Thursday 19 July 2018

मालेगाँव (मालीवुड) का सिनेमा : समाजिक ताने-बाने का अप्रतिम उदाहरण ।


नाशिक,मनमाड,धुलिया जैसे शहरों से जुड़ा हुआ मालेगाँव नाशिक जिले का एक तालुका है । यह मुंबई से लगभग 300 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । बीस लाख के लगभग आबादी वाला यह मुस्लिम बाहुल्य शहर है । यह शहर अपने पवार लूम और फिल्मों के लिये जाना जाता है । हिंदी,उर्दू,ऐरानी,मराठी,बाग्लानी,खानदेशी,भिल्ल और सटानी जैसी भाषाओं-बोलियों के संलयन से मालेगाँव की एक अलग ही बोली विकसित होती है जो कि हिंदी का एक नया स्थानीय रूप है ।
मालेगाँव का फ़िल्म उद्योग, उद्योग से अधिक सामाजिक सहयोग और सहकार्यता आधारित प्रकल्प है । सीमित संसाधनों से बनी यहाँ की फिल्में कई कारणों से चर्चा का विषय रही हैं । मालेगाँव के शोले, मालेगाँव का सुपरमैन, मालेगाँव के करण-अर्जुन, मालेगाँव का जेम्स बांड जैसी यहाँ की फिल्में काफ़ी लोकप्रिय रही हैं ।
मात्र पचास हजार से 2 लाख रुपये के बजट में बनकर तैयार हो जानेवाली ये फिल्में स्थानीय मध्यमवर्गीय , निम्न मध्यमवर्गीय कुछ उत्साही लोगों द्वारा बनायी जाती हैं । ये फिल्में यहीं दिखायी जाती हैं और लाख- पचास हजार की कमाई भी कर लेती हैं । लूम में, चाय की दुकान में, कपड़े की दुकान में या ऐसे ही छोटे-मोटे काम करने वाले लोग आपसी सहयोग से इन फिल्मों का निर्माण करते हैं । संसाधनों से वंचित ये लोग अपनी साधना में जिद्द और जुनून के साथ काम करते हैं ।
हास्य प्रधान ये फिल्में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी नहीं होती और ना ही अधिक कमाई के लिये अपने समाज विशेष में वर्जित वर्जनाओं से टकराती ही हैं । अपनी बोली,स्थान,खान-पान और पहनावे की विशेषता के साथ ये फिल्में हास्य के माध्यम से मनोरंजन करना ही उचित मानती हैं ।
अतुल दुसाने, नासिर शेख़, फ़ैज़ अहमद ख़ान, खुर्शीद सिद्दकी और फिरोज़ टार्जन जैसे नाम यहाँ के फिल्मों से जुड़े बड़े नाम हैं । इनके पास वैनटी वैन नहीं होती सो कलाकार किसी कोने में जाकर मेकअप और कपड़े बदलने का काम कर लेते हैं, कैमरा घुमाने के लिये ट्राली नहीं होती इसलिए ठेले या साईकिल पर उसे रखकर काम चला लिया जाता है । यहाँ कलाकारों को कोई रकम नहीं मिलती, मिलता है तो बस अपनों का साथ ।
पूरे मालेगाँव में 15-16 फ़िल्म थियेटर हैं । मोहन,सुभाष,दीपकऔर संदेश यहाँ कुछ प्रमुख थियेटर हैं । इनके अलावा छोटे वीडियो पार्लर भी हैं । यहीं पर ये फिल्में अपना कारोबार करती हैं । जुम्मे / शुक्रवार को सभी थियेटर हाऊस फ़ुल होते हैं क्योंकि उस दिन लूम बंद रहते हैं । मालेगाँव में फिल्मों के लिये जो जुनून है वह पूरे भारत में अनोखा है । हिंदी और मराठी फ़िल्म उद्योग के सामने इनका कोई व्यावसायिक मुक़ाबला हो ही नहीं सकता लेकिन इनकी फिल्मों के प्रति प्रतिबद्धता इन्हें एक विशेष पहचान देती है ।
किस तरह एक क्षेत्र विशेष अपनी क्षेत्रीयता के तमाम रंगों के साथ प्रयोगधर्मी होते हुए सामाजिक सहयोग और सहकार्यता के ताने-बाने पर पूरी पूंजीवादी व्यवस्था और उसके मकडजाल को चुनौती देता है, इसे मालेगाँव की फ़िल्मों से समझा जा सकता है ।
डॉ. मनीषकुमार सी. मिश्रा

Wednesday 11 April 2018

पिघलती चेतना और तापमान से ।

नंगेपन की नियमावली
के साथ
शिखरों से संचालित
अभियोग की साजिश
नाटकीय सिद्धांत और सीमाएं
कुलबुला देती हैं
गर्म और गाढ़ा ख़ून
और फ़िर
अंदरुनी व्यवस्था
भनभनाती है
लपकती है
आखेट करती है
निहत्थे,नगण्य,मामूली
पथराई आँखों का
और खरोचती है
न्यायसंगत ढ़ंग से
उनकी चेतना,
पसलियों और सहिष्णुता को ।

भयातुर रंग में
विजेता
स्वाद लेता है
नंगी औरतों का
उधेड़े हुए माँस का
टुकड़े हुए सामुहिक उड़ान का
दबोचते हुए
आत्माधिकार और संविधान ।

अफवाहों की मुंडेर पर
कौवे रोमांचित हैं
पिघलती चेतना और तापमान से
उनकी व्यूह रचना में
रेते जा रहे हैं
सिद्धांतों के दाँत
निचोड़ा जा रहा है
सामोहिक उजाला
और
कुचला जा रहा है
विकल्प और संकल्प का
कोई भी प्रयास ।

मर्मस्थलों की
जासूसी और टोह
पक्षियों के झुंड और
अंडों पर झपट्टा
भीरु और अपाहिज़
मस्तिष्क पर राजतिलक
नाटकीय विज्ञापन
जंतुओं की तरह
चिपके,लिजलिजे
लोगों का अभिभाषण
फुनगियों की कपोलों पर
जलवायु के हवाले से
हलफनामा तैयार ।

ऐसे समय में
अपने डैने को
अपनी काँख में दबाये
माँस के लोथड़ों के टीले पर
मैं रोमांचित हूँ
प्रेम की उत्तेजक उड़ान और
आप की
शुभकामनाओं के लिए
ताकि एक उड़ान
क्षितिज के
उस पार हो जहां
परिदृश्य बदला हो
या फिर
इसकी उम्मीद हो ।

    ----------मनीष कुमार मिश्रा ।

Tuesday 10 April 2018

अनजान अपराधों की पीड़ा ।

लीचड़ और लद्धड़
प्यार के बारे में
पीछे की कोई बात
पीड़ा,भरम और मोह
और उदासियों से गुँथे हुए
निपट - निचाट
अंदेशाओं / आशंकाओं से
धूसर
उस पृष्ठभूमि को
उघाड़कर
अगर सामने रख भी दूँ
तो क्या
किसी पुरानी पहचान
के संबंधों की
घुन लगी
तृण और तिनकों की
यह जुगाली
रोशनी का कोई फ़व्वारा
दिखा सकेगी
उसे जो
नाउम्मीदी की झुर्रियों से लदा
किसी भरम के कोटर में
अनजान अपराधों की पीड़ा को
पूरे अनुशासन में
जी रहा है
एक दुर्लभ हँसी के साथ ।

जिसकी कैद में
घिस-घिसकर
प्यार भरी गर्मी
तरसती है
किसी खुली हवा के लिए ।

उसकी
अदम्य लालसा
तितलियों और बुलबुलों से
गलबहियाँ भूल चुकी हैं
और तफ़सील में
पता चला है कि
सार्थक/ रचनात्मक
खेत की उस मिट्टी ने
उमस और गर्मी के बावजूद
किसी बादल की
प्रतीक्षा से
इंकार कर दिया है ।

अतः
अब इस ज़मीन में
बीज बोने का प्रस्ताव
तर्क से परे है ।

        --------- मनीष कुमार मिश्रा ।

दो आँखों में अटकी

निश्छल आदतों
और मामूलीपन के साथ
एक सरल पंक्ति
कि तरह
कितना कठिन हूँ ?

विपदाओं में बंद
प्रियजनों में किटकिटाता
ज़रूरी वेदना के
ताब के साथ
आश्वस्त हूँ
अपने शेष अभिनय पर ।

स्मृतियों की
नदी के तल में
फ़िर भी दबा रखें हैं
कुछ रहस्य
जिनमें दबे हैं -
बचकाने प्रेम के चुंबन
किसी कोमल देह की गंध
दो आँखों में अटकी
अथाह रात
और
धीमी आंच पर
पकती हुई
प्रेम की अमरता ।

यकीन मानों
मरे पास
और कुछ भी नहीं
मेरे कुछ होने की
अब तक कि
पूरी प्रक्रिया में ।

        -------- मनीष कुमार मिश्रा ।

Monday 9 April 2018

मुझे आदत थी ।



मुझे आदत थी
तुम्हें रोकने की
टोकने की
बताने और
समझाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें डाँटने की
सताने की
रुलाने और
मनाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें कहने की
बिगड़ने की
तुम्हारा हूँ
यह जताने की ।

लेकिन
यह सब करते हुए
भूल गया कि
तुम
इनसब के बदले
नाराज़ भी हो सकती हो
वो भी इतना कि
छोड़ ही दो
मुझे
मेरी आदतों के साथ
हमेशा के लिए ।

अब
जब नहीं हो तुम
तो इन आदतों को
बदल देना चाहता हूँ
ताकि
शामिल हो सकूँ
तुम्हारे साथ
हर जगह
तुम्हारी आदत बनकर ।

      ------  मनीष कुमार मिश्रा ।

Tuesday 6 March 2018

तुम्हारी एक मुस्कान के लिए ।


तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
कितना बेचैन रहता ?
मन का बसंत 
मनुहारों की लंबी श्रृंखलाओं में
समर्पित होते
न जाने कितने ही
निर्मल,निश्छल भाव ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
गाता
अनुरागों का राग
बुनता सपनों का संसार
और छेड़ता
तुम्हारे हृदय के तार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
अनगिनत शब्दों से
रचता रहता महाकाव्य
अपनी चाहत को
देता रहता धार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
जनवरी में भी
हुई झमाझम बारिश और
अक्टूबर में ही
खेला गया फ़ाग ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
उतर जाता इतना गहरा
कि डूब जाता
उस रंग में जिसमें
कि निखर जाता है प्यार ।
तुम्हारी हर एक मुस्कान
मानों प्रमाणित करती
मेरे किसी कार्य को
ईश्वर के
हस्ताक्षर के रूप में ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
मेरे अंतिम शब्दों में भी
एक प्रार्थना होगी
जो तुम सुन सकोगी
अपने ही भीतर
मौन के उस पर्व में
जब तुम खुद से मिलोगी
कभी जब अकेले में ।
--------- मनीष कुमार मिश्रा

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं
और शोर है परिवर्तन गहन कर रहे हैं ।
हम आसमान की ओर बढ़ तो रहे हैं
पर अपनी जड़ों का हवन कर रहे हैं ।
रावण के पक्ष में खुद को खड़ा कर के
ये हर साल किसका दहन कर रहे हैं ?
जब कुछ करने का वक़्त है आज तो
हम हाँथ पर हाँथ धरे मनन कर रहे हैं ।
देश के घायल सैनिकों पर आरोप है कि
वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं ।
ग़ुलामी की जंज़ीरें जब तोड़ दी गई हैं तो
ये किस मानसिकता का जतन कर रहे हैं ?
उन मजदूरों के हिस्से में क्यों कुछ भी नहीं
जो मेहनत से एक धरा और गगन कर रहे हैं ।
भगौड़े भाग रहे हैं विदेश,देश को लूटकर
हमारे रहनुमा हैं कि भाषण भजन कर रहे हैं ।
------------- मनीष कुमार ।

पिछली ऋतुओं की वह साथी ।


पिछली ऋतुओं की वह साथी
मुझको कैसे तनहा छोड़े
स्मृतियों में तैर-तैर कर
वो तो अब भी नाता जोड़े ।
सावन की बूंदों में दिखती
जाड़े की ठंडक सी लगती
अपनी सांसों का संदल
मेरी सांसों में भरती ।
मेरे सूखे इस मन को
अपने पनघट पर ले जाती
मेरी सारी तृष्णा को
तृषिता का भोग चढ़ाती ।
इस एकाकी मौसम में
वह कितनी अकुलाहट देती
मेरे प्यासे सपनों को
अब भी वो सावन देती ।
पिछली ऋतुओं की वह साथी
आँखों का मोती बनती
मेरी सारी झूठी बातों को
केवल वो ही सच्चा कहती ।
----------मनीष कुमार मिश्रा ।

रंग-ए-इश्क़ में

वह सर्दियों की धूप सी भली लगती
मुझे मेरे रंग-ए-इश्क़ में ढली लगती ।
जहाँ बार-बार लौटकर जाना चाहूँ
वह प्यार वाली ऐसी कोई गली लगती ।
कहने को कोई रिश्ता तो नहीं था पर
मेरे अंदर मेरी रूह की तरह पली लगती ।
जब बंद दिखायी पड़ते सब रास्ते तब
वह उम्मीद की खिड़की सी खुली लगती ।
दुनियादारी की सारी उलझनों के बीच
वही एक थी कि जो हमेशा भली लगती ।
कोई अदा थी या कि मासूमियत उसकी
मौसम कोई भी हो वह खिली खिली लगती ।
जितना भी पढ़ पाया उसकी आँखों को
वो हमेशा ही मुझे मेरे रंग में घुली लगती ।
--------- मनीष कुमार ।

Wednesday 28 February 2018

इस दौर ए निज़ाम में ।


तेरी आँखों से मेरा एक ख़ास रिश्ता है
एक सपना है जो यहीं से हौंसला पाता है ।
शिकार हो जायेंगे हर हाल में सवाल सारे
इस दौर ए निज़ाम में यह व्यवस्था पुख्ता है ।
तोड़ दिये गये हैं सब दाँत निरर्थक बताकर
क्योंकि चाटने की परंपरा में काटना समस्या है ।
विश्व के इस सबसे बड़े सियासी लोकतंत्र में
आवाम की कोई भी मजबूरी सिर्फ़ एक मौक़ा है ।
अपराधियों की श्रेणी में अब वो सब शामिल हैं
जिनका कि खून व्यवस्था के ख़िलाफ़ खौलता है ।
जब कोई आख़री पायदान से चीख़ता-चिल्लाता है
तो यक़ीनन वह उम्मीद की नई मशाल जलाता है ।
तुम्हें अब तक जितनी भी शिकायत रही है मुझसे
वो तेरे इश्क़ का अंदाज़ है जो मुझे बहुत भाता है ।
----------------- मनीष कुमार मिश्रा