Monday, 13 August 2018

मेरी चुप्पी का गाढ़ा, गहराता हुआ रंग ।



डॉ मनीषकुमार सी. मिश्रा
असिस्टेंट प्रोफेसर
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय,
कल्याण – पश्चिम, महाराष्ट्र ।




                      तुम्हारे बाद सालों से चुप्पी का एक सिरा पकड़े, बीते समय की कतरनों के साथ कुछ अंदर ही अंदर बुनता रहा । इतने सालों बाद भी जाने क्यों लगता है कि अंदर से बहुत बेचैन हूँ । शायद तुम्हारी उन तीख़ी नजरों के यादखाने में मेरा सुकून आज भी कैद है । मेरे आस-पास पसरी हुई गाढ़ी उदासी का रंग, मेरे अंदर के मौसम को किसी बियाबान में बदल रहा है । कोई बात है जो अंधेरे और तनहाई में फैलती और रोशनी में सिमटकर कंही खो जाती । मेरे अंदर कोई बेतहाशा प्यास है, जिसकी गहरी आँखों में दर्द और प्रेम का अजीब सा ग़ुबार दिखता है । वे आँखे बहुत गहरे कंही उतर कर, सारी हदें पार कर देना चाहती हैं । उन प्यासी आँखों की याचना पर मैंने कई ख़त लिखे ।  इतने सालों में, इन खतों का एक पहाड़ सा जमा हो गया है । कई बार सोचा कि इन सारे ख़तों पर तुम्हारा पता लिखकर तुम्हारे पास भेज दूँ । मन बहुत होता है लेकिन हिम्मत नहीं होती । तुम्हें लेकर सारी हिम्मत तो तुमसे ही मिलती थी । अब तुम नहीं हो, बस ज़िन्दगी का शोर है और मेरी चुप्पी का गाढ़ा, गहराता हुआ रंग है । तुम्हें पता है ! पिछले दिनों मैं उस शहर में खो गया था, जहाँ कम से कम एक मकान का पता मुझे अच्छे से याद था । पर अफ़सोस वह मकान तुम्हारा था । तुम रिश्तों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने में माहिर निकली । लेकिन मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि ऐसी रिश्तों वाली सीढ़ी से तुम जाना कहाँ चाहती थी ? फ़िर जहाँ जाना चाहती थी, क्या वहाँ से कभी इन्हीं सीढ़ियों से वापस भी आ सकोगी ?
                     मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी वक्त आयेगा कि इस तरह से चीजों को झेलना पड़ेगा । याद है वह साल जब पहली बार तुमसे मुलाकात हुई । वह मुलाकात बहुत छोटी थी, लेकिन उस छोटी सी मुलाकात में बहुत सारे सपनों को पंख मिल गये । उन्हीं पंखों के साथ इतने सालों से एक रिश्ता अपनी उड़ान पर था । लेकिन आज ऐसा महसूस होता है कि कोई इसतरह से बेरहम कैसे हो सकता है ? कोई इतना एहसान फरामोश कैसे हो सकता है ? कोई किसी के किये  हुए एहसानों को कैसे भूल सकता है ? कोई किसी के इतने करीब आकर इतनी दूर कैसे जा सकता ? कोई धोखा कैसे दे सकता ?
                  यह सब इसलिए सोचता हूं क्योंकि मैं यह सब किसी के साथ नहीं कर सकता, लेकिन जो करते हैं शायद वे सोचते नहीं । वे अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो चुके होते हैं कि उन्हें और कुछ दिखाई नहीं देता । आज हम जिस समाज में रह रहे हैं वहां पर रिश्तों की अहमियत दिन-ब-दिन कम होती जा रही है । पैसे और तड़क-भड़क वाली जिंदगी ने लोगों की आंखों पर पट्टी बांध दी है । शायद यही कारण था कि ईमानदारी और निष्ठा से कमाये जाने वाले पैसों से मैं उस रिश्ते को बचाने में नाकामयाब रहा ।
                    वे यादें जो अब पराई लग रहीं हैं, न जाने क्यों अब तक पत्थर की तरह निष्प्राण किये हुए हैं । बुझती हुई शामों के धुँधलके में अंदर का ख़ालीपन गहराने लगता है । उस ख़ालीपन को दिन-रात सिगरेट के धुँए से भरने की नाकाम कोशिश करता रहता हूँ । घर की चार दिवारी में इसतरह कैद हो गया हूँ कि दिवार के पार दुनियां की रफ़्तार से गोया कोई राब्ता ही न हो । तुम्हारी यादों के उन्हीं बासी लमहों में डूबा हुआ उस रास्ते पर हूँ जिसकी दिशाएं यादों के तिलिस्म के सिवा कुछ नहीं । मैं उस तिलिस्म के सम्मोहन में एक असंभव दुनियां की बदस्तूर तलाश में हूँ । ख़यालों में भटकने की यह आदत समय की तल्ख़ धूप में मुझे लगभग पागल बना रही है । जिंदगी मानों मुझे भटकने के लिए अभिशप्त किये हुए है । मुझे लग रहा है कि वह मेरा सबकुछ छीनकर मुझे ख़ाली हाँथ ही रखना चाहती है । मेरे हर सफ़र के रास्ते आपस में उलझ कर नसुलझने वाली कोई पहेली बन गए हैं । दुःख, धोखा,अवसाद और एकाकीपन की स्याह सघनता किसी अज़गर की तरह मुझे निग़ल लेना चाहती हैं । बीते दिनों की बेड़ियाँ चाहकर भी तोड़ नहीं पा रहा हूँ । तुम चली गई मगर मैं वहीं रुका हूँ । पूरी बेहूदगी के साथ । दुनियां की सबसे बेहूदा, नाकारा और गैर जरूरी किसी चीज़ की तरह ।   
                 अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि गलती किसकी थी ?  शायद किसी की नहीं । जब आप किसी पर बहुत भरोसा करते हैं तो आप अपने नजरिए से हर एक बात देखने लगते हैं । सामने वाले में कोई बुराई आपको नजर ही नहीं आती और यहीं पर शुरुआत होती है धोखे की । उस धोखे की जमीन को सींचने का काम एक तरह से हम खुद करते हैं । हां यह ठीक है कि तुम्हारे साथ रिश्ते को लेकर मैं थोड़ा संजीदा था और तुमने हमेशा ही मना किया लेकिन फिर भी मुझे भरोसा था कि अपनी मानदारी और अपनी सादगी से मैं तुम्हें समझा लूंगा । थोड़ा समय लगेगा लेकिन समय के साथ-साथ परिस्थितियां बदल जायेंगीफ़िर बदली हुई परिस्थितियों के  साथ शायद  बदल जाती तुम्हारी इच्छा भी ।  मैंने समय लिया, जितना समय दे सकता था दिया भी, जितना कर सकता था किया भी ,लेकिन तुमने जो किया वह कल्पना से परे था ।
               आज तुम यह कहती हो कि अगर लोग मेरे व्यक्तिगत मामलों में बोल लेते हैं तो यह मेरी कमजोरी है कि मैं उन्हें इतनी अनुमति देता हूं कि वह मेरे व्यक्तिगत मामलों में बोलें । सच कहूं तो मुझे इसकी कोई परवाह नहीं और परवाह होगी क्यों ? तुमने तो जो करना था वह कर दिया । अब मुझे ही कुछ करना होगा, क्या कर सकता हूं ? मैं तुम्हें कुछ नहीं कर सकता ।  तुम्हारी इतनी घृणा के बावजूद मैं तुम्हारी तरह घृणा नहीं कर सकता ।  मैं धोखा नहीं दे सकता । मैं जो हो गया उसे  कह भी नहीं सकता । कुछ कर सकता हूं तो यह कि चुप हो जाऊँ ।  शायद अब चुप्पी ही वह  हथियार हो जो मुझे बचा सके । अक्सर देखा है मैंने, जब कहीं से कोई उम्मीद नहीं रहती तो यही चुप्पी ही मुझे बचाती है और नाउम्मीदी में एक आखरी उम्मीद के रूप में मेरे साथ रहती है ।
                 तुम्हें तुम्हारी दुनिया मुबारक हो । तुम्हारे नए रिश्ते मुबारक हों, लेकिन याद रखना एक दिन ऐसा आयेगा जरूर जब तुम यह महसूस करोगे कि तुमने बहुत बड़ी गलती की । तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी ।  अब मैं किसी को भी यह दुबारा मौका नहीं दूंगा कि वह वापस मुझे नाउम्मीदी की गहरी खाई में ढकेले । मैं सारे रास्ते बंद कर रहा हूं तुम्हारे लिए ।  इसलिए नहीं कि मैं तुमसे नाराज हूं बल्कि इसलिए ताकि   मैं भी चाहूं तो भी उन रास्तों पर लौट ना सकूं । उन रास्तों पर लौटना अपने आपको अपमानित करना है । प्रेम,विश्वास और अपनेपन को गाली देने जैसा है ।  
             मैंने तुम्हारे लिए खुद तक पहुँचने के सारे रास्ते इस उम्मीद के साथ बंद कर दिये हैं कि तुम जहां रहोगे वहां ख़ुश रहोगे । अपनी जिंदगी में अपने मनपसंद रंग भरोगे । तुम्हारे लोग होंगे, तुम्हारे अपने होंगे और जिन्हें तुमने अपना नहीं समझा वह तुमसे बहुत दूर होंगे शायद इससे अधिक मैं तुम्हारे लिए और कुछ ना कर सकूं । तुमने पूछा था कि आखिर ऐसा क्या किया तुमने जो मैं तुमसे इतना नाराज हो गया । शायद तुम्हें यह बात बहुत छोटी लगती हो लेकिन मेरे लिए बहुत बड़ी है । तुम मुझसे रिश्ता मत रखो यह तो समझ में आता है लेकिन तुम मेरी पीठ पीछे मेरे भरोसे और विश्वास का ख़ून करो यह समझ के परे है । तुमने मुझे जलील करने का जो निर्णय लिया उसे समझना बड़ा मुश्किल है ।
            इन सब पर विश्वास ही नहीं हो रहा था इसलिए एक बार फिर तुमसे बात की । अपने किये हुए निश्छ्ल प्रेम का वास्ता दिया और अनुरोध किया कि तुम ऐसा कुछ मत करो जिससे मुझे इस तरह की जिल्लत झेलनी पड़ी ।  लेकिन तुमने मेरी एक ना सुनी और तुमने कहा कि, किसके साथ रिश्ता रखना है किसके साथ नहीं रखना यह मेरा व्यक्तिगत निर्णय है , मुझे सिखाने की कोई जरूरत नहीं और ना ही तुम्हें यह अधिकार है । मैं तो तुमसे ही कोई रिश्ता नहीं चाहती, बोझ हो गए हो तुम मेरे लिए ।’’ यह कहकर तुमने फोन रख दिया था  तुम्हारी बातें कान में गर्म शीशे की तरह घुसी । कई दिनों तक परेशान रहा । बहुत कुछ जानना और  समझना चाहता था ।  तुमसे बात करना चाहता था, लेकिन हिम्मत नहीं हो रही थी । इसी बीच शरीर ने  इस बात का इशारा करना शुरू कर दिया कि सब कुछ ठीक नहीं । डॉक्टर साहब यह कहकर मुस्कुरा देते कि, “तुम्हारा ब्लड प्रेशर क्यों नहीं कंट्रोल नहीं होता ? यह समझ में नहीं आता । जरूर कोई बात है जो तुम छुपा रहे हो ।  कोई बात है जो तुम्हें अंदर ही अंदर परेशान किए हुए है । इतना सोचना ठीक नहीं, अपनी तबियत पर ध्यान दो ।”

                     उनकी बातें सुन तो लेता लेकिन कोई जवाब नहीं देता । उन्हें बताने के लिये मेरे पास कुछ भी नहीं था । यहां भी वह चुप्पी का ही हथियार था जो मेरे काम आ रहा था ।  लेकिन चुप हो जाने से बातें खत्म हो जाती हैं, ऐसा नहीं है । वह चीजें अंदर ही अंदर आप को दीमक की तरह खोखला करती जाती हैं । आपको किसी और के लायक नहीं छोड़ती । मेरे साथ भी शायद ऐसा ही हो रहा था लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा था, सिवाय घुटघुट के मरने के। तुमने मुझे जिस अवस्था में लाकर छोड़ दिया, उसे किससे कहूँ ? , तुम्हें याद है, वह पिछली पहाड़ों की सर्दियाँ । जब हम साथ थे । सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक, तुम्हारी हर छोटी से छोटी बात का मैं कितना ख्याल रखता था ? वह इसलिए नहीं था कि वह मेरी कोई जिम्मेदारी थी, वह इसलिए था क्योंकि मैं दिल से तुम्हारे लिये अपनी जिम्मेदारी महसूस करता था ।  हां यह सही है कि तुम्हारे खानपान, पहनने के ढंग को लेकर टोकता जरूर था  । यह टोकना भी इसलिए था क्योंकि मैंने कभी नहीं चाहा था कि तुम्हारे साथ कुछ दिन का रिश्ता बनाकर, तुम्हारा फायदा उठाकर, तुम्हें भूल जाऊं ।  अगर ऐसा सोचता तो शायद तुम्हें कभी नहीं टोकता ।  परिवार के एक सदस्य की तरह हमेशा तुम्हें समझा, शायद यही कारण था कि जो चीजें नहीं पसंद आती थी उन पर टोकता था । बाहर का कोई कभी पूछता भी था कि तुम्हारे साथ मेरा क्या रिश्ता है ? तो यही कहता था कि तुम एक पारिवारिक मित्र हो ।  ताकि वह जो पारिवारिक जिम्मेदारी वाला एहसास होता है  वह किसी और को अटपटा न लगे । कई बार ऐसा हुआ कि लोगों को अंदेशा हुआ, लोगों ने अलग-अलग तरीके से पूछना चाहा, जानना चाहा लेकिन हर बा किसी न किसी तरीके से, किसी न किसी बहाने से मैं इस बात को टाल जाता था ।

                     सोचा था कि एक दिन आयेगा जब लोग खुद ही जान जाएंगे । लेकिन अब वह दिन कभी नहीं आयेगा ।  इस रिश्ते की असमय मौत की जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हारी नहीं, मेरी भी है । मैंने इसे जिंदा रखने के लिए वह कोई भी काम नहीं किया जो मेरी आत्मा को मंजूर नहीं था ।  अब जबकि तुम नहीं हो और मैंने अपने आप को इस बात के लिए तैयार कर लिया है कि आगे का रास्ता अकेले ही तय करना है तो ऐसे में तुम्हारे ऊपर कोई दोमत नहीं लगाना चाहता । लगा भी नहीं सकता क्योंकि हर आदमी को अपना जीवन अपने तरीके से जीने का पूरा हक है । अपने निर्णय खुद लेने का पूरा अधिकार है । लेकिन पता नहीं क्यों सारी सच्चाई के बावजूद सब कुछ समझने के बाद भी आँखों से गाहे-बगाहे आंसू टपक जाते हैं । कभी अकेले में जब सोचता हूं तुम्हारे बारे में तो मन उदास हो जाता है ।
                  यह उदासी यादों के उन तमाम जंगलों में ले जाती है जहां मैं उम्मीदों के आंचल में शांत होकर सोता था । जहां की हवा, पानी और वह पूरा का पूरा मौसम सिर्फ तुम्हारे होने से खुशनुमा होता था । वह सारी यादें अभी भी तन्हाइयों की दोस्त बनकर आती हैं और मुझसे लिपटकर, मेरे पास सो जाती हैं ।  मेरे साथ रोती हैं, हंसती हैं और फिर नींद के आगोश में कब सुलाकर चली जाती हैं, पता भी नहीं चलता । जाने अब तुम  कहां होगी ? कैसी होगी ? मैं अपनी कोई चाहत तुम्हारे ऊपर थोपना नहीं चाहता । बस जानना चाहता हूं कि क्या इतने सालों बाद भी, तुम्हें एक बार भी यह नहीं लगा कि तुमने जो किया वह ठीक नहीं था ?  आज भी कभी जब पहाड़ों पर जाता हूं तो वहां के सुनसान रास्तों पर अकेले चलते हुए महसूस करता हूं कि तुम साथ हो । इस वादे के साथ कि हमेशा साथ रहोगी । यह भूल जाता हूं कि सालों पहले ही तुम जा चुकी हो, मुझे अकेला कर के ।
                    मेरे पास जो भी था, मैं जो भी कर सकता था, वह सब मैंने तुम्हारे लिए किया और यह सोचकर किया कि कोई दिखावा नहीं करना है । जब भी कोई परेशानी होती और तुम्हारी कोई इच्छा पूरी नही कर पता तो तुमसे साफ कह देता कि इस समय मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकता क्योंकि बजट नहीं । तुम कभी - कभी कहती थी कि, “मुझे अच्छा नहीं लगता इस तरह भिखारियों की तरह बात करना । हमेशा आदमी के पास सब कुछ होना चाहिए ।” तुम्हारी बात पर मुस्कुरा देता । इसे तुम्हारी नादानी समझता । लेकिन नहीं जानता था कि तुम्हारी यही इच्छायें एक दिन तुम्हें मजबूर कर देंगी कि तुम मुझे धोखा दो । तुम्हारी बात ठीक थी लेकिन सब कुछ होने के लिए जीवन में संघर्ष करना पड़ता है । वह संघर्ष तुमने किया नहीं और सब कुछ पाने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया । मैं क्या कर सकता था ?                
                   अब जब तुम्हारा जन्मदिन आता है तो तुम्हें कोई उपहार नहीं भेजता । तुम्हें फोन करके शुभकामनायें भी नहीं देता । जानता हूं तुमने अपने नए-नए रिश्तो की श्रृंखलाओं में अपने लिए मनचाही चीजों की व्यवस्था कर ही ली होगी । वहां पर तुम्हें मेरी कोई कमी नहीं खलेगी ।  लेकिन मैं तुम्हें कुछ देने के सुख से वंचित होकर अपने आप को दुखी होने से आज़ भी नहीं बचा पाता ।   
                      तुम्हारे सपने बहुत बड़े थे । तुम्हारी खुशियां सिर्फ किसी व्यक्ति के प्यार में नहीं बल्कि उन चीजों में अधिक थीं जो ज़िंदगी को ऐशों-आराम दें । मैं उन सारी चीज़ों का माध्यम नहीं बन पाया तो तुमने मुझे छोडना ही बेहतर समझा ।  तुमने मुझे छोड़ने का निर्णय ले लिया तो क्या गलत किया ? तुम सही थी ।  मैं ही गलत था । तुम्हें गलत कह कर अपने आप को दुखी नहीं करना चाहता । सही – गलत, पाप - पुण्य की परिभाषाएँ, उनके अर्थ सब निरर्थक से लगते हैं ।  सच कहूं तो रिश्ते भी निरर्थक लगते हैं । ऐसा लगता है कि सारे रिश्ते सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ के लिए बने हुए हैं । जहां जिसका स्वार्थ पूरा होता है वहीं पर जुड़ जाता है ।

                      तुम अगर कभी मेरी इन बातों को पढ़ो तो इन्हें पढ़कर उदास मत होना ।  मैं तो लगभग हर मामले में बुरी तरह से नाकामयाब हूँ । मुझे नहीं मालूम कि जिंदगी अभी कितनी और इम्तिहान लेगी ? पता नहीं अभी कितने और धोखे खाने हैं ?  यह संसार भरोसे और अपनेपन की उम्मीद के बीच उलझा, सिमटा हुआ एक ऐसा जाल है कि जिससे बाहर निकलना किसी के बस की बात नहीं । जानती हो ? उन दिनों जब तुम्हें देखता था तो जिंदगी जीने का हौसला बढ़ जाता था । तुम्हें देखता था तो लगता था कि सर्द जिंदगी उम्मीद की नीमकश धूप से रुबरु हो रही है । आस्था थोड़ी और प्रबल हो जाती । स्याह काली विरानी में तुम्हारी आँखों के जुगनू सहारा देते, सपने देते और मुझे उस खोह से निकाल लेते जहाँ रौशनी पर पाबंदी थी । तुम्हारा चेहरा, उस पैग़ाम की तरह होता है जो प्रार्थना के रूप में आत्मा और परमात्मा के बीच एक रिश्ते को मुकम्मल करते हैं । तुम मेरी उन तमाम हसरतों का रोशनदान होती जहाँ से मेरी हमख़याली तुम्हारे सुर्ख़, गुलाबी नूर में ढल कर खुशगवार हो जाती । तुम थी तो अपने होने का गुमान था, वरना गुमनामी,ग़फ़लत, बेज़ारी और आवारगी के सिवा मेरे हिस्से में अब कुछ भी नहीं ।


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