Thursday 19 July 2018

सरकारी नियमानुसार ।




               राकेश कुमार कानपुर में तीन सालों से फ़ूड सप्लाई इंस्पेक्टर के रूप में कार्यरत थे बड़ी मेहनत के बाद नौकरी मिली थी सो नौकरी करने से अधिक नौकरी बचाने में विश्वास करते थे ऐसा इसलिए क्योंकि उनके नौकरी सिद्धांत के अनुसार नौकरी करने की नहीं अपितु बचाने की वस्तु है । समय के पाबंद और अधिकारियों के प्रिय बँधी - बंधाई  अतरिक्त आय की पूरी श्रृंखला से अच्छी तरह वाक़िफ़ पर किसी तरह के विरोध में दिलचस्पी नहीं अपना हिस्सा चुपचाप ले लेते पहली बार जब धर्मपरायण  पत्नी राधिका ने टोका तो उसे समझाते हुए बोले
               देखो राधिका, इस तरह की पाप की कमाई में मुझे भी दिलचस्पी नहीं है मैं खुद नहीं चाहता ऐसे पैसे लेक़िन क्या करूँ? ऊपर से नीचे तक पूरी श्रृंखला बनी है सब का हिस्सा निश्चित है बिना कहे सुने सब के पास ये पैसे हर महीने पहुँच जाते हैं सब ले लेते हैं और जो ना ले वह सब की आँख की किरकिरी बन जाता है अधिकारी और साथी उसे परेशान करने लगते हैं फ़र्ज़ी मामलों में फ़साने लगते हैं अब तुम ही कहो चुपचाप नौकरी करूँ या अकेले पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ूँ ? 
          इसपर सहमी पत्नी पूछती है
           तो क्या ईमानदारी से काम करना पाप है ? क्या कहीं कोई सुनवाई नहीं ?
           राकेश उसे फ़िर समझते हुए कहते
           अरे राधिका, तुम पढ़ी लिखी हो और ऐसी बातें करती हो? ईमानदारी कोई अतरिक्त गुण नहीं है अगर कोई कहे कि मैं ईमानदारी से काम करता हूँ तो उस महानुभाव को यह समझाना चाहिये कि भाई जिसने तुम्हें नौकरी दी है उसने ईमानदारी से काम करने के लिये ही दी है यह आप का कोई विशेष गुण नहीं है इसलिए बात करते समय ईमानदारी को विशेषण के रूप में प्रस्तुत करना ही बहुत बड़ी बेईमानी है मैं नियमों से बंधा हुआ एक मामूली प्रशासनिक कर्मचारी हूँ इतना मामूली कि मामूली शब्द भी हमसे अधिक ताकतवर है व्यवहार और नियम के बीच एक संतुलन बनाना पड़ता है पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं रख सकता बाकि जैसा कहो, कल नौकरी चली जाये या मेरे साथ कोई ऊँच-नीच हो जाये तो....
        राकेश ने अपनी बात पूरी नहीं की थी कि राधिका ने उसके मुँह पर अपना हाँथ रख दिया राधिका की आंखें छलक आयीं थीं वह कुछ नहीं बोली और इन दो तीन सालों में फ़िर कभी इस बात पर कोई चर्चा भी नहीं की इस तरह उसने भी राकेश की प्रशासनिक ईमानदारी के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था
       सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन राकेश ने राधिका को बताया कि वह यू.पी., पी.सी. एस. की परीक्षा फ़िर से देना चाह रहा है फ़ूड सप्लाई इंस्पेक्टर की पोस्ट क्लॉस वन की नहीं थी, और अब राकेश क्लास वन की नौकरी चाहता था उसके कई दोस्त क्लास वन के अधिकारी थे, उनसे मिलने पर राकेश हीनता के भाव से भर जाता था यह हीनता उसे अंदर ही अंदर कचोटती, अतः उसने निर्णय लिया कि वह एक बार फिर मेहनत करेगा और अपनी क़िस्मत आजमायेगा राधिका को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी लेकिन थोड़ी आशंका के साथ उसने पूछा
             सुबह से शाम तक तो आप फील्ड में रहते हैं, पढ़ाई कब करेंगे ? सिर्फ पाँच महीनें हैं हाँथ में नौकरी और पढ़ाई दोनों कैसे मैनेज करेंगे ? 
राधिका की बात सुनकर राकेश ने मुस्कुराते हुए कहा-
           “मेरी भोली बीबी, मैं ऑफिस में छुट्टी की अर्जी डाल दूँगा लीव विदाउट पे की अर्जी अर्थात बिना वेतन की छुट्टी ।ऐसी छुट्टी मिल जायेगी और फ़िर परीक्षा खत्म होते ही ऑफिस वापस ज्वाइन कर लूँगा ’’ 
राधिका बोली
             तब ठीक है, आप चिंता करें ये पाँच महीने मैं घर खर्च बचत के पैसों से चला लूँगी आप अच्छे विद्यार्थी की तरह सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान देना घूमना-फिरना सब बिलकुल बंद और दोनों खिलखिला पड़ते हैं ।”
           अगले दिन ऑफ़िस जाने से पहले ही राकेश ने छुट्टी का आवेदन पत्र तैयार कर लिया था जल्दी- जल्दी नाश्ता खत्म करके वह ऑफ़िस के लिये निकल पड़ा लेकिन देर रात जब वह वापस आया तो उदास लग रहा था मानों उसके अरमानों के पंख क़तर दिये गये हों । राधिका उसका चेहरा देखते ही समझ गई कि कोई बात है जिसने राकेश को परेशान कर रखा है पानी का ग्लास आगे बढ़ाते हुए वह बोली
            आप कपड़े बदल लीजिये मैं चाय बना देती हूँ ।” और बिना राकेश के जबाब की प्रतीक्षा किये वह रसोंई घर की तरफ़ बढ़ गई ।थोड़ी देर में जब वह चाय की प्याली लेकर वापस आयी तो देखती है कि राकेश वैसे ही सोफ़े पर बैठा है बिलकुल चुप और उदास  उसकी उदासी राधिका के लिए गर्मियों के उमस भरे दिनों की तरह बेचैन करने वाली थी ।
राधिका ने चाय की प्याली पकड़ाते हुए पूछा
            क्या बात है ? आप कुछ परेशान लग रहे हैं ’’
         राकेश मानों इस प्रतीक्षा में ही था कि कब राधिक उससे पूछे और वह अपनी परेशानी उसे बताये । वैसे ही जैसे उमड़ते बादल बरसने को बेचैन रहते हैं । राधिका को अपने पास बिठाकर  उसने कहा -
          “तुम्हें तो पता ही है कि आज सुबह ही मैंने छुट्टी के लिये आवेदन तैयार कर लिया था रस्तोगी साहब जब ऑफ़िस आये तो मैंने उन्हें सारी बात बताकर आवेदन पत्र उनके सामने रख दिया उन्होंने कहा कि इतनी लंबी छुट्टी नहीं मिल सकेगी दस-बीस दिन की छुट्टी वो दे सकेंगें, इससे अधिक नहीं अब तुम ही बताओ मूड़ खराब होगा कि नहीं ऊपर से मैं बिना वेतन की छुट्टी माँग रहा था, इसमें किसी को क्या समस्या हो सकती है ? कहते हैं स्टाफ़ कम है मैंने जब इनसिस्ट किया तो वो साला रस्तोगी, कहता है क्लॉस वन की नौकरी का इतना मन हो तो ये नौकरी छोड़ दो , फिर छुट्टी ही छुट्टी इतना मन खराब हुआ कि वहीं साले को दो हाँथ लगाऊँ
               इतना कहते - कहते राकेश का चेहरा आक्रोश से तमतमाने लगा राधिका ने राकेश का हाँथ अपने हाँथों में लेकर कहा
                 आप गुस्सा हों वो रस्तोगी जी तो शुरू से आप से जलते हैं आप जिंदगी में आगे बढ़े, नाम कमायें, यह तो वे कभी नहीं चाहेंगे आप शांति से सोचिये कोई रास्ता जरूर निकल आयेगा ऊपर के किसी अधिकारी से बात कीजिये, सब ठीक हो जायेगा ।जो कीजिये सोच समझ कर कीजिये और सरकारी नियमानुसार कीजिये ।”
               राधिका के प्रेम में पगे इन शब्दों को सुनकर राकेश का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ चाय की प्याली से एक घूँट हलक के नीचे उतारकर  उसने कहा
                तुम ठीक कहती हो सरकारी नियमानुसार ही कुछ करूँगा ।” 
            यह कहते हुए राकेश किसी गहरी सोच में डूबा हुआ लगा मानों मन ही मन वह कोई तरक़ीब भिड़ा रहा था ।उसे यूँ सोच में डूबा देखकर राधिका ने पूछा
             “तो क्या कोई तरकीब सोच रखी है आपने ? 
राकेश मुस्कुराते हुए बोला
               तरक़ीब तो है राधिका, थोड़ी टेढ़ी है पर है सरकारी नियमानुसार ही वो तुमनें सुना है ना कि जब घी सीधी ऊँगली से निकले तो ऊँगली टेढ़ी कर लेनी चाहिए मैं तो ऊँगली भी टेढ़ी नहीं करूँगा बल्कि घी को ही गरम कर दूँगा , वो भी सरकारी नियमानुसार ।”
इतना कहते ही राकेश हँसने लगा राधिका को कुछ समझ नहीं आया उसने पूछा
              आप क्या करने वाले हो ? मुझे बताइये ।”
            लेकिन राकेश ने राधिका की बात को अनसुना करते हुए कहा –
            चलो अब कपड़े बदल लेता हूँ, तुम खाना लगा दो ।”
            इतना कहकर वह बेड रूम में चला गया राधिका का मन अंजान आशंकाओं से भरा हुआ था लेकिन वह असहाय थी मन मार के वह खाना लाने किचन में चली गई उसने उस दिन कई बार  राकेश की भावी योजना का पता लगाने का प्रयास किया  लेक़िन राकेश एकदम घाघ था राधिका अंत में ऊबकर सो गई
           अगली सुबह राधिका ठीक वक्त पर उठ गई लेकिन उसे सिर भारी लग रहा था । फ़िर भी उसने रोज की तरह चाय बनाई और राकेश को उठाने के बाद खुद नाश्ता बनाने किचन में चली गयी । नहा धोकर जब राकेश नाश्ता करने के बाद ऑफिस जाने  के लिए तैयार हुआ तो राधिका उसके पास आकर बोली -       
           देखिये कोई लड़ाई-झगड़ा मत करना और...... ।”
        राधिका अपनी बात कर ही रही थी कि राकेश ने उसके मुँह पर हाँथ रखते हुए कहा -
“तुम बिलकुल परेशान मत हो मैं कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं करने वाला सिर्फ़ अपना काम करूँगा वो भी सरकारी नियमानुसार ’’
           इतना कहते हुए उसने राधिका को चूम लिया राधिका शर्म से लाल हो गई अपने आप को राकेश से अलग करते हुए राधिक बोली
            “सुबह -सुबह बदमाशी मत करो ।जाओ ऑफिस जाओ ।”
         राकेश भी बैग उठाकर बाहर निकल गया बाहर खड़ी अपनी मोटरसाइकिल को किक मारते हुए राकेश ने कहा
            “शाम को थोड़ी देर से आऊँगा, परेशान मत होना ।”
           इतना कहकर वह अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हो राधिका की आँखों से ओझल हो गया राधिका के मन में कई सवाल थे, अपनी बेचैनी वो व्यक्त नहीं कर पा रही थी उसे समझ नहीं रहा था कि राकेश के मन में क्या चल रहा है जब आशंकाएँ बढ़ती हैं तो विश्वास दरकने लगता है राधिका आज भी रोज की ही तरह सारे काम निपटा रही थी, बस आज पूजा घर में आधे घंटे की जगह पूरे दो घंटे बिताये  
          दोपहर को सोचते-सोचते ही कब आँख लग गई उसे पता ही नहीं चला जब आँख खुली तो शाम के पाँच बज चुके थे मन अनमना सा था फ़िर भी अपने लिये चाय बनाकर डायनिंग टेबल पर बैठी ही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी राधिका ने दरवाज़ा खोला तो सामने अपने बड़े भाई हेमंत को खड़ा पाया हेमंत को देख राधिका की ख़ुशी का ठिकाना रहा
         हेमंत पेशे से सरकारी वकील थे इलाहाबाद हाईकोर्ट में लेकिन कोर्ट- कचहरी के काम से जब भी कानपुर आते तो अपनी बहन से मिलना नहीं भूलते हेमंत को चाय नाश्ता देने के बाद राधिका ने राकेश के ऑफिस वाली परेशानी बतायी और अपनी आशंकाओं से अवगत कराया
         हेमंत ने अपनी बहन की बात ध्यान से सुनी और फ़िर उसे ढाढ़स बंधाते हुए बोले
          “तुम बिलकुल चिंता मत करो सरकारी नौकरी बड़े मुश्किल से मिलती है और जितने मुश्किल से मिलती है उसके लाख गुना अधिक मुश्किल से जाती है कोई राकेश का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता तुम नाहक परेशान  हो, फ़िर हम सब हैं तुम लोगों के साथ क़ानून कर्मचारियों के हक में मजबूती से खड़ा है ।सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को उसके खिलाफ आरोप पत्र के अभाव में 90 दिन से अधिक निलंबित भी नहीं रखा जा सकता और इस निलंबन की अवधि में भी उसे एक निर्धारित वेतन राशि मिलती रहती है यह सब व्यवस्था इसीलिए है ताकि किसी कर्मचारी के साथ कोई अन्याय हो पाए  सूचना का अधिकार जैसा कानून है जो एक निश्चित अवधि में सरकारी विभागों को माँगी गई सूचना प्रदान करने के लिए बाध्य करता है तुम कोई चिंता मत करो किसी ने राकेश की तरफ़ आँख भी उठाई तो मैं उसे कोर्ट में नंगा कर दूँगा जब तक तेरा भाई है तुझे कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं राकेश ख़ुद समझदार है वह जो करेगा सोच समझ कर ही करेगा चाणक्य है वह चाणक्य ।”

               हेमंत की बातों से राधिक का तनाव कुछ कम हुआ हेमंत को 8 बजे की ट्रेन से इलाहाबाद वापस जाना था इसलिए वह जाने के लिये निकल पड़ा उसे लक्ष्मण बाग ऑफिसर्स कालोनी में किसी से मिलना भी था उसके जाने के बाद राधिका रात के खाने की तैयारी में लग गई
रात के साढ़े नौ बजे चुके थे पर राकेश अभी तक लौटा नहीं था राधिका का मन घबरा रहा था और उल्टे-सीधे ख़्याल मन में रहे थे इसीबीच राकेश की मोटरसाइकिल की आवाज उसके कानों में पड़ी वह दौड़कर बाहर पहुँची तो राकेश मोटरसाईकिल खड़ी कर रहा था उसे देख राधिका बहुत खुश हुई उसका बैग लेकर वह बोली
                “ आज़ इतनी देर क्यों ? आप ने सुबह कहा था कि देर होगी फिर भी मुझे लगा था पाँच बजे तक आप आ जायेंगे । हेमंत भाई साहब भी आये थे, आप का इंतजार करके चले गये।”
             राकेश ने मुस्कुराते हुए कहा
              “चलो अंदर चलकर बात करते हैं  देर से आने पर घर में नहीं घुसने दोगी क्या ?”
             दोनों अंदर आये राकेश ने नहाकर कपड़े बदले और खाने से पहले चाय बनाने के लिए कहा राधिक झट से चाय बनाकर ले आयी फ़िर राकेश के बगल बैठकर बोली
              “ अब बताओ इतनी देर क्यों हुई ?
           राकेश राधिका के गालों को चूमते हुए बोला
              “आज कुछ व्यापारियों के यहाँ छापे मारे खाद्य वस्तुओं के नमूने लिये इन्हीं सब में देर हो गई कई दिनों से शिकायत मिल रही थी मावे और दूध में मिलावट की बात थी हद है राधिक, ये व्यापारी भी ना मिठाईयों की मोटी क़ीमत लेते हैं उसके बावजूद मावे और दूध में हानिकारक यूरिया और सेन्थटिक मिलाते हैं नैतिकता और ईमानदारी तो जैसे किस्से कहानियों की बात हो गई हो आज जब छापा डाला तो घिघियाने लगे, लेकिन मैंने किसी की एक सुनी रस्तोगी तो मुझे धमकाने और परिणाम भुगतने की धमकी देने से भी पीछे नहीं हटा लेकिन मैंने किसी की नहीं सुनी सच्चाई और धर्म की लड़ाई में जो होगा अब देखा जायेगा ।” 
            राकेश की बातें और उसके इरादे राधिक कुछ -कुछ समझने लगी थी वह बोली
             “यह मिलावट कोई एक दिन में शुरू तो नहीं हुई होगी तीन साल में पहले तो कभी आप ने कोई छापेमारी नहीं की और ही नैतिकता और धर्म की कोई दुहाई दी  फ़िर हर महीने इन्हीं व्यापारियों से मिलनेवाली मोटी रकम भी आप को लेने में कोई गुरेज़ नहीं रहा बल्कि आप ने ही तो बताया था कि पूरी श्रृंखला है ऊपर से नीचे तक अगर यह सच है तो आज आप की अंतरात्मा धर्म और नैतिकता की तरफ़ कैसे और क्यों मुड़ गई ? मुझे यह पहेली यह व्यवहार समझ नहीं रहा आप मुझे सब कुछ साफ़-साफ़ बताइये कि आप के दिमाग में क्या चल रहा है पत्नी हूँ आप की, मुझसे कुछ छुपाने की ज़रूरत नहीं है आप को बोलिये क्या है आप के मन में ?
                   राकेश ने राधिका को अपनी बाहों में कसते हुए कहा
                “तुम तो जानती ही हो कि अवकाश वाले आवेदन पर कैसा तमाशा ऑफ़िस में हुआ अब रस्तोगी जैसे लोगों को सही तरीके से ठीक तो किया नहीं जा सकता, इसलिए मैंने एक प्लान बनाया शहर के कुछ व्यापारियों के यहाँ आज छापा मार करके खाद्य पदार्थों के नमूने जाँच के लिये भेज दिया व्यापारियों में हड़कंप मच गया क्योंकि ये लोग अपने संगठन के माध्यम से हर महीने एक मोटी रकम नियमित रूप से पहुंचाते रहते हैं इस तरह की कार्यवाही की इनको कोई अंदेशा ही नहीं था अब ये व्यापारी रस्तोगी की ऐसी की तैसी कर देंगे उन्होंने हंगामा किया भी, इसीलिये शाम को रस्तोगी मुझे परिणाम भुगतने की धमकी भी देने लगा था मैनें भी उसे सच्चाई और ईमानदारी का ऐसा लेक्चर झाड़ा कि महाराज किचकिचा के रह गये फ़िर मैंने गाड़ी निकाली और घर चला आया आज सभी लोग अभी तक आफ़िस में ही थे, किसी को काटो तो खून नहीं बस यही हुआ आज ।”
                 राकेश की बातें सुनकर राधिका उठकर बैठ गई और बोली
                 “सब आप से नाराज़ हो गये होंगे अब कहीं उन्होंने आप को नौकरी से निकाल दिया या आप के खिलाफ़ ऊपर शिकायत की तो  क्या होगा ?
राधिका ने आशंका भरी नजरों से पूछा
                 राकेश ने उसका हाँथ पकड़कर अपनी तरफ खींच लिया और उसे फ़िर अपनी बाहों में कसते हुए बोला
                “मेरी बीबी जी, मुझे नौकरी से निकालना उनके बूते का नहीं है मैंने जो किया है वह सरकारी नियमों के अनुसार ही किया है हाँ वे मुझे परेशान और व्यापारियों को संतुष्ट करने के लिए मुझे सस्पेंड कर जाँच करवा सकते हैं जाँच में यह साफ हो जायेगा कि जो नमूने मैंने जमा किये थे उनमें मिलावट थी और मैं बाइज्जत दुबारा आफ़िस ज्वाइन कर लूँगा मुझे पूरा भरोसा है । मैंने सबकुछ बहुत सोच समझकर किया है । यह सब मेरी प्लानिंग का हिस्सा है, कुछ समझी ?
            राधिका को कुछ समझ नहीं आया उसने फ़िर पूछा
             “तो ये सब करके आप को क्या मिलेगा ?
               राकेश ने राधिका के आठों को जोर से काटा और बोला
             “जब तक सस्पेंड रहूँगा तब तक आफ़िस नहीं जाना होगा आधी से ज़्यादा सैलरी भी मिलती रहेगी पुनः बहाली में पाँच से महीने लग ही जायेंगे मैं कोई वकील कर लूँगा और कोशिश करूँगा की बहाली की प्रक्रिया जितनी लंबी हो सके उतना अच्छा इस बीच मैं यू.पी., पी.सी.एस. औऱ आई. . एसका अपना लास्ट अटेम्ट भी दे ही लूँगा बाक़ी किस्मत जाने कुल मिलाकर यह समझो कि सीधे - सीधे छुट्टी माँग रहा था वो भी बिना वेतन के तो इन लोगों ने अपनी धौंस में मना कर दिया अब  छुट्टी भी देंगें और आधे से ज़्यादा वेतन भी और यह सब कुछ होगा सरकारी नियमानुसार ।” 

          इतना कहकर राकेश राधिका को बेतहाशा चूमने लगा एक - दूसरे की बाहों में वे देर रात कब सो गये पता ही चला अगले दिन सुबह रोज की तरह राधिका उठी और चाय बनाकर लायी राकेश को आज सुस्ती छायी थी, उसे आफ़िस की जल्दी नहीं थी राधिका के बहुत कहने पर वह बिस्तर छोड़ डायनिंग रूम में आया और चाय के साथ अख़बार की सुर्खियों में कुछ खोजने लगा अचानक उसकी नज़र एक ख़बर पर रुक गई खबर थी - मावा के थोक व्यापारी के यहाँ खाद्य विभाग का छापा
              राकेश ने पूरी खबर ध्यान से पढ़ी और एक कुटिल मुस्कान उसके चेहरे पर छा गई राधिका ने फिर टोका
              अरे आज आफ़िस नहीं जाना क्या? लाट साहब की तरह बैठे अख़बार पढ़ रहे हो । आख़िर जानबूझकर देर क्यों कर रहे हो ? नहा लो मैं नाश्ता तैयार कर देती हूँ ।” 
          इतना कहकर राधिका किचन में चली गई । राकेश नहाने जाने ही वाला था कि दरवाज़े की घंटी बजी राकेश ने दरवाज़ा खोला तो सामने ऑफिस का चपरासी नर्मदा खड़ा था
राकेश ने नर्मदा को देखते ही कहा
             “अरे नर्मदा, इतनी सुबह ? क्या बात है ?
              नर्मदा ने अभिवादन के बाद कहा -  
             “साहब कल आप के ऑफिस से आने के बाद भी ख़ूब मिटिंग हुआ रात दस बजे तक फ़िर चिट्ठी हमें दिया रस्तोगी जी ने और बोला कि आप को तुरंत पहुंचा दूं अब इतनी रात क्या आता साहेब इसलिये अभी गया ।”
          यह कहते हुए नर्मदा ने सरकारी पत्र राकेश को पकड़ा दिया और किसी कागज़ पर उसके हस्ताक्षर लेकर वहाँ से चला गया
             राकेश लिफ़ाफ़ा लेकर घर के अंदर आता है और दरवाज़ा बंद करके लिफ़ाफ़ा खोलकर पढ़ने लगता है पत्र पढ़ते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान छाने लगी इतने में राधिका किचन से आयी और बोली
            “ अरे,आप अभी यहीं हैं हद है, आज तो आफ़िस देर से ही पहुँचोगे और ये क्या है आप के  हाँथ में ? कौन आया था इतनी सुबह ?
            राकेश मुस्कुराते हुए राधिका के पास आया और उसे अपनी गोंद में उठाकर बोला -  
           “ बीबी जी प्लान कामयाब हुआ ऑफिस से चपरासी नर्मदा आया था वही यह पत्र देकर गया यह मेरा सस्पेंशन लेटर है आज से आफ़िस जाने की ज़रूरत नहीं सिर्फ पढ़ाई और बीबी को प्यार । बस,दो ही काम हैं मेरे लिए ।”
          राधिका ने राकेश से ख़ुद को नीचे उतारने को कहा फ़िर वह लेटर लेकर पढ़ने लगी औऱ बोली
            हे भगवान, आप इस दुनियाँ के पहले आदमी होंगें जो अपने सस्पेंड होने पर इतना खुश हो रहा है ।बाहर हमारी कितनी बदनामी होगी, यह तो सोचिये ।”
           राकेश सोफ़े पर बैठते हुए बोला -  
             “ अरे यार, कोई बदनामी-वामी नहीं होगी कल से सारे अख़बार लिखेंगे कि ईमानदार अफ़सर को मिली अपनी ईमानदारी की सज़ा बेईमान व्यापारी  पर छापा मारने के कारण किये गए सस्पेंड और ऐसा ही बहुत कुछ राधिका, यह दुनियाँ अजीब है यहाँ ईमानदारी से कुछ नहीं मिलता लेकिन ईमानदारी का ढोल पीटने पर सब मिल जाता है मैंने भी ईमानदारी से छुट्टी माँगी तो नहीं मिली और जब ढोल पीट दिया तो छुट्टी भी मिली और लोगों की सहानुभूति भी घर बैठे मुफ़्त की आधी तनख्वाह ऊपर से ।
            राधिका राकेश के पास आयी और बोली
               मैं अब सब समझ गई हेमंत भईया तुम्हें चाणक्य ऐसे ही नहीं कहते हैं अब जाओ नहा लो और नाश्ता कर के पढ़ाई में जुट जाओ जिसके लिये यह सब किया अब उसपर ध्यान दो ।”
              आज्ञाकारी पति की तरह राकेश ने भी उठते हुए कहा
                “ठीक कहती हो मैं नहाने जा रहा हूँ तुम हेमंत भाई साहब से बात करके कह देना कि हमें एक अच्छे वकील की ज़रूरत है सो हो सके तो वे दो- चार दिन में कानपुर जायें ।”
इतना कहकर राकेश नहाने चला गया और राधिका रसोईं घर में  
                  राकेश का सस्पेंशन लेटर वहीं डाइनिंग टेबल पर एक खाली गिलास के नीचे फड़फड़ाता रहा ।मानो वह कागज़ ही अपने अस्तित्व की गवाही देना चाहता हो, पर उसे सुनना कोई भी नहीं चाहता । षडयंत्रों की पूरी व्यवस्था में उस कागज़ की स्थिति बड़ी अजीब सी थी, ठीक सरकारी नियमों की तरह ।

                                              डॉ. मनीष कुमार सी. मिश्रा
                                                  हिंदी विभाग
                                                  के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
                                                  कल्याण- पश्चिम, महाराष्ट्र
                                                     

मालेगाँव (मालीवुड) का सिनेमा : समाजिक ताने-बाने का अप्रतिम उदाहरण ।


नाशिक,मनमाड,धुलिया जैसे शहरों से जुड़ा हुआ मालेगाँव नाशिक जिले का एक तालुका है । यह मुंबई से लगभग 300 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । बीस लाख के लगभग आबादी वाला यह मुस्लिम बाहुल्य शहर है । यह शहर अपने पवार लूम और फिल्मों के लिये जाना जाता है । हिंदी,उर्दू,ऐरानी,मराठी,बाग्लानी,खानदेशी,भिल्ल और सटानी जैसी भाषाओं-बोलियों के संलयन से मालेगाँव की एक अलग ही बोली विकसित होती है जो कि हिंदी का एक नया स्थानीय रूप है ।
मालेगाँव का फ़िल्म उद्योग, उद्योग से अधिक सामाजिक सहयोग और सहकार्यता आधारित प्रकल्प है । सीमित संसाधनों से बनी यहाँ की फिल्में कई कारणों से चर्चा का विषय रही हैं । मालेगाँव के शोले, मालेगाँव का सुपरमैन, मालेगाँव के करण-अर्जुन, मालेगाँव का जेम्स बांड जैसी यहाँ की फिल्में काफ़ी लोकप्रिय रही हैं ।
मात्र पचास हजार से 2 लाख रुपये के बजट में बनकर तैयार हो जानेवाली ये फिल्में स्थानीय मध्यमवर्गीय , निम्न मध्यमवर्गीय कुछ उत्साही लोगों द्वारा बनायी जाती हैं । ये फिल्में यहीं दिखायी जाती हैं और लाख- पचास हजार की कमाई भी कर लेती हैं । लूम में, चाय की दुकान में, कपड़े की दुकान में या ऐसे ही छोटे-मोटे काम करने वाले लोग आपसी सहयोग से इन फिल्मों का निर्माण करते हैं । संसाधनों से वंचित ये लोग अपनी साधना में जिद्द और जुनून के साथ काम करते हैं ।
हास्य प्रधान ये फिल्में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी नहीं होती और ना ही अधिक कमाई के लिये अपने समाज विशेष में वर्जित वर्जनाओं से टकराती ही हैं । अपनी बोली,स्थान,खान-पान और पहनावे की विशेषता के साथ ये फिल्में हास्य के माध्यम से मनोरंजन करना ही उचित मानती हैं ।
अतुल दुसाने, नासिर शेख़, फ़ैज़ अहमद ख़ान, खुर्शीद सिद्दकी और फिरोज़ टार्जन जैसे नाम यहाँ के फिल्मों से जुड़े बड़े नाम हैं । इनके पास वैनटी वैन नहीं होती सो कलाकार किसी कोने में जाकर मेकअप और कपड़े बदलने का काम कर लेते हैं, कैमरा घुमाने के लिये ट्राली नहीं होती इसलिए ठेले या साईकिल पर उसे रखकर काम चला लिया जाता है । यहाँ कलाकारों को कोई रकम नहीं मिलती, मिलता है तो बस अपनों का साथ ।
पूरे मालेगाँव में 15-16 फ़िल्म थियेटर हैं । मोहन,सुभाष,दीपकऔर संदेश यहाँ कुछ प्रमुख थियेटर हैं । इनके अलावा छोटे वीडियो पार्लर भी हैं । यहीं पर ये फिल्में अपना कारोबार करती हैं । जुम्मे / शुक्रवार को सभी थियेटर हाऊस फ़ुल होते हैं क्योंकि उस दिन लूम बंद रहते हैं । मालेगाँव में फिल्मों के लिये जो जुनून है वह पूरे भारत में अनोखा है । हिंदी और मराठी फ़िल्म उद्योग के सामने इनका कोई व्यावसायिक मुक़ाबला हो ही नहीं सकता लेकिन इनकी फिल्मों के प्रति प्रतिबद्धता इन्हें एक विशेष पहचान देती है ।
किस तरह एक क्षेत्र विशेष अपनी क्षेत्रीयता के तमाम रंगों के साथ प्रयोगधर्मी होते हुए सामाजिक सहयोग और सहकार्यता के ताने-बाने पर पूरी पूंजीवादी व्यवस्था और उसके मकडजाल को चुनौती देता है, इसे मालेगाँव की फ़िल्मों से समझा जा सकता है ।
डॉ. मनीषकुमार सी. मिश्रा

Wednesday 11 April 2018

पिघलती चेतना और तापमान से ।

नंगेपन की नियमावली
के साथ
शिखरों से संचालित
अभियोग की साजिश
नाटकीय सिद्धांत और सीमाएं
कुलबुला देती हैं
गर्म और गाढ़ा ख़ून
और फ़िर
अंदरुनी व्यवस्था
भनभनाती है
लपकती है
आखेट करती है
निहत्थे,नगण्य,मामूली
पथराई आँखों का
और खरोचती है
न्यायसंगत ढ़ंग से
उनकी चेतना,
पसलियों और सहिष्णुता को ।

भयातुर रंग में
विजेता
स्वाद लेता है
नंगी औरतों का
उधेड़े हुए माँस का
टुकड़े हुए सामुहिक उड़ान का
दबोचते हुए
आत्माधिकार और संविधान ।

अफवाहों की मुंडेर पर
कौवे रोमांचित हैं
पिघलती चेतना और तापमान से
उनकी व्यूह रचना में
रेते जा रहे हैं
सिद्धांतों के दाँत
निचोड़ा जा रहा है
सामोहिक उजाला
और
कुचला जा रहा है
विकल्प और संकल्प का
कोई भी प्रयास ।

मर्मस्थलों की
जासूसी और टोह
पक्षियों के झुंड और
अंडों पर झपट्टा
भीरु और अपाहिज़
मस्तिष्क पर राजतिलक
नाटकीय विज्ञापन
जंतुओं की तरह
चिपके,लिजलिजे
लोगों का अभिभाषण
फुनगियों की कपोलों पर
जलवायु के हवाले से
हलफनामा तैयार ।

ऐसे समय में
अपने डैने को
अपनी काँख में दबाये
माँस के लोथड़ों के टीले पर
मैं रोमांचित हूँ
प्रेम की उत्तेजक उड़ान और
आप की
शुभकामनाओं के लिए
ताकि एक उड़ान
क्षितिज के
उस पार हो जहां
परिदृश्य बदला हो
या फिर
इसकी उम्मीद हो ।

    ----------मनीष कुमार मिश्रा ।

Tuesday 10 April 2018

अनजान अपराधों की पीड़ा ।

लीचड़ और लद्धड़
प्यार के बारे में
पीछे की कोई बात
पीड़ा,भरम और मोह
और उदासियों से गुँथे हुए
निपट - निचाट
अंदेशाओं / आशंकाओं से
धूसर
उस पृष्ठभूमि को
उघाड़कर
अगर सामने रख भी दूँ
तो क्या
किसी पुरानी पहचान
के संबंधों की
घुन लगी
तृण और तिनकों की
यह जुगाली
रोशनी का कोई फ़व्वारा
दिखा सकेगी
उसे जो
नाउम्मीदी की झुर्रियों से लदा
किसी भरम के कोटर में
अनजान अपराधों की पीड़ा को
पूरे अनुशासन में
जी रहा है
एक दुर्लभ हँसी के साथ ।

जिसकी कैद में
घिस-घिसकर
प्यार भरी गर्मी
तरसती है
किसी खुली हवा के लिए ।

उसकी
अदम्य लालसा
तितलियों और बुलबुलों से
गलबहियाँ भूल चुकी हैं
और तफ़सील में
पता चला है कि
सार्थक/ रचनात्मक
खेत की उस मिट्टी ने
उमस और गर्मी के बावजूद
किसी बादल की
प्रतीक्षा से
इंकार कर दिया है ।

अतः
अब इस ज़मीन में
बीज बोने का प्रस्ताव
तर्क से परे है ।

        --------- मनीष कुमार मिश्रा ।

दो आँखों में अटकी

निश्छल आदतों
और मामूलीपन के साथ
एक सरल पंक्ति
कि तरह
कितना कठिन हूँ ?

विपदाओं में बंद
प्रियजनों में किटकिटाता
ज़रूरी वेदना के
ताब के साथ
आश्वस्त हूँ
अपने शेष अभिनय पर ।

स्मृतियों की
नदी के तल में
फ़िर भी दबा रखें हैं
कुछ रहस्य
जिनमें दबे हैं -
बचकाने प्रेम के चुंबन
किसी कोमल देह की गंध
दो आँखों में अटकी
अथाह रात
और
धीमी आंच पर
पकती हुई
प्रेम की अमरता ।

यकीन मानों
मरे पास
और कुछ भी नहीं
मेरे कुछ होने की
अब तक कि
पूरी प्रक्रिया में ।

        -------- मनीष कुमार मिश्रा ।

Monday 9 April 2018

मुझे आदत थी ।



मुझे आदत थी
तुम्हें रोकने की
टोकने की
बताने और
समझाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें डाँटने की
सताने की
रुलाने और
मनाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें कहने की
बिगड़ने की
तुम्हारा हूँ
यह जताने की ।

लेकिन
यह सब करते हुए
भूल गया कि
तुम
इनसब के बदले
नाराज़ भी हो सकती हो
वो भी इतना कि
छोड़ ही दो
मुझे
मेरी आदतों के साथ
हमेशा के लिए ।

अब
जब नहीं हो तुम
तो इन आदतों को
बदल देना चाहता हूँ
ताकि
शामिल हो सकूँ
तुम्हारे साथ
हर जगह
तुम्हारी आदत बनकर ।

      ------  मनीष कुमार मिश्रा ।

Tuesday 6 March 2018

तुम्हारी एक मुस्कान के लिए ।


तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
कितना बेचैन रहता ?
मन का बसंत 
मनुहारों की लंबी श्रृंखलाओं में
समर्पित होते
न जाने कितने ही
निर्मल,निश्छल भाव ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
गाता
अनुरागों का राग
बुनता सपनों का संसार
और छेड़ता
तुम्हारे हृदय के तार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
अनगिनत शब्दों से
रचता रहता महाकाव्य
अपनी चाहत को
देता रहता धार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
जनवरी में भी
हुई झमाझम बारिश और
अक्टूबर में ही
खेला गया फ़ाग ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
उतर जाता इतना गहरा
कि डूब जाता
उस रंग में जिसमें
कि निखर जाता है प्यार ।
तुम्हारी हर एक मुस्कान
मानों प्रमाणित करती
मेरे किसी कार्य को
ईश्वर के
हस्ताक्षर के रूप में ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
मेरे अंतिम शब्दों में भी
एक प्रार्थना होगी
जो तुम सुन सकोगी
अपने ही भीतर
मौन के उस पर्व में
जब तुम खुद से मिलोगी
कभी जब अकेले में ।
--------- मनीष कुमार मिश्रा

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं
और शोर है परिवर्तन गहन कर रहे हैं ।
हम आसमान की ओर बढ़ तो रहे हैं
पर अपनी जड़ों का हवन कर रहे हैं ।
रावण के पक्ष में खुद को खड़ा कर के
ये हर साल किसका दहन कर रहे हैं ?
जब कुछ करने का वक़्त है आज तो
हम हाँथ पर हाँथ धरे मनन कर रहे हैं ।
देश के घायल सैनिकों पर आरोप है कि
वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं ।
ग़ुलामी की जंज़ीरें जब तोड़ दी गई हैं तो
ये किस मानसिकता का जतन कर रहे हैं ?
उन मजदूरों के हिस्से में क्यों कुछ भी नहीं
जो मेहनत से एक धरा और गगन कर रहे हैं ।
भगौड़े भाग रहे हैं विदेश,देश को लूटकर
हमारे रहनुमा हैं कि भाषण भजन कर रहे हैं ।
------------- मनीष कुमार ।

पिछली ऋतुओं की वह साथी ।


पिछली ऋतुओं की वह साथी
मुझको कैसे तनहा छोड़े
स्मृतियों में तैर-तैर कर
वो तो अब भी नाता जोड़े ।
सावन की बूंदों में दिखती
जाड़े की ठंडक सी लगती
अपनी सांसों का संदल
मेरी सांसों में भरती ।
मेरे सूखे इस मन को
अपने पनघट पर ले जाती
मेरी सारी तृष्णा को
तृषिता का भोग चढ़ाती ।
इस एकाकी मौसम में
वह कितनी अकुलाहट देती
मेरे प्यासे सपनों को
अब भी वो सावन देती ।
पिछली ऋतुओं की वह साथी
आँखों का मोती बनती
मेरी सारी झूठी बातों को
केवल वो ही सच्चा कहती ।
----------मनीष कुमार मिश्रा ।

उज़्बेकिस्तान में एक पार्क ऐसा भी

  उज़्बेकिस्तान में एक पार्क ऐसा भी है जो यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के नाम है। यहां उनकी मूर्तियां पूरे सम्मान से लगी हैं। अली शेर नवाई, ऑ...