Wednesday 11 April 2018

पिघलती चेतना और तापमान से ।

नंगेपन की नियमावली
के साथ
शिखरों से संचालित
अभियोग की साजिश
नाटकीय सिद्धांत और सीमाएं
कुलबुला देती हैं
गर्म और गाढ़ा ख़ून
और फ़िर
अंदरुनी व्यवस्था
भनभनाती है
लपकती है
आखेट करती है
निहत्थे,नगण्य,मामूली
पथराई आँखों का
और खरोचती है
न्यायसंगत ढ़ंग से
उनकी चेतना,
पसलियों और सहिष्णुता को ।

भयातुर रंग में
विजेता
स्वाद लेता है
नंगी औरतों का
उधेड़े हुए माँस का
टुकड़े हुए सामुहिक उड़ान का
दबोचते हुए
आत्माधिकार और संविधान ।

अफवाहों की मुंडेर पर
कौवे रोमांचित हैं
पिघलती चेतना और तापमान से
उनकी व्यूह रचना में
रेते जा रहे हैं
सिद्धांतों के दाँत
निचोड़ा जा रहा है
सामोहिक उजाला
और
कुचला जा रहा है
विकल्प और संकल्प का
कोई भी प्रयास ।

मर्मस्थलों की
जासूसी और टोह
पक्षियों के झुंड और
अंडों पर झपट्टा
भीरु और अपाहिज़
मस्तिष्क पर राजतिलक
नाटकीय विज्ञापन
जंतुओं की तरह
चिपके,लिजलिजे
लोगों का अभिभाषण
फुनगियों की कपोलों पर
जलवायु के हवाले से
हलफनामा तैयार ।

ऐसे समय में
अपने डैने को
अपनी काँख में दबाये
माँस के लोथड़ों के टीले पर
मैं रोमांचित हूँ
प्रेम की उत्तेजक उड़ान और
आप की
शुभकामनाओं के लिए
ताकि एक उड़ान
क्षितिज के
उस पार हो जहां
परिदृश्य बदला हो
या फिर
इसकी उम्मीद हो ।

    ----------मनीष कुमार मिश्रा ।

Tuesday 10 April 2018

अनजान अपराधों की पीड़ा ।

लीचड़ और लद्धड़
प्यार के बारे में
पीछे की कोई बात
पीड़ा,भरम और मोह
और उदासियों से गुँथे हुए
निपट - निचाट
अंदेशाओं / आशंकाओं से
धूसर
उस पृष्ठभूमि को
उघाड़कर
अगर सामने रख भी दूँ
तो क्या
किसी पुरानी पहचान
के संबंधों की
घुन लगी
तृण और तिनकों की
यह जुगाली
रोशनी का कोई फ़व्वारा
दिखा सकेगी
उसे जो
नाउम्मीदी की झुर्रियों से लदा
किसी भरम के कोटर में
अनजान अपराधों की पीड़ा को
पूरे अनुशासन में
जी रहा है
एक दुर्लभ हँसी के साथ ।

जिसकी कैद में
घिस-घिसकर
प्यार भरी गर्मी
तरसती है
किसी खुली हवा के लिए ।

उसकी
अदम्य लालसा
तितलियों और बुलबुलों से
गलबहियाँ भूल चुकी हैं
और तफ़सील में
पता चला है कि
सार्थक/ रचनात्मक
खेत की उस मिट्टी ने
उमस और गर्मी के बावजूद
किसी बादल की
प्रतीक्षा से
इंकार कर दिया है ।

अतः
अब इस ज़मीन में
बीज बोने का प्रस्ताव
तर्क से परे है ।

        --------- मनीष कुमार मिश्रा ।

दो आँखों में अटकी

निश्छल आदतों
और मामूलीपन के साथ
एक सरल पंक्ति
कि तरह
कितना कठिन हूँ ?

विपदाओं में बंद
प्रियजनों में किटकिटाता
ज़रूरी वेदना के
ताब के साथ
आश्वस्त हूँ
अपने शेष अभिनय पर ।

स्मृतियों की
नदी के तल में
फ़िर भी दबा रखें हैं
कुछ रहस्य
जिनमें दबे हैं -
बचकाने प्रेम के चुंबन
किसी कोमल देह की गंध
दो आँखों में अटकी
अथाह रात
और
धीमी आंच पर
पकती हुई
प्रेम की अमरता ।

यकीन मानों
मरे पास
और कुछ भी नहीं
मेरे कुछ होने की
अब तक कि
पूरी प्रक्रिया में ।

        -------- मनीष कुमार मिश्रा ।

Monday 9 April 2018

मुझे आदत थी ।



मुझे आदत थी
तुम्हें रोकने की
टोकने की
बताने और
समझाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें डाँटने की
सताने की
रुलाने और
मनाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें कहने की
बिगड़ने की
तुम्हारा हूँ
यह जताने की ।

लेकिन
यह सब करते हुए
भूल गया कि
तुम
इनसब के बदले
नाराज़ भी हो सकती हो
वो भी इतना कि
छोड़ ही दो
मुझे
मेरी आदतों के साथ
हमेशा के लिए ।

अब
जब नहीं हो तुम
तो इन आदतों को
बदल देना चाहता हूँ
ताकि
शामिल हो सकूँ
तुम्हारे साथ
हर जगह
तुम्हारी आदत बनकर ।

      ------  मनीष कुमार मिश्रा ।

Tuesday 6 March 2018

तुम्हारी एक मुस्कान के लिए ।


तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
कितना बेचैन रहता ?
मन का बसंत 
मनुहारों की लंबी श्रृंखलाओं में
समर्पित होते
न जाने कितने ही
निर्मल,निश्छल भाव ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
गाता
अनुरागों का राग
बुनता सपनों का संसार
और छेड़ता
तुम्हारे हृदय के तार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
अनगिनत शब्दों से
रचता रहता महाकाव्य
अपनी चाहत को
देता रहता धार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
जनवरी में भी
हुई झमाझम बारिश और
अक्टूबर में ही
खेला गया फ़ाग ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
उतर जाता इतना गहरा
कि डूब जाता
उस रंग में जिसमें
कि निखर जाता है प्यार ।
तुम्हारी हर एक मुस्कान
मानों प्रमाणित करती
मेरे किसी कार्य को
ईश्वर के
हस्ताक्षर के रूप में ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
मेरे अंतिम शब्दों में भी
एक प्रार्थना होगी
जो तुम सुन सकोगी
अपने ही भीतर
मौन के उस पर्व में
जब तुम खुद से मिलोगी
कभी जब अकेले में ।
--------- मनीष कुमार मिश्रा

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं
और शोर है परिवर्तन गहन कर रहे हैं ।
हम आसमान की ओर बढ़ तो रहे हैं
पर अपनी जड़ों का हवन कर रहे हैं ।
रावण के पक्ष में खुद को खड़ा कर के
ये हर साल किसका दहन कर रहे हैं ?
जब कुछ करने का वक़्त है आज तो
हम हाँथ पर हाँथ धरे मनन कर रहे हैं ।
देश के घायल सैनिकों पर आरोप है कि
वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं ।
ग़ुलामी की जंज़ीरें जब तोड़ दी गई हैं तो
ये किस मानसिकता का जतन कर रहे हैं ?
उन मजदूरों के हिस्से में क्यों कुछ भी नहीं
जो मेहनत से एक धरा और गगन कर रहे हैं ।
भगौड़े भाग रहे हैं विदेश,देश को लूटकर
हमारे रहनुमा हैं कि भाषण भजन कर रहे हैं ।
------------- मनीष कुमार ।

पिछली ऋतुओं की वह साथी ।


पिछली ऋतुओं की वह साथी
मुझको कैसे तनहा छोड़े
स्मृतियों में तैर-तैर कर
वो तो अब भी नाता जोड़े ।
सावन की बूंदों में दिखती
जाड़े की ठंडक सी लगती
अपनी सांसों का संदल
मेरी सांसों में भरती ।
मेरे सूखे इस मन को
अपने पनघट पर ले जाती
मेरी सारी तृष्णा को
तृषिता का भोग चढ़ाती ।
इस एकाकी मौसम में
वह कितनी अकुलाहट देती
मेरे प्यासे सपनों को
अब भी वो सावन देती ।
पिछली ऋतुओं की वह साथी
आँखों का मोती बनती
मेरी सारी झूठी बातों को
केवल वो ही सच्चा कहती ।
----------मनीष कुमार मिश्रा ।

रंग-ए-इश्क़ में

वह सर्दियों की धूप सी भली लगती
मुझे मेरे रंग-ए-इश्क़ में ढली लगती ।
जहाँ बार-बार लौटकर जाना चाहूँ
वह प्यार वाली ऐसी कोई गली लगती ।
कहने को कोई रिश्ता तो नहीं था पर
मेरे अंदर मेरी रूह की तरह पली लगती ।
जब बंद दिखायी पड़ते सब रास्ते तब
वह उम्मीद की खिड़की सी खुली लगती ।
दुनियादारी की सारी उलझनों के बीच
वही एक थी कि जो हमेशा भली लगती ।
कोई अदा थी या कि मासूमियत उसकी
मौसम कोई भी हो वह खिली खिली लगती ।
जितना भी पढ़ पाया उसकी आँखों को
वो हमेशा ही मुझे मेरे रंग में घुली लगती ।
--------- मनीष कुमार ।

Wednesday 28 February 2018

इस दौर ए निज़ाम में ।


तेरी आँखों से मेरा एक ख़ास रिश्ता है
एक सपना है जो यहीं से हौंसला पाता है ।
शिकार हो जायेंगे हर हाल में सवाल सारे
इस दौर ए निज़ाम में यह व्यवस्था पुख्ता है ।
तोड़ दिये गये हैं सब दाँत निरर्थक बताकर
क्योंकि चाटने की परंपरा में काटना समस्या है ।
विश्व के इस सबसे बड़े सियासी लोकतंत्र में
आवाम की कोई भी मजबूरी सिर्फ़ एक मौक़ा है ।
अपराधियों की श्रेणी में अब वो सब शामिल हैं
जिनका कि खून व्यवस्था के ख़िलाफ़ खौलता है ।
जब कोई आख़री पायदान से चीख़ता-चिल्लाता है
तो यक़ीनन वह उम्मीद की नई मशाल जलाता है ।
तुम्हें अब तक जितनी भी शिकायत रही है मुझसे
वो तेरे इश्क़ का अंदाज़ है जो मुझे बहुत भाता है ।
----------------- मनीष कुमार मिश्रा

Tuesday 27 February 2018

जब तुम्हें लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो मन से लिखता हूँ
तुम्हारे मन में
बैठकर लिखता हूँ  ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो जतन से लिखता हूँ
हर शब्दों को
चखकर लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो बसंत लिखता हूँ
होली के रंग में
तुम्हें रंगकर लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो पुरवाई लिखता हूँ
तुम्हारी आस में
अपनी प्यास लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो दिल खोलकर  लिखता हूँ
न जाने कितने सारे
बंधन तोड़कर लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो खुशी लिखता हूँ
आँख की नमी को
तेरी कमी लिखता हूँ ।

              -------मनीष कुमार मिश्रा ।











Sunday 25 February 2018

पद्मावत फ़िल्म



                 पद्मावत / पद्मावती फ़िल्म को लेकर शुरू से जब हंगामा बरप रहा था, तभी से उत्सुकता थी कि फ़िल्म देखनी चाहिये । आख़िर पता तो चले कि यह हंगामा बरपा क्यों ? वह भी फ़िल्म को बिना देखे । आरोप यह भी लगा कि यह सब “पब्लीसिटी स्टंट” है । अगर यह सब “पब्लीसिटी स्टंट” था भी तो इसके नैतिक पक्ष को लेकर बहस हो सकती है पर व्यावसायिक दृष्टि से तो यह स्टंट कामयाब रहा । राजपूती आन-बान-शान की दुहाई देने वाली आंदोलनकारी करणी सेना परिदृश्य से जिस तरह गायब हुई वह भी स्टंट वाली बातों को बल देती हैं । बहरहाल फ़िल्म प्रदर्शित हो चुकी है और अपनी कामयाबी की इबारत भी लिख चुकी है । फ़िल्म की अभी तक कि कमाई लगभग 500 करोड़ बतायी जा रही है,जो की अभी जारी है ।
              संजय लीला भंसाली को इस शानदार फ़िल्म के लिये बधाई । अगर तथाकथित  “पब्लीसिटी स्टंट” में भंसाली जी शामिल भी रहे हों तो भी जितनी कटु आलोचना उन्होंने झेली, झपड़ियाए गये, माँ-बहन तक की गलियाँ सार्वजनिक रूप से सोशल मीडिया द्वारा प्रचारित-प्रसारित की गयी यह सब दुखद ही कहा जा सकता है । विरोध का स्वर इतना अमर्यादित था कि स्वस्थ मानसिकता का कोई भी व्यक्ति उसे स्वीकार नहीं कर सकता । बॉलीवुड को कई विद्वानों ने “राजपत्रित वेश्यालय”तक कहने में गुरेज़ नहीं किया । चार इंच के कपड़ों में फ़िल्मी पर्दे पर नाच चुकी,फ़िल्म की नायिका दीपिका पादुकोण माँ पद्मावती कैसे बन सकती है ?,यह भी धर्म के ठेकेदारों कों समझ में नहीं आ रहा था । जहाँ तक मेरी समझ है, नायिका दीपिका पादुकोण एक कुशल अभिनेत्री के रूप में सिर्फ़ अपने सिनेमायी पात्र के साथ पूरा न्याय करना चाहती होंगी । और वह उन्होंने किया भी । इस फ़िल्म को देखने के बाद दीपिका की अदाकारी को श्रेष्ठ श्रेणी में ही गिना जाना चाहिये । उनकी भाव -भंगिमाएँ, नृत्य, डायलॉग डिलेवरी सब बहुत उम्दा रहे । संजय लीला भंसाली अपने रंग बोध के लिये सराहे जाते रहे हैं । फ़िल्म में राजस्थानी भाषा और रंगबोध को जिस तरह दिखाया गया वह भी उम्दा रहा । आधी आबादी की अस्मिता और सम्मान को भी फ़िल्मी संवादों में एक ऊँचाई प्रदान की गयी है । अतः फ़िल्म को स्त्री अस्मिता और सम्मान के खिलाफ़ भी नहीं कहा जा सकता ।
          इस फ़िल्म के प्रारंभ में ही फ़िल्म को जायसी के पद्मावत के आधार पर फ़िल्माने की घोषणा होती है और एक नये विरोध का स्वर यहाँ से भी उभरा । कई हिंदी साहित्य के विद्वानों ने अपना विरोध दर्ज़ भी किया । लेकिन हमें यह समझना होगा कि भंसाली महोदय जायसी के पद्मावत को आधार बना रहे थे ना कि जायसी के पद्मावत को केंद्र में रखकर उसका फ़िल्मी रूपांतरण कर रहे थे । दरअसल रानी पद्मावती और उनके जौहर से जुड़ी हुई जितनी भी साहित्यिक,ऐतिहासिक और काल्पनिक कहानियाँ मिलती हैं, उनका एक मिश्रित या संलयित रूप इस फ़िल्म में दिखाई पड़ता है । यह फ़िल्म देखने के बाद स्पष्ट है कि यह फ़िल्म जायसी के पद्मावत के दृष्टिकोण से नहीं बनी है । इस फ़िल्म को  जायसी के “पॉइंट ऑफ व्यू” से नहीं अपितु  फ़िल्म निर्देशक भंसाली के “व्यू पॉइंट” से समझना और देखना होगा ।
                    यह फ़िल्म दो विरोधी ध्रुव निर्मित करती है अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती के चरित्र रूप में । ये दोनों चरित्र धर्म और अधर्म का प्रतिकात्मक रूप भी हैं । पद्मावती अपनी प्रतिबद्धता,दृढ़ता, धर्म परायणता और प्रेम की एकनिष्ठता की वजह से माँ भवानी का रूप हैं तो अलाउद्दीन खिलजी एक अति महत्वाकांक्षी,अइयास,आततायी है जो नैतिकता विहीन है । लेकिन फ़िल्मी किरदार के रूप में दोनों ही कलाकारों का अभिनय सराहनीय है ।
                     पूरी फ़िल्म में जो एक बात मुझे खटकती है वह यह कि जायसी के पद्मावत के आधार पर पद्मावती को सिंघल द्वीप की राजकुमारी दिखाया गया पर उनके तेवर राजपुतानी राजकुमारियों जैसे । फ़िल्मी सिंघल द्वीप में राजकुमारी एक तरफ हिरन का शिकार कर रही हैं, घुड़सवारी कर रही हैं तो दूसरी तरफ कुछ दृश्यों  में भगवान बुद्ध की प्रतिमा और प्रतिकों को भी दिखाया जाता है । भगवान बुद्ध के अस्तित्व और प्रतिकों के साथ हिरन का शिकार करनेवाली राजकुमारी खटकती है ।  किसी अन्य राजपूताना राज्य की राजकुमारी के रूप में ही जो कुछ वर्णन राजकुमारी पद्मावती को लेकर मिलते हैं उसे आधार बनाकर पद्मावती को चित्रित करना उनके फ़िल्मी तेवर और संवादों के अधिक अनुकूल होता । लेकिन हो सकता है घायल राजा के प्रति राजकुमारी की दया,करुणा और प्रेम के भाव के संदर्भ में भगवान बुद्ध की प्रतिमा और प्रतिकों को दिखाया गया हो । लेकिन फ़िर वही प्रश्न उठता है कि दया,करुणा और प्रेम के भाव से भरी बौद्ध धर्म के केंद्र सिंघल द्वीप की राजकुमारी निरीह हिरन का शिकार कैसे कर सकती है ? जबकि एक राजपूताना राजकुमारी के रूप में यह चित्रण अधिक सहज दिखता । सिंघल द्वीप तक जाने की आवश्यकता नहीं थी ।
                   कुल मिलाकर यह एक शानदार फ़िल्म है । जिस राजपूती अस्मिता और आन-बान-शान की दुहाई देकर फ़िल्म का शुरुआती विरोध हुआ वह फ़िल्म देखने के बाद निरर्थक लगता है । इस फ़िल्म को देखने के बाद मुझे आपत्तिजनक कहने जैसा और कुछ विशेष नहीं लगा । असहमतियाँ दर्ज़ कराने वालों को असहमति का विवेक नहीं छोड़ना चाहिये ।

                                                                                  डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।