अमरकांत
: जन्म शताब्दी वर्ष
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
प्रभारी – हिन्दी विभाग
के एम अग्रवाल कॉलेज , कल्याण पश्चिम
महाराष्ट्र
उत्तर प्रदेश के सबसे पूर्वी जिले
बलिया में एक तहसील है - ‘रसड़ा’। इस रसड़ा तहसील के सुपरिचित गाँव ‘नगरा’ से सटा हुआ
एक छोटा सा गाँव और है। यह गाँव है - ‘भगमलपुर’। देखने में यह गाँव नगरा गाँव का
टोला लगता है।भगमलपुर गाँव तीन टोलों में बँटा है। उत्तर दिशा की तरफ का टोला
यादवों (अहीरों) का टोला है तो दक्षिण में दलितों का टोला (चमरटोली)। इन दोनों
टोलों के ठीक बीच में कायस्थों के तीन परिवार थे। ये तीनों घर एक ही कायस्थ पूर्वज
से संबद्ध, कालांतर में तीन टुकड़ों में विभक्त होकर वहीं रह रहे थे।
इन्हीं कायस्थ
परिवारों में से एक परिवार था सीताराम वर्मा व अनन्ती देवी का। इन्हीं के पुत्र के
रूप में 1 जुलाई 1925 को अमरकांत का जन्म हुआ। अमरकांत का नाम श्रीराम
रखा गया। इनके खानदान में लोग अपने नाम के साथ ‘लाल’ लगाते थे। अतः अमरकांत का भी
नाम ‘श्रीराम लाल’ हो गया। बचपन में ही किसी साधू-महात्मा द्वारा अमरकांत का एक और
नाम रखा गया था। वह नाम था - ‘अमरनाथ’। यह नाम अधिक प्रचलित तो ना हो सका, किंतु स्वयं श्रीराम
लाल को इस नाम के प्रति आसक्ति हो गयी। इसलिए उन्होंने कुछ परिवर्तन करके अपना नाम
‘अमरकांत’ रख लिया। उनकी साहित्यिक कृतियाँ इसी नाम से प्रसिद्ध हुई।
सन 1946 ई. में अमरकांत ने बलिया के सतीशचन्द्र इन्टर कॉलेज से
इन्टरमीडियेट की पढ़ाई पूरी की और बाद में बी.ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से करने
लगे। बी.ए. करने के बाद अमरकांत ने पढ़ाई बंद कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी। कोई
सरकारी नौकरी करने के बदले उन्होंने पत्रकार बनने का निश्चय कर लिया था। उनके अंदर
यह विश्वास बैठ गया था कि हिंदी सेवा पर्याय है देश सेवा का। वैसे अमरकांत के मन
में राजनीति के प्रति एक तरह का निराशा का भाव भी आ गया था। यह भी एक कारण था
जिसकी वजह से अमरकांत पत्रकारिता की तरफ मुडे़। अमरकांत के चाचा उन दिनों आगरा में
रहते थे। उन्हीं के प्रयास से दैनिक ‘सैनिक’ में अमरकांत को नौकरी मिल गयी। इस तरह
अमरकांत के शिक्षा ग्रहण करने का क्रम समाप्त हुआ और नौकरी का क्रम प्रारंभ हुआ।
अमरकांत का रचनात्मक जीवन अपनी पूरी गंभीरता के साथ प्रारंभ हुआ। जिन
साहित्यकारों को अब तक वे पढ़ते थे या अपने कल्पना लोक में देखते थे उन्हीं के बीच
स्वयं को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी का क्रम भी प्रारंभ
हो गया था। लेकिन सन 1954 में अमरकांत हृदय रोग के कारण बीमार पड़े और नौकरी छोड़कर
लखनऊ चले गये। एक बार फिर निराशा ने उन्हें घेर लिया। अब उन्हें अपने जीवन से कोई
उम्मीद नहीं रही। पर लिखने की आग कहीं न कहीं अंदर दबी हुई थी अतः उन्होनें लिखना
प्रारंभ किया और उनका यह कार्य आज भी जारी है।
अमरकांत अपने समय और उसमें घटित होने वाले हर महत्वपूर्ण परिवर्तन से जुड़े
रहे। उन्होंने जो देखा, समझा और जो सोचा उसी को अपनी कहानियों के
माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी कहानियाँ एक तरह से ‘दायित्वबोध’ की कहानियाँ कही
जा सकती हैं। यह ‘दायित्वबोध’ ही उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ता है।
अमरकांत ने अपने जीवन और वातावरण को जोड़कर ही अपने कथाकार व्यक्तित्व की रचना की
है। अमरकांत अपने समकालीन कहानीकारों से अलग होते हुए भी प्रतिभा के मामले में
कहीं भी कम नहीं हैं। उनका व्यक्तित्व किसी भी प्रकार की नकल से नहीं उपजा है।
उन्होंने जिन परिस्थितियों में अपना जीवन जिया उसी से उनका व्यक्तित्व बनता चला
गया। और उन्होंने जीवन में जो भी किया उसी को पूरी ईमानदारी से अपने लेखन के
माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी किया। इसलिए अमरकांत के व्यक्तित्व को
निर्मित करने वाले घटक तत्वों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि
उनका व्यक्तित्व आरंभ से लेकर अब तक एक ऊर्ध्वगामी प्रक्रिया का परिणाम है।
उन्होंने अपने व्यक्तित्व को किसी निश्चित योजना अथवा आग्रह के आधार पर विकसित न
करके जीवन के व्यावहारिक अनुभव द्वारा आकारित किया। सारांशतः उनका व्यक्तित्व
अनुभव सिद्ध व्यक्ति का व्यावहारिक संगठन है। यही कारण है कि उनमें आत्मनिर्णय, आत्मविश्वास और आत्माभिमान का चरम
उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।
अमरकांत
अपने ऊपर प्रेमचन्द और अन्य साहित्यकारों का भी प्रभाव स्वीकार करते हैं। उन दिनों
अमरकांत के पास सभी साहित्य उपलब्ध नहीं होता था। जो पढ़ने को मिलता उन्हीं का
प्रभाव भी पड़ना स्वाभाविक था। उन दिनों शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य
उनके लिए उपलब्ध था। घर पर आने वाले ‘चलता पुस्तकालय’ के माध्यम से ही अधिकांश
साहित्य उन्हें पढ़ने को मिला था। इन दोनों की ही कहानियों में रोमांटिक तत्व था
जिसने अमरकांत को प्रभावित किया।आगे चलकर जब अमरकांत का परिचय प्रेमचंद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाचंद जोशी और विश्वसाहित्य से हुआ तो उनके अंदर एक दूसरे तरह की
समझ विकसित हुई। रोमांस और आदर्श का प्रभाव उनके ऊपर से कम होने लगा। वैसे इस
रोमांस और आदर्श से दूर होने का एक कारण अमरकांत विभाजन के दम पर मिली आज़ादी और
उसके बाद हुए भीषण कत्ले आम को भी मानते हैं। अभी तक सभी का उद्देश्य एक ही था और
वह था देश की आज़ादी। लेकिन पद, पैसा
और प्रतिष्ठा के लालच में लोग अब विभाजन की बात करने लगे थे। इससे आदर्शो के प्रति
जो एक भावात्मक जुड़ाव था उसे गहरा धक्का लगा।
जयप्रकाश
नारायण के कांग्रेस पार्टी से अलग होने की बात सुनकर भी अमरकांत को आघात पहुँचा।
गोर्की, मोपासा, टॉलस्टॉय, चेखव, दास्टायवस्की, रोम्यारोला, तुर्गनेव, हार्डी, डिकेन्स जैसे लेखकों के साहित्य नें अमरकांत को
प्रभावित किया। बी.ए. करने के बाद अमरकांत नौकरी करने आगरा चले आये। यहाँ वे
प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और कई साहित्यकारों से परिचित भी हुए। आगरा के बाद
अमरकांत इलाहाबाद चले आये। यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। इलाहाबाद आने
और यहाँ के प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने से अमरकांत के साहित्यिक संस्कार अधिक
पुष्ट हुए। लेखकीय आत्मविश्वास में भी वृद्धि हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के लेखकों
के साथ विचार विनिमय का भी उनकी रचनाशीलता पर प्रभाव पड़ा। उनकी ग्रहणशीलता का यह
वैशिष्ट्या था कि लेखकों के रचनात्मक गुणों को वे आदरपूर्वक स्वीकार करते थे। यह
भी लक्षणीय है कि जहाँ उन्होंने अपने समान धर्माओं से प्रभाव ग्रहण किया वहीं
उन्हें प्रभावित भी किया। मोहन राकेश, रांगेय राघव, राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, कमलेश्वर, केदार, राजनाथ पाण्डेय, मधुरेश, मन्नू भंडारी,
मार्कण्डेय, शेखर जोशी, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, ज्ञान प्रकाश, सुरेन्द्र वर्मा, विजय चौहान और विश्वनाथ भटेले जैसे कई
साहित्यकारों ने अगर अपना प्रभाव अमरकांत पर डाला तो वे भी अमरकांत के साहित्यिक
प्रभाव से बच नहीं पाये। समय-समय पर इन सभी ने अमरकांत के साहित्य पर अपनी
समीक्षात्मक दृष्टि प्रस्तुत की है।
अमरकांत
के प्रकाशित कहानी
संग्रह हैं - जिंदगी और जोक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र मिलन, कुहासा, तूफान, कला प्रेमी, जांच
और बच्चे और प्रतिनिधि कहानियाँ । आप
के प्रकाशित उपन्यासों में – सूखा पत्ता, कटीली राह
के फूल, इन्हीं हथियारों से, विदा की
रात, सुन्नर पांडे की पतोह, काले उजले
दिन, सुखजीवी, ग्रामसेविका इत्यादि
प्रमुख हैं । अमरकांत को जो प्रमुख पुरस्कार एवम् सम्मान मिले, वे इसप्रकार हैं :-
सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, यशपाल
पुरस्कार, जन-संस्कृति सम्मान, मध्यप्रदेश
का ‘अमरकांत कीर्ति’ सम्मान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के
हिंदी विभाग का सम्मान । उनके उपन्यास इन्हीं हाथों से के लिए उन्हें 2007
में साहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 2009
में व्यास सम्मान मिला। उन्हें वर्ष 2009 के
लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सोमवार दिनांक 17 फ़रवरी, 2014 को अमरकांत का इलाहाबाद में
निधन हो गया । अमरकांत हमारे समय
का वह ‘किरदार’ हैं, जो पाठ्यक्रम में छपकर खत्म नहीं होता,
बल्कि हर समय की दीवार पर
एक चुप्पी बनकर टंगा रहता है। उनकी कहानियाँ कोई साहित्यिक कारनामा नहीं,
बल्कि सामूहिक चेतना की
दस्तावेज़ हैं। शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करना सिर्फ
अतीत का पुनरावलोकन नहीं, वर्तमान को उसकी असहज
सच्चाइयों के साथ देख पाने की शक्ति अर्जित करना है।