Wednesday 18 January 2012

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शैक्षणिक दृष्टिकोण


  रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शैक्षणिक दृष्टिकोण  
                                     डॉ.मनीष कुमार मिश्रा
                   डॉ. अनिता मन्ना 
           
      कोलकाता के जोड़ासांको के प्रिन्स द्वारकानाथ ठाकुर के तीन पुत्र थे देवेन्द्रनाथ, गिरिन्द्रनाथ और नगेन्द्रनाथ। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर और शारदादेवी के समृद्ध, शिक्षित और धर्म-परायण परिवार में 7 मई 1861, मंगलवार को प्रातः तीन बजे रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म हुआ। मेरे बचपन के दिननामक पुस्तक में उन्होंने अपने बाल्यकाल की घटनाओं का बड़ा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है। वे अपने 14  भाइयों में सबसे छोटे थे।     

     रवीन्द्र ठाकुर अपने शैशव में बहुत अनोखे थे। जमींदार के नौकरों का शासन उन पर चलता था, जो खड़िया से एक रेखा खींचकर उसके अंदर ही बने रहने का निर्देश देते थे अन्यथा वह रवीन्द्र को आतंकित करते कि उन्हे भूत-प्रेत आकर परेशान करेगे। रवीन्द्रनाथ अपनी माता शारदा देवी से नौकरो की जब शिकायत करते तो वह भी उन्हें आदेश का पालन करना उनके हित में बतातीं। रवीन्द्र को पढ़ाने के लिए अंग्रेजी, गणित, संगीत आदि के शिक्षकों के समय अलग-अलग थे। दिन भर उनके आते-जाते रहने के कारण रवीन्द्र को अपना समय बिताने की स्वतंत्रता नहीं थी।
      उनकी आरंभिक शिक्षा बंगाल एकेडमीमें हुई पर वहां का वातावरण रास नहीं आने के कारण स्कूल जाने से मना कर दिया। आगे की पढ़ाई घर पर ही हुई।         टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रबीन्द्रनाथ टैगोर को बचपन से ही कविताऐं और कहानियाँ लिखने का शौक़ था। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर एक जाने-माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रबीन्द्र बडे होकर बैरिस्टर बनें। इसलिए उन्होंने रबीन्द्र को क़ानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा। लेकिन रबीन्द्र का मन साहित्य में ही रमता था। उन्हें अपने मन के भावों को काग़ज़ पर उतारना पसंद था। आख़िरकार, उनके पिता ने पढ़ाई के बीच में ही उन्हें वापस भारत बुला लिया और उन पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ डाल दीं।
 13 वर्ष की अवस्था में 8 मार्च, 1874 को उनके सिर से मां का साया हट गया। अंग्रेज़ी की पढ़ाई के लिए 1878 में इंगलैंड भेजे गए। वहां से लौटे तो 9 दिसम्बर 1883 को कुमारी मृणालिनी के साथ उनका विवाह हुआ। दुर्भाग्य कि 1902 से 1907 के बीच पत्नी (नवम्बर, 1902), पुत्री (1903), पुत्र एवं पिता (1905) एक-एक कर संसार से विदा हो गए। इस विकट दुख ने उनके जीवन की धारा ही बदल दी और वे पूरे संसार को ही अपना परिवार समझने लगे।
          
                    भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है। बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युग दृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया।
        टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
       टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएँ तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा।
             तीन देशों के राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर के पारंपरिक ढांचे के लेखक नहीं थे। वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएँ तीन देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।इसके अतिरिक्त श्रीलंका का राष्ट्र गान भी रवीन्द्र जी के ही एक गीत का अनुवाद है।  वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्मसमाजी होने के बावज़ूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज़्यादातर रचनाऐं बांग्ला में लिखी हुई हों। वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था। वह मनुष्य मात्र के स्पन्दन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनकी रगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके रंगमंच पर सिर्फ़ 'ट्रेजडी' ही ज़िंदा नहीं है, मनुष्य की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आस-पास से कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा के आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत्त करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है।
       सियालदह और शजादपुर स्थित अपनी ख़ानदानी जायदाद के प्रबंधन के लिए 1891 में टैगोर ने 10 वर्ष तक पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगला देश) में रहे, वहाँ वह अक्सर पद्मा नदी (गंगा नदी) पर एक हाउस बोट में ग्रामीणों के निकट संपर्क में रहते थे और उन ग्रामीणों की निर्धनता व पिछड़ेपन के प्रति टैगोर की संवेदना उनकी बाद की रचनाओं का मूल स्वर बनी। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, जिनमें 'दीन-हीनों' का जीवन और उनके छोटे-मोटे दुख' वर्णित हैं, 1890 के बाद की हैं और उनकी मार्मिकता में हल्का सा विडंबना का पुट है। जो टैगोर की निजी विशेषता है तथा जिसे निर्देशक सत्यजित राय अपनी बाद की फ़िल्मों में कुशलतापूर्वक पकड़ पाए हैं।
           
                    साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवित्य सजगता का विस्तार था। हालांकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोष का विकास कर लिया था। श्री टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं बाल्य कला जैसे दृश्य कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी। एक अवचेतन प्रक्रिया के रूप में आरंभ टैगोर की पांडुलिपियों में उभरती और मिटती रेखाएं ख़ास स्वरूप लेने लगीं। धीरे-धीरे टैगोर ने कई चित्रों को उकेरा जिनमें कई बेहद काल्पनिक एवं विचित्र जानवरों, मुखौटों, रहस्यमयी मानवीय चेहरों, गूढ़ भू-परिदृश्यों, चिड़ियों एवं फूलों के चित्र थे। उनकी कृतियों में फंतासी, लयात्मकता एवं जीवंतता का अद्भुत संगम दिखता है। कल्पना की शक्ति ने उनकी कला को जो विचित्रता प्रदान की उसकी व्याख्या शब्दों में संभव नहीं है। कभी-कभी तो ये अप्राकृतिक रूप से रहस्यमयी और कुछ धुंधली याद दिलाते हैं। तकनीकी रूप में टैगोर ने सर्जनात्मक स्वतंत्रता का आनंद लिया। उनके पास कई उद्वेलित करने वाले विषय थे जिनको लेकर बेशक कैनवस पर रंगीन रोशनाई से लिपा-पुता चित्र बनाने में भी उन्हें हिचक नहीं हुई।                   

           टैगोर की कविताओं की पांडुलिपि को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था और वे इतने मुग्ध हो गए कि उन्होंने अँग्रेज़ी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी जगत के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने ही इंडिया सोसायटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गईं, जिनमें से सिर्फ़ 250 प्रतियाँ ही बिक्री के लिए थीं। बाद में मार्च 1913 में मेकमिलन एंड कंपनी लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर के अँग्रेज़ी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें टैगोर के पास भेजा और लिखाः 'हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना कि यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नज़र आ रही है।' बाद में यीट्स ने ही अँग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका लिखी।
               
      1912 में टैगोर ने लंबी अवधि भारत से बाहर बिताई, वह यूरोप, अमेरिका और पूर्वी एशिया के देशों में व्याख्यान देते व काव्य पाठ करते रहे और भारत की स्वतंत्रता के मुखर प्रवक्ता बन गए। हालांकि टैगोर के उपन्यास उनकी कविताओं और कहानियों जैसे असाधारण नहीं हैं, लेकिन वह भी उल्लेखनीय है। इनमें सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है गोरा (1990) और घरे-बाइरे (1916; घर और बाहर), 1920 के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर ने चित्रकारी शुरू की और कुछ ऎसे चित्र बनाए, जिन्होंने उन्हें समकालीन अग्रणी भारतीय कलाकारों में स्थापित कर दिया।
      
           प्रसिद्ध आलोचक और तुलनात्मक साहित्य के अध्येता प्रो. इंद्रनाथ चौधरी ने कहा है कि- पश्चिमी समाज आज तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मानवीय एकताऔर आधुनिकताकी परिभाषा को समझने की कोशिश कर रहा है। बीच-बीच में वहाँ के विद्वानों ने उन्हें आध्यात्मिक या केवल रोमान्टिक कवि कहकर उनका कद छोटा करने की कोंशिश की है, लेकिन थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर फिर उनको प्रभावित करते हैं और नए लेखकों की एक पूरी पीढ़ी उनके दर्शन को अपनाती है। पश्चिम आज जिस मल्टीकल्चर की बात कर रहा है, वह उसकी ज़रूरत को बहुत पहले ही भाँप चुके थे। उनके लिए आधुनिकता का मतलब अतीत का त्याग, बुद्धिवाद का प्रचार और संशय का उदय नहीं था। उनकी आधुनिकता यूरोप की परिभाषा से बिल्कुल भिन्न थी, इसीलिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत को एक भौगोलिक पहचान के रूप में नहीं बल्कि एक वैचारिक पहचान के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे।
       सुनील गंगोपाध्याय का मानना है कि बंगाली समाज रवीन्द्रनाथ ठाकुर को रोमान्टिक कवि समझता है और युवा पीढ़ी आज तक उनके गीतों से प्यार करती है और कई आधुनिक संदर्भों में उनका उपयोग करती है। यह जानना रोचक होगा कि हिन्दी समाज उनको किस दृष्टि से देख और समझ रहा है? उनकी भाषा आज भी ताजी है और यही कारण है कि वे आज भी उतने ही रूचि से पढ़े जातीहैं।  विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने उनको लोक वाणी का कवि बताते हुए कहा है कि इतने वर्षों बाद भी उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण यही है कि वे पाठकों के कवि थें। रवीन्द्रनाथ ठाकुर खुद अपने को पृथ्वी का कवि घोषित करते हैं। गांधीजी से उनका वैचारिक मतभेद अपने इसी विश्वबोधके चलते था। उन्होंने अपने साहित्य में कभी भी प्रयोजन पर जोर नहीं दिया। इसीलिए उनकी रचनाएँ कालक्रम में दूर तक जाती हैं। उनका पूरा साहित्य अहम् का विसर्जन है।
          युवा आलोचक ज्योतिष जोशी रवीन्द्रनाथ के उपन्याशों के संदर्भ में मानते हैं कि उनके उपन्यास मानव सभ्यता के विमर्शहैं। उनके उपन्यासों में भाषा और विमर्श ही नहीं बदलते बल्कि वे पूरे समाज की रूढ़ियों को नकारते हैं। गोराको देश के दस कालजयी उपन्यासों में निःसंकोच रखा जा सकता है। प्रसिद्ध आलोचक गोपाल राय ने उनकी कहानियों के संदर्भ में कहते हैं कि - जब वे कहानियाँ लिख रहे थे तब पूरे भारतीय साहित्य में शून्य पसरा हुआ था। पहली बार किसी भी भारतीय भाषा में संवेदना के तत्व उनकी कहानियों में दिखाई पड़ते हैं। उनकी कई अंतिम कहानियाँ  पहली बार जादुई यर्थाथवाद को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं ।               
                  
              टैगोर दुनिया के संभवत: एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं को दो देशों ने अपना राष्ट्रगान बनाया। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के रवींद्रनाथ ने देश और विदेशी साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि को अपने अंदर समाहित कर लिया था और वह मानवता को विशेष महत्व देते थे। इसकी झलक उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने अपूर्व योगदान दिया और उनकी रचना गीतांजलि के लिए उन्हें साहित्य के नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। गुरुदेव सही मायनों में विश्वकवि होने की पूरी योग्यता रखते हैं। उनके काव्य के मानवतावाद ने उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई। दुनिया की तमाम भाषाओं में आज भी टैगोर की रचनाओं को पसंद किया जाता है।
                  
           साहित्य की शायद ही कोई शाखा हो जिनमें उनकी रचनाएँ नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी विधाओं में रचना की। उनकी कई कृतियों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया है। अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ। सात मई 1861 को जोड़ासाँको में पैदा हुए रवींद्रनाथ के नाटक भी अनोखे हैं। रवीन्द्रनाथ की प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं -
कहानियां : लगभग 42 कहानियों के सृजन का इन्हें श्रेय प्राप्त है। घाटेर कथा’, ‘पोस्टमास्टर’, ‘एक रात्रि’, ‘खाता’, ‘त्याग’, ‘छुट्टी’, ‘काबुलीवाला’, ‘सुभा’, ‘दुराशा’, ‘नामंज़ूर गल्प’, ‘प्रगति-संहार’ (अंतिम कहानी) आदि उनकी महत्वपूर्ण कहानियां हैं।
कहानी संग्रह : छोटा गल्प, कल्पचारिती, गल्पदशक, गल्पगुच्छ (5 भागों में) और गल्पसप्तक।
गीत-संग्रह / काव्य-संग्रह : भानुसिंह ठाकुर की पदावली (छद्मनाम भानुसिंह से 16 वर्ष की अवस्था में लिखा) , वनफूल, कविकाहिनी, रुद्रचंड, भग्नहृदय, शैशवसंगीत, `संध्या संगीत’, ‘कालमृगया’, ‘प्रभातसंगीत’, ‘छवि ओ गान (1884), ‘कड़ि ओ कोमल’ (1886), ‘मानसी’ (1890), ‘सोनारतरी’, ‘चित्रा’(1896), ‘चैताली’(1896), ‘कथा’ (1900), ‘काहिनी’, ‘कणिका’, ‘शक्तेर क्षमा’, ‘आकांक्षा’, ‘क्षणिका’, ‘कल्पना’, ‘स्वप्न’, ‘नैवेद्य’ (1901), ‘स्मरण’ (1902), ‘शिशु’ (1902), ‘खेया’ (1905), ‘गीतांजलि (1910), ‘गीतिमाल्य’(1914), ‘गीतालि’ (1914), ‘वलाका’ (1916), ‘पलातक (1918), ‘लिपिका’ (1919), `पूरबी’ (1924),
गीति-नाटिका / नाटक : वाल्मीकि प्रतिभा, प्रकृतिर प्रतिशोध (प्रथम नाट्य प्रयास), ‘मायार खेला’, ‘राजा ओ रानी’, ‘विसर्जन’ (1890), ‘चित्रांगदा’ (1891), ‘विदाय अभिशाप’(1894), `गांधारीर-आवेदन’, ‘नरकवास’, ‘कर्ण-कुन्ती संवाद’ (1897), `सती’, ‘चिरकुमार सभा’, ‘मालिनी’, ‘शरदोत्सव’ (1908), ‘प्रायश्चित’ (1909), ‘राजा’ (1910), अचलयातन (1911), ‘डाकघर’ (1912), ‘गुरु’ (1917), ‘फाल्गुनी’ (1915), ‘मुक्तधारा’ (1922), ‘वसन्तोत्सव’ (1922), ‘वर्षामंगल’ (1922), ‘शेषवर्षण’ (1925), ‘शोध-बोध’ (1925), ‘नटीर पूजा’ (1925), ‘रक्त-करवी’ (1926) नटराज’ (1927), ‘नवीन’ (1927), ‘सुन्दर’ (1927),
उपन्यास : बहू ठाकुरानीर हाट (1881, पहला उपन्यास), ‘राजर्षि’ (1887), ‘चोखेर बाली’, ‘नौका डूबी’ (1905), ‘गोरा’(1910), ‘चतुरंग’ (1915), ‘घरे-बाहिरे’ (1915), योगायोग (1927), `शेषेर कविता’ (1927) ।
निबन्ध व विचार, संस्मरण : 1883 से 1887 के बीच विविध प्रसंग, आलोचना, समालोचना, चिट्ठी-पत्री, ‘योरोप यात्रीर डायरी’ (1891), ‘छिन्नपत्र’ (1912), ‘जीवनस्मृति’ (1911), ‘साधना’ (1914), ‘नेशनलिज़्म’ (1917), ‘परसनालिटी’ (1917), ‘क्रियेटिव यूनिटी’ (1922),
                  डॉ. उर्मिला जैन ने अपने एक आलेख मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर की विदेश यात्राओं के संदर्भ में लिखा है कि- रविन्द्रनाथ ठाकुर के संबंध में ब्रिटेन में कब-कब क्या छपा- यह सब यदि एक स्थान पर काल क्रमानुसार देखने को मिल जाए तो संदर्भ की दृष्टि से शोध के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सामग्री सिध्द होगी। ब्रिटेन के टैगोर सेंटर ने यही काम कोलकाता के एकेडेमिक पब्लिशर्स के सहयोग से किया है और उसका परिणाम है 'रविन्द्रनाथ टैगोर एण्ड द ब्रिटिश प्रेस 1912-1941' नामक पुस्तक। इस पुस्तक में ब्रिटेन के समाचार पत्रों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के संबंध में जब भी, जो कुछ भी, जिस किसी भी रूप में प्रकाशित हुआ वह उनकी किसी पुस्तक की समीक्षा हो, उनके नाटकों का मंचन हो या उनके संबंध में कोई लेख-समाचार आदि हो, यह सब काल क्रमानुसार व्यवस्थित किया गया है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर 1878 से लेकर 1930 के बीच सात बार इंग्लैंड गए। 1878 और 1890 की उनकी पहली दो यात्राओं के संबंध में ब्रिटेन के समाचार पत्रों में कुछ भी नहीं छपा क्योंकि तब तक उन्हें वह ख्याति नहीं मिली थी कि उनकी ओर किसी विदेशी समाचार पत्र का ध्यान जाता। उस समय तो वे एक विद्यार्थी ही थे। लेकिन जब वे तीसरी बार 1912 में लंदन गए तब तक उनकी कविताओं की पहली पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हो चुका था, अत: उनकी ओर ब्रिटेन के समाचार पत्रों का ध्यान गया। उनकी यह तीसरी ब्रिटेन यात्रा वस्तुत: उनके प्रशंसक एवं मित्र बृजेन्द्रनाथ सील के सुझाव एवं अनुरोध पर की गई थी और इस यात्रा के आधार पर पहली बार वहां के प्रमुख समाचार पत्र 'द टाइम्स' में उनके सम्मान में दी गई एक पार्टी का समाचार छपा जिसमें ब्रिटेन के कई प्रमुख साहित्यकार यथा डब्ल्यू.बी.यीट्स, एच.जी.वेल्स, जे.डी. एण्डरसन और डब्ल्यू.रोबेन्सटाइन आदि उपस्थित थे। इसके कुछ दिन बाद 'द टाइम्स' में ही उनके काव्य की प्रशंसा में तीन पैराग्राफ लम्बा एक समाचार भी छपा और फिर उनकी मृत्यु के समय तक ब्रिटेन के समाचार पत्रों में उनके जीवन और कृतित्व के संबंध में कुछ-न-कुछ बराबर ही छपता रहा ।   भारत के राष्ट्रगान के प्रसिद्ध रचयिता रबीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में हुई थी।

रवीन्द्र नाथ ठाकुर को विश्व कवि कहना गलत नहीं होगा। कुछ बिन्दुओं से इसे स्पष्ट किया जा सकता है ।
·   51 कविता संग्रहों में 12 हजार से ज्यादा कवितायें आप ने लिखीं ।
·   11 गीत संग्रहों में दो हजार से अधिक गीत आप ने लिखे ।
·   रवीन्द्र संगीत आज दुनिया का जान-माना संगीत है ।
·   47 नाटक,13 उपन्याश और 12 कहानी संग्रहों में 150 से अधिक कहानियाँ ।
·   34 लेख –निबंध –समीक्षा संग्रह ।
·   बंकिम की वन्देमातरम गीत की धुन आपने बनाई ।
·    जन-गण-मन की धुन आपने बनाई ।
·   आप सफल नाटककार और अभिनेता भी रहे ।
·   रामकिंकर,नंदलाल बसु और असित हालदार जैसे चित्रकारों की स्थापना में आप का महत्वपूर्ण योगदान रहा ।
·    आप अच्छे पर्यटक रहे। अमेरिका, जापान, इटली, डेन्मार्क, जर्मनी, फ़्रांस, स्वीट्ज़र लैंड,नार्वे,स्वीडन,इसराईल, रोम, हंगरी , रोम और चेकोसलाविया जैसे देशों की आप ने यात्राएं की ।
इन तमाम बातों से हम रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझ सकते हैं। जहां तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी के शैक्षणिक दृष्टिकोण का प्रश्न है , उसे भी मैं कतिपय महत्वपूर्ण बिन्दुओं के रूप में ही सामने रखना चाहूँगा ।
·        रवीन्द्रनाथ बचपन से ही परंपरागत शिक्षा पद्धति से भागते रहे। स्कूल में मन नहीं लगता था। लंदन तक पढ़ने गए पर पढ़ाई बीच में ही छोडकर वापस आ गए । लेकिन आगे चलकर यही रवीन्द्र मुक्त शिक्षा पद्धति के प्रणेता बनते हुए विश्व भारती की संकल्पना को साकार करते हैं ।
·        वर्षा मंगल , माघ मेला ,पौष मेला , आनंद मेला और वसंतोत्सव के माध्यम से पर्यावरण शिक्षा का काम शांति निकेतन में आप करते रहे ।
·        विश्व भारती के माध्यम से बहु उद्देशीय शिक्षण संस्था की संकल्पना को आप ने साकार किया ।
·        आप विद्या चर्चा नहीं गुण चर्चा के समर्थक रहे ।
·        आप शिक्षक को मनुष्य गढ़ने का शिल्पी मानते थे , लेकिन शिक्षक-और छात्र के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के आप समर्थक रहे ।
·        आप प्रतिभा के पूर्ण विकाश पर ज़ोर देते थे ।
·        आप शिक्षा को सत्य के अन्वेषण का माध्यम मानते थे ।
·        आप सिर्फ ज्ञान या सूचना को महत्व नहीं देते थे अपितु एक बोध परक दृष्टिकोण के विकाश को जरूरी मानते थे ।
·        आप शिक्षा का उद्देश्य हर दिन को आनंदपूर्ण बनाना मानते थे ।
·        शिक्षा का बृहत्तर समाज के साथ संबंध होना आप बहुत जरूरी मानते थे ।
·        आप को 5 विदेशी और देश के 9 विश्वविद्यालयों से डी.लिट. की उपाधि प्राप्त हुई ।
·        आप ने कृषि शिक्षा को भी महत्व दिया। आलू की उन्नत खेती सीखने के लिए आपने अपने पुत्र को विदेश भेजा ।
·        आप भारतीयता से अधिक महत्वपूर्ण संस्कृति की मानवीयता और मानवीयता की संस्कृति को मानते थे ।
·        आप आत्म अनुसाशन के पक्षधर थे ।
·        आप ने पिता के ध्यान मंदिर( शांति निकेतन) को शिक्षा मंदिर( विश्वभारती ) में बदला । 
·        आपने आचार्य हजारी प्रसाद द्वारा विश्व भारती में हिंदी विभाग की स्थापना करायी और राष्ट्र भाषा का कार्य आगे बढ़ाया ।
·        सांप्रदायिकता और जातिवाद के आप घोर विरोधी थे । आप का गोरा उपन्यास इसका जीवंत उदाहरण है ।
·        चंडालिका , श्यामा और अभिसारिका जैसी आप की रचनाएँ भी जातिवाद के विरोध में ही लिखी गयी ।
·        कुसंस्कारों का विरोध दर्ज कराती हुई रचनाओं में –रक्तकरवी और विसर्जन जैसी रचनाएँ प्रमुख हैं ।
·        रवीन्द्रनाथ भारत के पहले ऐसे जमींदार थे जिन्होंने अपनी ही प्रजा को अपने ही कर्ज से मुक्ति दिलाने के लिए अपने पैसों से सहकारी बैंक की स्थापना करते हैं । इसतरह अर्थ नियोजन शिक्षा के स्वरूप को सामने लाते हैं ।
·         आपने ग्राम स्वराज्य की संकल्पना को महात्मा गाँधी से लगभग 17 साल पहले साकार करते हुवे 600 गावों को गोद लिया ।
·        आपने ग्राम हितैषी सभा का गठन किया ।
·        भारत की प्रथम ग्राम संसद” के तहत पंचायत राज की स्थापना की । 
·        महिला सरपंच की संकल्पना भी आप की ही दी हुई है ।
·        देश के अंदर ही अपरिचय की दीवार तोड़ने के लिए आप –शिवाजी उत्सव, चित्तौड़ राणा और बंदा बैरागी जैसी कवितायें लिखकर राष्ट्रीय एकात्मता का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं   
·        रवीन्द्रनाथ जी ने एक धार्मिक दृष्टिकोण का भी निर्माण किया । इस वैश्विक धर्म दृष्टि की जड़ों में चंडीदास , कबीर , बुद्ध , यूनिटेरियन संप्रदाय की ईसाइयत, सूफ़ी मुसलमान और फ्रेंच दार्शनिक कोंत दिखाई पड़ते हैं ।
·        आपने 10 विधाओं में 141 किताबें लिखीं ।
·        भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में आपने महत्वपूर्ण योगदान दिया । आपने बंगाल में रक्षा बंधन की परंपरा शुरू करते हुवे उसे आज़ादी के हथियार के रूप में अपनाया। ठीक उसी तरह जैसे बाल गंगाधर तिलक ने गणेश पूजा को आज़ादी का हथियार बनाया ।
·        अरविंदघोष की क्रांतिकारी पार्टी अनुशीलन समिति से आप के गहरे संबंध थे ।
·        सन 1909 की 27 जुलाई को स्पेसल ब्रांच के डी.आई.जी. पुलिस एफ.सी.डेली ने संदिग्ध क्रांतिकारियों की एक गोपनीय सूची बनायी जिसमे 19वाँ नाम रवीन्द्रनाथ ठाकुर का था । (संदर्भ –आलोक भट्टाचार्य का हिंदी विवेक पत्रिका मे छ्पा आलेख । दीपावली विशेषांक 2011 )
·        26 जनवरी सन 1912 को शिक्षा विभाग द्वारा एक अध्यादेश जारी कर के सरकारी कर्मचारियों को अपने बच्चों को शिक्षा के लिए शांति निकेतन जाने से रोका गया । (संदर्भ आलोक भट्टाचार्य का हिंदी विवेक पत्रिका मे छ्पा आलेख । दीपावली विशेषांक 2011 )
·         जालियावाला बाग हत्याकांड के विरोध में आपने अंग्रेजों द्वारा नाइटहुड के तौर पर दी गयी उपाधि सर का परित्याग कर दिया ।
·        बलि प्रथा, दहेज प्रथा और देवदासी प्रथा के खिलाफ आपने खूब लिखा ।
·        कबीर, मीरा और विद्यापति का बांग्ला भाषा में अनुवाद किया ।

इस तरह हम देखते हैं कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का वैचारिक फलक बहुत विस्तृत है । ज्ञान-विज्ञान की कई शाखाओं में आप को महारत हासिल थी । आप को शैक्षणिक दृष्टिकोण उदार, मानवीय और प्रकृति के सहचर्य का समर्थक है । आज हम जब भारतीय उच्च शिक्षा पद्धति के लिए एक नई दिशा खोज रहे है, ऐसे में रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी
का शैक्षणिक दृष्टिकोण हमारे लिए मार्ग दर्शक बन सकता है । आखिर महात्मा गाँधी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को गुरुदेव ऐसे ही थोड़े कहा होगा ।



 गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को शत – शत प्रणाम ।  

     


संदर्भ ग्रंथ सूची :-

·         विकिपीडिया
·         दैनिकजागरण ब्लाग
·         गूगल.काम
·         हिंदी विवेक पत्रिका –सितंबर 2011
·         वही- दीपावली अंक – 2011
·         वही –दिसंबर -2011
·         आन लाईन हिंदी मैगजीन
·         आन लाईन न्यूज़ पेपर
·         गोरा – रवीन्द्रनाथ 
                                             डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
                       प्रभारी-हिंदी विभाग
                             के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय
                             कल्याण-पश्चिम
                             मो.-8080303132, 9324790726
                             Manishmuntazir@gmail.com  
                             www.onlinehindijournal.blogspot.com

          डॉ. अनिता मन्ना
                                                  प्राचार्या                           
                             के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय
                             कल्याण-पश्चिम
                             मो.-9820981698
              


     

सपने आस और जिंदगी

सपने  आस  और  जिंदगी  एक  धागे  में  गुथे  है  या  उलझे  है ,
कभी  आस  उभरती  है 
कभी  सपने  खिलते  है  कभी  जिंदगी   यथार्थ  दिखा  देती  है 
सपने  आस  और  जिंदगी  एक  अनदेखे   धागे  से  बुने  है
  जिंदगी  अपनी  हकीकते  बताना  चाहती  है  ,
आस  अपना  होना  बचाना  और  सपने  तो  सपने  है   ,
उन्हें  खिलना है  उड़ना  है  और  मचलना  है 
सपने  आस  और  जिंदगी  एक  दूजे  से  अलग  है 
दूर  है  पर  एक  ही  आखों   तले  खिले  और  बसे  है ,
एक  धागे  में  पिरोये  हुए 
जैसे  विभिन्न   फूल  एक  हार  में  पिरो  के  इश्वर  को   चडाया जाता  है 
या  जैसे    हार  किसी  शादी में   दुल्हन  या  दुल्हे  के  हाथ  किसी  के  गले  का  हार  बनता  है 
जैसे    माला  कभी  मृतक  के  शरीर  पे  चढ़ती है 
सपने  आस  और  जिंदगी  विभिन  मोड़ों  पे  ये  तीनो  रूप  दिखाती  है  पूजा  वासना  और  मुक्ति 
सपने  आस  और  जिंदगी  एक  अनदेखे  धागे  से  जुड़े   /सपने  आस  और  जिंदगी 

Thursday 12 January 2012

गमो को यूँ हर पल सींचा किये हम

खुशियों को दामन में भींचा किये हम  ,

गमो को यूँ हर पल सींचा किये हम ;

तन्हाइयों से  बेचैन गमो में नैन ,

पर अहसासों भरे सपने देखा किये हम ;


मजबूरियों की दास्ताने देखी ,

भावनाओं की शाने  देखी ,

महका हुआ सावन खिला हुआ चमन

दिले आरजू तेरे अर्थियों की बाराते देखी /





खुशियों को दामन में भींचा किये हम  ,

गमो को यूँ हर पल सींचा किये हम ;

Thursday 5 January 2012

सोचा कहा था कहानी बनेगी

यादों   के  साये  में  हकीकत  भुलाना  .
ग़मों  की  खलिश और  खिलखिलाना , 

खिलती फिजाए और मन में  तपिश है  ,
 गैरों की  बाँहों  में  फिर  भी  कशिश  है  /

सोचा  कहा  था  कहानी  बनेगी  ,हकीकत  ही  मेरी  बेगानी  बनेगी  :
महकी  सदायें  आखें  भरेगी  ;
मुश्करायेंगे  आंसू  तन्हाई  मिलेगी  ;
सोचा  कहा  था  कहानी  बनेगी  ;
हकीकत  ही  मेरी  बेगानी  बनेगी  ;
मोहब्बत  ग़मों  की  रवानी  बनेगी  ; 
सोचा  कहा  था  कहानी  बनेगी , हसरते ही  मेरी  दीवानी   बनेगी  ;
तेरे बिना जिंदगानी बनेगी , सोचा कहा था कहानी बनेगी /

Saturday 31 December 2011

जाते हुए इस साल में भी











जाते हुए इस साल में भी ,
तेरा सिलसिला कायम रहा ।
आनेवाले इस साल में भी,
तेरी ही जुस्तजू रहेगी ।

मेरे मौला
मेरी ज़िंदगी का कोई साल
उसके बिना ना हो ।
वो जो
ज़िंदगी का ख़्वाब है ।
ख्वाइश है ।
उम्मीद है ।
ज़रूरत है ।
इंतजार है ।
सपना है  ।
प्यार है ।
और विश्वास है ।  

Friday 30 December 2011

नए साल से कह दो कि











नए साल से कह दो कि-
वह बिलकुल तुम्हारी तरह हो ।
शोख, चंचल और मासूम ।
इतनी मुलायम और मख़मली,
जितना कि प्यार का हर सपना ।
और इतनी गर्म भी ,
जितनी की ज़िंदगी की सांसें ।

नए साल का रिश्ता उम्मीदों से वैसा ही हो,
जैसा कि हम दोनों का सालों से है।
नए साल की हर आहट,
तेरे कदमों की आहट सी हो ।

नए साल में सुलझना हर उलझन का ,
आसान हो उतना ही जितना कि -
तेरी रेशमी ज़ुल्फों का सवर जाना ।
तेरी आँखों में बसे हर मासूम सपने की तरह,
दुनिया बनती रहे ।
सजती रहे ।
सवरती रहे ।

काश कि आने वाला यह नया साल ,
तुम्हारी तरह प्यार से भरा हो ।
तुम्हारी तरह ही  खास हो ।
तुम्हारी तरह ही मुस्कुराता हुआ ,
ज़िंदगी को ज़िंदादिली से जिने का,
ख़ूबसूरत पैगाम हो ।
   

Monday 26 December 2011

International Conference on Civic Challenges, Democracy and Media



Any democracy needs a well-functioning and responsible state. But when a country is emerging from decades of dictatorship, it also needs to find ways to check, monitor, and restrain the power of political leaders and state officials. Here the role of civil society groups becomes important. Civil society means the entire range of organized groups and institutions that are independent of the state, voluntary, and at least to some extent self-generating and self-reliant. This of course includes non-governmental organizations like the ones in this room, but also independent mass media, think tanks, universities, and social and religious groups. Civil society can strengthen democracy to provide new forms of interest and solidarity that cut across old forms of tribal, linguistic, religious, and other identity ties.

Democracy can not be stable if people only associate with others of the same religion or identity. When people of different religions and ethnic identities come together on the basis of their common interests as women, artists, doctors, students, workers, farmers, lawyers, human rights activists, environmentalists, and so on, civic life becomes richer, more complex, and more tolerant. And in this situation all forms of media plays a very significant role especially the New Media. The objective of this conference is to initiate and promote a discussion on changing role of Media in Democracy. Through this forum we will provide the platform to research scholars, academicians, social activists, media professional and students of different discipline so that they can discuss the issues related to Democracy, the challenges of civic society and the different dimensions of Media. This would be a big opportunity for Media academician and Professionals to assess the democratic system and they will be able to face the current scenario.

Papers and debate will focus on Media, Civic Challenges and Democracy in the present scenario of the Nation. In a world of regular, unforeseen crises and growing power of media owners, online and otherwise, various questions about the implications for democratic processes will be explored.

Sub Themes:
1. Political System and Communication
2. Democracy and Media
3. Civil Society, Communication and Conflict
4. New Media and Society
5. Public Supervision and Social governance
6. International Communication and National image
7. Media Cultural Studies
8. Corruption in Communication
9. Caste in Media and Democracy
10. Ethics in Media Education
11. Crisis Communication and Management
12. Communication / Media Pedagogies 
13. Mapping media: Ownership and Editorial Control
14. Media Management and Challenges
15. Traditional Media in Present Scenario.
16. Social Studies and Communication Research
17. New Social Systems and Intercultural Communication
18. Film Studies and Society
19. Gender, Society and Media
20. Health, Social Changes and Responsibilities of Media


Submission of abstracts and full papers:
Send the abstract to Prof. Neeraj Khattri . Abstracts should not exceed 400 words. Submission by e-mail attachment using MS Word is required. Author will follow the APA Style for the submission.Include one separate title page containing title, author/s, affiliation/s, and the address, phone, fax and e-mail of the lead author. All the abstracts will be peer reviewed by the experts committee. Only abstracts accepted for presentation would be notified for submitting the final and full papers. Accepted research paper will be published in the reputed research journal. 
Deadline for submission of abstracts ..............................January 02, 2012
Notification of Acceptance..............................................January 16, 2012
Deadline for Registration...............................................January 31, 2012
Deadline for submission of full paper..............................February 06, 2012
Conference..................................................................February 25-26, 2012


Conference Secretariat:
For Submission of Abstracts and Full Papers:
Prof. Neeraj Khattri- Conference Convener 
Conference Secretariat, IJMC, Mangalayatan University, Beswan, Aligarh-202145 (U.P.)
Mob: +91-7351002585,  +91-9350325737
E-mail: icccdm@mangalayatan.edu.in
OR
neeraj.khattri@mangalayatan.edu.in
For Registration and Inquiry 
Shri Dhruv Sabharwal-Mob: +91- 9808586250,
E-mail:  dhruv.sabharwal@mangalayatan.edu.in
For Accomodation and Meal
Dr. Sidhartha Jain, Mob: +91-7351002588,
Email:siddarth.jain@mangalayatan.edu.in
For Transport Facility
Shri  Jitendra Singh, Mob: +91-9897784288,
Organising Committee: 
Prof. S.C.Jain, Vice-Chancellor, - Chairman & Patron
Cdr.(Retd.) Manjeet Singh, Registrar-General Secretary
Prof. H. K. Agrawal, HoD , IJMC – Secretary
Shri Samiran Baral- Finance officer
Prof.Neeraj Khattri- Conference Convener
Shri  Jitendra Singh-.Member
Shri Dhruv Sabharwal- Member
Shri Zakir Mahmood- Member
Shri Ajay Holkar- Member
Shri Rajni Pandit-Member
Shri Jayprakash Rai-Member
Conference Advisory Board: 
Shri Pawan Jain- Chairman,MU
Shri Mohan Lakhamraju-Vice-Chairman
Shri Karthik Gopalan-Vice President (Operations)
Prof.H.S.Yadav – Director, Civil Engineering
Prof.A.K. Tandon - Dean Student welfare                        
Prof.Arvind Datye -Director, IET  
Prof.G.S.Agrawal - Director, ICA
Prof.Avinash Bhardwaj-Director, IBM  
Prof.G.K. Aseri - Director, IBMER   
Prof.Chitralekha Singh-Dean, IVPAR                 
Prof.Manoj Sahni-HoD,ITHM  
Prof.Deepti Sharma-HoD, IER   
Prof. Qaiser Hayat - HoD, Legal Studies     
I shall be highly obliged if you kindly convey this information to the interested people.
For any further information please feel free to contact:                  
 Prof. Neeraj Khattri- Conference Convener 
Conference Secretariat, IJMC, Mangalayatan University, Beswan, Aligarh-202145 (U.P.),India.
Mob:+91-7351002585, E-mail: icccdm@mangalayatan edu.in 
neeraj.khattri@mangalayatan.edu.in