Saturday, 22 April 2023

स्वामी विवेकानन्द और शिक्षा का स्वरूप

 स्वामी विवेकानन्द और शिक्षा का स्वरूप

स्वामी विवेकानंद जी भारतीय और विश्व इतिहास के उन महान व्यक्तियों में से हैं जो राष्ट्रीय जीवन को एक नई दिशा प्रदान करने में एक अमृतधारा के समान हैं| विवेकानंद जी के व्यक्तित्त्व और विचारों में भारतीय साँस्कृतिक परंपरा के सर्वश्रेष्ठ तत्व निहित थे| उनका जीवन भारत के लिए एक वरदान की तरह था| स्वामी विवेकानंद जी का संपूर्ण जीवन माँ भारती और भारतवासियों की सेवा हेतु ही समर्पित था, उनका व्यक्तित्त्व भी विशाल समुद्र की तरह था| वे आधुनिक भारत के एक आदर्श प्रतिनिधि होने के अतिरिक्त वैदिक धर्म एवं संस्कृति के समस्त स्वरूपों के उज्जवल प्रतीक थे| प्रखर बुद्धि के स्वामी और तर्क विचारों से सुसज्जित जलते हुए दीपक की भांति वे प्रकाशमान थे| उनके अंतःकरण में आलोकित प्रस्फुटित ज्वाला प्रज्ज्वलित होती है| “उनके विचार शिक्षा और दर्शन इतने प्रभावी हैं कि स्वामी जी के द्वारा दिए गए सैकड़ों वक्तव्यों में से कोई एक वक्तव्य महान क्रान्ति करने के लिए व्यक्ति के जीवन में आमूल परिवर्तन करने में समर्थ है|”1

विवेकानंद जी क्रांति की नई छवि को गढ़ने वाले एक महान विचारक थे| वे समाजोद्वार को आत्मोद्वार से जोड़कर देखने के हिमायती थे| यही उनकी क्रान्ति को भी एक नया आयाम देता है| “जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दे, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें| हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है,यह सर्वसाधारण को जानने दो| विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं, और तब उन्हें अपना निर्णय करने दें|”2

उठो, साहसी बनो और वीर्यवान होओ| सारे उत्तरदायित्त्व अपने कन्धों पर लो| यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो| तुम जो कुछ भी बल या सहायता चाहो, सबकुछ तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है| अतः इस ज्ञान रुपी शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने ही हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो| स्वामी विवेकानंद जी का यह मानना है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं सिखाता, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही सीखता है| बाहरी शिक्षक तो अपना सुझाव मात्र ही प्रस्तुत करते हैं, जिनसे भीतरी शिक्षक को सीखने और समझने में प्रेरणा मिलती है| स्वामी जी ने उस समय की शिक्षा को निरर्थक बताते हुए कहा है कि “आप उस व्यक्ति विशेष को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएँ पास कर ली हों तथा अच्छे भाषण दे सकता हो| पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती वो चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना को पैदा नहीं कर सकती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से भला हमें क्या लाभ है?”3

स्वामी विवेकानंद जी के इस कथन से यह स्पष्ट है कि शिक्षा के प्रति उनका व्यापक दृष्टिकोण रहा है| अतः स्वामी जी सैधांतिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को ही व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे| व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है| इसलिए शिक्षा में उन तत्त्वों का होना आवश्यक है जो उसके भविष्य के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो| इस संदर्भ में स्वामी जी ने भारतीयों को समय-समय पर सजग करते हुए यह कहा है कि “तुमको कार्य के प्रत्येक क्षेत्र को व्यावहारिक बनाना पड़ेगा| सिद्धांतों के ढेरों ने संपूर्ण देश का विनाश कर दिया है|”4

स्वामी विवेकानंद जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए सबको तैयार करना चाहते हैं| लौकिक दृष्टि से शिक्षा के संबंध में उन्होंने यह स्पष्ट ही कहा है कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलंबी बने| परलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है| स्वामी विवेकानंद जी ऐसे परंपरागत व्यावसायिक तकनीकी शिक्षा शास्त्री न थे जिन्होंने शिक्षा का क्रमबद्ध सुनिश्चित विवरण दिया हो| वह मुख्यतः एक दार्शनिक, देशभक्त, समाज सुधारक और दिव्यात्मा थे| जिनका लक्ष्य अपने देश और समाज की खोई हुई जनता को जगाना तथा उसे नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर करना था| शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में विवेकानंद जी की तुलना विश्व के महानतम शिक्षा शास्त्रियों प्लेटो और रूसो तथा ब्रैटलैंड रसेल से की जा सकती है| क्योंकि उन्होंने शिक्षा के कुछ सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं जिनके आधार पर विशाल ज्ञान का भवन निर्माण तकनीकी रूप से भी कर सकते हैं|

विवेकानंद जी की रग-रग में भारतीयता तथा आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी| अतः उनके शिक्षा के स्वरूप का आधार भी भारतीय वेदांत या उपनिषद ही रहे| उनका प्रमुख उद्देश्य था मानव का नव निर्माण क्योंकि व्यक्ति ही समाज का मूल आधार है| व्यक्ति के सर्वांगीण उत्थान से समाज का भी सर्वांगीण उत्थान होता है, और व्यक्ति के पतन से ही समाज का भी पतन होता है| स्वामी जी ने अपने शिक्षा स्वरूप में व्यक्ति और समाज दोनों के समरस संतुलित विकास को ही शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य माना| स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार वेदांत दर्शन में प्रत्येक बालक में असीम ज्ञान और विकास की संभावना है परन्तु उन शक्तियों का पता नहीं है| शिक्षा द्वारा उसे इनकी प्राप्ति करवाई जाती है तथा उनके उत्तरोत्तर विकास में छात्र की सहायता की जाती है|स्वामी विवेकानन्द जी वेदांती थे इसलिए वे मनुष्य को जन्म से पूर्ण मानते थे और इस पूर्णता की अभिव्यक्ति को ही शिक्षा कहते थे| स्वामी जी के ही शब्दों में “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को व्यक्त करना ही शिक्षा है|”5

स्वामी विवेकानंद जी शिक्षा के संबंध में कहते हैं कि सच्ची शिक्षा वह है जिससे मनुष्य की मानसिक शक्तियों का ऐसा विकास है जिससे वह स्वयमेव स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर सही निर्णय कर सकें| आज की इक्कीसवीं शताब्दी के इस बदलते परिवेश जहाँ सूचना एवं प्रौद्योगिकी का युग चल रहा है, ऐसे में स्वामी विवेकानन्द जी के चिन्तन को अपनाना आवश्यक हो जाता है| स्वामी जी ने शिक्षा के वर्तमान स्वरूप को अभावात्मक बताते थे जिनके विद्यार्थियों को अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं, उन्हें जीवन के वास्तविक मूल्यों का पाठ नहीं पढ़ाया जा सकता है तथा उनमें श्रद्धा का भाव भी नहीं पनपता है| उनके अनुसार भारत के पिछड़ेपन के लिए वर्तमान शिक्षा पद्वति ही उत्तरदायी है, यह शिक्षा न तो उत्तम जीवन जीने की तकनीक प्रदान करती है और न ही बुद्धि का नैसर्गिक विकास करने में सक्षम हैं| स्वामी विवेकानन्द जी ने आधुनिक शिक्षा पद्वति की आलोचना करते हुए यह लिखा है कि “ऐसा प्रशिक्षण जो नकारात्मक पद्वति पर आधारित हो मृत्यु से भी बुरा है|”6

स्वामी जी भारतीयों के लिए पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित शिक्षा पद्वति के स्थान पर भारतीय गुरुकुल पद्वति को श्रेष्ठ मानते थे जिसमें विद्यार्थियों तथा शिक्षकों में निकटता के संबंध तथा संपर्क रह सके और विद्यार्थियों में श्रद्धा, पवित्रता, ज्ञान, धैर्य, विश्वास, विनम्रता, आदर इत्यादि गुणों का भी विकास हो सके| स्वामी विवेकानन्द भारतीय शिक्षा पाठ्यक्रम में दर्शनशास्त्र एवं धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन को भी आवश्यक मानते थे| वे एक ऐसी शिक्षा के समर्थक थे जो संकीर्ण मानसिकता तथा भेदभाव साम्प्रदायिकता के दोषों से मुक्त हो| विवेकानंद के अनुसार शिक्षा का मूल उद्देश्य जिसमें व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो| उत्तम चरित्र, मानसिक शक्ति और बौद्धिक विकास हो, जिससे व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में धन भी अर्जित कर सके और आपात कल के लिए धन का संचय भी कर सके| स्वामी विवेकानन्द के हृदय में गरीबों तथा पददलितों के प्रति असीम संवेदना भी थी| उन्होंने कहा भी राष्ट्र का गौरव महलों में सुरक्षित नहीं रह सकता, झोपड़ियों की दशा भी सुधारनी होगी| विवेकानन्द की समाजवादी अंतरात्मा ने चीत्कार कर कहा कि “मै उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं कर सकता जो न तो विधवाओं के आँसू पोछ सकता है और न तो अनाथों के मुँह में एक टुकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है| “7

विवेकानन्द जी ने खुद पर विश्वास करने की प्रेरणा दी| आत्मविश्वास रखने पर ही व्यक्ति में कुछ करने की क्षमता विकसित होती है और आत्मविश्वासी समाज ही समस्त बाधाओं को लाँघकर ऊपर उठता है| विवेकानन्द जी ने कहा लोग कहते हैं इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो, मै कहता पहले अपने आप पर विश्वास करो| सर्वशक्ति तुममे है कहो हम सब कर सकते हैं| स्वामी विवेकानन्द जी ने नारी उत्थान के लिए स्त्री शिक्षा पर वल देते हुए कहा कि “पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब वे आपको बताएँगे कि उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं, उनके मामले में बोलने वाले तुम कौन होते हो| समाज स्त्री-पुरुष दोनों से मिलकर बना है| दोनों की शिक्षा पर ही देश का पूर्ण विकास संभव है| पक्षी आकाश में एक पंख से नहीं उड़ सकते, उसी प्रकार देश का सम्यक उत्थान मात्र पुरुषों की शिक्षा से ही संभव नहीं है| स्त्रियों को पुरुषों के समान ही शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर सुलभ होना चाहिए|”8

भारत एक निर्धन देश है और यहाँ की अधिकाँश जनता मुश्किल से ही अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाती है| स्वामी विवेकानन्द जी ने इस तथ्य एवं सत्य को हृदयंगम किया तथा यह भी अनुभव किया कि कोरे आध्यात्म से ही जीवन नहीं चल सकता जीवन चलाने के लिए कर्म आवश्यक है| इसके लिए उन्होंने शिक्षा के द्वारा मनुष्य को उत्पादन एवं उद्योग कार्य तथा अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षित करने पर बल दिया| स्वामी विवेकानंद का विचार, दर्शन और शिक्षा अत्यंत उच्चकोटि की है| जीवन के मूल सत्यों रहस्यों और तथ्यों को समझने की कुंजी है| उनके द्वारा कहे गये एक-एक शब्द इतने असरदार हैं कि एक मुर्दे भी जान फूंक सकते हैं| वे मानवता के सच्चे प्रतीक थे, हैं और मानव जाति के अस्तित्त्व को जनसाधारण के पास पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया| वे अद्वैत वेदांत के बहुत ही प्रबल समर्थक थे| उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखने हेतु भारतीय संस्कृति के मूल अस्तित्त्व को बनाए रखने का आह्वान किया ताकि आने वाली भावी पीढ़ी पूर्ण पूर्ण संस्कारिक नैतिक गुणों से युक्त न्यायप्रिय, सत्यधर्मी और आध्यात्मिक तथा भारतीय आदर्श के सच्चे प्रतीक के रूप में विश्व में अपना वर्चस्व बनाये रखे| 

इस दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी युग द्रष्टा और युग स्रष्टा दोनों ही थे| युगद्रष्टा की दृष्टि से उन्होंने अपने समय की स्थिति को देखा और समझा था और युगस्रष्टा उस द्रष्टि की उन्होंने नव भारत की नीव रखी थी| वे भारतीय धर्म दर्शन की व्यवस्था आधुनिक परिप्रेक्ष्य में करने वेदांत को व्यावहारिक रूप देने एवं उसका प्रचार करने और समाज सेवा एवं समाज सुधार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है, परन्तु इन्होने शिक्षा की आवश्यकता पर बहुत बल दिया और नवभारत के निर्माण के लिए तत्कालीन शिक्षा हेतु अनेकों सुझाव दिए| हमारे राष्ट्र की आत्मा झुग्गी-झोपडी में निवास करती है अतः शिक्षा के दीपक को घर-घर ले जाना होगा| तभी जाकर सारा जन समाज प्रबुद्ध हो सकेगा| शिक्षा मन्दिर के द्वार सभी व्यक्तियों के लिए खोल दिया जाएँ,जिससे समाज का कोई भी व्यक्ति अनपढ़ न रहे| शिक्षा आज़ाद हो| दृढ लगन और कर्म की शिक्षा ही जनसमूह को उचित शिक्षा दिला सकती है| शिक्षा के द्वारा देश के विकास को चरम पर ले जाए और सर्व धर्म के द्वारा सच्ची मानवता को अपनाकर ईश्वर की सेवा करे|

संदर्भ ग्रन्थ:

1- विवेकानन्द साहित्य, खंड-05 पृष्ठ-138-139

2- विवेकानन्द साहित्य, खंड-02 पृष्ठ-321

3- शिक्षा दर्शन एवं पाश्चात्य तथा भारतीय शिक्षा शास्त्री, सक्सेना एन.आर. स्वरूप, पृष्ठ-344 संस्करण-2009

4- वही

5- भारतीय राजनीतिक विचारक, जैन पुखराज, पृष्ठ-148, साहित्य पब्लिकेशन आगरा, संस्करण-2002

6- शोध समीक्षा और मूल्यांकन, संपादक-कृष्ण वीर सिंह, नवंबर-जनवरी-2009 राजस्थान

7- स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक चिंतन प्रासंगिकता, कुमार भावेश, जनवरी-2010 वर्ष-30 अंक-03 पृष्ठ-46

8- वही, पृष्ठ-48

 

 

                                                                                                                                  डॉ.महात्मा पाण्डेय

    सहायक आचार्य एवं शोध निर्देशक

हिन्दी विभाग,साठेय महाविद्यालय

विले पार्ले (पूर्व),मुंबई-४०००५७

मो.नंबर-८४५४०२८१८५

ईमेल-mahatmapandey1982@gmail.com


Significance of Swami Vivekananda’s -Life and Work

 Dr. Anita Manna

Significance of Swami Vivekananda’s -Life and Work 


India has produced many heroes, and it is remarkable that whenever the country has been threatened by  disintegrating forces , a spiritual leader has appeared with the right kind of message to put the country in order. Out of those leaders one is Swami Vivekananda . Actual name of Swami Vivekananda is Narendra Nath Dutta, he was born in an upper middle-class family  on 12 January 1863. Narendra Nath’s father was an Attorney at the Calcutta High Court .The family atmosphere was a blend of modernism and orthodoxy, represented respectively by his parents.


In student life the interest of Narendranath’s energy was diverted through the channel of searching for God ,the Absolute Truth .He used to practise consistence and concentration of mind as prescribed by Indian Seers .This quest of truth brought him in contact with Maharshi Devendranath Tagore ,Keshab Chandra Sen, Shivnath Shastri and others of the Brahmo Samaj of which Narendra Nath was a member for a period , and with Brajendranath Seal. In1882 after a fruitful search for a man who had seen God and could guide him to do so. He found Sri Ramakrishna to be the man and visited Ramakrishna at the Dakshineswar and finally being satisfied, he surrendered to him and realised under his guidance the  Absolute Truth in 1886.


Swami Vivekananda’s inspiring personality was well-known both in India and in America during the last decade of the 19th century and the first decade of 20th century.The unknown monk of India suddenly leapt into fame at the Parliament of religions held in Chicago in 1893, at which he represented Hinduism. On the opening day of the Parliament of Religions, a short speech beginning with  “Sisters and Brothers of America” made  Vivekananda the most popular speaker there and a world- figure.These speeches impressed deeply the modern  western mind as to what true religion is, and along with it the greatness of Hindu civilisation and Hindu religion.


All the subsequent speeches of the Swamiji at the Parliament were listened to with great respect and appreciation. They all had one common theme i.e, universality. While all the delegates to the Parliament spoke of their own religion the Swami spoke of religion that was vast as the sky and deep as the ocean .When the Parliament ended, the days of quiet had ended for the Swamiji.


When Swamiji returned to India in 1897 he was received by the people as a conquering hero. He was driven through the city‘s in decorated coaches drawn by admiring crowds in one instance the ruling prince of a state with this court officials joined the people in drawing the coach the story was the same wherever he went he travelled from Colombo to Almora inspiring people he was impressed by the Western progress but he did not mince matters in pointing out how the crazy for money and the comforts it brought could someday boomerangs.


Swami Vivekananda interacted with own people he was equally blunt. He saw no special merit in starving people indulging in moral and spiritual dialectics. Once his teacher Ramakrishna used to say that there could be no religion on an empty stomach .Swami Vivekananda also thought that what India needed first and foremost was bread.He had travelled extensively through India mostly on foot before leaving for the West.Next to poverty the heinous caste system of India troubled him .No one else attacked it so strongly as he did. He said India’s downfall begin from the day she coined the word ‘untouchable’ Swamiji condemned Indian society as being too  restrictive .The next problem he talked about was education .He found the prevailing system of education turned out only clerks .He did not care for this kind of education. He wanted ‘man- making’ and character building education should be in India.


Vivekananda believed education is the manifestation of perfection already in men. He thought it a pity that the existing system of education did not enable a person to stand on his own feet, nor did it teach him self-confidence and self-respect.


He appealed to the higher caste to share with the lower caste all the idealism they had so long cherished for their own use .In other words he wanted all caste barriers to go .He did not want any sort of ‘levelling down’ he wanted ‘levelling up’. He wanted the gap between the high caste and the lower caste bridged by universal education. 


Education was the Panacea for all evils, according to him. He wanted a classless casteless society. He visualised the future society as being ‘a junction of the two great systems, i.e, Hinduism and Islam- Vedanta brain and lslam body’. He was also distressed by the neglect to Indian women were subjected .They were not allowed to go to school. They were given away in marriage before eight and by fourteen they become mothers .Swamiji was prepared to revolt against child marriage. Women should have the same status as men in society. If they cannot contribute their share towards social growth, society is the loser to that extent . He said ‘it is not possible for a bird to fly on only one  wing’. Swamiji was impressed by Western woman’s capabilities .He invited some of them to come and work in India.The most notable among them was Sister Nivedita who served India till her death, working in every field of the country’s life .India still remembers her with gratitude.


India owes much to Swami Vivekananda, but so does the world. He was a true citizen of the world. In fact, man everywhere was some Swamiji’s concern. Man was God Himself to him. This is not humanism , it is much more than that. This is Vedanta ,which sees God everywhere and  in everything. Man is the image of God, for God is most manifest in man. Swamiji’s distinct contribution is Vedanta. Vedanta had always been known, but not known in the form he preached it .It had been known only among a certain class of scholars who enjoyed studying and debating its propositions .Swamiji had preached Vedanta in the West— perhaps he was the first to do so.


According to Swami Vivekananda, the message of Vedanta consist in unfolding the potential divinity of man, developing an unshakeable faith in oneself, manifesting absolute fearlessness of any kind, and attaining complete freedom of the spirit now enmeshed in this body- mind complex. To attain to that total freedom even while living in the ultimate goal of human beings.


Vedanta leads to attain self realisation through the four path ie;

1. Karma Yoga: All action is karma. It means the effect of which our past actions were the causes. But in Karma yoga we have simply to do with the word Karma as meaning work. 

2. Jana Yoga :Jana yoga also known as the jana marga,  is one of the four classical path of the moksha in Hinduism, which emphasise the path of knowledge.

3. Bhakti Yoga:Bhakti yoga is a real, genuine search after the Lord, a search beginning ,continuing, and ending in love. One single moment of the madness of extreme love of God brings us eternal freedom. Bhakti  is “intense love to God”.This love cannot be reduced to any earthly benefits. 

4. Raja Yoga:Raj Yoga is as much a science as any in the world. It is an analysis of the mind, a gathering of the facts of the super-sensuous world and so building up the spiritual world.


Ramakrishna Math was established by Swami Vivekananda himself and also designed the emblem as,



The meaning behind this emblem, in the language of Vivekananda himself: “The wavy waters in the picture are symbolic of Karma, the lotus of Bhakti, and the rising-sun of Jnana. The encircling serpent is indicative of Yoga and awakened Kundalini Shakti, while the swan in the picture stands for Paramatman.


EACH SOUL IS POTENTIALLY DIVINE.

THE GOAL IS TO MANIFEST THIS DIVINE WITHIN, BY CONTROLLING NATURE, EXTERNAL AND INTERNAL.

DO THIS EITHER BY WORK, OR WORSHIP, OR PSYCHIC CONTROL, OR PHILOSOPHY, BY ONE, OR MORE, OR ALL OF THESE—AND BE FREE.

THIS IS THE WHOLE OF RELIGION. DOCTRINES, OR DOGMAS, OR RITUALS, OR BOOKS, OR TEMPLES, OR FORMS, ARE BUT SECONDARY DETAILS.


Swami Vivekananda’s greatest contribution is that he brought the East and the West closer to each other. In fact he pulled down the artificial barriers that divided them.He demonstrated that man was the same everywhere; distinctions of race and religion that irrelevant.Unity in diversity was his key principle.


He was positive, not negative. Nothing was bad to him, only some things needed to be improved. It is easy to condemn, difficult to uplift. Swamiji was for the uplift of everybody, everywhere. He would take the world as it is and then push it forward. He would have everybody grow the way that is best suited for him, and would not impose anything on him.


His very famous slogan is “ Arise ,Awake and stop not till the goal is reached.”


Reference:

1. Swami Vivekananda - A biography his vision and ideas - Verinder Grover.

2. Swami Vivekananda- A hundred years since Chicago. - Ramakrishna Math and Ramakrishna Mission.

3. Vedanta Voice of Freedom - Swami Chetanananda.

4. Swami Vivekananda- Work and it’s Secret 

5. What Religion is- in the words of Swami Vivekananda- Swami Vidyatmananda.


भारतीय चित्रकला का स्वरुप एवम उसकी महत्ता : स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में |

 


भारतीय चित्रकला का स्वरुप एवम उसकी महत्ता : स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में |


“जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में कर लेता है और निरंतर अभ्यास करता है

सफलता उसके कदम जरूर चूमती है”.

अपने इन्हीं प्रेरणादायी विचारों के लिए स्वामी विवेकानंद आज भारतीय युवाओं के ही नहीं बल्कि समूचे संसार के युवाओं के लिए प्रेरणा का आधार हैं. वह एक मार्गदर्शक हैं जो सम्पूर्णता की बात करते हैं, अर्थात किसी भी व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकासहोना अत्यंत आवश्यक है . स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति को आत्मसात किया और उसे एक नई उर्जा के साथ अभिव्यक्त किया. इस अभिव्यक्ति में उस भारतीय चेतना का समावेश था जो सदियों से संसार को जीवन जीने की राह दिखाती आयी है. चाहे वह ज्ञान- विज्ञान हो, दर्शन हो, जीवन पद्धति हो, या फिर कला संस्कृति . सभी क्षेत्रों में भारत ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसे और भी स्पष्ट रूप में समझने के लिए हमें प्राचीन भारतीय साहित्य व कला की ओर उन्मुख होना पड़ेगा.चाहे वो महर्षि वाल्मीकि हों, महर्षि वेदव्यास हों या फिर भारतीय संस्कृति की महिमा को अपनी रचनाओं में पिरोने वाले महाकवि कालिदास हों सभी ने अपनी अपनी दृष्टि से इसका प्रचार प्रसार किया है और यह वर्तमान में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि इनमे सम्पूर्ण जगत की मंगल कामना की गई है . इसके साथ ही हम यदि कला के संदर्भ में देखें तो हमारे सम्मुख ऐसे कई कालजयी उदहारण मौजूद हैं . मौर्य काल के अशोक स्तम्भ हों,अजंता के जीवंत और भावपूर्ण चित्र हों या फिर एलोरा के कौशलपूर्ण वास्तुकला के नमूने . यह सभी हजारों वर्ष बाद भी कला जगत के लिये प्रेरणा का आधार बने हुए है और लोगों को आश्चर्यचकित करते है. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वामी जी को भारतीय सनातन परम्परा की गहरी समझ थी जिसे उन्होंने पूर्णरूप से आत्मसात किया और उसे अपने नवीन विचारों के माध्यम से भारतीय जनमानस विशेषकर युवाओं के समक्ष रक्खा जिससे वो पश्चिमी चमक धमक में धूमिल पद रही भारतीय अस्मिता को पुनः पहचानने में सक्षम हुए और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना महत्वपूर्ण योगदान भी दिया.

स्वामी विवेकानंद को मूलरूप से उनके तर्क,आत्मबल और प्रभावशाली प्रेरक विचारों के लिए जाना जाता है. लेकिन हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि उनकी कला के बारे में भी बहुत भी गहरी समझ थी जिस पर वह गहराई से चिंतन किया करते थे . उनके कला विचारों के अध्ययन से यह विदित होता है कि स्वामी जी की दृष्टि में  कला, संगीत और साहित्य की समझ के बिना बहुमुखी प्रतिभा का विकास संभव नहीं है . इसीलिए उन्होंने भारतीय कला खासकर चित्रकला के बारे में अपने विचारों को बड़े ही स्पष्ट रूप से प्रकट किया है . इसके साथ ही पश्चिमी कला शैली, महत्ता और उपयोगिता के बारे में भी अपने विचारों को व्यक्त किया है जिसकी चर्चा निम्लिखित है –

सभी विधाएं – काव्य, चित्रकला और संगीत शब्दों , रंगों और ध्वनि के माध्यम से व्यक्त किये गए अनुभव हैं. 

यह ब्रह्माण्ड एक कला संग्रहालय है और ऐसा लगता है कि में एक चित्र दीर्घा में खड़े होकर समय द्वारा प्रतिपल निर्मित चित्रों को देख रहा हूँ.

यदि चित्रकार अपने अहम् को भूलकर पूर्ण रूप से अपनी सृजना में डूब जाये तो वह यक़ीनन उत्कृष्ट कलाकृतियों का निर्माण करने में सक्षम होगा.

एक उत्कृष्ट पेंटिंग को मात्र देखने से ही हम यह नहीं समझ सकते कि इसकी सुन्दरता कितनी गहरी है, इसके लिए आँखों का भी प्रशिक्षित होना आवश्यक है. 

अक्सर ऐसा माना जाता है कि चित्रकला उन विद्यार्थियों के लिए है जो पढाई में अच्छे नहीं होते, लेकिन एक प्रभावी पेंटिंग बनाने हेतु चित्रकार को हस्त कौशल के साथ साथ बौधिक स्तर पर भी प्रबुद्ध होना आवश्यक है. 




एक मधुर स्वर या एक सुन्दर पेंटिंग देखते ही मन स्थिर हो जाता है, यह हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है और हम इससे दूर नहीं रह सकते. .

स्वामी विवेकानंद इस दुनिया की तुलना एक सुन्दर पेंटिंग से करते हुए कहते हैं कि “ साहूकार चला गया, खरीददार चला गया, विक्रेता चला गया लेकिन यह दुनिया एक पेंटिंग की भांति अब भी स्थिर है “.

स्वामी जी की समझ भारतीय कला के साथ साथ अन्य देशों की कला के बारे में भी थी. वह जापानी कला के बारे में अपने विचार व्यक्त कहते हुए कहते हैं कि “ मैंने जापानी चित्रों का अवलोकन किया है, कोई भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो सकता है . इसकी प्रेरणा कुछ ऐसी प्रतीत होती है जो नक़ल से परे है ”. 

ग्रीस चित्रकला के बारे में स्वामी जी कहते हैं कि ग्रीस चित्रकारों की उर्जा शायद मांस के टुकड़े को चित्रित करने में की जाती है, वे इसे इतना सजीव बनाना चाहते हैं कि इन्हें देखकर एक कुत्ता भी इसे असली समझकर इसकी तरफ आकर्षित हो उठता है.एक चित्रकार के लिए सिर्फ अनुकरण करने से बेहतर है कि किसी भी कलाकृति में चित्रकार की स्वयं की सोच एवम भावना भी अभिव्यक्त होनी चाहिए.

पेरिस की कला जगत के बारे में भी उनकी गहरी समझ थी और 19वीं सदी के मध्य पेरिस पूरी दुनिया की कला संस्कृति के केंद्र के रूप में जानी जाती थी. इस समय पूरी दुनिया के कलाकार पेरिस में आते थे और अपनी कला को यहाँ रहकर परिपक्व बनाते थे.  यहाँ के कला माहौल के बारे में अपना विचार व्यक्त करते हुए विवेकानंद जी  कहते हैं कि यदि कोई  चित्रकार,मूर्तिकार या नर्तक पेरिस के माहौल में रह लेगा तो वह किसी भी देश में आसानी से रह सकता है.





विवेकानंद जहाँ एक ओर भारतीय कला की सराहना करते हैं वहीँ उसके आदर्शों व मूल्यों को भी बनाये रखने की बात करते हुए कहते हैं कि ‘ भारतीय कला में आदर्श होना उचित है लेकिन इसे पूर्णरूप से कामुकता में परिवर्तित करना उचित नहीं है. 

स्वामी जी ने यूरोपीयन संस्कृति व कला के अनुकरण को भारतीयों के लिए अनुचित बताया. वह कहते हैं कि “ यूरोपीयन शैली में चित्र बनाने वाले भारतीय चित्रकारों से बेहतर हमारे बंगाल के पटुआ चित्रकार हैं जो हमारे भारतीय संस्कृति को बड़े ही सहजता से उकेरते हैं. इनमे उनकी सहजता और सरलता बड़े ही स्वाभाविक रूप से उनकी कृतियों में प्रस्फुटित होती है. साथ ही विविध पारंपरिक कला शैली सदियों से भारतीय संस्कृति और उसकी महत्ता को प्रदर्शित करती रही है, इसलिए हमें पश्चिमी कला के अनुकरण से बचना होगा . साथ ही स्वयं की विशेषताओं को कला संगीत व साहित्य के माध्यम से प्रदर्शित करना होगा. स्वामी विवेकानंद ने मौलिकता को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है. वह कहते हैं कि “कला से मौलिकता का क्षरण उसकी महत्ता को कम करता जा रहा है. कला सदैव स्वाभाविक होनी चाहिए बिल्कुल प्रकृति सृजन की भांति .पश्चिमी कला के बारे में वह कहते हैं कि वहां विभिन्न वस्तुओं की तस्वीरें खींचकर उनका अनुकरण कर दिया जाता है जिससे कला का मूल स्वरुप लुप्तप्राय हो जाता है . कहीं कहीं इस कार्य के लिए तो मशीनों को भी प्रयोग में लाया जा रहा है जिससे इसकी मौलिकता प्रभावित हो रही है.इस प्रकार के सृजन से कलाकार के विचार व स्वानुभूति कला में पूर्णतया नहीं आ पाती है.” आगे वह कहते हैं कि “प्राचीन कलाकार आपने मष्तिस्क से मौलिक विचारों को विकसित करते थे और उन्हें अपनी कलाकृतियों में अभिव्यक्त करने का प्रयास करते थे, लेकिन धीरे-धीरे कला में मौलिकता को और विकसित करने का प्रयास दुर्लभ होता जा रहा है . हालाँकि किसी भी अवस्था में कला एवम उसकी संवेदना को जीवित रखने की अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशेषता होती है. उसके तौर – तरीकों, रीत – रिवाजों, रहन-सहन को वहां की मूर्तिकला और चित्रकला में विशिष्ट रूप से देखा जा सकता है”.


विवेकानंद पश्चिमी कला के विविध आयामों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि चित्र संगीत और नृत्य सभी अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्पष्ट हैं. नृत्य करते हुए वे ऐसे दिखते हैं जैसे अपने पैरों को पटक रहे हैं. वाद्ययत्रों की ध्वनि कानों में चुभती है और एक कर्कशता पैदा करती है. वहीँ भारत में संगीत में एक लय और सुकून है जो मन मन को स्पर्श करती है और सौन्दर्य की अनुभूति प्रदान करती है.अलग अलग देशों में अलग अलग अभिव्यक्ति के माध्यम और तरीके हैं . जो लोग बहुत अधिक भौतिकवादी हैं, उनके विचार भी उनकी कला में परिलक्षित होती है. जो संवेदनशील अधिक हैं वे प्रकृति को अपने आदर्श के रूप में देखते हैं और अपनी कला में उससे जुड़े विचारों को व्यक्त करने का प्रयास करते हैं, कुछ ऐसे भी रचनाकार हैं जिनका आदर्श प्रकृति से परे परालौकिक है , यह एक निरंतर साधना का ही परिणाम है जो एक कलाकार को सम्पूर्णता की ओर ले जाती है. 

पश्चिमी चित्रकला के साथ साथ भारतीय चित्रकला की तुलना करते हुए विवेकनद जी कहते हैं कि “पश्चिम में कुछ ऐसे भी चित्रों का निर्माण हुआ है जिन्हें देखकर आप भूल जायेंगे कि वास्तविक प्राकृतिक वस्तुए हैं . भारत में भी यह देखने को मिलता है. विशेषकर जब आप प्राचीन भारतीय कला को देखते हैं तो उसमे एक उच्च आदर्श दिखाई पड़ता है. हालाँकि समय के साथ पूरी दुनिया में कला व उसकी अभिव्यक्ति प्रभावित हुई है. पश्चिम में भी पहले की भांति उत्कृष्ट चित्र नहीं बनते . यदि हम भारत की बात करें तो यहाँ की कला में भी मौलिक विचारों की अभिव्यक्ति वर्तमान में काम देखने को मिल रही है, विशेषकर कला महाविद्यालयों में कला विद्यार्थियों द्वारा निर्मित चित्रों में . हमें पश्चिमी कला का अनुकरण करने से बचना होगा और पुनः भारतीय संस्कृति की महत्ता व उसके उच्च आदर्शों को नए तरीके से स्थापित कर उन्हें नवीन रूप में चित्रित करना होगा. 

इस प्रकार स्वामी विवेकानंद जी जहाँ एक ओर तर्क और ज्ञान की बात करते हैं वहीँ दूसरी ओर मानव ह्रदय से स्पंदन की भी बात करते हैं जो विविध कलाओं में प्रदर्शित होता है. वह मानव को सम्पूर्णता में देखने का प्रयास करते हैं और उसके लिए उसे प्रेरित भी करते हैं . वह भलीभांति जानते हैं कि मष्तिष्क के साथ साथ मानव मन भी संवेदनशील और  सकारात्मक उर्जा से स्पंदित होना चाहिए और यह तभी संभव हो सकता है जब वह ज्ञान विज्ञान के साथ साथ कला संगीत और साहित्य में निपुण होगा.


मिठाई लाल 

सहायक आचार्य,

इंस्टीटूट ऑफ़ फाइन आर्ट्स,                   

छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर.

मो. नं. 8840274431 


            


 


भारतीय सस्कृति के विराट पुरुष : स्वामी विवेकानंद

 भारतीय सस्कृति के विराट पुरुष : स्वामी विवेकानंद

डॉ. प्रभा शर्मा 

अध्यक्ष - हिंदी विभाग 

राजकीय कला कन्या महाविद्यालय, कोटा 

ईमेल – prabha2364@gmail.com

मोबाइल -7976740636


भारतीय नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद ने सम्पूर्ण विश्व को भारतीय संस्कृति के गौरव एवं वैदिक दर्शन की गहराइयों से परिचित कराते हुए मानव कल्याण, जीवन में आध्यात्मिक और नैतिक विकास के कालजयी सन्देश दिए हैं। उन्होंने नैतिक आचरण, व्यक्तित्व विकास, सामाजिक सुधार, देश भक्ति, धर्म, अध्यात्म से लेकर युवा शक्ति और मातृ शक्ति की भक्ति, जीवन दर्शन, जीवन का वास्तविक उद्देश्य और सफलता के मूलमंत्र को अपने जीवन-सन्देश में बार-बार प्रगट किया है। 


भारतीय इतिहास में स्वामी विवेकानंद एक ऐसे कालजयी महामानव हैं जिन्होंने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अज्ञान के अंधकार में डूबी हुई भारतीय जनता को ज्ञान का प्रकाश दिखाकर उसे अपने धर्म, संस्कृति एवं स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहने की प्रेरणा दी। जिस समय स्वामी जी का आविर्भाव हुआ, उस समय भारत चारों तरफ अंधकार में डूबा हुआ था। लोगों को उससे निकल कर बाहर आने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। यही समय भारतीय पुनर्जागरण का समय है। अंग्रेजों की गुलामी से बाहर निकलने के लिए देश अपनी सुप्त अवस्था से जागने की कोशिश कर रहा था। इस जागरण के पीछे स्वामी विवेकानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय के योगदान को हम युवा भुला नहीं सकते हैं। स्वामी विवेकानंद ने जागरण की इस गति को तीव्रता प्रदान की।


शिकागो में 11 सितंबर 1893 ईसवी को विश्व धर्म सभा हुई। इस सभा में हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में स्वामी विवेकानंद अमेरिका गये। अमेरिका के शिकागो नगर की इस धर्म सभा में स्वामी जी का ऐतिहासिक भाषण हुआ। इस सभा में स्वामी जी ने जो कुछ कहा उससे भारतीय धर्म साधना की विशेषता सिद्ध होती है। उन्होंने पहले ही व्याख्यान में यह सिद्ध कर दिया कि सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता की भावना केवल भारत वासियों में ही है और इसका कारण हिंदू धर्म की उदारता तथा गतिशीलता है। स्वामी विवेकानंद ने बड़े गर्व के साथ शिकागो की विश्व धर्म महासभा में कहा था कि “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयाई होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ित तथा शरणार्थियों को आश्रय दिया।”

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन, इतिहास, पुराण, महाभारत, रामायण, गीता आदि के आधार पर संपूर्ण विश्व को यह बताया कि ईश्वर एक है। वहीं एक ईश्वर विभिन्न रूपों में इस सृष्टि में चारों और दिखलाई पड़ता है। इसलिए सृष्टि में किसी से भी घृणा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ईश्वर समान रूप से सबके भीतर विद्यमान हैं। स्वामी जी के शब्दों में “वही एक ज्योति भिन्न-भिन्न रंग के कांच में से भिन्न-भिन्न रूप से प्रकट होती है। समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक है परंतु प्रत्येक के अंतःस्थल में उसी सत्य का राज है। ईश्वर ने अपने कृष्ण अवतार में हिंदुओं को यह आदेश दिया है, प्रत्येक धर्मों में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ, जहां भी तुम्हें मानव सृष्टि को उन्नत बनाने वाली और पावन करने वाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज से उत्पन्न हुआ है और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ? सारे संसार को मेरी यह चुनौती है कि वह समग्र दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति तो दिखा दे जिसमें यह बताया गया है कि केवल हिंदुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं।”

आज जब चारों तरफ धर्म, संप्रदायों को लेकर युद्ध की स्थिति बनी हुई है, इसमें विवेकानंद की प्रासंगिकता पहले से अधिक बढ़ गई है। स्वामी जी ने अपना सारा जीवन सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव का पाठ पढ़ाने में लगा दिया। उन्होंने सारे संसार को यह बतलाया कि यह ज्ञान भारतीय दर्शनशास्त्र में ही हैं कि सबके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। धार्मिक रूप से पूजा उपासना के विषय को लेकर स्वतंत्रता की छूट भारतीय धर्म शास्त्र ही देते हैं। स्वामी जी ने शिकागो के अपने पहले ही भाषण में कहा था - “जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभु ! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े - मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।” अपनी इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने मद्रास में दिए हुए अपने भाषण में कहा कि- “संसार की समस्त जातियों से वेदों की भाषा में हमको कहना होगा कि तुम्हारा लड़ना और झगड़ना वृथा है। तुम जिस ईश्वर का प्रचार करना चाहते हो क्या तुमने उसको देखा है? यदि तुमने उसको नहीं देखा तो तुम्हारा प्रचार वृथा है। जो तुम कहते हो वह स्वयं नहीं जानते और यदि तुम ईश्वर को देख लोगे तो क्या तुम झगड़ा नहीं करोगे, तुम्हारा चेहरा चमकने लगेगा।” स्वामी जी ने वर्ण व्यवस्था का आधार गुण और कर्म को माना है। स्वामी जी का यह मानना था कि हिंदू धर्म में आई विकृतियों का कारण पुरोहित और श्रेष्ठी वर्ग है। यह विकृतियां उदार मानवीय और कर्म प्रधान वैदिक व्यवस्था को जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था में भटका दिए जाने के कारण आई हैं। इसकी कोख से उपजी छुआछूत ने भारतीय समाज को और कमजोर कर दिया। जातियों ने समाज को बांट दिया। पौरुष और पराक्रम की प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति को श्रेष्ठ मानने की धारणा के विस्तार ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की वैदिक अवधारणा को भटका दिया। उन्होंने देश में व्याप्त निराशा को समझा। अपनी महान आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व करने की अपेक्षा पश्चिमी सभ्यता की ओर उन्मुक्त शिक्षित वर्ग की इस मनोग्रंथि को समझा कि वह भारतीय वैभव को तब तक स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि उसे पश्चिमी देशों का प्रमाण पत्र ना मिल जाए विशेषकर इसी से प्रेरित होकर उन्होंने शिकागो विश्व धर्मसभा में जाने का निर्णय किया जो खेतड़ी नरेश अजय सिंह के वित्तीय सहयोग से संभव हुआ।

स्वामी जी भारतीय संस्कृति के एक-एक सूत्र में विश्वास करते थे। इस पुरातन संस्कृति में स्त्री की विशेष भूमिका मानी गई है। “यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता” सूक्ति यहां विख्यात है ही। आधुनिकता के रंग में रंगी हुई भारतीय नारियों को सीता का आदर्श गृहण करने की शिक्षा स्वामी जी ने दी है, उन्होंने बताया कि भारतीय नारी को सीता का आदर्श ग्रहण करना चाहिए, स्त्री चरित के जितने आदर्श हो सकते हैं, वे सब सीता में हैं। सीता शुद्धता, धैर्य तथा सहिष्णुता की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा है। स्वामी जी के अनुसार – “चाहे हमारे सब पुराण नष्ट हो जाएं, यहां तक कि हमारे वेद भी लुप्त हो जाएं, हमारी संस्कृत भाषा सदा के लिए कालस्रोत में विलुप्त हो जाए, किंतु मेरी बात ध्यान पूर्वक सुनो जब तक भारत में अतिशय ग्राम्य-भाषा बोलने वाले पांच भी हिंदू रहेंगे तब तक सीता की कथा विद्यमान रहेगी। सीता का प्रवेश हमारी जाति की अस्थि-मज्जा में हो चुका है, प्रत्येक हिंदू नर-नारी के रक्त में सीता विराजमान है । हम सभी सीता की संतान हैं, हमारी नारियों को आधुनिक भावों में रंगने की चेष्टा हो रही है, यदि उन सब प्रयत्नों में उनको सीता चरित्र के आदर्श से भ्रष्ट करने की चेष्टा होगी तो वह सब असफल होंगे जैसा कि हम प्रतिदिन देखते हैं। भारतीय नारियों से सीता के चरणों का अनुसरण करा कर अपनी उन्नति की चेष्टा करनी होगी, यही एकमात्र पथ है।” वह महिलाओं की स्थिति के बारे में चिंतित रहते थे। वह अपने भाषणों, पत्रों, व्याख्यान में चिंता प्रकट करते थे । “किसी भी देश की सर्वांगीण उन्नति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि उसका एक अंग शक्तिहीन हो, ठीक उसी प्रकार जिस तरह एक पांव के सहारे कोई भी उड़ नहीं सकता। नारी जाति के उत्थान का समर्थन करते हुए उन्होंने प्राचीन भारत के विदुषी नारियों के विषय में लिखा है - वैदिक और औपनिषदिक युग में मैत्रयी और गार्गी सदृश पुण्यशीला महिलाओं ने ऋषियों का स्थान लिया था। वेदज्ञ विद्वानों की सभा में गार्गी ने याज्ञवल्क्य  को ब्रह्म के विषय में शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारा था।” स्वामी जी तत्कालीन भारत में महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति से बहुत चिंतित थे, उनकी यह धारणा प्रबल थी कि स्त्री का शैक्षणिक विकास बहुत आवश्यक है इसलिए तो उन्होंने आमरिस प्रवासी अपनी शिष्या और अपनी अनन्य भक्त मारग्रेट नोबेल जिसका नाम उन्होंने निवेदिता दिया था, को स्त्री-शिक्षा के कार्य में ही लगा दिया । वे सेवा और शिक्षा दोनों कार्य में तन्मयता से जुट गईं। स्वामी जी ने अपने जीवन में मां, ममता और मातृभूमि को विशेष महत्व दिया।

स्वामी जी भारतीय संस्कृति की विशेषता बताते हुए कहते हैं – “संपूर्ण सृष्टि में वही चेतन तत्व विराजित है जिसका वर्णन हमारे ऋषि ‘अखंड मंडलाकारम व्याप्तम येन चराचरम्’ के रूप में करते हैं।” एक ही चेतना का प्रगटीकरण परिवार उसके आगे समाज, राष्ट्र व विश्व में हो रहा है। सब परस्परावलंबी हैं, परस्पर जुड़े हैं। किसी एक का नाश करेंगे तो स्वयं का नाश होगा ।भारतीय संस्कृति के इस एकात्म भाव का स्वामी जी ने संदेश दिया। लाहौर में स्वामी जी को सिख, सनातनी, आर्यसमाजी सब अलग-अलग बुलाना चाहते थे किंतु उन्होंने कहा कि सब एक साथ आओगे तो ही भाषण होगा आखिर में सब एक साथ आए और कार्यक्रम बहुत ही सफल रहा।

स्वामी जी गुलामी की जंजीरों को जितनी जल्दी हो सके तोड़कर फेंकना चाहते थे। उन भारतीयों की उन्होंने खूब-खूब आलोचना की जो अंग्रेजों की खुशामद करने में लगे रहते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि कभी भी कोई गुलाम देश महान नहीं बन सकता है। इसलिए उन्होंने देश की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। भारत के नौजवानों को बतलाया कि सारे देवी- देवताओं को भुलाकर भारत माता की आराधना में लग जाओ। स्वामी जी ने अपने एक भाषण में कहा कि “आगामी 50 वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ। हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं। जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते उनके पीछे तो हम बेकार दौड़ें और जिस विराट देवता को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उसकी पूजा ही ना करें। जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देवी-देवताओं की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।” 

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति की सभी अच्छाइयों को स्वीकार किया। विवेकानंद के अनुसार समाज का चार वर्णों में विभाजन आदर्श समाज व्यवस्था का ध्योतक है। विवेकानंद को प्राचीन भारत की वर्ण व्यवस्था में साकार हुए सामाजिक सामंजस्य तथा समन्वय के आदर्श से प्रेरणा मिली थी। उन्होंने कहा कि “तत्व की बात यह नहीं है कि समाज पर नीरस एकरूपता की कोई व्यवस्था थोप दी जाए, आवश्यकता इस बात की है कि हर व्यक्ति को अच्छे ब्राह्मण का पद प्राप्त करने में सहायता दी जाए।” स्वामी जी ने वर्ण व्यवस्था का आधार गुण और कर्म को माना।

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय शिक्षा और संस्कार पर गहरा चिंतन किया था। विवेकानंद जी शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य निर्माण मानते थे। मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता उसका चरित्र है। मनुष्य निर्माण करने का अर्थ चरित्र निर्माण करना है। सही शिक्षा की प्रक्रिया में चरित्र का विकास होता ही है। प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में जीवन का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण रहा है। मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है-

वृतं यत्नेन संरक्षेद वित्तमेति च याति च।

अक्षीणो विततः क्षीणो वृतस्तु हतो हतः।।


अर्थात में अपने चरित्र की प्रत्यनपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि धन तो आता है और नष्ट होता रहता है। धन नष्ट होने से मनुष्य निर्धन नहीं होता परंतु चरित्र के नष्ट होने पर तो मनुष्य मरे हुए के समान हो जाता है।


स्वामी जी इस बात से बहुत व्यथित रहा करते थे कि ब्रिटिश शासन सुनियोजित ढंग से अंग्रेजी भाषा और ब्रिटेन की शिक्षा प्रणाली के माध्यम से हमारे प्राचीन सनातन धर्म और हिंदू संस्कृति के अस्तित्व के लिए संकट पैदा करता जा रहा है और हम सब मूकदर्शक बने यह सहन कर रहे हैं। इसलिए वे हमारे हमेशा अंग्रेजी भाषा की जगह हिंदी, संस्कृत तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग पर बल दिया करते थे। स्वामी जी ने अपने प्रवचन में कहा, “मैंने देखा है कि सभी देशों ने अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से प्रगति की है। भारत ऐसा देश है जहां विदेशी भाषा शासन की ओर से लादकर हमारी महान संस्कृत भाषा के अस्तित्व पर आघात लगाया जा रहा है। हमारे धर्मशास्त्र हमें स्वाभिमान के साथ धर्म व संस्कृति पर अडिग रहने की प्रेरणा देते हैं। भारत व भारतीय संस्कृति को जानने के लिए देववाणी संस्कृत अनिवार्य रूप से पढ़नी चाहिए।”

स्वामी जी सकारात्मक सोच के पक्षपाती थे। उनके अनुसार शुभ विचार अच्छे चरित्र की पूंजी है। वह कहते हैं- “यदि कोई मनुष्य अच्छे विचार सोचे तथा अच्छे कार्य करे तो उससे इन संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा ही होगा और इच्छा ना होते हुए भी वे उसको सत्कार्य करने के लिए विवश कर देंगे। स्वामी जी के इन्हीं सकारात्मक विचारों पर प्रसिद्ध कवि रविंद्रनाथ टैगोर ने टिप्पणी की है- “अगर आप भारत को समझना चाहते हैं तो विवेकानंद का अध्ययन कीजिए। उसमें सब सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं है।” स्वामी जी ने अपने जीवन में जो सतकार्य किया, जो विचार रखे उससे प्रभावित होकर रोम्यारोला जैसे नोबेल पुरस्कार विजेता विदेशी विद्वान ने स्वामी जी के जीवन पर लिखा। रोम्यारोला स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखते हैं- “उनके शब्द महान संगीत हैं, वोथोवन शैली के टुकड़े हैं, हैडल के समवेत गान के छंद प्रवाह की भांति उद्दीपकलय हैं। शरीर में विद्युत स्पर्श के से आघात की सिरहन का अनुभव किए बिना मैं उनके इन वचनों का स्पर्श नहीं कर सकता, जो 30 वर्ष की दूरी पर पुस्तकों के पृष्ठों में बिखरे पड़े हैं और जब वे नायक के मुख से ज्वलंत शब्दों में निकले होंगे तब तो ना जाने कैसे आघात एवं आवेग पैदा हुए होंगे।”

स्वामी विवेकानंद का जीवन भारतवर्ष ही नहीं अपितु किसी भी देश, काल, जाति, धर्म, ऊंच-नीच, अपने-पराए जैसे तमाम बातों के परे वैचारिक क्रांति का ऐसा प्रकाश पुंज है जिसमें सदियों को आलोकित करते रहने की दिव्यता रची बसी है। उनके विचारों के चंद अंशों को भी आत्मसात कर लिया जाए तो किसी भी कालखंड में मानवीय सरोकारों के विकास एवं संरक्षण के साथ ही नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति की क्रांति का सूत्रपात किया जा सकता है, चाहे बात राष्ट्रभक्ति की हो या अंतर्राष्ट्रीय एकता की अलख जगाने की। लक्ष्य चाहे स्वयं में सोई हुई शक्तियों को जागृत करने का हो या फिर अध्यात्म के मार्ग पर कदम रखते हुए दिव्यता के दर्शन का। स्वामी विवेकानंद के विचारों की सुरभि से सब कुछ प्राप्त करना संभव है। निराशा में डूबे और परेशानियों में उलझी लोगों में आत्मशक्ति जगाने के लिए स्वामी विवेकानंद के विचारों को ऐसा टॉनिक बताया गया है, जो अद्भुत तरीके से तन-मन पर प्रभाव डालकर हमें अंदर तक स्वस्थता प्रदान करते हैं।

स्वामी जी अपने 40 वर्षों से भी कम के अपने जीवन काल में धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक व सामाजिक मूल्यों तथा मातृभूमि की भक्ति को लक्ष्य बनाकर संपूर्ण विश्व के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि वे युवा शक्ति के प्रतीक बनकर अजर-अमर हो गए। आज स्वामी विवेकानंद जी हमारे बीच में नहीं है किंतु उनके विचार एवं संदेश आज भी उतने ही सटीक प्रेरणादायक प्रतीत होते हैं। वास्तव में विवेकानंद ऐसे युगपुरुष हैं जिन्होंने धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता, उपनिषद और विज्ञान सबको अपने भीतर समाहित कर वर्तमान ही नहीं वरन निकट भविष्य के भारत को भी नवीनता से परिचित कराया।

संदर्भ:-

1. विवेकानंद साहित्य, खंड - 2

2. मधुमति, फरवरी 2017, पृष्ठ 11

3. विवेकानंद साहित्य, खंड- 7

4. राजस्थान पत्रिका, 12 जनवरी 2020

5. साहित्य अमृत, अगस्त 2013, पृष्ठ 231

6. www.google.co.in

7. तिवारी, डॉ. भरत कुमार, स्वामी विवेकानंद का दार्शनिक चिंतन, भारतीय विद्यापीठ, नई दिल्ली, 1988

8. Encyclopedia


Swami Vivekananda as ‘Incarnated in a powerful individual’

                         Swami Vivekananda as ‘Incarnated in a powerful individual’

                                     Dr. Shiva Durga, G.L.A. University, Mathura.

The Indian Vendanta and Yoga are brought to the World’s high esteem by Swami Vivekanada. The Brahmo Samaj and his spiritual master Sri,Ramakrishna Paramahamsa. were the backbones of his spiritual advancement. The Preaching of Ramakrishna led to the transformation that Narendra emerges as Swami Vivekananda. Swami Vivekananda is the epitome of Vedantic philosophy.                  

 Swami Vivekananda was considered a social reformer, a religious saint and an advocate of Hindu principles in India in 19th century. He has taken the glorious Hindu philosophy to the global status. His contribution in the fields of secularism, his care to bring out educational reforms, his compassion towards untouchables, his support to socialism, his encouragement towards women upliftment, and his service to humanity as a religious leader of Hinduism are quite laudable. 

In 1888, Swami Vivekananda founded the Ramakrishna Mission, one of India’s leading charitable organizations. Ramakrishna Mission centres throughout the world provide unconditional love for mankind on equal grounds irrespective of caste, creed and religion. Sri Ramakrishna Paramahansa’s preachings principles and motto are spread throughout the world for the peace and happiness of society. Being a prominent scholar, and a philosopher of that time he had worked in different fields as he was very much inclined to Sri Ramakrishna Paramahamsa’s love for humanity. The Ramakrishna mission was established in 1897 in Belur. Swami Vivekananda  visited many European countries to establish many branches of the ‘Mutt’ At Chicago, his religious address as a Hindu Monk captivated the minds of westerners and he was considered as ‘Man of the Parliament’ and this popularity gained  great support in his mission of serving the Society.

Swami Vivekananda worked for the rights of women. According to him women have the strength and real power to build up a nation and the future of the nation depends on how they are treated. “Strength is Life, weakness is Death”-his words give life to many a weak person.  He said, “The thermometer to measure the progress of a nation depends on how they are treated”. The same thought is from Manusmriti which says, “If women are ill treated and if they are sad in their homes, the family will collapse and if they are happy, the house will flourish”.  In his “On India and Her Problems” he has discussed about the upliftment of women. His speeches, documentaries and books reveal how women are the “Shakti” the ultimate power. He said, “In a conflict between the heart and the brain, follow your heart.” Love for mankind is the solution for all conflicts.

  Swami Vivekananda was highly influenced by Vedantic philosophy and he declared that Hinduism is the mother of all Religions. He had the respect for monotheism- as the concept of all God. He strongly believed that all religions preach, “peace, humanity and harmony” in different ways but the goal is one”. According to him religion can be the kindling force to bring out all the social changes in the country. “Expansion is Life, Contraction is Death” according to him. He said, “ The Vedantic religion’s sanction is the eternal nature of man, its ethics are based upon the eternal spiritual solidarity of man” 1  and “Our first principle is that all that is necessary for the perfection of Man and for attaining unto freedom is there in the Vedas. You cannot find anything new. You cannot go beyond a perfect unity ….”2   

The Bhagavad Gita is a crest jewel work of Vedic culture.  Its objective and specific shlokas are supported by the entire works of Vedic philosophy such as the Vedas, Puranas and the Epic Mahabharat. Its concepts are for all time and also timeless.  Vivekanda has expressed these ‘old ideas in a new age’ as seen in his speeches.

As such the law of Karma interacting with the individual takes into account subjectivity, objectivity and the empirical and their inter relation through Time and Cause.  In fact Swami Vivekananda  saw Vedic  influence and Vedic concepts in the concepts of Immanuel Kant. Swami Vivekananda  states, “This is one of the highest points to understand of Advaita  Vedanta, this idea of Maya…Those of you who are acquainted with Western philosophy will find something very similar in Immanuel Kant…It was Shankara who first found the identity of time, space and causation with Maya, …so even that idea was here in India.”5 “The Indian prince Dara shuko translated the Upanishads into Persian, and a Latin translation of the same was seen by Schopenhauer whose philosophy was moulded by these. Next to him, the philosophy of Kant also shows traces of the teachings of the Upanishads.”3

I have done my research on “The impact of the Bhagavad Gita on RW Emerson” giving insight to Swami Vivekananda.  RW Emerson  had paved the way for Vivekananda  as he had made the westerners understand Hindu Philosophy, Vedas and the Bhagavad Gita through his essays and poems. The Westerners were waiting for a Hindu saint to guide them. That time our Vivekananda reached Chicago and addressed the receptive westerners who were waiting for the solution of their problems.  The Western writer R.W. Emerson here clearly expects his above ideals to be ‘incarnated in a powerful individual’. From my analysis and views above, it is clear that such a ‘great soul’ or ‘powerful individual’ is Swami Vivekananda and R.W. Emerson is his eternal Divine associate. Hence R.W. Emerson had insight on ‘incarnation’ of Swami Vivekananda. The Vedic concept of  incarnation holds that like the flower, roots, stem and leaves of a lotus plant are connected, a divine incarnation manifests with his eternal divine associates. This is like the incarnation of Lord Ram, Goddess Sita, Sri Laxman and Sri Hanuman. R.W. Emerson is Swami Vivekanand’s divine associate also because Swami Vivekanand planted Vedanta or Sanatan Hindu Dharm in Western culture. Western Culture was made conducive and receptive for this from within by the fertilizer of R.W. Emerson’s philosophy. We note no such implantation could take place in African or Islamic cultures by Swami Vivekananda. The following observations are required for perspective. Swami Vivekananda was a disciple of Sri Ramakrishna. Swami Vivekananda stated “(As per the statement of Sri Adi Sankar in Vivek Chudamani) through great tapasya (penance) I have secured refuge with a great soul (his Guru)4. Sri Rama Krishna correctly followed and appreciated the great incarnate Vedic saints particularly Sri Adi Sankaracharya, Sri Ramanujacharya and Sri Chaitanya.Maha Prabhu.  Sri Rama Krishna stated, “Sankaracharya was a Brahmjnani”5. “Sankaracharya kept the ‘ego of knowledge’ (to teach men) otherwise men’s heart will not be illuminated”.12 “A man can teach only if God reveals himself to him and gives the command. Narad, Suka…and Sankara had it too”.6. He stated, “Chaitanyadeva’s knowledge had the brilliance of the Sun of knowledge. Further he radiated the soothing light of the moon of devotion. He was endowed with both the knowledge of Brahman and ecstatic love of God” 6. “The Great souls deeply affected by the sufferings of men, show them the way to God. Sanakaracharya kept the ego of knowledge in order to teach mankind. The gift of knowledge and devotion is far superior to the gift of food. Therefore Chaitanyadeva distributed Bhakti to all, including the out caste”. 7Satchidanda (Brahman) emanating out of the body of Sri Rama Krishna revealed to Sir Rama Krishna that he was its incarnation.8. The task which Sri Rama Krishna undertook through Vivekananda was to implant Sanatan Vedic Dharma into the West and also reinvigorate it in India. The statements of Sri Rama Krishna are relevant. “The time will Influence of the Bhagavad Gita on R.W. Emerson 39;s essay &quote; The Transcendentalist". Uplifting …. www.iosrjournals.org 13 | Page come when he (Vivekanand) will shake the world to its foundations through the strength of his spiritual powers”.9.  “The Hindu religion alone is Sanatan Dharm. The various  creeds you hear of nowadays have come into existence through the will of God and will disappear again through his will…The Hindu religion has always existed and will always exist” 10 . Through the progress of Western civilization and growing world interest in Indian Vedic Dharm the above prophesies of Sri Ramakrishna are attaining fullness and realization.11. 

In conclusion I would like to say that the virtue of self realization elevates you to the higher level. Vivekanda says, “You have to grow from the inside out. None can teach you, none can make you spiritual. There is no other teacher but your own soul.”― Swami Vivekananda. Let me quote  RW Emerson’s words same like him. Every soul is great.

 “The Indian teaching, through its clouds of legends, has yet a simple and grand religion, like a queenly countenance seen through a rich veil.  It teaches to speak truth, love others and to dispose trifles.  The East is grand-and makes Europe appear the land of trifles….all is soul and the soul is Vishnu…. Cheerful and noble is the genius of this cosmogony.  


  1. The Complete Works of Swami Vivekananda.Advaita Ashrama Publication May1999 Edition, ISBN 81-85301-46-8, Vol.7, Pg.50.

  2.  The CompleteWorks of Swami Vivekananda. Advaita Ashrama Publication May1999    Edition, ISBN 81-85301-46-8,Vol.3, Pg.249-250. 

  3. The Complete Works of Swami Vivekananda.Advaita Ashrama Publication May1999  Edition, ISBN 81-85301-46-8, Vol.3, Pg.435.

  4. The Gospel of Sri Ramakrishna. Published. Sri Ramakrishna Math. ISBN-7120-435-X, Pg. 936

  5. The Gospel of Sri Ramakrishna. Published. SriRamakrishna Math. ISBN-7120-435-X, Pg. 248.

  6. The Gospel of Sri Ramakrishna. Published. Sri Ramakrishna Math. ISBN-7120-435-X, Pg. 485

  7.  The Gospel of Sri Ramakrishna. Published. SriRamakrishna Math. ISBN-7120-435-X, Pg. 379.

  8. The Gospel of Sri Ramakrishna. Published. SriRamakrishna Math. ISBN-7120-435-X, Pg. 720.

  9. Vedanta Kesari, ISSN 0042-2983, Vol.100, No5. May2013, Pg 20

  10. The Gospel of Sri Ramakrishna. Published. Sri Ramakrishna Math. ISBN-7120-435-X, Pg.

  11. The Gospel of Sri Ramakrishna. Published. SriRamakrishna Math. ISBN-7120-435-X, Pg. 378.



Friday, 21 April 2023

प्रेम और मानवीय भावों को स्पंदित करती मनीष मिश्रा की कविताएं

 प्रेम और मानवीय भावों को स्पंदित करती मनीष मिश्रा की कविताएं



मानव के जीवन में मानवीय गुणों का मुख्य आधार प्रेम है। परस्पर प्रेम और सौहार्द से ही मानव ने अपनी विकास यात्रा के विविध पड़ावों को सफलतापूर्वक पार किया है। मानव ने प्रेम के माध्यम से उस विधि को अंगीभूत किया है, जिससे वह समाज में अपने अस्तित्व को बरकरार रखकर भी किसी दूसरे की सत्ता को सहज ही स्वीकार कर लेता है। प्रेम में किसी दूसरे का होना स्वयं से भी अधिक महŸवपूर्ण हो जाता है। किसी दूसरे की इसी सत्ता और महŸव को मनीष कुमार मिश्रा ने अपने कविता संग्रह ‘इस बार तुम्हारे शहर में’ में गुणीभूत किया है। मनीष कुमार ने इस कविता संग्रह के माध्यम से आज के दौर में ऊब और सीलन भरी जिन्दगी में एक नई ऊर्जा का संचार किया है। आज के दौर में स्त्री-पुरुष संबंधों में बढ़ती खाई को पाटने का प्रयास है प्रस्तुत कविता संग्रह। प्रेम की मिठास का एहसास करवाती मनीष जी की कविताएं परस्पर समर्पण का भी संदेश देती हैं। प्रेमिका को ‘लड्डू’ की संज्ञा देना प्रेम की निश्चलता का भी प्रतीक प्रतीत होता है, यह लड्डू कोई साधारण मिठाई न होकर उस लड्डू को प्रतीक है जिस किसी अबोध बालक का मन रीझ जाता है और उस रीझने में किसी प्रकार स्वार्थ नहीं होता है। होता है तो बस निश्चल प्रेम।

प्रस्तुत संग्रह की कुल साठ कविताओं में मनीष जी के लेखन की सहजता को आंका जा सकता है। बिना किसी काव्यात्मक औपचारिकता के लिखी गईं ये कविताएं युवा वर्ग या यूं कहें कि प्रेम में पगे हुए युवा वर्ग की मनोस्थितियों को भी रेखांकित करती हैं। आज जब प्रेम भी व्यापार जैसी लेन देन की प्रक्रिया ही प्रतीत होता है। परन्तु मनीष जी की कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम निश्चल प्रेम है, जहां प्रेमी प्रेमिका का समर्पण है, मान-मनुहार है, रुठना मनाना है, मिलन की उत्कंठा है, विरह की आकुलता है, स्मृतियां हैं अर्थात् प्रेम का वह प्रत्येक रूप है, जो हमें सामान्य जीवन में देखने को मिलता है। मनीष मिश्रा की कविताओं में प्रेम के वो आदर्श भी मिलते हैं, जो आजकल के प्रेम से नदारद होते जाते हैं। इनकी कविताओं में प्रेमी प्रेम को केवल दैहिक स्तर पर ही महत्वपूर्ण नहीं मानता, अपितु उसके लिए वास्तव में प्रेम आत्म-विस्तार का आधार है। प्रेमी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहता है -

उसे जब देखता हूं

तो बस देखता ही रह जाता हूं

उसमें देखता हूं

अपनी आत्मा का विस्तार

अपने सपनों का 

सारा आकाश  ।


प्रेम के माध्यम से अपनी आत्मा के विस्तार का साक्षात्कार हो जाने पर प्रेमी के मन की सारी शंकाएं समाप्त हो जाती हैं और वह पूर्णतः अपनी प्रेमिका के प्रति समर्पित हो जाता है। वह अपनी प्रियतमा की आस्थाओं में ही अपनी आस्था को पाता है। अपनी प्रेमिका का विश्वास में ही उसका विश्वास है। इसीलिए उसकी अनगिनत प्रार्थनाएं अपनी प्रेमिका के प्रति समर्पित हैं। वह मानता है कि 

वो समर्पण का भाव

जिसकी हकदार

सिर्फ और सिर्फ

तुम रही हो ।

प्रस्तुत कविता संग्रह का वैशिष्ट्य यह भी है कि यह संग्रह स्मृतियों का संग्रह है। कवि ने अपनी स्मृतियों में आज भी अपने प्रेम को जीवंत बनाए रखा है।बिछुड़ जाने के बाद पहाड़ जैसे जीवन की तुलना पहाड़ी रास्तों से करते हुए प्रेमी का यह कहना कि आजकल/ये पहाड़ी रास्ते/कोहरे से भरे होते हैं/जैसे/मेरा मन/तेरी यादों से भरा होता है। इसीलिए संग्रह की अधिकतर कविताएं एक प्रेमी की अपनी प्रेमिका के साथ व्यतीत किए गए क्षणों की स्मृतियों पर आधारित हैं। इन कविताओं में कवि की संवेदनाएं इतनी मर्मस्पर्शी हैं कि पाठक स्वयं को उस प्रेमी-प्रेमिका की दुनिया में विचरण करता हुआ पाता है। इसका एक कारण यह भी है कि रचनाकार ने रोज़मर्रा की जिन्दगी में घटित होने वाली सामान्य सी घटनाओं को प्रेम की आभा के साथ बहुत ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। 

सम्पूर्ण हो जाना प्रेम के लिए आवश्यक नहीं है और यही विचार मनीष मिश्रा की कविताएं भी संप्रेषित करती प्रतीत होती है। मनीष मिश्रा की कविताओं में प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे से विलग हो जाने के बाद भी एक दूसरे के प्रति आदर और समर्पण का भाव रखते हैं। एक दूसरे के प्रति नकारात्मक भाव का लेशमात्र भी उनके मन में नहीं है, अपितु विरह में पग कर वे और भी परिपक्व हो गए हैं। इस काव्य संग्रह से एक नयी चेतना दृष्टि यह भी आभासित होती है कि प्रेमी विरह में भी कहीं व्याकुल नहीं होता। उसका जीवन सामान्य दिनों की ही भांति चल रहा है अर्थात् कवि की जीवन दृष्टि यह भी है कि प्रेम के अधूरेपन को भी बड़े ही चाव और उत्साह के साथ जिया जा सकता है। 

प्रस्तुत संग्रह में कवि ने मां के प्रेम और मां के प्रति प्रेम को भी स्थान दिया है। वह मां को जीवन की जटिलताओं और विपदाओं में आशा की किरण मानता है, रचना की प्रेरणा और जीवन को सुसंस्कृत करने वाली जीवनधारा मानता है, जीवन के उल्लास और उत्सवों में ही नहीं, बल्कि हार और दुर्बलताओं के क्षणों में भी प्रेरणा का स्रोत मानता है। मां के इसी रूप से प्रभावित होता हुआ कवि मन स्वीकार करता है कि समाज में व्याप्त विसंगतियों, बुराईयों को समाप्त कर सकने का सामथ्र्य केवल नारी में ही है। ‘औरत’ कविता के माध्यम से मनीष मिश्रा ने औरत के सामथ्र्य के साथ-साथ औरत के प्रति सम्मान भाव को भी प्रदर्शित किया है। जो व्यक्ति अपनी मां की असीम संभावनाओं को सकारात्मक दृष्टि से पहचान लेता है, वही अपनी प्रेमिका के प्रति इतना समर्पित हो सकता है शायद इसीलिए इन कविताओं में प्रेमी समर्पित है।

मनीष मिश्रा ने अपनी कविताओं में अपनी प्रेमिका और मां के प्रति प्रेम के साथ-साथ अपने परिवेश के प्रति भी प्रेम-भाव को अभिव्यक्त किया है। बनारस की गलियों में गुज़रा समय कवि के लिए केवल समय भर ही नहीं है, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने इन गलियों में जीवन को जिया है, खुलकर जिया है, घुलकर जिया है। लंकेटिंग, मणिकर्णिका, अयोध्या, बनारस के घाट जैसी कविताओं में कवि ने अपने परिवेश के प्रति अपने मनोभावों को इस ढं़ग से शब्दबद्ध किया है कि ऐसा प्रतीत होता है, जैसे बनारस कोई स्थान न होकर कोई देव पुरूष है, जिसके प्रति कवि पूर्णतः आसक्त है। इन्हीं कविताओं में मनीष मिश्रा की दार्शनिक दृष्टि का भी परिचय मिलता है। मृत्यु, जीवन, आसक्ति, निरासक्ति, धर्म, कर्म, मोक्ष आदि विषयों को सांकेतिक रूप से व्याख्यायित करती ये कविताएं महनीय बन गयी हैं।

मनीष मिश्रा ने अपने इस संग्रह में कई नये प्रतिमानों और प्रतीकों को भी गढ़ा है। प्रेम की पूर्णता में कवि ने सामाजिक मर्यादाओं की सीमा में न रहकर स्वयं को दरिंदगी का एहसास रखने वाला बताकर अपनी ईमानदारी का भी परिचय दिया है। भाषिक स्तरों पर भी यह कविता संग्रह कुछ विलक्ष्णताएं रखता है। कविताओं के शीर्षक सामान्य सी घटनाओं और विषयों से प्रेरित होते प्रतीत हैं, जैसे- नेलकटर, चाय का कप, लड्डू, चुड़ैल, कैमरा, तस्वीर खींचना, पेन, नेलपालिश, मोबाईल, जूते, विज़िटिंग कार्ड, झरोखा, तुम्हारे गले की खराश आदि कई ऐसे शीर्षक हैं, जो सहसा ही पाठक को आकर्षित करते हैं और इसी के साथ एक खूबी यह भी कि यह शीर्षक केवल शीर्षक भर ही नहीं है, अपितु कवि की प्रेम के प्रति, समाज के प्रति, स्त्री के प्रति, जीवन के प्रति विशेष प्रकार की मानसिकता को द्योतित करते हैं। विज़िटिंग कार्ड जैसी कविता में आज के दौर में भीड़ में भी एकांकीपन के भाव ग्रस्त मानव की व्यथा का चित्रण है। नेलकटर कविता में भी नेलकटर एक ऐसे प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुआ है, जो मानव मन अवांछित परिस्थितियों को काटने का काम कर सके। कवि ने अधिकतर साधारण बोलचाल की भाषा में ही अपने भावों में अभिव्यक्त किया है, किन्तु संग्रह में कुछ कविताएं ऐसी भी जहां भाषा की रागात्मकता को भी महसूस किया जा सकता है। संग्रह की ‘जीवन राग’ जैसी कविताएं इसी तथ्य को प्रमाणित करती है कि मनीष मिश्रा जितने साधारण भाषा में सहज प्रतीत होते हैं, उतने ही गूढ़ प्रतीकात्मक भाषा में प्रौढ़ दार्शनिक से महसूस होते हैं।

‘इस बार तुम्हारे शहर में’ की कविताओं में जीवन ने अनेक रंग देखने को मिलते हैं। प्रेमी-प्रेमिका प्रेम, मां-बेटे का प्रेम, मानव और परिवेश का प्रेम ये सब विषय इस संग्रह की कविताओं में अन्तर्भुत हैं। इसीलिए कविताएं दिल को छू लेने वाली हैं, विरह में भी सुखद आनंद का आभास करवाने वाली हैं, पीड़ा का उत्सव मानने की प्रेरणा देने वाली हैं, उल्लास और उन्माद की कविताएं हैं, वास्तव में जीवन को हर परिस्थिति में जीने की प्रेरणा देने वाली कविताएं हैं।


डॉ. रजनी प्रताप

हिन्दी विभाग

पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला

पंजाब


Thursday, 20 April 2023

सकारात्मक और आत्मीय भाव की मनीष कुमार मिश्रा की कविताएं

                                        

                      “ अक्टूबर उस साल ” काव्य संग्रह की समीक्षा


 “अक्टूबर उस साल”

डॉ. मनीष मिश्रा जी


वर्तमान में आप महाराष्ट्र मुंबई विश्वविद्यालय के .एम. अग्रवाल महा विश्वविद्यालय कल्याण (पश्चिम) हिंदी विभाग में प्रमुख के पद पर कार्यरत है | एक दर्जनों से अधिक राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियो के सफल आयोजक | आपने 11 पुस्तकों का संपादन तथा विदेशों में अपनी कविताओं तथा कहानियों एवं शोध आलेख से पाठकों पर अपनी लेखनी का गहरा प्रभाव डाला है | वर्ष 2019 में आपका काव्य संग्रह “अक्टूबर उस साल” प्रकाशित हुआ | वर्ष 2020- 21 के लिए आपको महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा संत नामदेव पुरस्कार स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया है| यह पुरस्कार आपको “तुम्हारे शहर में”काव्य संग्रह के लिए प्रदान किया गया | उन्होंने डॉ रामजी तिवारी के निर्देशन में कथाकार “अमरकांत : संवेदना और शिल्प”पीएचडी के लिए विषय को चयनित कर सर्वोच्च अध्ययन के लिए उन्हें वर्ष 2003 में श्याम सुंदर गुप्ता स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया | वर्ष 2014 से वर्ष 2016 तक आप यूजीसी रिसर्च अवॉडी के रूप में चुने गए | कोविड-19 के कठिन समय में भी आपने महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा संपोषित “75 साल 75 व्याख्यान” नामक ऑनलाइन व्याख्यान को सफलतापूर्वक चलाया | “अक्टूबर उस साल”काव्य संग्रह में 56 कहानियों का समावेश है | हर एक कविताओं का अपना एक अलग पहलू है | दूसरों के प्रति सकारात्मक आत्मीयता का भाव, निस्वार्थ प्रेम की भावना ,सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर भय को पराजय कर जीने की नई उमंग- तरंग को दर्शाती है| मस्तिष्क और हृदय के बीच की जंग में हृदय की जीत को दर्शाती है | उनकी कुछ कविताएं मातृत्व भाव को स्पर्श करती हुई सहज ही जुड़कर बचपन से यौवन तक की यात्रा से गुजरते हुए मां के अंतिम समय की पीड़ा को दर्शाती है| भूली बिसरी विस्मृतियों को याद करके आनंद की अनुभूति होती है | उनकी कविताएं जीवन के हर एक पड़ाव तथा भाव को व्यक्त करती है| प्रकृति के साथ मनुष्य की भावनाओं वेदनाओ को जोड़ने का सार्थक प्रयास किया है | दूसरी और नारी संवेदना तथा समाज में चल रही वर्तमान स्थिति के विभिन्न पहलू को स्पर्श करती कविताओं का संकलन भी किया है | उन्होंने “अक्टूबर उस साल” में व्यक्ति की पूरी जीवन यात्रा के अनछुए पहलुओं को जोड़कर स्वयं की आपबीती जीवनी का जीवंत रूप कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है | उनकी कविताओं से पाठक स्वयं ही जुड़ जाता है, क्योंकि उनकी पंक्तिया कहीं ना कहीं हमारे जीवन से जुड़ी हैं और हमारे भीतर झांकती हुई हमारी भावनाओं को प्रस्तुत करती हैं | उनकी कविताओं को पढ़कर हमें यह महसूस होता है, कि यह हमारे ही जीवन का प्रतिबिंब है| और अनचाहे पहलुओं को छू लेती है| इनकी कविताओं में पाठक अपने अतीत के पन्नों को खोल देता है तथा इन पंक्तियों में अतीत को प्रत्यक्ष रूप से जीने लगता है | इस काव्य संग्रह में मेरी रुचि का कारण मेरी भावनाएं हैं | जो इस काव्य संग्रह में अपने वास्तविकता तक पहुंचती है | और यह उन सभी को पढ़नी चाहिए जो अपने भावों की प्रस्तुति करना चाहते हैं असल में “अक्टूबर उस साल” की कविताएं हृदय के तारों को झंकृत करती है | और मैं यह काव्य संग्रह उन सभी पाठकों से पढ़ने का निवेदन करूंगी जो अपने आप से रू-ब-रू होना चाहते हैं |  

समीक्षक- गरिमा .आर. जोशी

दिनांक -



                                                                                                                         





मनीष कुमार मिश्रा की कविताएं

 

स्त्री का पुरुष के प्रति 
प्रेम, भक्ति और आसक्ति 
को अनगिनत कवि 
यदा कदा शब्द रूप देते दिखते है किन्तु 
मनीष जी की कविताओं मे  पुरुष की स्त्री के प्रति 
प्रेम और भक्ति प्रशंसनीय है मनीष जी के इस कविता संग्रह "इस बार तुम्हारे शहर मे"-
में अधिकांश कविताओं में स्त्री को स्थान मिला है 
उन्होंने स्त्री को केवल 
देवी या साधारण नारी/स्त्री ना मान कर 
स्त्री को पुरुष की शक्ति और प्रेरणा के रूप मे 
प्रस्तुत किया है । 
"इस बार तुम्हारे शहर में " कविता संग्रह मे 
अधिकांश कविताओं मे स्त्री अस्था का केंद्र रही है 
स्त्री के हावभाव,  
शारीरिक गठन को सुंदर शब्दों से गरिमापूर्ण सजाया , निखारा है 
औरत /स्त्री होने का उन्दा अर्थ प्रकट करती कविता -"तुम जो सुलझाती हौ "- मे स्त्री की प्रकृति की तरह व्याख्या की है 
बदलते मौसम और उनकी विशेषताओं को अपने मे समेटे स्त्री... 
बांधनों से बंधी 
जीवन की गाँठे सुलझाती स्त्री...जिसके होने से ही 
सब अर्थपूर्ण है अन्यथा सबका सब व्यर्थ है 
पुरी कविता स्त्री की महिमा का गुणगान गाती है ।
"दुबली पतली और उजली सी"- कविता मे कहानी, कविता, महाकाव्य को 
अपनी चुप्पी में  समेटे 
रिश्तो को जोड़ती , बांधती , सिंचती लड़की उत्सव रचा बसा देती है मन में 
किन्तु उसकी चुप्पी मे 
बहोत कुछ समाया है  
इतनी गहरी प्रस्तुति लड़की के मन की निश्चय ही 
पाठक के मन मे गहरे 
उतरती है । 
विश्वास के प्रतिक के रूप मे स्त्री की व्याख्या 
"सवालों से बंधी " कविता मे खूब की है 
प्रेम और  रिश्तों को समेटे "तुम्हारे ही पास" कविता में फिर एक बार 
नारी के उदांत ह्रदय की व्याख्या की है जो 
प्यार की उष्मा से पिघल जाती है ।
"कि तुम जरूर रहना"- कविता मे पुरुष के भीतर शक्ति बन कर 
प्रेरित करती नारी ... 
स्त्री का आना पुरुष के जीवन को कितना संवारता है 
"तुम आ रही हो तो "- कविता से पूर्ण प्रतिपादित होता है । वही " चुड़ैल" कविता मे 
व्यंग का पुट मिलता है चुड़ैल शब्द का प्रयोग स्त्री के 
प्रेम मे वशिभूत हो कर किया है स्त्री की सुंदरता को 
शब्दों मे बांधा नहीं जा सकता "उसे जब
देखता हुँ " कविता स्पष्ट करती है कि स्त्री के सौन्दर्य का पैमाना केवल उसके उपासक की आँखों मे होता है 
अन्य कविताओं मे "कविताओं के शब्द"- 
कविता मे शब्दों की महिमा , उपयोगिता का सुंदर वर्णन दिखता है 
औजारों की धार से नुकिले शब्द, 
विचारों को विस्तार देते शब्द, उम्मीद को बांधते शब्द, अपनी पूर्ण आभा लिए शब्द कविता को लय प्रदान करते है वही दूसरी कविता 
"तस्वीर खिंचना"- बेहद प्रासंगिक है  भौतिक युग मे सेल्फी का महत्व ओर प्रचलन उत्तरोत्तर बढ़ता ही  जा रहा है हर आयु वर्ग 
का व्यक्ति अपनी आयु ओर उपयोगिता से कही अधिक शौक से मोबाईल युग मे मोबाईल का उपयोग करता है 
उससे तस्वीरे लेता है 
जाने अनजाने ये तस्वीर लेने का शौक उसके यादों के संग्रह को बढ़ाता ही जाता है उन सुनहरी यादों की मुस्कानों मे जिन्हे फिर से जिया तो नहीं जा सकता पर तस्वीरो को देख कर मुस्कुराया जा सकता है । 
" तृषिता" मे प्रेम मे रूठने मनाने का जो आनन्द है जो प्रेम को बढ़ाता है उसे जिंदा रखता है उस मनुहार का सुंदर वर्णन हे 
व्याकरण की बरिकियों को दर्शाती कविता "तुम्हे मनाने के"- मे 'जानने' और 'मानने' का अंतर केवल शब्दों का नहीं भावों से कही गहरे जुड़ा है । "वह पीला स्वेटर"- कविता मे स्त्री का साथ ना होकर भी हमेशा साथ
होना  प्राण वायु की तरह जिंदा रखता है मौसम बदले ,वक्त बदला पर 
उसके लिए जज्बात नहीं बदले , जिस दिल की गहराई मे समाई थी आज भी वही बसी है 
इसी तरह " तुम मिलती तो बताता" ," मुझे उतनी ही  मिली तुम" , "झरोखा" ,इन सभी कविताओं मे कही यूँ भी लगता है जैसे कवि को पुराना प्यार रह रह कर याद आता है 
"मणिकर्निका" - कविता जीवन्तता हर चीज , हर घटना मे है पूर्णतः दर्शाती है ।
निष्कर्ष स्वरूप "इस बार तुम्हारे शहर में "- मनीष जी की कविताओं का ऐसा संग्रह है मानों गुलदस्ते में अनेक फूलो का एक साथ एक जगह होकर भी अपनी खुशबु ,अपना रंग ,अपनी पहचान ,स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रहना ।
अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ.. बधाई 💐

डॉ. रेखा वैदया 
प्रवक्ता हिंदी विभाग 
जवाहरलाल नेहरू राजकीय महाविद्यालय 
पोर्टब्लैयर , अंडमान एवं निकोबार द्विपसमुह 
9679591235


Thursday, 13 April 2023

डॉ हर्षा त्रिवेदी का प्रथम काव्य संग्रह " कहीं तो हो तुम"

 डॉ हर्षा त्रिवेदी का प्रथम काव्य संग्रह " कहीं तो हो तुम"


आर.के. पब्लिकेशन, मुंबई से प्रकाशित हो चुका है। कुल 66 कविताओं की यह पुस्तक अपने अंदर संवेदनाओं की कई कई गाठों को खोलती है। इन कविताओं में लालसाएं, सपने, प्रतिबद्धता, प्रेम, परिमार्जन, परिष्कार, राष्ट्रप्रेम के साथ साथ क्षमा, दया, करुणा और उदात्त मानवीय मूल्यों के लिए संकल्पों का रचनधर्मी फलक बहुत विस्तृत है। कई कविताएं सहिष्णुता के महत्व को रेखांकित करते हुए मनुष्य को अधिक उदार होने की तरफ़ इशारा करती हैं।

जीवन, प्रकृति, राष्ट्र , दर्शन, आध्यात्म और प्रेम की अभिव्यक्ति अधिकांश कविताओं का केंद्रीय स्वर है । प्रेम की अभिव्यक्ति कहीं एकदम सीधे सपाट पर मोहक रूप में हुई है तो कहीं उसपर आध्यात्म का आवरण दिखाई पड़ता है। कविता संग्रह का शीर्षक इसी बात का प्रमाण है। आज की बाजार केंद्रित विश्वगत व्यवस्था में संवेदनाओं की इतनी महीन कारीगरी शब्दों के साथ करनें में डॉ हर्षा अपनी इन कविताओं के माध्यम से सफल दिखाई पड़ती हैं। 

     डॉ हर्षा त्रिवेदी की कविताएं मन में धसे और गड़े भावों की शब्द चित्रकारी सी प्रतीत होती हैं। इन कविताओं में जीवन के प्रति सकारात्मक ऊर्जा और दृष्टिकोण है । इन कविताओं का एक सिरा मानवीय मूल्यों और भावों का है तो दूसरा इन भावों को निरंतर सिंचित करने वाले उदात्त प्रेम और आध्यात्मिक भाव का । ज्ञात से अज्ञात को जानने की लालसा में विश्वास इतना प्रबल है कि " कहीं तो हो तुम" जैसी महत्वपूर्ण कविता डॉ हर्षा रच सकीं । 

     डॉ हर्षा त्रिवेदी को उनके इस प्रथम काव्य संग्रह के प्रकाशन की बहुत बहुत बधाई। आशा है वे अपनी इस रचनाधर्मिता को लगातार आगे बढ़ाते हुए साहित्य सेवा में महती योगदान देती रहेंगी । यह किताब एमेजॉन पर ऑनलाइन उपलब्ध है। 

उज़्बेकिस्तान में हिंदी

 विश्व हिन्दी दिवस कार्यक्रम                  भारतीय राजदूतावास ताशकंद,उज़्बेकिस्तान की तरफ से विश्व हिन्दी दिवस के उलक्ष्य में कई महत्वपूर्ण...