Tuesday 22 June 2010

भय से मुक्त होना भी कहाँ तक उपयुक्त है /

भय से मुक्त होना भी कहाँ तक उपयुक्त है ,

डरना सीखो अर्जुन ये कृष्ण का मुक्त है /

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बधन बने है कालचक्र से ,

बदलाव जुड़ा है वक़्त से ,

मन बंधा संसार से ,

संसार भी तो समय युक्त है /

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कौन स्वजन कौन परिजन कौन यहाँ पराया है ,

कैसे कहेंगे किसमे सबका हित समाया है /

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भय से मुक्त होना भी कहाँ तक उपयुक्त है ,

डरना सीखो अर्जुन ये कृष्ण का मुक्त है /

ugc and ph.D exemption /UGC Guidelines for award of Ph.D.

university grant commission  has exempted ph.d  HOLDERS  form NET/SET/SLET THROUGH his notification in july 2009. that notofication was

Monday 21 June 2010

बदली जिंदगानी सपने नहीं बदले ,

बदली जिंदगानी सपने नहीं बदले ,
जो नहीं थे अपने वो अपने नहीं बदले ,
प्रिये तुने चाहा बहुत लेकिन ,
मैंने इश्क की रवायत नहीं बदले /

पूजा भली हर हाल में चाहे काँटा हो या हो शूल /

पूजा भली हर हाल में चाहे काँटा हो या हो शूल ,
इश्वर है चहुँ ओर क्या हो भेद चन्दन और बबूल ।
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यज्ञ ह्रदय में पूजा मन में ,
मुझे फूल दिखे है कण कण में ;
चन्दन सा खुद को घिसना सिखा है ,
हर पल तभी महकना सीखा है ,
माला का मोह करूँ मै कैसे ,
मैंने ह्रदय से जपना सीखा है /
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पूजा भली हर हाल में चाहे काँटा हो या हो शूल ,
इश्वर है चहुँ ओर क्या हो भेद चन्दन और बबूल ।

Saturday 19 June 2010

वक़्त बदल देता है रिश्तों के माने , रिश्ता बदल जाये ऐसा रिश्ता ना करना

कोई ख्वाब अधुरा ना देखो ,
सपने तो कम से कम पूरा देखो ,
मंजिल को दो अपनी हर कोशिश,
हर मंजिल पर नया रास्ता ना देखो /
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प्यार हमेशा बेइंतहा करना ,
टूटे गर दिल भी तो गम को रुसवा ना करना /
वक़्त बदल देता है रिश्तों के माने ,
वक़्त बदल दे रिश्ता ऐसा रिश्ता ना करना /

उन आखों की उलझन को सुलझायुं कैसे ,

ऊन आखों की उलझन को सुलझायुं कैसे ,
ऊन सहमे हुए भावों को समझाऊं कैसे ,
रह कर गैर की बाँहों में भी जों सोचे मुझको ,
ऐसे दिलदार को दर्द बतलाऊं भी कैसे ?

Thursday 17 June 2010

मेरे सब्र का इम्तहान ले रहा कब से /

सब्र का इम्तहाँ ले रहा कब से,मोहब्बत से खेल रहा अब तो,

राह बदल भी देते मगर मजबूरी है, उस बिन जिंदगी अधूरी है/

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मेरा जहन से तू निकला ही नहीं ,

मेरी यादों में तू रहा भी नहीं ;

तू कभी साथ था मेरे पर उसको हुआ बरसों ,

क्यूँ मेरे अश्कों से तेरा रिश्ता टुटा ही नहीं /

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Wednesday 16 June 2010

खुद को उसकी आखों से कभी देखा था /

खिला गुलाब बगीचे में कभी देखा था ,
महकता ख्वाब मैंने भी कभी देखा था ;
खुदाई बिखरी है जर्रे-जर्रे में ,
खुद को उसकी आखों से कभी देखा था /

Saturday 12 June 2010

सब शायद इसे मेरी उलझन समझें ,

उद्विग्नता की शाम छाई है ,
खिन्नता साथ लायी है ;
उनसे मेरी दुरी क्या कम थी,
जों नाराजगी का पैगाम फिजा साथ लायी है ;
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चल रही है जिंदगी यूँ तो अपनी चाल से ,
फिर किसे ढूंढ़ रही हैं आखें किस नाम से ;
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ना रिश्ता रहा न नजदीकी रही ,
ना भुला उसे न आखें भीगी रखीं ;
हर बार हारा उससे हर बार वो है हारी ,
हर बार जीती वो ही हर बार जीता मै ही ;
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सब शायद इसे मेरी उलझन समझें ,
नहीं चाहता मै इसे वो मेरी भटकन समझें /

Thursday 10 June 2010

ऐसा भी मेरे साथ हुआ -----

ऐसा भी मेरे साथ हुआ -----
           पिछले २० दिनों से मैं यंहा मुंबई में अकेला हूँ. घर के सभी लोग गाँव गए हुवे हैं. मैं कतिपय कारणों से यंही रह गया .इस बीच ३० साल क़ी उम्र में पहली बार अपने कपडे खुद धोने क़ी मजबूरी के तहत मैंने यह महान अनुष्ठान संपन्न करने का साहसिक संकल्प लिया .
          सारे कपडे टब में भिगोने के बाद जब उस पर नजर गयी तो हिम्मत ने जवाब दे दिया. अपने पक्ष में मैंने तर्क तलासने का आदेश मस्तिस्क को दिया .मस्तिस्क ने तुरंत वफादार सेवक क़ी तरह तर्क हाजिर कर दिया . उसने मानो कहा -'' इतने कपडे हैं,पहले इन्हें दिन भर भिगो देना चाहिए.इन्हें कल साफ़ किया जाएगा तो परिणाम जादा अच्छा और सुखद होगा .'' बस फिर क्या था ,मुझे तो ऐसा ही कोई बहाना चाहिए था.
       अगले दिन सुबह फिर जब कपड़ों से भरा टब देखा तो वही विचार फिर मन में आया .इस बार विचार में जो नई बात जुडी थी वह यह क़ि'' कपडे सुबह की जगह शाम को साफ़ किये जायेंगे तो अच्छा रहेगा .गर्मी भी नहीं लगे गी और जादा कस्ट भी नहीं होगा .'' इस तरह शाम तक के लिए अनुष्ठान टल गया .
       शाम को अनुष्ठान करना अनिवार्य हो गया क्योंकि मस्तिस्क ने ही बताया कि,'' अब अगर कपड़ों को नहीं धो दिया गया तो ये खराब हो सकते हैं,और अगर ये खराब हो गए तो नागा बाबा की बिरादरी में सम्मिलित होना पड़ेगा . सावधान !!!'' मरता क्या न करता ,मैंने जैसे -तैसे कार्य को अंजाम तक पहुंचाकर चैन की सांस लेते हुवे अपनी नीद पूरी की .
        अगले दिन सुबह सूखे हुवे कपड़ों को देखकर मैं अपने श्रम पर फूला नहीं समाया. लेकिन जब उन कपड़ों को लेकर मैं  प्रेस कराने गया तो प्रेस वाली ने कहा ,'' साहब ,गंदे कपडे ही प्रेस करवाने हैं क्या ?'' मुझे काटो  तो खून नहीं . सोचिये ऐसा भी होता है .

Tuesday 8 June 2010

विवेकी राय जी

विवेकी राय जी का जन्म १९२७ में हुआ.आप हिंदी और भोजपुरी साहित्य में काफी प्रसिद्ध  रहे.आप उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक छोटे से गाँव  सोनवानी से हैं.आप ने ५० से अधिक पुस्तकें लिखीं .आप को कई पुरस्कार भी प्राप्त हुवे.सोनामाटी आप का मशहूर उपन्यास रहा.  महापंडित  राहुल  संकृत्यायन  अवार्ड  सन  २००१ में और   उत्तर  प्रदेश ' का यश  भारती  अवार्ड  सन  २००६ में आप को मिला . 
  आप क़ी प्रमुख कृतियाँ है 
  • मंगल  भवन 
  • नमामि  ग्रामं 
  • देहरी  के  पार 
  • सर्कस
  • सोनामाटी
  • कालातीत 
  • गंगा जहाज 
  • पुरुस  पुरान
  • समर  शेष  है 
  • फिर  बैतलवा  डार  पर 
  • आम  रास्ता  नहीं  है 
  • आंगन  के  बन्दनवार 
  • आस्था  और  चिंतन 
  • अतिथि 
  • बबूल 
  • चली  फगुनहट  बुरे  आम 
  • गंवाई  गंध  गुलाब 
  • जीवन  अज्ञान  का  गणित  है 
  • लौटकर  देखना 
  • लोक्रिन 
  • मनबोध  मास्टर  की  डायरी 
  • मेरे  शुद्ध  श्रद्धेय 
  • मेरी   तेरह  कहानियां 
  • नरेन्द्र  कोहली  अप्रतिम   कथा  यात्री 
  • सवालों  के  सामने 
  • श्वेत  पत्र 
  • यह  जो  है   गायत्री 

  • कल्पना  और  हिंदी  साहित्य , .

  • मेरी  श्रेष्ठ  व्यंग्य  रचनाएँ , 1984.