Wednesday 5 May 2010

गुजरे वक़्त का साथ कैसा ,

पुरानी बातों से उदास ना होना ,
बीते लम्हों के हमखास ना होना ;
यादें गर तुझे तड़पायें भी ,
पुराने सपनों के साथ ना होना ;
.
गुजरे वक़्त का साथ कैसा ,
गया वक़्त आज कैसा ;
भाव तो करेंगे अपनी कारागिरी ;
जों बदल गया फिर उसका साथ कैसा /

अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्य बोध/amerkant

 अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्य बोध :-
      जैसे-जैसे समय बदल रहा है वैसे-वैसे सामाजिक मुल्यों में गिरावट आ रही है। अर्थ केन्द्रित सामाजिक व्यवस्था में नैतिकता का धीरे-धीरे पतन होता जा रहा है। व्यक्ति विशेष के लिए भौतिक सुखों को भोगना ही सबसे महत्वपूर्ण हो गया है। आदमी पूरी तरह से आत्मकेन्द्रित हो गया है। नैतिकता और आदर्श उसे सिर्फ तब याद आता है जब वह खुद घोर परेशानी हो, अन्यथा मौका मिलने पर हर व्यक्ति अपनी यथा स्थिति को सामने रख ही देता है।
      आदमी के अंदर का खोखलापन, उसका दोहरा चरित्र, उसकी संवेदनाओं में गिरावट और भौतिकता की अंधी दौड़ में समस्त मानवीय मूल्यों में बिखराव समाज की सबसे बड़ी विडंबना है। अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से समाज के इसी गिरते स्तर को चित्रित किया है। अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्यों की जो गिरावट दिखायी पड़ती है उसके र्क कारण हैं। एक वर्ग विशेष के लिए निर्धारित मापदंड, आर्थिक परिस्थितियाँ, मानसिक विकृति, मन के अंदर निहित क्षोभ और घृणा, चरित्र की कायरता और दोगलापन, वर्तमान परिस्थितियों से मोहभंग और आधुनिकता और फैशन के नाम पर परंपराअें से घृणा जैसी कितनी ही बाते हैं जिन्हें अमरकांत सामाजिक मूल्यों में गिरावट का कारण मानते हैं।
      'सूख जीवी` उपन्यास का नायक दीपक विवाहित होने के बावजूद रेखा से प्रेम का ढ़ोग करते हुए उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित करता है। जब यह बात उसकी पत्नी जान जाती है तो वह नाटकीय रूप से अपना बचाव करते हुए रेखा को ही बदचलन साबित करने की कोशिश करता है। दीपक नैतिक रूप से गिरा हुआ इंसान है। उसके जीवन में मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। अगर उसके लिए कुछ महत्वपूर्ण है तो केवल अपना सुख।
      'आकाश पक्षी` उपन्यास की हेमा, रवि की बातों से प्रभावित होती है। मेहनत और लगन से अपनी जीवन संबंधी दृष्टि को बदलना चाहती है। पर इन नवीन मानवीय मूल्यों से उसके माता-पिता कोई इत्तफ़ाक नहीं रखते हैं। वे अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और जात-पात, ऊँच-नीच और अमीर-गरीब के अंतर को तर्कसंगत मानते हुए रवि से हेमा के विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा देते है। लेकिन अपने जीवन यापन की चिंता में वे हेमा की बलि देने से भी नहीं कतराते। एक अधेड़ उम्र के रई व्यक्ति से हेमा का विवाह करा देते हैं। इस तरह सामाजिक मान्यताओं की आड़ में हेमा के माता-पिता अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। सड़ी-गली सामाजिक रूढ़ियाँ और आर्थिक विवशता आदमी को कितना संवेदनहीन बना सकता है, इसे हेमा के माता-पिता के माध्यम से समझा जा सकता है।
      'सुन्नर पाडे की पतोह` उपन्यास में सास-ससुर मिलकर बहू को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सास को यह डर रहता है कि विवाह के बाद अगर बेटे-बहू का मेल हो गया तो लड़का उसके हाँथ से निकल जायेगा। अत: वह बेटे-बहू को एक साथ न रहने देती। पर किसी तरह जब दोनों का मिलन हो गया तो वह हर बात में उन्हें ताना मारती। बेटे के घर से भाग जाने के बाद वह अपने पति को प्रेरित करती है कि वह बहू के साथ शारीरिक सुख उठाये। अपनी बहू के प्रति घृणा से भरी सास किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहती है। पवित्र संबंधो के बीच कटुता किस तरह संबंधो के सारे मायने बदल देती है, इसे इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। मानवीय संवेदनाओं का पतन ही ऐसी मानसिकता का कारण है।
      ''काले-उजले दिन` का नायक शौतेली माँ द्वारा खूब सताया जाता है। विवाह के बाद उसकी रही सही उम्मीद भी चकना चूर हो जाती है। वो किस तरह की पत्नी चाहता था, उसे वह नहीं मिली थी, यद्यपि पत्नी में समर्पण और प्रेम की निष्ठा थी। वह इसी क्षोभ और घृणा से जूझते हुए रजनी से प्रेम करता है। उसके मन को हमेशा यह बात सालती रहती है कि कहीं वह अपनी पत्नी को धोखा तो नहीं दे रहा? पर नियति के हाँथो वह मजबूर विचित्र मानसिकता में जीता रहता है। बीमारी और मानसिक पीड़ा के चलते पत्नी की मृत्यु के बाद वह रजनी से विवाह कर लेता है पर मन के किसी कोने में पत्नी को लेकर उसकी पीड़ा बनी रहती है।
      ''लहरें `` उपन्यास का नायक मोहल्ले की स्त्रियों को देखकर अजीब तरह की भाव-भंगिमा बनाता और उन्हें घूरता। ऐसा करते हुए वह अपनी छवि एक आधुनिक मनचले युवक के रूप में बनाना चाहता है। पत्नी जब उसके अनुरूप ढलने की कोशिश करती है तो वह उस पर आशंका व्यक्त करता है। इस तरह की सोच और दृष्टि व्यक्ति के अंदर निहित कुंठाओं और नैतिक पतन का प्रतीक है।
      इसी तरह अमरकांत ने अपने उपन्यास 'इन्हीं हथियारों` के माध्यम से भी सामाजिक जीवन में आयी गिरावट को बड़ी ही गहराई के साथ चित्रित किया है। 'सदाशयव्रत` जैसे पात्रों के माध्यम से लेखक ने चरित्र का उत्कर्ष दिखाया है तो दूसरी तरफ भोलाराम जैसे लोग हैं जो पैसों के लिए सब कुछ करने की हिम्मत रखते हैं। उपन्यास की पात्र ढेला पेशे से वेश्या है। पर उसकी भी कोई पसंद या नापसंद हो या संभव नहीं है। उसके यहॉ जो भी ग्राहक के रूप में आ जाये उसे उसकी सेवा करनी ही है। अगर कभी वह मना करती तो मॉ उसे ऐसा कहने से मना करती है। मॉ के ऊपर चिढ़कर वह अपनी मॉ से कहती है कि, ''तुम हो पक्की लालची। तुम्हें कायदा, अच्छा-बुरा, सेहत-तन्दुरूस्ती, किसी का कुछ भी ख्याल नहीं। तुम किसी को आराम करते देख नहीं सकती। एक ढेबुला के लिए तुम किसी की भी जान ले सकती हो। इसी लालच की वजह से अच्छा खाना-पीना भी नहीं मयस्सर हो रहा है।``35 ढेला की मनोदशा उसके इस संवाद से समझा जा सकता है। मगर मॉ श्यामदासी जीवन की गहरी समझ रखती है। उसे मालूम है कि वैचारिक मूल्यों से कहीं अधिक आवश्यकता एक वेश्या को अपने शरीर की बाजारू 'कीमत` से है। वह 'मूल्यों` और 'किमत` के इस फर्क को समझती है। इसीलिए वह कहती है कि, ''.....यहॉ रंडी के पेशे में कोई फायदा थोड़े ही है, दोनों जून की रोटी-दाल चल जाती है, यही बहुत समझो।.... गँवार, छोटे दिलवालों के इस शहर में गाने-बजाने का खयाल भूलकर भी दिल में न लाना, नहीं तो भूखों मरोगी ही, हम सभी की हालत वैसी ही हो जाएगी।``36 इसी तरह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि व्यक्ति की आर्थिक परिस्थितियों, उसका व्यवसाय और उसकी लालसा किस तरह उसके जीवन में नैतिक पतन का कारण बनता है। लेकिन कई लोग ऐसे भी होते हैं जो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी अपने आदर्शो से मुँह नहीं मोड़ते। अपने चरित्र की पवित्रता वे बनाये रखते हैं।
      अमरकांत के उपन्यासों की ही तरह उनकी कहानियों में की मूल्य बोध से संबंधित अनेकों महत्वपूर्ण प्रसंगों का चित्रण है। 'गले की जंजीर` कहानी के नायक की समस्या पर सभी सलाह देते हैं पर इन सभी सलाहों के केन्द्र में उसकी समस्या का हल किसी भी तरह दिखायी नहीं पड़ता। इसलिए अपनी समस्याओं पर खुद निर्णय लेना ही अधिक श्रेष्ठकर होता है। 'गगन बिहारी` कहानी का नायक सिर्फ योजनाएँ ही बनाते रहता है, कभी कुछ कर नहीं पाता। इसलिए जीवन का लक्ष्य निर्धारित करके उसके अनुरूप ही कर्म करने वाली बात यहाँ इस कहानी के माध्यम से अमरकांत सामने लाते हैं।
      'शक्तिशाली` कहानी का नायम नरेन्द्र पड़ोसी भोलाराम से लड़ने की हिम्मत जुटा नहीं पाता। पर पत्नी की बार-बार की जानेवाली शिकायत के आगे वह अपनी कमजोरी बतलाना या जताना नहीं चाहता, इसलिए वह आदर्श और नैतिकता का आवरण लोढ़ लेता है। वह पत्नी से कहता है कि, ''....हमारी कमजोरी यह है कि हम दूसरों की असुविधा का ख्याल नहीं करते....।``37 इसी तरह जब नरेन्द्र के बच्चे की पड़ोसी ने पिटायी की तो भी वह पत्नी से कहता है कि, ''....मैं हमेशा खरी बात कहता हूँ, किसी को बुरी लगे या अच्छी, इसकी मुझे परवाह नहीं। मैं अक्सर देखता हॅँ कि सुरेन्द्र लड़कों से मार-पीट करता रहता है....।``38 नरेन्द्र अपनी कमजोरी को नैतिक आचरण शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।
      'कलाप्रेमी` कहानी के माध्यम से अमरकांत ने यही बतलाने का प्रयास किया है कि इस बाजारवादी दुनिया में बाजार से जुड़ना ही प्रमुख गुण है। फिर इसके लिए जो भी करना पड़े वह करना चाहिए। जो नहीं करना वह गुमनामी में जीता और कुंठित होते रहता है। समुर वक्त के साथ चलता है इसलिए धीरे-धीरे उसकी पहचान बन रही है। जबकि सुबोध राम जैसे लोग गुमनामी में कुंठित होते रहते हैं।
      'उनका जाना और आना` आज की पढ़ी लिखी और कामयाब पीढ़ी की उस मानसिकता को दर्शाती है जो अपने माता-पिता को वह सम्मान नहीं देना चाहते जिसके वे अधिकारी हैं। क्योंकि पुरानी परंपराओं और विचारधाराओं से जुड़े मॉ-बाप आधुनिक जीवन शैली के कहीं 'फिट` ही नहीं होते। शायद इसी कारण गोपालदास अपने डॉक्टर लड़के की लड़की की शादी में उपस्थित तो रहे पर उनकी उपस्थिति पूरी शादी में कहीं अनिवार्य रूप में महसूस नहीं की गयी। ना ही उन्हें किसी में यह एहशास कराना चाहा कि उनकी उपस्थिति कितनी महत्वर्पूा है?
      'रिश्ता` कहानी जीवन के उदात्त आदर्श के स्वरूप को दिखलाती है। नईम, निरूपमा को बहुत प्यार करता है। पर उसके परिवार के एटशासानों और सामाजिक स्थिति को समझते हुए वह निरूपमा के साथ पवित्र संबंध की मर्यादा और भाव को अपनाता है। जीवन में खुद कामयाब होकर, एक आई.ए.एस. से निरूपमा की शादी भी करवाता है। नईम के माध्यम से उच्च चरित्र और आदर्शो वाले नायम का स्वरूप अमरकांत सामने लाते हैं।
      'हंगामा` कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने जीवन में बच्चों के लिए तरसती है। पर उसे मातृत्व का सुख नहीं मिल पाता है। वह अंदर ही अंदर इस सुख से वंचित होने के कारण परेशान रहती है। वह मोहल्ले की औरतों से कहती फिरती कि, ''ए बहिन जी, दो-ढाई साल हो गये श्रीवास्तवजी के साथ रहते हुए। अब हमें बच्चा न होगा क्या? कल मेडिकल कालेज जायेंगे, जितना लगेगा लगायेंगे, भले लड़का न हो, भगवान लूली-लंगडी ही दे दे....।``39 लेकिन उसके ीवन का यह अभाव बरकरार रहता है। इसी बीच उसके घर के पास एक कुतिया ने चार पिल्लों को जन्म दिया। अब वह इन कुत्ते बच्चों को ही 'राजा बेटा` कहकर उन्हें दूध पिलाती थी।  जल्द ही मोहल्ले के लावारिस गायों, गदहों और कुत्तों से उसे गहरा लगाव हो गया। स्पष्ट है कि अपने जीवन के अभाव और मातृत्व के लिए लालायित हृदय के प्रेम और स्नेह को उड़ेलने के लिए उसे इससे अच्छा बहाना नहीं मिल सकता था।
      'शाम के घिरते अँधेरे मे भटकता नौजवान` एक ऐसे नौजवान की कहानी है जो वर्तमान शिक्षा प्रणाली के बदलते स्तर, महंगी होती तकनीकी उच्च शिक्षा से जूझ रहा है। पारिवारिक समस्याएँ उसे कमाने की जरूरतों की तरफ खींचती हैं तो आगे बढ़ने के लिए उसकी खुद की शिक्षा का जारी रहना भी महत्वपूर्ण है। अपने और परिवार के सपनों के बीच वह झूलता हुआ सा महसूस होता है। ऐसा कई बार होता है कि आदमी की पारिवारिक परिस्थितियाँ उसके अपने सपनों के आड़े आ जाती है। इस स्थिति की निराशा और हताशा आदमी को मोहभंग की मानसिकता में बाँध देती हैं।
      'हार` कहानी के केन्द्र में बृजबिहारी बाबू हैं। वे हमेशा गुस्से में और व्यवस्था के प्रति आक्रोशग्रस्त रहते हैं। दोस्तोऱ्यारों के बीच होनेवाली बहसों में वे बढ़कर भाग लेते और हारने के लिए किसी भी तरह तैयार न होते। लेकिन एक दिन निर्मल बाबू के साथ शादी-विवाह और दहेज को लेकर लंबी-चौड़ी बहस के बाद, जब निर्मल बाबू बिना दहेज के उनकी पुत्री से अपने पुत्र के विवाह की बात करते हैं तो उन्हें यकीन ही नहीं होता। वे कहते हैं कि, ''अब छोड़िये... इस तरह की पाखण्ड भरी बात सुनने का मैं आदी नहीं हूँ।``40 लेकिन विवाह तँय हो जाता है। विवाह पूरी सादगी के साथ बिना दहेज के संपन्न भी होता है। लेकिन, यह सब देखकर बृजबिहारी बाबू की आँखेे डबडबा जाती हैं। आज की इस स्वार्थी और दहेज लोलुप समाज में बृजबिहारी बाबू ने कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी लड़की का विवाह इस तरह हो जायेगा। आज वे निर्मल बाबू से हार गये थे। पर इस हार ने उन्हें समाज की इच्छाइयों और इसके नैतिक स्वरूप के प्रति पुन: निष्ठावान बना दिया।  
      इस तरह अमरकांत के कथा साहित्य की संक्षिप्त विवेचना के बाद हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अमरकांत ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त मोहभंग, परिस्थिति गत व्यावहारिक जटिलता, आंतरिक घृणा और कुंठा, आधुनिक जीवन शैली से परंपराओं का संघर्ष, व्यक्ति अंदर निहित कायरता पर आदर्शो का आवरा और ऐसे ही कई अन्य संदर्भो के माध्यम से सामाजिक जीवन में हो रहे नैतिक पतन, संबंधों के बदलते अर्थ आधुनिक जीवन की निराशा, और कुंठाओं को बखुबी चित्रित करते है। साथ ही साथ अमरकांत के यहाँ कई ऐसे पात्र भी हैं जिनका नैतिक स्तर, ऊँचा आदर्श और जीवन संबंधी उनकी दृष्टि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी टूटने या बिखरने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं है। ऐसे पात्र अपनी नैतिक और सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग हैं। इस तरह दोनों ही तरह की स्थितियाँ अमरकांत के कथा साहित्य में मिलती हैं। पर टूटते और बिखरते हुए जीवन मूल्यों से संबंधित चित्रण अधिक है। 
 
 

हमारे तिरंगे का इतिहास


हमारे तिरंगे का इतिहास



 
 
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The flag that was first hoisted on August 7, 1906,
at the Parsee Bagan Square in Calcutta.
 
 
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Called the 'Saptarishi Flag', this was hoisted in Stuttgart
at the International Socialist Congress held on August 22, 1907.
 
 
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Associated with the names of Dr. Annie Besant and
Lokmanya Tilak, this flag was hoisted at
the Congress session in Calcutta during the
'Home Rule Movement'.
 
 
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In the year 1921, a young man from Andhra presented
this flag to Gandhiji for approval. It was only after
Gandhiji's suggestion that the white strip and
the charkha were added.
 
 
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This flag was suggested during the All India Congress
Committee session in 1931. However, the Committee's
suggestion was not approved.
 
 
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On August 6, 1931, the Indian National Congress
formally adopted this flag, which was first hoisted
on August 31.
 
 
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Our National Flag, which was born on July 22, 1947,
with Nehruji's words, "Now I present to you not only the Resolution,
but the Flag itself". This flag was first hoisted at the Council House
on August 15, 1947.
 
 
The man who designed Tiranga versatile genius Lt. Shri Pingali Venkayya.
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Lt .Shri Pingali Venkayya
 
India's flag is a tricolor standard, with bands of saffron, white, and dark green. The    saffron represents courage, sacrifice, patriotism, and renunciation. It is also the color of the Hindu people. The green stands for faith, fertility and the land; it is the color of the Islam religion. The white is in the center, symbolizing the hope for unity and peace. In the center of the white band is a blue wheel with 24 spokes. This is the Ashoka Chakra (or "Wheel of Law"). The Chakra represents the continuing progress of the nation and the importance of justice in life. It also appears on the Sarnath Lion Capital of Ashoka " .
 
जय  हिंद जय  भारत
 
 


 
 

कैसे हो ?

प्यार में अनुनय ,

आवाज में अनुनय ,

पर अहसास से अनुनय,

कैसे हो ;

अधिकार की सीमा ,

ऐतराज की सीमा ,

पर प्यार की सीमा,

कैसे हो ;

हालात से समझौता ,

वारदात से समझौता ,

पर दिल का समझौता ,

कैसे हो ;

राह न भुला ,

चाह न भुला ,

पर विश्वास को भुला ,

कैसे हो ?

Tuesday 4 May 2010

विरल विरल सा मन है मेरा,

विरल विरल सा मन है मेरा,

ना गम ना खुशियों का फेरा ,

विरल विरल सा मन है मेरा,

विरक्त हूँ भावों से कुछ कुछ ,

विभक्त हूँ अभावों से कुछ कुछ ,

पर मन में संताप नहीं है ,

और हरियाली का भास नहीं है ;

बोझिल है हैं विचार भी मेरे ,

खाली खाली से हैं व्यवहार भी मेरे ,

विरल विरल सा मन है मेरा,

ना गम ना खुशियों का फेरा ,
विरल विरल सा मन है मेरा,

Saturday 1 May 2010

हम ने इन्हें किया सम्मानित

विजय पंडित कल्याण के ''अभिमान ''

      

Friday 30 April 2010

बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,

बिस्तर की सलवटें तलाशती हैं ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती हैं ,
नीद में बाहें भीचना चाहती है बदन कोई ,
अधखुली आखें अधजगा सा मन ढूढता बगल में कोई ;
सुबह जल्द अब भी जग जाता हूँ मै ,
दिल चाहता है मचल के लग जाये सिने से कोई ;
मै याद नहीं करता खुश हूँ अपनी रातों से ,
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
उजलाती भोर की किरणों में कुछ पिघले पलों की खुसबू चली आती है ,
तड़पती धड़कने अपनी प्यास को सिने में दबा जाती है ;
अनजाने ही हाथ बड़ते हैं हाथों में भरने को वो गुदाज बदन ,
कानो को याद आती है तेरे ओठों की नमी और चूड़ी की खन खन ;
मै याद नहीं करता करवट बदल सो जाता हूँ ,
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं
;
मेरे ओठों को उन ओठों का उतावलापन याद आती है ,
चेहरे पे उन उफनती सांसों की दहक अब भी कौंध जाती है ;
चाय पिने से पहले अक्सर तेरे मुंह की मिठास भर आती है मुंह में ,
भर आता है तेरे बदन का नमक तन मन में ;
चुमते बदन के भावों से तड़प उठता है कण कण ,
मुंह खुल जाता है पिने को तेरा पुरजोर बदन ;
पर मै खुश हूँ अपनी राहों में ,
याद नहीं करता पर बसता है तू ही अब भी निगाहों में ;
बहुदा चाय बनाते मेरी बाहें भर लेती है बाहों में खुद को ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
दीवाल जहाँ तू सट के खड़ी होती थी ;
जहाँ मेरे चुमते वक़्त तेरी पीठ रही होती थी ;
सुनी सुनी सी तेरी राह तकती है ,
बिस्तर का कोना जहाँ तू बैठती और मै सहेजता बदन तेरा ,
रूठा रहता है ,सलवटों से सजा रहता है ,
सुना दर्पण ढूढता है वो हंसी चेहरा बड़ी हसरत से ,
सुना आँगन भी राह तकता है अब भी बड़ी गैरत से ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
   

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध /amerkant

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध :-




अपने समय के समाज को अमरकांत ने बड़ी ही गहराई के साथ अपने कथा साहित्य में चित्रित किया है। युग विशेष की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यथार्थ की ठोस भूमि पर चित्रित करना कोई आसान काम नहीं है। समय परिवर्तनशील है। युगीन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहती। युग बदलने के साथ-साथ किसी समाज विशेष की परिस्थितियाँ भी बदल जाती है। इसलिए जिस रचनाकार के पास संवेदनाओं को गहराई से समझने और उसे विश्लेषित करने की समझ नहीं होगी, उसका साहित्य कभी भी कालजयी नहीं हो सकता। अमरकांत का कथा साहित्य अपने समय की वास्तविक तस्वीर पेश करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।



विद्वानों के बीच अमरकांत की रचनाओं को उसकी विश्वसनियता और गहरी संवेदनशीलता के कारण ही सराहा गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत का रचना संसार महान रचनाकारों के रचना संसारों जैसा विश्वसनीय है। उस विश्वसनीयता का कारण है स्थितियों का अचूक चित्रण जिससे व्यंग्य और मार्मिकता का जन्म होता है।``1 आज की पूँजीवादी व्यवस्था में आदमी कितना आत्मकेन्द्रित, संवेदनाहीन, मतलबी और स्वयं की इच्छाओं तक सिकुड़कर रह गया है, इसे अमरकांत के कथासाहित्य से आसानी से समझा जा सकता है।
                                                                                                                              


अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया है। पर ऐसा नहीं है कि उच्चवर्ग को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने साहित्य नहीं रचा। यह अवश्य है कि जितने विस्तार और गहराई के साथ अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज को चित्रित किया है उतनी गहराई और विस्तार उच्चवर्ग को लेकर उनके साहित्य में नहीं मिलता। 'आकाश पक्षी` जैसा उपन्यास इसी उच्च वर्गीय समाज की मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी तरह सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित और संपन्न लोगों की मानसिकता और व्यवहार को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने कई कहानियाँ लिखी हैं। पलाश के फूल, दोस्त का गम, आमंत्रण, जन्मकुण्डली और श्वान गाथा जैसी कितनी ही कहानियाँ हैं जहाँ समाज के उच्च वर्ग की मानसिकता तथा विचार और व्यवहार के अंतर को अमरकांत ने चित्रित किया है। साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा कि जब हम यह कहते हैं कि अमरकांत मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की विसंगतियों, अभावों और शोषण को चित्रित चित्रित करने वले कथाकार हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि शोषक और शोषित इन दोनों की स्थितियों का चित्रण किये बिना कोई कथाकार शोषण की तस्वीर किस तरह प्रस्तुत कर सकता है। इसलिए यह कहना सही नहीं लगता कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सिर्फ और सिर्फ निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया।



वास्तविकता यह है कि अमरकांत ने उच्चवर्ग की अपेक्षा मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण अपने साहित्य में अधिक किया है। साथ ही साथ उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शोषण सिर्फ उच्चवर्ग द्वारा निम्नवर्ग या संपन्न द्वारा विपन्न का ही नहीं अपितु एक विपन्न भी अपने जैसे दूसरे व्यक्ति का शोषण करने में बिलकुल नहीं हिचकता। अमरकांत ने 'मूस` जैसी कहानी के माध्यम से यह दिखाया कि पुरूषप्रधान भारतीय समाज में 'मूस` जैसे पुरूष भी हैं जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने भारतिय समाज के कई ऐसे भद्दे और नग्न यथार्थ को सामने लाया जो परंपरा और संस्कृति तथा आदर्शो के नाम पर हमेशा ही समाज में दबाये जाते रहे है। जिस घर में ससुर खुद अपनी बेटी की उम्रवाली बहू का शीलभंग करना चाहे और उसका मनोबल उसकी ही धर्मपत्नी बढ़ाये तो ऐसे घर की बहू कौन सी परंपरा और संस्कृति के भरोसे अपने आप को सुरक्षित समझ सकती है और कैसे?



स्पष्ट है कि अमरकांत के विचारों का दायरा संकुचित नहीं है अपितु संकुचित मानसिकता के साथ उनके कथा साहित्य पर विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। साथ ही साथ अमरकांत के संबंध में बात करते अथवा लिखते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अमरकांत की लेखनी लगातार साहित्य रचने का कार्य कर रही है। पिछले 50-60 वर्षों से अमरकांत का लेखन कार्य सतत जारी है। इसलिए किसी समीक्षक या विद्वान ने आज से 25-30 वर्ष पूर्व उनके रचना संसार के संबंध में जो कुछ कहा या समझा वह अमरकांत के तब तक के उपलबध साहित्य के आधार पर था। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अमरकांत के पूरे कथा साहित्य को लेकर उस पर नयी समीक्षा दृष्टि प्रस्तुत की जाय।



अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक और लगातार अपनी वृद्धि कर रहा है। 'सुरंग` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में अमरकांत की बदली हुई विचारधारा का स्पष्ट संकेत हमें मिलता है। सन 1977 में 'अमरकांत वर्ष 01` नामक पुस्तक का प्रकाशन अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के उद्देश्य से हुआ। इस संबंध में रवीन्द्र कालिया ने लिखा भी कि, ''अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के पीछे हमारा एक प्रयोेजन रहा है। वास्तव में नयी कहानी की आन्दोलनगत उत्तेजना समाप्त हो जाने के बाद हमें अमरकांत का मूल्यांकन और अध्ययन अधिक प्रासंगिक लगा। विजयमोहन सिंह का यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है कि 'अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं, जैसी माँग कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी` परन्तु यह सच है कि अमरकांत की चर्चा उस रूप में, उस माहौल में, उन मानदण्डों से संभव ही नहीं थी। ये मानदण्ड वास्तव में तत्कालीन लेखकों-समीक्षकों की महत्वाकांक्षाओं के अन्तर्विरोध के रूप में विकसित हुए थे।``2 अब विचारणीय यह है कि सन् 1977 तक उपलब्ध और लिखे गये अमरकांत के साहित्य के आधार पर जो कुछ बातें सामने आयी वे 2007 तक के अमरकांत के रचे गये साहित्य के आधार पर कहीं-कहीं खटकने लगी है।



उदाहरण के तौर पर 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ समीक्षक अमरकांत को महाकाव्यात्मक गरिमा वाले उपन्यासकारों की श्रेणी में गिनने लगे है। वेद प्रकाश जी अपने लेख 'स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार` में प्रश्न करते हैं कि, ''.....व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे गुक की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``3 इसलिए अब जब हमारे सामने अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध का प्रश्न उठेगा तो हमें नि:संकोच यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अमरकांत ने अपने समय को उसकी पूरी परिधि में न केवल चित्रित किया है अपितु समाज के सामने कुछ ऐसे प्रश्न भी खडे किये हैं जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं।



समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध के संदर्भ में हम यही कह सकते है कि पिछले 50-60 वर्षो को तोडा है और विचारों तथा संवेदनाओं के नए स्वरूप को हमारे सामने लाया है। इससे स्पष्ट है कि अमरकांत अपने युग के सामाजिक यथार्थ को प्रगतिशील दृष्टि और आस्था के साथ लगातार चित्रित कर रहे है। यह बात निम्नलिखित बिंदुओं के विवेचन से और अधिक स्पष्ट हो जायेगी।
     

निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,

निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,

खिलती नहीं आखें बिना तेरे तन के ;

डूबा रहता हूँ सपनों में मिलन की घड़ियों का ;

पर तू मिलता नहीं कभी बिना उलझाव और अनबन के ;

कभी तो कहा कर प्यार बिना अहसान के ;

कभी तो मान अपना अधूरापन बिना मेरी प्यास के ;

खुद का मान तुझे मेरी मोहब्बत से प्यारा है ;

ऐ जिंदगी मैंने किसपे अपनी मोहब्बत को वारा है /

Thursday 29 April 2010

मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,

मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,

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मोहब्बत की तड़पन में छुपा इक जुनूं है किसी आफताब से पूँछों ;

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चाहते तमन्ना में उम्र गुजर जाये भी तो कम है ,

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इन्तजारे इश्क भी एक खुदाई है अपने प्यार से पूँछों /

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