Thursday 11 April 2013

मेरी बन्दगी वो है बन्दगी जो/ शकील बँदायूनी




मेरी ज़िन्दगी पे मुस्करा मुझे ज़िन्दगी का अलम नहीं
जिसे तेरे ग़म से हो वास्ता वो ख़िज़ाँ बहार से कम नहीं

मेरा कुफ़्र हासिल--ज़ूद है मेरा ज़ूद हासिल--कुफ़्र है
मेरी बन्दगी वो है बन्दगी जो रहीन--दैर--हरम नहीं

मुझे रास आये ख़ुदा करे यही इश्तिबाह की साअतें
उन्हें ऐतबार--वफ़ा तो है मुझे ऐतबार--सितम नहीं

वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िन्दगी वही मरहले
मगर अपने-अपने मुक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं

वो शान--जब्र--शबाब है वो रंग--क़हर--इताब है
दिल--बेक़रार पे इन दिनों है सितम यही कि सितम नहीं

फ़ना मेरी बक़ा मेरी मुझे 'शकील' ढूँढीये
मैं किसी का हुस्न--ख़्याल हूँ मेरा कुछ वुजूद--अदम नहीं

उन्हें अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं/ शकील बँदायूनी




ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो राह-ए-आम तक न पहुँचे
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे

मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे

नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

वो नवा-ए-मुज़महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन
वो सदा-ए-अहले-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे

उन्हें अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं
मैं जो उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे

ये अदा-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बेरुख़ी क्याa के सलाम तक न पहुँचे

जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे

वही इक ख़मोश नग़्मा है "शकील" जान-ए-हस्ती
जो ज़ुबाँ तक न आये जो क़लाम तक न पहुँचे

27 - 28 अप्रेल 2013 को तुलजापुर महाराष्ट्र में राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन


Tuesday 9 April 2013

अछूत कौन


एक बार वैशाली के बाहर जाते धम्म प्रचार के लिए जाते हुए गौतम बुद्ध ने देखा कि कुछ सैनिक तेजी से भागती हुयी एक लड़की का पीछा कर रहे हैं | वह डरी हुई लड़की एक कुएं के पास जाकर खड़ी हो गई| वह हांफ रही थी और प्यासी भी थी| बुद्ध ने उस बालिका को अपने पास बुलाया और कहा कि वह उनके लिए कुएं से पानी निकाले, स्वयं भी पिए और उन्हें भी पिलाये| इतनी देर में सैनिक भी वहां पहुँच गये| बुद्ध ने उन सैनिकों को हाथ के संकेत से रुकने को कहा| उनकी बात पर वह कन्या कुछ झेंपती हुई बोली ‘महाराज! मै एक अछूत कन्या हूँ| मेरे कुएं से पानी निकालने पर जल दूषित हो जायेगा|’ बुद्ध ने उस से फिर कहा ‘पुत्री, बहुत जोर की प्यास लगी है, पहले तुम पानी पिलाओ|’
इतने में वैशाली नरेश भी वहां आ पहुंचे| उन्हें बुद्ध को नमन किया और सोने के बर्तन में केवड़े और गुलाब का सुगन्धित पानी पानी पेश किया| बुद्ध ने उसे लेने से इंकार कर दिया| बुद्ध ने एक बार फिर बालिका से अपनी बात कही| इस बार बालिका ने साहस बटोरकर कुएं से पानी निकल कर स्वयं भी पिया और गौतम बुद्ध को भी पिलाया| पानी पीने के बाद बुद्ध ने बालिका से भय का कारण पूछा| कन्या ने बताया मुझे संयोग से राजा के दरबार में गाने का अवसर मिला था| राजा ने मेरा गीत सुन मुझे अपने गले की माला पुरस्कार में दी| लेकिन उन्हें किसी ने बताया कि मै अछूत कन्या हूँ| यह जानते ही उन्होंने अपने सिपाहियों को मुझे कैद खाने में डाल देने का आदेश दिया | मै किसी तरह उनसे बचकर यहाँ तक पहुंची थी | इस पर बुद्ध ने कहा, सुनो राजन! यह कन्या अछूत नहीं है, आप अछूत हैं| जिस बालिका के मधुर कंठ से निकले गीत का आपने आनंद उठाया, उसे पुरस्कार दिया, वह अछूत हो ही नहीं सकती| गौतम बुद्ध के सामने वह राजा लज्जित ही होसकते थे|

धूमिल








अगर जिन्दा रह्ने के पीछे 






कोई सही तर्क नही है तो राम नामी बेच कर




या रंडियो की दलाली कर के



जिन्दा रह्ने मे




कोई फ़र्क नहीं है।



धुमिल- मोचीरम

जब कोई दिल पे , दस्तक दे जाता है




जब कोई दिल पे , दस्तक दे जाता है 

मुझे आज भी, तेरा ही ख़्याल आता है । 

मैं नहीं चाहता चिर दुख

मैं नहीं चाहता चिर दुख
,
सुख दुख की खेल मिचौनी

खोले जीवन अपना मुख!

सुख-दुख के मधुर मिलन से

यह जीवन हो परिपूरण,

फिर घन में ओझल हो शशि,

फिर शशि से ओझल हो घन!


जग पीड़ित है अति दुख से


जग पीड़ित रे अति सुख से,


मानव जग में बँट जाएँ


दुख सुख से औ' सुख दुख से!


अविरत दुख है उत्पीड़न,


अविरत सुख भी उत्पीड़न,


दुख-सुख की निशा-दिवा में,


सोता-जगता जग-जीवन।


यह साँझ-उषा का आँगन,


आलिंगन विरह-मिलन का;


चिर हास-अश्रुमय आनन


रे इस मानव-जीवन का!

Monday 8 April 2013

सतारा


जब मेरे पास,मेरा क़ातिल नहीं होगा

इसतरह  तो कुछ, हासिल नहीं होगा
जब मेरे पास,मेरा क़ातिल नहीं होगा ।

डूब कर जाऊँ भी तो, कहाँ जाऊँ
जब जिक्र में, कोई साहिल नहीं होगा ।



खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं / वसीम बरेलवी



खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं

वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा
उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं

जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है ग़रूर
तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं

कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ दे
मेरे हाथों में मेरा घर तो है, दरवाज़ा नहीं

अपनों को अपना कहा, चाहे किसी दर्जे के हों
और अब ऐसा किया मैंने, तो शरमाया नहीं

उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी, जिनके चराग़
मैं भी कुछ होता, तो मेरा भी दिया होता नहीं

तुझसे क्या बिछड़ा, मेरी सारी हक़ीक़त खुल गयी
अब कोई मौसम मिले, तो मुझसे शरमाता नहीं