन्स जैसे लेखकों के साहित्य नें अमरकांत को प्रभावित किया। बी.ए. करने के बाद अमरकांत नौकरी करने आगरा चले आये। यहाँ वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और कई साहित्यकारों से परिचित भी हुए।
      आगरा के बाद अमरकांत इलाहाबाद चले आये। यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। इलाहाबाद आने और यहाँ के प्रगतिशील लेखक संघ से जुडने से अमरकांत के साहित्यिक संस्कार अधिक पुष्ट हुए। लेखकीय आत्मविश्वास में भी वृद्धि हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के लेखकों के साथ विार विनिमय का भी उनकी रचनाशीलता पर प्रभाव पड़ा। उनकी ग्रहणशीलता का यह वैशिष्ट्या था कि लेखकों के रचनात्मक गुणों को वे आदरपूर्वक स्वीकार करते थे। यह भी लक्षणीय है कि जहाँ उन्होंने अपने समान धर्माओं से प्रभाव ग्रहण किया वहीं उन्हें प्रभावित भी किया। मोहन राकेश, रांगेय राघव, राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, कमलेश्वर, केदार, राजनाथ पाण्डेय, मधुरेश, मन्नू भंडारी, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, ज्ञान प्रकाश, सुरेन्द्र वर्मा, विजय चौहान और विश्वनाथ भटेले जैसे कई साहित्यकारों ने अगर अपना प्रभाव अमरकांत पर डाला तो वे भी अमरकांत के साहित्यिक प्रभाव से बच नहीं पाये। समय-समय पर इन सभी ने अमरकांत के साहित्य पर अपनी समीक्षात्मक दृष्टि प्रस्तुत की है।
      सन् 1954 में बीमार पड़ने के बाद अमरकांत को कठोर प्रतिबंधों के दौर से गुजरना पड़ा। अब उनका घूमना फिरना कम हो गया किंतु आर्थिक दबाव और परिवार की जिम्मेदारियों से जूझते हुए भी उन्होंने लिखने का क्रम नहीं छोड़ा। उम्र के इस पड़ाव पर भी उनका लेखन कार्य सतत जारी है। नए लोगों को वे पढ़ रहे हैं। खुद अमरकांत के शब्दों में, ''.....पत्र-पत्रिकाओं के विषय में मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि यदि उन्हें संगठित ढंग से निकाला जाएगा तो लोग पढ़ेंगे। उन्हें पाठकों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी निकालने वालों की है। इधर बीमारी के कारण मैं बहुत नए लेखकों और लेखिकाओं को पढ़ नहीं पाया हूँ, फिर भी, उदय प्रकाश, अखिलेश, मैत्रेयी, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल ने अच्छी कहानियाँ और उपन्यास लिखे हैं।``21
      अमरकांत अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक एवम् साहित्यिक परिवेश से हमेशा जुड़े रहे और इन सबका मिला जुला प्रभाव उनके व्यक्तित्व एवम् साहित्य पर पड़ा।
5. कथा लेखन
      अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य को निम्नलिखित रूपों में बाटा जा सकता है।
      1. अमरकांत के कहानी संग्रह
            1. जिंदगी और जोक
            2. देश के लोग
            3. मौत का नगर
            4. मित्र मिलन
            5. कुहासा
            6. तूफान
            7. कला प्रेमी
            8. प्रतिनिधि कहानियाँ
      इधर अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ दो भागों में प्रकाशित हो चुकी हैं। 'जाँच और बच्चे` कहानी संग्रह में उनकी नवीनत रचनाये हैं।
      1. अमरकांत की सम्पूर्ण कहानियाँ
            खण्ड एक - अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2002)
      2. अमरकांत की सम्पूर्ण कहानियाँ
            खण्ड दो - अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2002)
      3. जाँच और बच्चे
                        - अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
      इस तरह अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ उपर्युक्त तीन संग्रहों के माध्यम से उपलब्ध हैं। खण्ड एक और दो की कहानियों को उनके रचना कालक्रम के 5 दशकों में विभाजित किया गया है। '1950 का दशक` से लेकर '1990 का दशक` तक। इस तरह इन दोनों खण्डों में अमरकांत की कुल 82 कहानियाँ संग्रहित हैं। नवीनतम कहानी संग्रह 'जाँच और बच्चे` में 11 कहानियाँ संग्रहित हैं। इस तरह अमरकांत की कुल 93 कहानियाँ इन तीनों कहानी संग्रहों के माध्यम से उपलब्ध हैं। अब तक अमरकांत द्वारा लिखित इतनी ही कहानियों का प्रकाशन हुआ है।
      2. अमरकांत के उपन्यास
      अमरकांत के प्रकाशित अब तक के कुल उपन्यास निम्नलिखित हैं।
      1. सूखा पत्ता - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 1984)
      2. आकाश पक्षी - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
      3. काले उजले दिन - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
      4. कँटीली राह के फूल - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 1963)
      5. ग्राम सेविका - लोकभारती (प्रथम संस्करण 1973)
      6. सुखजीवी - संभावना प्रकाशन, हापुड़ (प्रथम संस्करण 1982)
      7. बीच की दीवार - अभिव्यक्ति प्रकाशन (1969 में
                  'दिवार` और 'आंगन` नाम से प्रकाशित)
      8. सुन्नर पांडे की पतोह - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
      9. लहरें   - अक्टूबर 2005, कादम्बिनी उपहार अंक
      10. इन्ही हथियारों से।  - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
      इनके अतिरिक्त भी अमरकांत द्वारा समय-समय पर कुछ अन्य साहित्य भी लिखा जाता रहा। इन सभी को हम 'प्रकीर्ण साहित्य` के अंतर्गत विचार करेंगे। ये रचनाएँ निम्नलिखिति हैं।
      3. अमरकांत का प्रकीर्ण साहित्य
            1. कुछ यादें कुछ बातें - संस्मरण
                                  राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
            2. नेउर भाई - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
            3. बानर सेना - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
            4. खूँटा में दाल है - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
            5. सुग्गी चाची का गाँव - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
            6. झगरूलाल का फैसला - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
            7. एक स्त्री का सफर - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
      इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत ने लगातार अपना लेखन कार्य जारी रखा। सारी कहानियाँ दो खण्डों में आ जाने से उनका अध्ययन सुविधा जनक हो गया है। अमरकांत के अधिकांश उपन्यास 'राजकमल प्रकाशन` द्वारा प्रकाशित किये गये हैं। इसमें से कुछ उपन्यास अब 'आउट ऑफ प्रिंट` भी हैं। जैसे कि 'ग्राम सेविका` व 'कँटीली राह के फूल`। ये प्राय: दुर्लभ हैं। इनकी संभावना कुछ प्रतिष्ठित ग्रंथालयों में ही की जा सकती है।
      बाल साहित्य भी अमरकांत ने पर्याप्त लिखा है। ये पुस्तकें इलाहाबाद के ही प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की गयी हैं। जैसे कि 'कृतिकार`। अमरकांत द्वारा लिखित अधिकतर बाल साहित्य 'कृतिकार` द्वारा ही प्रकाशित हैं। लेकिन इन पुस्तकों का कोई नियमित संस्करण नहीं निकला, अत: इन सभी को 'आउट ऑफ प्रिंट` की श्रेणी में रखा जा सकता है।
      'अमर कृतित्व` प्रकाशन के पास इन पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ सुरक्षित रखी गयी हैं। शोध कार्य की दृष्टि से इन पुस्तकों का भी अपना महत्व है।
      अमरकांत का संपूर्ण कथा साहित्य बड़ा ही व्यापक है। आर्थिक तंगी और बीमारी के बाद भी अमरकांत की कलम सतत चलती रही। यह उनके परिश्रम का ही फल है कि उन्होंने अपने कथा संसार को इतना बृहत् रूप दिया।
साहित्यिक दृष्टि
      प्रारंभ में अमरकांत का जुड़ाव रोमांटिक कहानियों से हुआ। वह समय भी 'रोमांटिक बोध` का था। इन दिनों अमरकांत शरतचन्द्र से बहुत प्रभावित रहे। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अमरकांत बलिया जैसे छोटे कस्बे में रहते थे। घर में 'चलता पुस्तकालय` के माध्यम से जो पुस्तकें उन्हें उपलब्ध होती वही वे पढ़ते थे। विद्यालय की किताबों में प्रेमचंद की कुछ एक कहानियाँ उन्होंने पढ़ी थी। पर विश्व साहित्य से उनका कोई संपर्क नहीं हो पया था।
      जैसे-जैसे आगे चलकर उनका परिचय विश्व साहित्य से हुआ, वैसे-वैसे उनकी साहित्यिक दृष्टि भी बदलने लगी। वैसे रोमांस और आदर्श से युक्त होने के कुछ और कारणों पर प्रकाश डालते हुए वे स्वयं कहते हैं कि, ''रोमांस और आदर्श से मुक्त होने का एक प्रमुख कारण आज़ादी के समय विभाजन और फलस्वरूप हुआ नरसंहार भी था। आप समझ ही रहे होंगे कि हमें आज़ादी नरसंहार के बीच मिली। इसका भी एक बड़ा 'सेट बैक` लगा। जो लोग देश और भारतमाता के लिए बड़े-बड़े आदर्श बोलते थे वे ही लोग सत्ता और पद के लिए विभाजन की बात करने लगे, जिसका परिणाम नरसंहार हुआ, उससे आदर्श के प्रति जो एक गहरी भावात्मकता थी वह टूटी और यह समझ में आया कि आदर्श कोई हलुआ नहीं है, जिसे खा लिया जाय। आदर्श यथार्थ के बीच से आना चाहिए न कि कोरी कल्पना या भावात्मकता से।``22 यहाँ पर अमरकांत प्रेमचंद के 'यथार्थोन्मुख आदर्शवाद` के करीब दिखायी देते हैं।
      प्रेमचंद के साहित्य को पढ़कर अमरकांत समाज के एक नए स्वरूप से परिचित हुए। समाज में व्याप्त अंधविश्वास, शोषण, कुरीतियाँ आदि को देखने की उनकी एक नई दृष्टि विकसित हुई। अमरकांत के विचारों का सार यही है कि व्यक्ति विशेष यथार्थ जीवन में जो संघर्ष करता है, उसके लिए उसके अंदर कुछ आदर्शों का होना जरूरी है। यथार्थ से संघर्ष करते हुए ही व्यक्ति आदर्शों का निर्माण कर सकता है। इसके बिना आदर्श के अस्तित्व की व्यावहारिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। और जो चीज व्यावहारिक न हो उसका जीवन से क्या प्रयोजन हो सकता है?
      साहित्यिक रचनाओं की सफलता अमरकांत के अनुसार रचना विशेष में निहित संवेदनात्मक ज्ञान पर आधारित होती हैं। इस संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं कि, ''जो रचनाएँ द्ंवद्वशून्य होती हैं, जिनमें संवेदनात्मक ज्ञान का अभाव होता है, जो फैशन का अन्धानुकरण करके शिल्प की कृत्रिम बुनावट करती हैं, जो वस्तुनिष्ठ नहीं होती और जिनमें मात्र आत्मगत सत्यों का प्रक्षेपण होता है - ऐसी समस्त रचनाएँ कई कारणों से अपने समय में प्रसिद्ध होने के बावजूद कालान्तर में प्रभावहीन एवम् निरर्थक हो जाती हैं।``23
      साहित्य सृजन के पीछे अमरकांत जो आधारभूत तत्त्व मानते हैं, वे हैं - गहरी संवेदना, सामाजिक यथार्थ की समझदारी और ऐतिहासिक एवं प्रगतिशील जीवन दृष्टि। स्वयं अमरकांत कहते हैं कि, ''.....लेकिन वास्तव में जिसे साहित्य कहते हैं, उसका सृजन किसी राजनैतिक फार्मूले, विधि निषेधों अथवा कर्मकाण्डों के आधार पर नहीं होता, बल्कि उसके पीछे गहरी संवेदना, सामाजिक यथार्थ की समझदारी और ऐतिहासिक एवं प्रगतिशील जीवन दृष्टि होती है। साहित्यिक कृतियों पर सेन्सर लगाने का मैं समर्थक नहीं हूँ, क्योंकि उससे देश का सांस्कृतिक विकास कुंठित एवं अवरूद्ध हो सकता है।``24
      अमरकांत साहित्य को 'स्वतंत्र व्यक्ति की स्वतंत्र व्यक्ति से बातचीत` वाली विचारधारा का समर्थन नहीं करते। उनके अनुसार, ''प्रश्न यह है कि जब समाज में गरीबी, शोषण, गुलामी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, झूठ आदि हावी हों, वैसी स्थिति में स्वतंत्र व्यक्ति कौन होगा? आखिर साहित्य में इस प्रकार का नारा क्यों दिया जाता है?``25 अमरकांत मानते हैं कि साहित्य का उद्देश्य व्यापक होता है। समाज की यथार्थ और वास्तविक स्थितियों से विमुख होकर साहित्य कभी भी अपने व्यापक उद्देश्य में सफल नहीं हो पायेगा। जो साहित्यकार या बुद्धिजिवी इस बात को नहीं मानते उन्हें 'स्वतंत्र व्यक्ति` की नई परिभाषा को बताना पड़ेगा। साथ ही साथ इस तरह की स्वतंत्रता का सामाजिक यथार्थ बोध से संबंध स्थापित करते हुए यह भी सिद्ध करना पड़ेगा कि वह किस तरह साहित्य के व्यापक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो सकेगा।
      अमरकांत मानते हैं कि सत्य की खोज का कार्य अपने आप में बड़ा ही कष्टकारी होता है। एक साहित्यकार अपने समाज के साथ होता है। समय विशेष की सामाजिक व्यवस्था को वह पैनी नजरों से परखता है। विचारों की कसौटी पर उसे कसता है। अगर उसे कुछ गलत लगता है तो वह उस गलत व्यवस्था से टकराने का भी माद्दा रखता है। शासन व्यवस्था अत्याचारी लोगों के हाँथ में होने से न्याय संगत निर्णयों की संभावना नहीं रह जाती। अमरकांत कहते हैं कि, ''इन सभी खतरों के बीच उसे साहित्य की मशाल जलाये रखनी होती है। रचना रचनाकार से माँग करती है जीवन, समाज और जनता के निकट रहने की, उनसे कदम-कदम पर सीखने की, रचना के साथ घोर परिश्रम करने की, पठन-पाठन की।``26
      कहानियों में सामाजिक यथार्थ और वैयक्तिक यथार्थ की सीमा पर अमरकांत कहते हैं कि, ''वैयक्तिक अनुभव या भोगे हुए यथार्थ के नाम पर साहित्य में बहुत-सी विसंगतियाँ आई हैं। इसके आधार पर नितान्त निजी यथार्थ का भी चित्रण लोगों ने किया है। वैयक्तिक यथार्थ में कभी-कभी निजी कुंठा, निजी संत्रास, घोर व्यक्तिवादिता के दर्शन होते हैं। वैयक्तिक यथार्थ के नाम पर, जो एक नारे की तरह है, बहुत-सी रचनाओं का खण्डन किया जाता है। रचना यथार्थ की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है, वह रचना हमारे अनुभव क्षेत्र के अंतर्गत भी आ सकती है और उससे बाहर भी जा सकती है। वस्तुपरकता ही श्रेष्ठ रचना की जान है। यदि सच्चाई एकदम निजी भी हो तो भी उसे रचनात्मक विशिष्टता उसी समय मिलती है जब वह पूरे समाज की सच्चाई या युग की सच्चाई के रूप में उभरकर आती है।``27
      कला और वस्तु के संतुलन के संदर्भ में अमरकांत का मत है, ''संतुलन कोई गणित थोड़े ही है। एक रचनाकार के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। अगर कहीं कला ही कला है, वस्तु नहीं है तो समझिये जीवन ही नहीं है। कहीं अगर जीवन ही जीवन है, कला नहीं है तो वह पत्रकारिता हो जायेगी। लेखक अपने तरीके से दोनों का इस्तमाल करता है। लेखक का काम है जीवन को देखना और उससे बिम्ब प्राप्त करना। उसमें कला और वस्तु दोनों होता है। .....तराजू पर कला और वस्तु को संतुलित नहीं किया जा सकता। पर दोनों आवश्यक हैं। किसका कितना अनुपात है यह रचना के स्वरूप पर भी निर्भर करता है। साथ ही साथ यह 'एवर डेवलपिंग` चीज है। यह कोई स्थिर चीज नहीं है। यह बात लेखक की मेहनत व उसकी क्षमता पर भी आधारित है...........।``28
      अमरकांत अपने आप को कम्युनिस्ट नहीं मानते। वे विचारधाराओं से प्रभावित होने की बात तो स्वीकार करते हैं पर किसी 'वाद विशेष` की चार दिवारी में अपने आप को कैद करना पसंद नहीं करते। साहित्यकारों की अवसरवादिता से वे काफी दुखी होते हैं। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के समर्थक हैं अमरकांत। अपने ऊपर वे राजनीति का भी प्रभाव स्वीकार करते हैं। वे स्वयं राजनीति की राह पर चलकर फिर लेखक बने थे। अमरकांत मानते हैं कि विचारधाराओं से प्रभावित होना गलत नहीं है। पर यथार्थ की भावभूमि पर अगर वे विचारधाराएँ अपनी उपयोगिता साबित न कर पायें, समाज में प्रगति का कारण न बन सकें तो फिर उनसे चिपके रहना ठीक नहीं है।
      अमरकांत एक लेखक से पूरी ईमानदारी के साथ सृजन की आशा करते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अन्यायी शासन के आगे बिना घुटने टेके उसका सामना करने के अमरकांत हिमायती हैं। अवसरवादी होकर लेखनी से समझौता करने वालों के प्रति उनके मन में दुख है। किसी 'वाद` की चार दीवारी उन्हें स्वीकार नहीं है। हर वो विचारधारा जो समाज, जनता और देश के हित में है उसे स्वीकार करने में उन्हें परहेज नहीं है। अमरकांत का सहित्यिक दृष्टिकोण बड़ा ही व्यापक एवम् उदार है।
      उपर्युक्त विमर्श से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि अमरकांत में बाल्य काल से ही सृजनधर्मी ऊर्जा विद्यमान थी। अनुकूल साधनों और सुविधाओं के अभाव में भी साहित्य के प्रति जो अभिरूचि उनमें बीज रूप में वपित हुई थी वह कभी कुंठित नहीं हुई। अध्ययनकाल में साहित्य के विद्यार्थी न होने पर भी, साहित्यिक गतिविधियाँ उन्हें नित्य आकर्षित करती रहीं।
      सुयोग्य अध्यापक गणेश प्रसाद के साहचर्य में उनकी अंर्तनिहित साहित्यिक अभिरूचि दीप्त हो उठी। कविताओं के प्रति वाहन रूचि होने पर भी उन्हें यह अनुभव हो गया था कि काव्य रचना उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इसलिए कविताओं का सुंदर पाठ करने में सिद्ध होने पर भी उन्होंने अपने लेखकीय कर्म के लिए कथा की विधा का वरण किया। और यह सुखद आश्चर्य था कि उनकी पहली ही कहानी 'इंटरव्यु` प्रबद्ध विद्वानों और आत्मीय मित्रों द्वारा मुक्त कंठ से सराही गयी।
      'इंटरव्यु` से आरंभ होकर उनके कथा लेखन का क्रम आज तक अविराम गति से चलता रहा है।
      अनेक घटनाओं और इनकी आत्मस्वीकृतियों के साक्ष्य पर हम देख चुके हैं कि जीवन के अनेक उतार - चढाव, आर्थिक संकोच, पारिवारिक दायित्व और स्वास्थ्य का असहयोग बार-बार उनके सामने आया किंतु उनकी रचनाधर्मिता न तो कभी कुंठित हुई और न ही शिथिल। इससे स्पष्ट होता है कि साहित्य लेखन ही उनके जीवन का आत्यंतिक व्रत रहा है।
      साहित्य सृजन अमरकांत के लिए बैठे-ढाले अथवा मनोरंजन का उपक्रम कभी नहीं रहा। वे रचना कर्म को सामाजिक दायित्व और संसक्ति से जोडकर देखते हैं। इसलिए वैयक्तिक अनुभूति अथवा चेतना को रचना के धरातल पर सार्वभौमिक बनाकर ही देखना चाहते हैं। कोई भी विचारधारा यदि वह व्यापक कल्याण के अनुकूल नहीं है तो उनकी दृष्टि में वह रचनाकर्म में बाधक ही होगी। इसलिए वे मानते है कि लेखक की प्रतिबद्धता विचारधारा से नहीं आंतरिक ईमानदारी और मानवीय मूल्यों के साथ होनी चाहिए।
      उन्होंने बाल साहित्य का भी प्रभूत लेखन किया है। इसका प्रमुख उद्देश्य संस्कार संपन्न और दायित्वयीन पीढ़ी का निर्माण करना है।
      सारांशत: अमरकांत का संपूर्ण व्यक्तित्व जीवन के कठोर तपा से तपकर कंचन से कुंदन बनता रहा है। उन्होंने अपनी मूल्यनिष्ठा समाज संपृक्ति दायित्व चेतना और मानवीय संवेदना के आधार पर लेखकीय धर्म का निर्वाह किया है और आज भी उसी के प्रति निष्ठावान हैं। अमरकांत का संपूर्ण साहित्य उनकी इसी समर्पित और संकल्पित मूल्य चेतना का प्रमाण है।

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान का साऊथ अफ्रिका में प्रतिनिधित्व


भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान का साऊथ अफ्रिका में प्रतिनिधित्व

09वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन जोहानसबर्ग, दक्षिण अफ्रिका में आगामी 22- 24 सितंबर को आयोजित किया जा रहा है । इस विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र, शिमला ( IIAS ) का प्रतिनिधित्व यंहा राजभाषा सचिव के रूप में कार्यरत श्री साक्षांत माधवराव मस्के जी कर रहें हैं । आप वंहा पे  महात्मा गांधी की भाषा दृष्टि पे अपना शोध आलेख प्रस्तुत करेंगे ।
 श्री मस्के जी यंहा 1976 से कार्यरत हैं। आप मूल रूप से महाराष्ट्र के लातूर जिले से हैं । आप की शिक्षा औरंगाबाद के मिलिंद कालेज से हुई है । आप ने लाइब्ररी साइंस में स्नातक किया ।
http://www.youtube.com/watch?v=G26uxoA1fjs&feature=share(  इस लिंक पे मस्के जी का साक्षात्कार देखें । )

परिवार के  तंग आर्थिक कारणों से आप ने काम करते हुवे अपना अध्ययन कार्य जारी रखा । चंपा नामक बकरी पाल के भी आपने अपना अध्ययन जारी रखा ।  जैन महविद्यालय पुणे में आप ने अपना पहला इंटरव्यू दिया था । उसके बाद आप दिल्ली आए, वो समय आपातकाल का था ।  आप आए और आप का चयन शिमला के लिए कर लिया गया । जीवन में कई उतार चढ़ाव के साथ आप जीवन में सतत आगे बढ़ते रहे । iias में एसोशिएटशिप कार्यक्रम शुरू कराने में भी आपने पर्दे के पीछे से बड़ा सराहनीय कार्य किया । ओम प्रकाश वाल्मीकि, निर्मल वर्मा  और भीष्म साहनी जैसे साहित्यकारों का साथ आप को मिला ।
हिंदी दिवस पे आप अनेकों ऐसे कार्यक्रम चलाते हैं जो शृंखला बद्ध तरीके से साल भर चलते हैं । दलित साहित्य  पे आप की एक बड़ी महत्वपूर्ण पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है । पुस्तक का शीर्षक है - परंपरागत वर्ण व्यवस्था और दलित साहित्य । इनके अतिरिक्त कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं में आप का आलेख नियमित रूप से छपता रहता है ।

अपने कठोर परिश्रम के दम पे आज आप इस मक़ाम तक पहुंचे हैं ।



मैं हर शाम किसी के साथ हूँ .


मैं हर शाम किसी के साथ हूँ .

 "  बस इतनी सी बात पर बदनाम हूँ  

  मैं  हर  शाम  किसी  के  साथ   हूँ . "

Trafficking and india


Trafficking and india/ by  http://www.uri.edu/artsci/wms/hughes/india.htm


Factbook on Global Sexual Exploitation
India

Trafficking
As of February 1998, there were 200 Bangladeshi children and women awaiting repatriation in different Indian shelters. ("Boys, rescued in India while being smuggled to become jockeys in camel races," www.elsiglo.com, 19 February 1998)
India, along with Thailand and the Philippines, has 1.3 million children in its sex-trade centers. The children come from relatively poorer areas and are trafficked to relatively richer ones. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
In cross border trafficking, India is a sending, receiving and transit nation. Receiving children from Bangladesh and Nepal and sending women and children to Middle Eastern nations is a daily occurrence. (Executive Director of SANLAAP, Indrani Sinha, Paper on Globaliation and Human Rights"
India and Paksitan are the main destinations for children under 16 who are trafficked in south Asia. (Masako Iijima, "S. Asia urged to unite against child prostitution," Reuters, 19 June 1998)
More than 40% of 484 prostituted girls rescued during major raids of brothels in Bombay in 1996 were from Nepal. (Masako Iijima, "S. Asia urged to unite against child prostitution," Reuters, 19 June 1998)
In India, Karnataka, Andha Pradesh, Maharashtra, and Tamil Nadu are considered "high supply zones" for women in prostitution. Bijapur, Belgaum and Kolhapur are common districts from which women migrate to the big cities, as part of an organised trafficking network. (Central Welfare Board, Meena Menon, "The Unknown Faces")
Districts bordering Maharashtra and Karnataka, known as the "devadasi belt," have trafficking structures operating at various levels. The women here are in prostitution either because their husbands deserted them, or they are trafficked through coercion and deception Many are devadasi dedicated into prostitution for the goddess Yellamma. In one Karnataka brothel, all 15 girls are devadasi. (Meena Menon, "The Unknown Faces")
Hundreds, if not thousands, of Bangladeshi women and children are held in foreign prisons, jails, shelters and detention centers awaiting repatriation. Many have been held for years. In India, 26 women, 27 girls, 71 boys and 13 children of unknown gender are held in Lilua Shelter, Calcutta; Sheha Shelter, Calcutta; Anando Ashram, Calcutta; Alipur Children's Home, Delhi; Nirmal Chaya Children's Home, Delhi; Prayas Observation House for Boys; Delhi; Tihar Jail, Delhi; Udavam Kalanger, Bangalore; Umar Khadi, Bangaore; Kishalay, West Bengal; Kuehbihar, West Bengal and Baharampur, West Bengal. (Fawzia Karim Firoze and Salma Ali of the Bangladesh National Women Layer Association," Bangladesh Country Paper: Law and Legislation")
Women and children from India are sent to nations of the Middle East daily. Girls in prostitution and domestic service in India, Pakistan and the Middle East are tortured, held in virtual imprisonment, sexually abused, and raped. (Indrani Sinha, SANLAAP India, "Paper on Globalization and Human Rights")
In Bombay, children as young as 9 are bought for up to 60,000 rupees, or US$2,000, at auctions where Arabs bid against Indian men who believe sleeping with a virgin cures gonorrhea and syphilis. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
160,000 Nepalese women are held in India's brothels. (Executive Director of SANLAAP, Indrani Sinha, Paper on Globalization and Human Rights")
Approximately 50,000, or half of the women in prostitution in Bombay, are trafficked from Nepal. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
The brothels of India hold between 100,000 and 160,000 Nepalese women and girls, 35 percent were taken on the false pretext of marriage or a good job. (Radhika Coomaraswamy, UN Special Report on Violence Against Women, Gustavo Capdevila, IPS, 2 April 1997)
About 5,000-7,000 Nepalese girls are trafficked to India every day. 100,000-160,000 Nepalese girls are prostituted in brothels in India. About 45,000 Nepalese girls are in the brothels of Bombay and 40,000 in Calcutta. (Women’s groups in Nepal, ‘Trafficking in Women and Children: The Cases of Bangladesh, pp.8 & 9, UBINIG, 1995)
Calcutta is one of the important transit points for the traffickers for Bombay and to Pakistan. 99% women are trafficked out of Bangladesh through land routes along the border areas of Bangladesh and India, such as Jessore, Satkhira, and Rajshahi. (Trafficking in Women and Children: The Cases of Bangladesh, pp.18 & 19, UBINIG, 1995)
In shelters in India, there are 200 Bangladeshi women and children who have been trafficked awaiting repatriation. (http://www.webpage.com/hindu/daily/980220/03/03200004.htm, 19 February 1998)
Of the 5,000-7,000 Nepalese girls trafficked into India yearly, the average age over the past decade has fallen from 14-16 years old to 10-14 years old. (CATW - Asia Pacific, Trafficking in Women and Prostitution in the Asia Pacific)
In Bombay, one brothel has only Nepalese women, who men buy because of their golden skin and docile personalities. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
2.5% of prostitutes in India are Nepalese, and 2.7% are Bangladeshi. ("Devadasi System Continues to Legitimise Prostitution: The Devadasi Tradition and Prostitution," TOI, 4 December 1997)
Some Indian men believe that it is good luck to have sex with scalp-eczema afflicted prostitutes. Infants with the condition, called "pus babies," are sold by their parents to brothels for a premium. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
70% of students surveyed at a wealthy high school seek a career in organized crime, citing their reasoning as "good money and good fun." (surveyed student, [Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996]
Methods and Techniques of Traffickers
Every year between 5,000 and 7,000 Nepalese girls are trafficked into the red light districts in Indian cities. Many of the girls are barely 9 or 10 years old. 200,000 to over 250,000 Nepalese women and girls are already in Indian brothels. The girls are sold by poor parents, tricked into fraudulent marriages, or promised employment in towns only to find themselves in Hindustan's brothels. They're locked up for days, starved, beaten, and burned with cigarettes until they learn how to service up to 25 clients a day. Some girls go through 'training' before being initiated into prostitution, which can include constant exposure to pornographic films, tutorials in how to 'please' customers, repeated rapes. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
Trafficking in women and girls is easy along the 1,740 mile-long open border between India and Nepal. Trafficking in Nepalese women and girls is less risky than smuggling narcotics and electronic equipment into India. Traffickers ferry large groups of girls at a time without the hassle of paperwork or threats of police checks. The procurer-pimp-police network makes the process even smoother. Bought for as little as Rs (Nepalese) 1,000, girls have been known to fetch up to Rs 30,000 in later transactions. Police are paid by brothel owners to ignore the situation. Girls may not leave the brothels until they have repaid their debt, at which time they are sick, with HIV and/or tuberculosis, and often have children of their own. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
The areas used by traffickers to procure women and girls are the isolated districts of Sindhupalchow, Makwanpur, Dhading and Khavre, Nepal where the population is largely illiterate. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
Health and Well-being
Of the 218 Nepalese girls rescued in February 1996 from a Bombay police raid, 60-70% of them were HIV positive. (Tim McGirk "Nepal's Lost Daughters, 'India's soiled goods," Nepal/India News, 27 January 1997)
Cases
Activists discovered inter-state trafficking in teenaged girls from poor families in 24 Parganas North districts. More than 300 teenagers from Deganga, Harwa and Bashirhat may have been lured by false marriages to Bihar, Uttar Pradesh, and Punjab. 32 victims from six villages have been identified. After the girl was taken from her home village she would be sold for Rs 2,500 to Rs 10,000, depending on the number of middlemen involved. Those who escaped said the girls were watched all the time and not allowed to speak to anyone outside their room. Any attempt to resist resulted in brutal torture. All their "earnings" was taken away by the so-called husbands or mistresses. The "husbands" would occasionally write from fake addresses to their parents to avoid arousing any suspicion. Women organized a rally to protest the inaction of police, who they suspect knew about the trafficking. (Mumtaz Khatun, Kolsur Nari Vikas Kendra, Cente of Communication and Development, Madhyamgram, The Times of India News Service, 1 October 1997)
A twenty year old Bangladeshi woman escaped prostitution in Calcutta. A year before she had been sold for Rs. 10,000 to men who forced her into prostitution and tortured her. She later escaped to become a maid, then escaped from that to seek help from police. Along with others, her husband was arrested by police. She informed police that she knew a lot of Bangladeshi girls in Calcutta who were being prostituted. (Ittefak report, 8 March 1993, Trafficking in Women and Children: The Cases of Bangladesh, pp. 29 & 30, Ittefak, 5 March 1993, UBINIG, 1995)
13-year-old Mira of Nepal was offered a job as a domestic worker in Bombay, India. She arrived at a brothel on Bombay’s Falkland Road, where tens of thousands of young women are displayed in row after row of zoo-like animal cages. Her father had been duped into giving her to a trafficker. When she refused to have sex, she was dragged into a torture chamber in a dark alley used for ‘breaking in’ new girls. She was locked in a narrow, windowless room without food or water. On the fourth day, one of the madam’s thugs goonda wrestled her to the floor and banged her head against the concrete until she passed out. When she awoke, she was naked; a rattan cane smeared with pureed red chili peppers shoved into her vagina. Later she was raped by the goonda. Afterwards, she complied with their demands. The madam told Mira that she had been sold to the brothel for 50,000 rupees (about US$1,700), that she had to work until she paid off her debt. Mira was sold to a client who then became her pimp. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
In 1982, 13 year old Tulasa was abducted from a village near Kathmandu in Nepal and sold to a brothel in Bombay. She was dressed in European-style clothes and taken to luxury hotels to serve mostly Arab clients until a hotel manager called the police. Hospitalized, Tulasa was found to be suffering from three types of venereal disease and tuberculosis. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Policy and Law
The UN Convention of the Suppression of the Traffic in Persons and the Exploitation of the Prostitution of Others (1949), and the supplementary convention on the abolition of slavery, the slave trade and institutions and practices of slavery have been signed by most of the SAARC countries, including Bangladesh, India, Pakistan and Sri Lanka. (Trafficking in Women and Children: The Cases of Bangladesh, p.9, UBINIG, 1995)
In 1992, Bombay, India, police intercepted the traffic of 25 Bangladeshi children, 5 to 8 years old. The children and trafficker were held in the same jail. Three years later, 12 of the children were returned to their homes. (Fawzia Karim Firoze & Salma Ali of the Bangladesh National Women Layer Association," Bangladesh Country Paper: Law and Legislation")
Actions of NGOs
A major trafficking network was discovered by the Karnataka State Commission for Women (KSCW), smuggling 12-18-year-old girls from various impoverished districts to contractors who run brothels in Goa. The contractors pay the parents for their girl children under false pretenses. (Seethalakshmi S., "Karnataka girls being sold to Goa breothels," Time of India, 28 May 1998)
The exploitation of Nepalese women and girls may never end. "[F]or some there is too much easy money in it, for others there's nothing to be gained by lobbying for its abolition. But surely, for now, it can be monitored. Its magnitude can be lessened," says Durga Ghimire, chairperson of a 98-NGO-strong pressure group National Network Groups Against Trafficking. She feels that the alarmingly low rates of female literacy, coupled with the traditionally low status of the girl-child in Nepal have to be addressed to tackle the problem. Gauri Pradhan of Child Workers in Nepal Concerned Centre (CWIN) emphasizes the need for collaboration by the two governments on this issue. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
There are several shelters run by various Katmandu-based NGOs working against trafficking and towards rehabilitation of girls who manage to escape or are rescued from Indian brothels. This is not easy work. Relatives of the rescued girls generally don't want them back and Nepal's government is worried about the spread of HIV, as many of the trafficked girls have contracted HIV while enslaved in India. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
Official Response and Action
139 prostituted Nepalese girls were rescued through a police raid in Kamatipura, India and were then repatriated to Katmandu. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
Rehabilitation of trafficked women and children forced into prostitution in Indian brothels is hampered by lack of Indian government support and agenda for their rehabilitation. The sending country may not come forward to claim them and younger children may not know where they originally came from. (Soma Wadhwa, "For sale childhood," Outlook, 1998)
Prostitution
There are approximately 10 million prostitutes in India. (Human Rights Watch, Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
There are more than 100,000 women in prostitution in Bombay, Asia’s largest sex industry center. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
At least 2,000 women are in prostitution along the Baina beachfront in Goa. (Frederick Moronha, India Abroad News Service, 9 August 1997)
There are 300,000-500,000 children in prostitution in India. (Rahul Bedi, "Bid To Protect Children As Sex Tourism Spreads,"London’s Daily Telegraph,23 August, 1997)
Men who believe that AIDS and other STDs can be cured by having sex with a virgin, are forcing young girls into the sex industry; seven year old girls are neither uncommon nor the youngest. (Tim McGirk "Nepal's Lost Daughters, 'India's soiled goods,"Nepal/India News, 27 January 1997)
Approximately 20,000 or 20% of women in prostitution in Bombay are under 18. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Every day, about 200 girls and women in India enter prostitution, 80% of them against their will. (Centre for Development and Population Activities (CEDPA) and Planning Rural-Uraban Intergrated Development through Education (PRIDE), "Devadasi System Continues to Legitimise Prostitution: The Devadasi Tradition and Prostitution," TOI, 4 December 1997)
Karnataka, Andhra Pradesh, Maharashtra, Tamil, Nadu and Uttar Pradesh are the high-supply zones for women in prostitution. Belgaum, Bijapur, and Kolhapur are some common districts from which women migrate to cities either through an organized trafficking network, or due to socioeconomic forces (Central Social Welfare Board, Meena Menon, "Women in India’s Trafficking Belt", 30 March 1998)
Bangalore is one of the five major cities in India which together account for 80 percent of child prostitutes in the country. (Seethalakshmi S., "Karnataka girls being sold to Goa breothels," Time Of India, 28 May 1998)
90% of the 100,000 women in prostitution in Bombay are indentured slaves. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Prostitution is increasing in India where there have been fears over the spread of AIDS and reports of young girls being abducted and forced into prostitution. ("Asian prostitutes meet to demand legal status," Reuters, 29 July 1998)
It takes up to fifteen years for girls held in prostitution via debt-bondage to purchase their freedom. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Children of prostituted women are victims of sexual abuse as well. Children are forced to perform dances and songs for male buyers, and some are forced to sexually service the males. (Activists, Meena Menon, "Tourism and Prostitution," 1997)
Of 1,000 red light districts all over India, cage prostitutes are mostly minors, often from Nepal and Bangladesh. (CATW - Asia Pacific, Trafficking in Women and Prostitution in the Asia Pacific)
In Bombay, 95% of the children of prostituted women become prostitutes. One child, who had repeatedly been sodomized by the men who bought his mother, decided to become a eunuch. He was ritually castrated. (Sheela Remedios program director of Project Child, Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
There are three routes into prostitution for most women in India. 1) Deception; 2) Devadasi dedication and 3) Bad marriages or families. For some women their marriages were so violent they preferred prostitution. Husbands or families introduced some women to prostitution. Many families knew what the women had to do, but ignored it as long as they got the benefits from it. (Malini Karkal "Down Memory Lane," (interview, The Maharashtra Times, 19 November 1997)
The red light district in Bombay generates at least $400 million a year in revenue, with 100,000 prostitutes servicing men 365 days a year, averaging 6 customers a day, at $2 each. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
The largest red light district in India, perhaps in the world, is the Falkland Road Kamatipura area of Bombay. (film,"The Selling of Innocents" 1997)
In Kamathipura brothel district in Bombay more than 70,000 prostituted women and girls are bought by three men a day. Condoms are seldom used. Escape is rare. (Tim McGirk "Nepal's Lost Daughters, 'India's soiled goods,'" 27 January 1997)
There are many dhabhas, or small-scale brothels, along the Solapur-Hyderabad highway, which provide women as an "additional service" to truck drivers and motorists. One woman who runs a dhabha had previously been in prostitution. Now, with a shed, two cots and a few girls from nearby villages, she owns the brothel. "I rented this place for Rs 1000 a month and take Rs 20 per man from the girls. (Meena Menon "The Twilight Zone," The Hindu, 27 July 1997)
A brothel owner along the Solapur-Hyderabad highway reported that he has two women. He takes a Rs 15 commission for each man. Since this is illegal, he pays the nearest police station Rs 1,000 a month as hafta, or bribe. If a girl is beautiful, she will be bought by five to ten men a day. The owner’s monthly earnings can reach Rs 4,000 to 5,000 a month. (Meena Menon "The Twilight Zone," The Hindu, 27 July 1997)
A brothel owner along the Solapur-Hyderabad highway reported that prostituting women is good a business. He had ten to 12 girls. He paid the police Rs 6,000 as a monthly bribe. He goes to Bombay to bring women and girls, implying he was part of a bigger network. (Meena Menon, "The Twilight Zone,"The Hindu, 27 July 1997)
The women and girls in the dhabhas, or brothels, along the Solapur-Hyderabad highway, are threatened, harassed, forced to service men, or goondas, freely and beaten by men and police. Local farmers abuse them also. Police do not register any complaints of assault. In one cases, a woman who was running over unfamiliar fields to escape the police in pitch darkness; she stumbled into a well and was killed. Sometimes, bodies of women are found on the fields, half eaten by animals. Another woman had her ears cut off, was robbed and left unconscious on the road. (Meena Menon, "The Twilight Zone," The Hindu, 27 July 1997)
Eunuch Lane in Bombay has more than 2,000 eunuchs in prostitution. The eunuchs, or hijras, have deep religious roots in Hinduism. As young boys they are abandoned or sold by their families to a sex ring and taken into the jungle, where a priest cuts off their genitals in a ceremony called nirvana. The priest then folds back a strip of flesh to create an artificial vagina. Eunuchs are generally more available to perform high-risk sex than female prostitutes, and some Indian men believe they can’t contact HIV from them. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
A survey of prostituted women in India reveals their reasoning for staying in prostitution (in descending order of significance): poverty/ unemployment; lack of proper reintegration services, lack of options; stigma and adverse social attitudes; family expectations and pressure; resignation and acclimation to the lifestyle. (CATW - Asia Pacific, Trafficking in Women and Prostitution in the Asia Pacific)
Health and Well-being
Madams take sick women to one of the red light districts 200 unlicensed doctors, who give the women mood elevators, IV drips of colored water or medicinal herbs. The women must pay for this "treatment" with cash from moneylenders, and the Mafia collects a percentage from the "doctors." (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
60% of prostituted women in Bombay's red-light district areas are infected with STDs and AIDS. (CATW - Asia Pacific, Trafficking in Women and Prostitution in the Asia Pacific)
More than half of Bombay’s 100,000 prostitutes are infected with HIV. A magazine publisher in Bombay said AIDS will benefit the country because it will depopulate the vast underclass. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe,"The Nation, 8 April 1996)
In July 1990, mob bosses permitted Savahdan, a charity group, to repatriate 700 South Indian prostitutes to Madras, most of whom were HIV positive. It was perceived as a cheap way of getting rid of HIV infected girls. Many women, too sick to prostitute are thrown onto the street. Government hospitals won’t treat prostitutes who are HIV positive, or are developing symptoms of AIDS. In Bombay’s J.J. Hospital an HIV infected woman was refused treatment, though she was bleeding and her condition was life threatening. She delivered a baby in the brothel. [government report, Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996]
In Bombay, on average the girls are bought by six men a day, who pay US$1.10 - 2 per sex act, the madam gets the money up front. To pay for movies, clothes, make-up and extra food to supplement a diet of rice and dal, the girls have to borrow from moneylenders at an interest rate of up to 500%. They are perpetually in debt. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
In 1991, Bombay’s 100,000 prostituted women averaged 600,000 sexual contacts a day. At the time 30% were HIV positive, the chance of transmission was 0.1%. On that basis, 200 clients were being infected with HIV everyday, 6,000 each month. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Prostitution Tourism
Foreign tourists are frequenting India because of its relaxed laws, abundant child prostitutes and the false idea that there is a lower incidence of AIDS. (Rahul Bedi, "Bid To Protect Chedren As Sex Tourism Spreads," 1997)
India is one of the favored destinations of paedophile sex tourists from Europe and the United States. ("Global law to punish sex tourists sought by Britain and EU," The Indian Express, 21 November 1997
Multinational tour operators, hotel companies, airlines and travel agencies are setting up the tourism agenda for Goa, India and the world over. However, they ignore the host community. (Roland Martins, Jagrut Goenkaranchi Fauz, "While the Locals Visit the Temple to Pray, You Will Have Bikini-Clad Women Moving Around," Herald, 4 October 1997)
Cases
December 1997, a nine-year-old girl from Pune was found living with a 54- year- old Swiss national in a Goa hotel for over nine months. A local NGO filed a complaint with the police and the girl was sent to an observation home. When contacted, her father said she was there with his consent. The man was released following an investigation. Inspector General, Goa Police, Mr. P.R.S. Brar said "paedophilia is a myth, it just does not exist." Ms. Mohini Giri, chair of the National Commision for Women met with the girl and said she had admitted to being sexually abused. (Meena Menon, "Tourism and Prostitution," The Hindu, 14 February, 1998)
In 1990 an orphanage owner in Goa was arrested for allegedly supplying children to British, French, German, Swiss and Scandinavian prostitution tourists. He was freed on bail and the case has still not gone to court. (Rahul Bedi, "Bid To Protect Children As Sex Tourism Spreads,"London’s Daily Telegraph, 1997)
The main frequenters of prostitutes in Goa are tourists, local men and college boys. United States "seamen" ask locals in Goa which bars to find prostitutes in. Taxi drivers take tourists from Delhi, Gurjarat, Bangalore, Bombay and Punjab to brothels in Baina. Some men have taxi drivers bring prostituted girls from Baina back to their hotels in Panjim. The next morning, the taxi drivers rape the girls before taking them home. (taxi driver, Meena Menon, "Tourism and Prostitution,"The Hindu 1997)
Policy and Law
Although prostitution is legal in India, brothel keeping, living off the earnings of a prostitute, soliciting or seducing for the purposes of prostitution are all punishable offenses. There are severe penalties for child prostitution and trafficking of women. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Since mid-1997 the International Monetary Fund's structural adjustment policy for India has given rise to the economic and sexual exploitation of women in export processing zones, where 70-80% of workers are young women. (Sujatha Fernandes, "Growing Women’s Movement in India," Green Left Weekly, 20 July 1997)
The devadasi tradition, still prevalent in many parts of India, continues to legitimise child prostitution. A devadasi is a woman married to a god and thus sadasuhagan or married, and hence at all times blessed. As such, she becomes the wife of the powerful in the community. Devadasi is known by different names in different states. In the Vijapur district of Karnataka, girls are given to the Monkey God (Hanuman, Maruti), and known as Basvi. In Goa, a devadasi is called Bhavin (the one with devotion), In the Shimoga District of Karnataka, the girls are handed over to the goddess Renuka Devi, and in Hospet, to the goddess Hulganga Devi. The tradition lives on in other states in South India. Girls end up as prostitutes in Bombay and Pune. The Banchara and Bedia peoples of Madhya Pradesh also practice "traditional" prostitution. (Farida Lambey, vice-principal of the Nirmala Niketan College of Social Work, "Devadasi System Continues to Legitimise Prostitution: The Devadasi Tradition and Prostitution," TOI, 4 December 1997)
Official Response and Action
After raiding Kamathipura, Mumbai's largest red district, Mumbai police 160 women were sent to the St Catherines Rescue Home. Many women were HIV positive and a large number were pregnant or already had children. (Sister Shiela, Mitu Varma, "India: Children of a Lesser God," InterPress Services, 27 October 1997)
In Goa, India there are at least 400 children in prostitution. After Ms. Mohini Giri, chair of the National Commission for women, visited and declared there to be rampant child prostitution in the area, police have conducted some raids in order to find prostituted children. Although police conduct raids, brothels recieve tip-offs and hide the minors before raids are conducted. (Meena Menon, "Tourism and Prostitution," 1997)
Official Corruption and Collaboration
In Bombay, top politicians and police officials are in league with the mafia who control the sex industry, exchanging protection for cash payoffs and donations to campaign war chests. Corruption reaches all levels of the ruling Congress Party in New Delhi. Many politicians view prostitutes as an expendable commodity. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
The mafia kidnapped a Dutch doctor compiling an ethnographic study for the World Health Organization. He was released three days later and warned to stop probing the links among politicians, the mob and prostitution. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Underage girls are rarely found in brothels because the pimps and owners receive tip offs from police about impending raids. (Meena Menon, "Tourism and Prostitution," The Hindu, 14 February,1998)
In one brothel in Bombay, the police receive weekly bribes called haftas from the madams. Cops harass the girls, take their money, and demand free sexual services. (Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
South Central Bombay is home to the biggest organized crime family in Asia, run by Dawood Ibrahim. In 1992, 40 candidates in Bombay’s municipal elections, and 180 of 425 legislators in Uttar Pradesh had criminal records. Shantabai, Bombay’s most powerful madam controlled as many as 10,000 pimps and prostitutes’ votes in a 1985 election. Bombay’s sex industry has evolved into a highly efficient business. It is controlled by four separate crime groups: One in charge of police payoffs, another controlling money laundering, a third maintaining internal law and order, and the fourth procures women through a vast network streching from South India to the Himalayas. Of the four mafia groups in Bombay, the most powerful is Mehboob Thasildar, the procurer of women. Thasildar opened a restaurant on the ground floor of a two-story, blocklong brothel he also owned, one of the biggest in Bombay, with more than 50 prostituted women. (Indian government sources, Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Action of NGOs
As of mid-1998, Sanlaap shelter in Sneha, India has 25 to 30 rescued prostituted children. 60% of the children rescued from prostitution are HIV positive. (Indrani Sinha, SANLAAP India, "Paper on Globalization & Human Rights")
NGO workers, who urge prostitutes to use condoms, have to get the Mafia's consent, and promise to ignore the child prostitution. (Shilpa, a 30-year-old social worker who has spent five years in the red-light district, Robert I. Freidman, "India’s Shame: Sexual Slavery and Political Corruption Are Leading to An AIDS Catastrophe," The Nation, 8 April 1996)
Pornography
Most of phone sex numbers called from India are phone sex businesses run in the United States, Hong Kong and Australia. ("India cuts access to phone sex numbers," Reuters, 20 August 1998)
Official Response and Action
India has blocked access to international numbers used for phone sex. "These services are obscene...they are against the moral fibre of the country and a drain on foreign exchange," said Communications Minister Sushma Swaraj. She said the government had directed state-run monopoly international carrier, Videsh Sanchar Nigam Ltd (VSNL) to cut off the calls. The minister said many Indian government phones were being misused to make calls to sex lines. Swaraj said that she hoped there would soon be technology to stop people accessing Internet pornography. ("India cuts access to phone sex numbers," Reuters, 20 August 1998)
Organized and Institutionalized Sexual Exploitation and Violence
50 million girls and women are missing from India's population, the result of systematic sex discrimination, such as abortion of female fetuses, which is officially banned. (United Nations report, Sonali Verma, "Indian women still awaiting independence," Human Rights Information Network: Indi News Network Digest, Volume2, Issue1648, 16 August 1997)
In 1990, more than 50 widows were burnt alive when their husbands' bodies were cremated in a ritual known as "sati," based on the belief that a Hindu woman has no existence independent of her husband. (Sonali Verma, "Indian women still awaiting independence," Human Rights Information Network:Indi News Network Digest, Volume2, Issue1648, 16 August 1997)
Although dowry is legally banned, at least 5,000 women are victims of "dowry murders," in which they are killed by their husband or his family because of "insufficient" dowries. At least 12 women "die" every day from bazzier kitchen fires, which are typically concealed dowry murders. The dowry system has also led to an inflating female infanticide. especially among very poor families. Few of these cases are ever even brought to trial. (UNICEF, United Press International, 23 July 1997)
A very large percentage of marriages are arranged. "The custom of arranged marriage is a legitimized institution. In a majority of cases the bride has little or no say. She and the bridegroom are virtual strangers. In many rural communities the bridegroom does not even attend his own wedding. The sex act (between the two) is nothing but a rape. The Indian woman’s acceptance of the inevitable has, sanctified this abhorrent practice, and, subsequently legitimized it." (Sudhir Vaishnav, "Legal Indian Rape: The new bride can be an unsuspecting victim of a legal rape," Femina, 17 September 1997)
More than 5,000 women are murdered each year as the result of dowry killings in India. (Mindelle Jacobs, "Abuse of Women is Sadly Common,"Edmonton Sun, 11 July 1998)
In 1993, in-laws killed about 16 women every day for dowry, although the government declared accepting dowry illegal in 1961. Women's groups say the number of cases reported is a fraction of the real figure. (Sonali Verma, "Indian women still awaiting independence," Human Rights Information Network:Indi News Network Digest, Volume2, Issue1648, 16 August 1997)
During the armed conflict in Kashmir, Punjab and other Northeastern states women are victimized, raped, tortured, sexually abused and violated by military personnel, militants or insurgents, para-military units, rebel groups, religious sects, fundamentalist armed groups, warlords, state security forces, armed opposition groups, or terrorists and peace-keeping forces. (Indrani Sinha, executive director, "Paper on Globalization and Human Rights," SANLAAP)
In 1997, there were reports of Indian armed forces arresting, torturing and molesting women and girls in Kashmir. Every day the local newspapers report such incidences. (KASHNet, Human Rights Information Network, 14 August 1997)
Women and girls have been systematically brutalized and raped by Indian forces in house to house searches in Kashmir between October 1996 and December 1997. ("Rape and Molestation: A Weapon of War in Kashmir," The Institute of Kashmir Studies," 1998)
Official Response and Action
To halt child marriages, the National Human Rights Commission (NHRC) in India has recommended compulsory registration of marriages to be added as an amendment to the Child Marriage (Restraint) Act. ("NHRC for amendments to Child Marriage Act," Hindu Daily, 17 August 1998)A considerable number of child marriages, performed on April 29, 1998 (Akshay Thithiya day), were witnessed and took place without any obstruction from the authorities or members of the public in Bikaner and Jodhpur, India. (Senior Superintendent of Police, National Human Rights Commission’s (NHRC) Investigation Division, "NHRC for amendments to Child Marriage Act," Hindu Daily, 17 August 1998)
The National Girl Child Week began in India on 23 September 1998 as part of a regional celebration of the rights of the girl child in India, Pakistan, Bangladesh, Nepal and Sri Lanka to reaffirm commitment to the SAARC Decade of the Girl Child. The UNICEF India Country Office has identified high maternal mortality, low birth weight babies and discriminatory post-natal attention to boys in India as some of the major reasons for disparity in male-female child ratio. The week will highlight governmental, inter-governmental, and non-governmental efforts to end this disparity. ("Steps to strengthen rights of the girl child," Hindu Daily, 23 September 1998)
Cases
In September 1987, 18-year-old Roop Kanwar was forced to commit suttee. Cans of ghee cooking butter were poured on her as she burnt to death on her husband's funeral pyre. Conch shells were blown like horns after she died. And a trishul was left as a symbol of the faith of the sati, or "true wife" in Sanskrit. In October 1996, all 38 defendants in the Kanwar cases were acquitted. Following this, more than 1,000 devotees staged a major festival at the Rani Sati temple in Jhunjhunu, in contravention of the 1988 Act, which prohibits glorification of suttee. The court refused to stop the nine-day event in late November and early December, but ruled there must be no direct reference to suttee, and that the rituals must be held outside rather than within the temple. Protesters violated this order, and filed a contempt petition. (Muku; Sharma, "Women Fight New Threats of Widow Sacrifice," 7 February 1997)
Indian armed forces stormed into the house of Kamal Dar, in Padshahi Bagh area and locked his daughter Madeeha in a separate room where she was subjected to severe torture for many hours. Kamal Dar said the person gave electric shocks to his 18-year-old daughter and molested her. The armed personnel also treated in a similar way another woman, wife of one Bashir Amad and mother of five children. They also molested two girls in Pahalgam. A group of security forces men in the village of Dehar Muna raided the house of Ghulam Muhammad and abducted her daughter, Raja Bano, at gunpoint. The girl was taken to a security camp. After her release she explains that she was interrogated for whole night and kept naked throughout the night. She also showed torture marks on her body. She was taken to hospital for medical examination. (police sources, KASHNet, Human Rights Information Network, 14 August 1997)
Maimun, 19 was gang-raped and attempts made to murder her following her love marriage to Idris, 28. A team from the National Commission for Women to investigate the torture of the young woman was attacked by nearly 1,000 villagers. Maumun’s cousin had cut Maimun’s abdomen and neck with a butcher knife, leaving her to bleed to death. (Piyush Mathur, "NCW members probing rape of girl attacked," Times of India, 16 August 1997)

 http://www.uri.edu/artsci/wms/hughes/india.htm

ऐतिहासिक रहा ब्लॉगरों का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन

http://www.parikalpnaa.com/


ऐतिहासिक रहा ब्लॉगरों का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन


दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का उदघाटन करते वरिष्ठ साहित्यकार उद्भान्त, साथ मे शिखा वार्ष्नेय,गिरीश पंकज,रणधीर सिंह सुमन और रवीन्द्र प्रभात

दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का उदघाटन करते वरिष्ठ साहित्यकार उद्भान्त, साथ मे शिखा वार्ष्नेय,गिरीश पंकज,रणधीर सिंह सुमन और रवीन्द्र प्रभात

आज से 75 साल पहले सन 1936 में लखनऊ शहर प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन का गवाह बना था, जिसकी गूंज आज तक सुनाई पड़ रही है। उसी प्रकार आज जो लखनऊ में ब्लॉग लेखकों का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हो रहा है, इसकी गूंज भी आने वाले 75 सालों तक सुनाई पड़ेगी।
उपरोक्त विचार बली प्रेक्षागृह, कैसरबाग, लखनऊ में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रतिष्ठित कवि उद्भ्रांत ने व्यक्त किये। सकारात्मक लेखन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से यह सम्मेलन तस्लीम एवं परिकल्पना समूह द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में पूर्णिमा वर्मन (शरजाह) रवि रतलामी (भोपाल), शिखा वार्ष्णेय (लंदन), डॉ0 अरविंद मिश्र (वाराणसी), अविनाश वाचस्पति (दिल्ली), मनीष मिश्र (पुणे), इस्मत जैदी (गोवा), आदि ब्लॉगरों ने अपने उद्गार व्यक्त किये। कार्यक्रम को मुद्राराक्षस, शैलेन्द्र सागर, वीरेन्द्र यादव, राकेश, शकील सिद्दीकी, शहंशाह आलम, डॉ. सुभाष राय, डॉ. सुधाकर अदीब, डॉ विनय दास आदि वरिष्ठ साहित्यकारों ने भी सम्बोधित किया।
मंचासीन डॉ सुभाष राय,सुश्री शिखा वार्ष्नेय,वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत, कथा क्रम के संपादक शैलेंद्र सागर, डॉ अरविंद मिश्रा, गिरीश पंकज आदि
मंचासीन डॉ सुभाष राय,सुश्री शिखा वार्ष्नेय,वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत, कथा क्रम के संपादक शैलेंद्र सागर, डॉ अरविंद मिश्रा, गिरीश पंकज आदि
वक्ताओं ने अपनी बात रखते हुए कहा कि इंटरनेट एक ऐसी तकनीक है, जो व्यक्ति को अभिव्यक्ति का जबरदस्त साधन उपलब्ध कराती है, लोगों में सकारात्मक भावना का विकास करती है, दुनिया के कोने-कोने में बैठे लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का अवसर उपलब्ध कराती है और सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों के विरूद्ध जागरूक करने का जरिया भी बनती है। इसकी पहुँच और प्रभाव इतना जबरदस्त है कि यह दूरियों को पाट देता है, संवाद को सरल बना देता है और संचार के उत्कृष्ट साधन के रूप में उभर कर सामने आता है। लेकिन इसके साथ ही साथ जब यह अभिव्यक्ति के विस्फोट के रूप में सामने आती है, तो उसके कुछ नकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलते हैं। ये परिणाम हमें दंगों और पलायन के रूप में झेलने पड़ते हैं। यही कारण है कि जब तक यह सकारात्मक रूप में उपयोग में लाया जाता है, तो समाज के लिए अलादीन के चिराग की तरह काम करता है, लेकिन जब यही अवसर नकारात्मक स्वरूप अख्तियार कर लेता है, तो समाज में विद्वेष और घृणा की भावना पनपने लगती है और नतजीतन सरकारें बंदिषें का हंटर सामने लेकर सामने आ जाती हैं। लेकिन यदि रचनाकार अथवा लेखक सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए इस इंटरनेट का उपयोग करे, तो कोई कारण नहीं कि उसके सामने किसी तरह का खतरा मंडराए। इससे समाज में प्रेम और सौहार्द का विकास भी होगा और देष तरक्की की सढ़ियाँ भी चढ़ सकेगा।
परिकल्पना ब्लॉग दशक सम्मान
दशक के ब्लॉगर: (१) पूर्णिमा वर्मन (२) समीर लाल समीर (३) रवि रतलामी(४) रश्मि प्रभा (५) अविनाश वाचस्पति
दशक के ब्लॉग: (१) उड़न तश्तरी: ब्लॉगर समीर लाल समीर (२) ब्लोग्स इन मिडिया: ब्लॉगर बी एस पावला (३) नारी: ब्लॉगर रचना (४) साई ब्लॉगः ब्लॉगर डॉ अरविंद मिश्र (५) साइंस ब्लोगर असोसिएशन: ब्लॉगर डॉ अरविंद मिश्र डॉ जाकिर अली रजनीश
दशक के ब्लॉगर दंपति:
कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव

तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011

मुकेश कुमार सिन्हा, देवघर, झारखंड ( वर्ष के श्रेष्ठ युवा कवि) , संतोष त्रिवेदी, रायबरेली, उत्तर प्रदेश (वर्ष के उदीयमान ब्लॉगर), प्रेम जनमेजय, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ व्यंग्यकार ),राजेश कुमारी, देहरादून, उत्तराखंड (वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, यात्रा वृतांत ), नवीन प्रकाश,रायपुर, छतीसगढ़ (वर्ष के युवा तकनीकी ब्लॉगर),अनीता मन्ना,कल्याण (महाराष्ट्र) (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग सेमिनार के आयोजक),डॉ. मनीष मिश्र, कल्याण (महाराष्ट्र) (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग सेमिनार के आयोजक),सीमा सहगल(रीवा,मध्यप्रदेश) रू रश्मि प्रभा ( वर्ष की श्रेष्ठ टिप्पणीकार, महिला ), शाहनवाज,दिल्ली (वर्ष के चर्चित ब्लॉगर, पुरुष ), डॉ जय प्रकाश तिवारी (वर्ष के यशस्वी ब्लॉगर),नीरज जाट, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ लेखक, यात्रा वृतांत),गिरीश बिललोरे मुकुल,जबलपुर (मध्यप्रदेश) (वर्ष के श्रेष्ठ वायस ब्लॉगर), दर्शन लाल बवेजा,यमुना नगर (हरियाणा) (वर्ष के श्रेष्ठ विज्ञान कथा लेखक),शिखा वार्ष्णेय, लंदन ( वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, संस्मरण), इस्मत जैदी,पणजी (गोवा) (वर्ष का श्रेष्ठ गजलकार),राहुल सिंह, रायपुर, छतीसगढ़ (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक),बाबूशा कोहली, लंदन (यूनाइटेड किंगडम) (वर्ष की श्रेष्ठ कवयित्री ), रंजना (रंजू) भाटिया,दिल्ली (वर्ष की चर्चित ब्लॉगर, महिला),सिद्धेश्वर सिंह, खटीमा (उत्तराखंड) (वर्ष के श्रेष्ठ अनुवादक), कैलाश चन्द्र शर्मा, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ वाल कथा लेखक ),धीरेंद्र सिंह भदौरोया (वर्ष के श्रेष्ठ टिप्पणीकार, पुरुष),शैलेश भारतवासी, दिल्ली (वर्ष के तकनीकी ब्लॉगर),अरविंद श्रीवास्तव, मधेपुरा (बिहार) (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग समीक्षक),अजय कुमार झा, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग खबरी),सुमित प्रताप सिंह, दिल्ली (वर्ष के श्रेष्ठ युवा व्यंग्यकार),रविन्द्र पुंज, यमुना नगर (हरियाणा) (वर्ष के नवोदित ब्लॉगर), अर्चना चाव जी, इंदोर (एम पी) (वर्ष की श्रेष्ठ वायस ब्लॉगर),पल्लवी सक्सेना,भोपाल (वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, सकारात्मक पोस्ट) ,अपराजिता कल्याणी, पुणे (वर्ष की श्रेष्ठ युवा कवयित्री ) ,चंडी दत्त शुक्ल, जयपुर (वर्ष के श्रेष्ठ लेखक, कथा कहानी ),दिनेश कुमार माली,बलराजपुर (उड़ीसा) वर्ष के श्रेष्ठ लेखक (संस्मरण ),डॉ रूप चंद शास्त्री मयंक (खटीमा) वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार, सुधा भार्गव,वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका, डॉ हरीश अरोड़ा, दिल्ली ( वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग समीक्षक ) आदि

तस्लीम परिकल्पना विशेष ब्लॉग प्रतिभा सम्मान-2011

कुँवर कुसुमेश, लखनऊ, प्रीत अरोड़ा, चंडीगढ़, सुनीता शानू, दिल्ली, कनिष्क कश्यप, दिल्ली, निर्मल गुप्त, मेरठ, मुकेश कुमार तिवारी, इंदोर,अल्का सैनी,चंडीगढ़,प्रवीण त्रिवेदी, फ़तहपुर आदि

वटवृक्ष का लोकार्पण : वायें से सुश्री शिखा वार्ष्नेय,रवीन्द्र प्रभात,डॉ अरविंद मिश्रा, डॉ सुभाष राय, श्री शैलेंद्र सागर,श्री उद्भ्रांत, श्री गिरीश पंकज,ज़ाकिर अली रजनीश,रणधीर सिंह सुमन व अन्य

वटवृक्ष का लोकार्पण : वायें से सुश्री शिखा वार्ष्नेय,डॉ अरविंद मिश्रा, रवीन्द्र प्रभात, डॉ सुभाष राय, श्री शैलेंद्र सागर,श्री उद्भ्रांत, श्री गिरीश पंकज,ज़ाकिर अली रजनीश,रणधीर सिंह सुमन व अन्य

इस अवसर पर देश के कोने-कोने से आए 200 से अधिक ब्लॉगर, लेखक, संस्कृतिकर्मी और विज्ञान संचारक भी उपस्थित रहे। कार्यक्रम में तीन चर्चा सत्रों (न्यू मीडिया की भाषाई चुनौतियाँ, न्यू मीडिया के सामाजिक सरोकार, हिन्दी ब्लॉगिंगः दशा, दिशा एवं दृष्टि) में रचनाकारों ने अपने विचार रखे। इस अवसर पर कार्यक्रम के संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने ब्लॉगरों की सर्वसम्मति से सरकार से ब्लॉग अकादमी के गठन की मांग की, जिससे ब्लॉगरों को संरक्षण प्राप्त हो सके और वे समाज के विकास में सकारात्मक योगदान दे सकें।

इस अवसर पर ‘वटवृक्ष‘ पत्रिका के ब्लॉगर दषक विषेषांक का लोकार्पण किया गया, जिसमें हिन्दी के सभी महत्वपूर्ण ब्लॉगरों के योगदान को रेखांकित किया गया है। इसके साथ ही साथ कार्यक्रम के सह संयोजक डॉ0 जाकिर अली रजनीश की पुस्तक ‘भारत के महान वैज्ञानिक‘ एवं अल्का सैनी के कहानी संग्रह ‘लाक्षागृह‘ तथा मनीष मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दी ब्लॉगिंगः स्वरूप व्याप्ति और संभावनाएं‘ का भी लोकार्पण इस अवसर पर किया गया।

कार्यक्रम के दौरान ब्लॉग जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए पूर्णिमा वर्मन, रवि रतलामी, बी एस पावला, रचना, डॉ अरविंद मिश्र, समीर लाल समीर, कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव को ‘परिकल्पना ब्लॉग दशक सम्मान‘ से विभूषित किया गया।

इसके साथ ही साथ अविनाश वाचस्पति को प्रब्लेस चिट्ठाकारिता शिखर सम्मान, रश्मि प्रभा को शमशेर जन्मशती काव्य सम्मान, डॉ सुभाष राय को अज्ञेय जन्मशती पत्रकारिता सम्मान, अरविंद श्रीवास्तव को

“लखनऊ में स्थापित होगा डॉ राम मनोहर लोहिया ब्लॉगर पीठ, इस आशय का प्रस्ताव संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने सभा पटल पर रखा जिसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। साथ इस अवसर पर रवीन्द्र प्रभात ने ब्लॉगर कोश बनाने की बात कही ।”

केदारनाथ अग्रवाल जन्मशती साहित्य सम्मान, शहंशाह आलम को गोपाल सिंह नेपाली जन्मशती काव्य सम्मान, शिखा वार्ष्णेय को जानकी बल्लभ शास्त्री स्मृति साहित्य सम्मान, गिरीश पंकज को श्रीलाल शुक्ल व्यंग्य सम्मान, डॉ. जाकिर अली रजनीश को फैज अहमद फैज जन्मशती सम्मान तथा 51 अन्य ब्लॉगरों को ‘तस्लीम-परिकल्पना सम्मान‘ प्रदान किये गये।

Filed in: गतिविधियाँ

हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है


सोमवार, 3 सितम्बर 2012 http://www.parikalpnaa.com/   se saabhar 


हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है...

विगत 27 अगस्त को परिकल्पना ने अपना दूसरा ब्लॉग उत्सव अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर सम्मेलन के रूप में मनाया । विगत वर्ष यह कार्यक्रम नयी दिल्ली में 30 अप्रैल को हुआ था । जब-जब ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम होते हैं पक्ष और विपक्ष में स्वर तो उठते हीं हैं, उठने भी चाहिए किन्तु मर्यादा में उठे तो उसका सौन्दर्य बचा रहता है । 

 कार्यक्रम के बाद ब्लॉग पर कई लोगों की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिली, कई लोगों ने मुद्दे अच्छे उठाए जैसे रवि रतलामी जी ने कहा "जिनके चेहरों से परिचित हैं उनके ब्लॉग से परिचित नहीं .. काश एक परिचय सत्र होता !" मैं भी मानता हूँ कि भोजनोपरांत यदि 'परिचय सत्र' होता तो सबको सबसे परिचय मिल जाता। 'परिचय सत्र ' की मांग उचित ही है। आगे के कार्यक्रमों में इस बात का ध्यान रखा जाएगा रवि जी। 

 दिनेश राय द्विवेदी जी ने कहा " इतने सम्मानों वाला सम्मेलन तीन दिन का होना चाहिए। सुबह शाम का वक्त कहीं घूमने घुमाने का भी होना चाहिए। कुछ अनौपचारिक सत्र भी होने चाहिए, सभागार के बाहर लॉन में चाय-पान-भोजन की व्यवस्था हो और उस के लिए एक-दो घंटे इंतजार करना पड़े। तब गप्प लड़ाई जाए। " यह सुझाव भी सारगर्भित है, आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यदि संसाधन की न्यूनता नहीं रही, तो आपके सुझाव पर गौर किया जा सकता है । 

 हिन्दी ब्लॉगिंग से आठ साल से भी अधिक समय से जुड़े होने वाले एक फुरसतिया  ब्लॉगर ने भी यह मानाकि "खूब शानदार कार्यक्रम हुआ। आयोजकों ने खूब मेहनत की। तमाम घोषणायें हुईं। लोग एक दूसरे से मिले मिलाये। खूब सारी यादें समेटे हुये लोग अपने-अपने स्थान को गम्यमान हुये। हिन्दी ब्लॉगिंग के इतिहास में एक सुनहरा पन्ना जुड़ गया। " शुक्रिया । लेकिन उन्होने प्रेमचंद के उस वयान को भी अंकित किया कि “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे” ? क्यों नहीं कहोगे भाई, कहो जी खोलकर कहो । हमारी एक फितरत से तो आप वाकिफ हो ही कि सम्मान करना मेरे फितरत में शामिल है । दूसरी भी फितरत जान लो कि हम सुनना भी जानते हैं, करना भी जानते हैं और अंतत: विजयी होना भी....।

उज़्बेकिस्तान में एक पार्क ऐसा भी

  उज़्बेकिस्तान में एक पार्क ऐसा भी है जो यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के नाम है। यहां उनकी मूर्तियां पूरे सम्मान से लगी हैं। अली शेर नवाई, ऑ...