Wednesday 5 May 2010
गुजरे वक़्त का साथ कैसा ,
बीते लम्हों के हमखास ना होना ;
यादें गर तुझे तड़पायें भी ,
पुराने सपनों के साथ ना होना ;
.
गुजरे वक़्त का साथ कैसा ,
गया वक़्त आज कैसा ;
भाव तो करेंगे अपनी कारागिरी ;
जों बदल गया फिर उसका साथ कैसा /
अमरकांत के कथा साहित्य में मूल्य बोध/amerkant
हमारे तिरंगे का इतिहास
हमारे तिरंगे का इतिहास
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कैसे हो ?
प्यार में अनुनय ,
आवाज में अनुनय ,
पर अहसास से अनुनय,
कैसे हो ;
अधिकार की सीमा ,
ऐतराज की सीमा ,
पर प्यार की सीमा,
कैसे हो ;
हालात से समझौता ,
वारदात से समझौता ,
पर दिल का समझौता ,
कैसे हो ;
राह न भुला ,
चाह न भुला ,
पर विश्वास को भुला ,
कैसे हो ?
Tuesday 4 May 2010
विरल विरल सा मन है मेरा,
विरल विरल सा मन है मेरा,
ना गम ना खुशियों का फेरा ,
विरल विरल सा मन है मेरा,
विरक्त हूँ भावों से कुछ कुछ ,
विभक्त हूँ अभावों से कुछ कुछ ,
पर मन में संताप नहीं है ,
और हरियाली का भास नहीं है ;
बोझिल है हैं विचार भी मेरे ,
खाली खाली से हैं व्यवहार भी मेरे ,
विरल विरल सा मन है मेरा,
ना गम ना खुशियों का फेरा ,
विरल विरल सा मन है मेरा,
Saturday 1 May 2010
Friday 30 April 2010
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध /amerkant
अपने समय के समाज को अमरकांत ने बड़ी ही गहराई के साथ अपने कथा साहित्य में चित्रित किया है। युग विशेष की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यथार्थ की ठोस भूमि पर चित्रित करना कोई आसान काम नहीं है। समय परिवर्तनशील है। युगीन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहती। युग बदलने के साथ-साथ किसी समाज विशेष की परिस्थितियाँ भी बदल जाती है। इसलिए जिस रचनाकार के पास संवेदनाओं को गहराई से समझने और उसे विश्लेषित करने की समझ नहीं होगी, उसका साहित्य कभी भी कालजयी नहीं हो सकता। अमरकांत का कथा साहित्य अपने समय की वास्तविक तस्वीर पेश करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
विद्वानों के बीच अमरकांत की रचनाओं को उसकी विश्वसनियता और गहरी संवेदनशीलता के कारण ही सराहा गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत का रचना संसार महान रचनाकारों के रचना संसारों जैसा विश्वसनीय है। उस विश्वसनीयता का कारण है स्थितियों का अचूक चित्रण जिससे व्यंग्य और मार्मिकता का जन्म होता है।``1 आज की पूँजीवादी व्यवस्था में आदमी कितना आत्मकेन्द्रित, संवेदनाहीन, मतलबी और स्वयं की इच्छाओं तक सिकुड़कर रह गया है, इसे अमरकांत के कथासाहित्य से आसानी से समझा जा सकता है।
अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया है। पर ऐसा नहीं है कि उच्चवर्ग को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने साहित्य नहीं रचा। यह अवश्य है कि जितने विस्तार और गहराई के साथ अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज को चित्रित किया है उतनी गहराई और विस्तार उच्चवर्ग को लेकर उनके साहित्य में नहीं मिलता। 'आकाश पक्षी` जैसा उपन्यास इसी उच्च वर्गीय समाज की मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी तरह सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित और संपन्न लोगों की मानसिकता और व्यवहार को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने कई कहानियाँ लिखी हैं। पलाश के फूल, दोस्त का गम, आमंत्रण, जन्मकुण्डली और श्वान गाथा जैसी कितनी ही कहानियाँ हैं जहाँ समाज के उच्च वर्ग की मानसिकता तथा विचार और व्यवहार के अंतर को अमरकांत ने चित्रित किया है। साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा कि जब हम यह कहते हैं कि अमरकांत मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की विसंगतियों, अभावों और शोषण को चित्रित चित्रित करने वले कथाकार हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि शोषक और शोषित इन दोनों की स्थितियों का चित्रण किये बिना कोई कथाकार शोषण की तस्वीर किस तरह प्रस्तुत कर सकता है। इसलिए यह कहना सही नहीं लगता कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सिर्फ और सिर्फ निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया।
वास्तविकता यह है कि अमरकांत ने उच्चवर्ग की अपेक्षा मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण अपने साहित्य में अधिक किया है। साथ ही साथ उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शोषण सिर्फ उच्चवर्ग द्वारा निम्नवर्ग या संपन्न द्वारा विपन्न का ही नहीं अपितु एक विपन्न भी अपने जैसे दूसरे व्यक्ति का शोषण करने में बिलकुल नहीं हिचकता। अमरकांत ने 'मूस` जैसी कहानी के माध्यम से यह दिखाया कि पुरूषप्रधान भारतीय समाज में 'मूस` जैसे पुरूष भी हैं जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने भारतिय समाज के कई ऐसे भद्दे और नग्न यथार्थ को सामने लाया जो परंपरा और संस्कृति तथा आदर्शो के नाम पर हमेशा ही समाज में दबाये जाते रहे है। जिस घर में ससुर खुद अपनी बेटी की उम्रवाली बहू का शीलभंग करना चाहे और उसका मनोबल उसकी ही धर्मपत्नी बढ़ाये तो ऐसे घर की बहू कौन सी परंपरा और संस्कृति के भरोसे अपने आप को सुरक्षित समझ सकती है और कैसे?
स्पष्ट है कि अमरकांत के विचारों का दायरा संकुचित नहीं है अपितु संकुचित मानसिकता के साथ उनके कथा साहित्य पर विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। साथ ही साथ अमरकांत के संबंध में बात करते अथवा लिखते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अमरकांत की लेखनी लगातार साहित्य रचने का कार्य कर रही है। पिछले 50-60 वर्षों से अमरकांत का लेखन कार्य सतत जारी है। इसलिए किसी समीक्षक या विद्वान ने आज से 25-30 वर्ष पूर्व उनके रचना संसार के संबंध में जो कुछ कहा या समझा वह अमरकांत के तब तक के उपलबध साहित्य के आधार पर था। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अमरकांत के पूरे कथा साहित्य को लेकर उस पर नयी समीक्षा दृष्टि प्रस्तुत की जाय।
अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक और लगातार अपनी वृद्धि कर रहा है। 'सुरंग` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में अमरकांत की बदली हुई विचारधारा का स्पष्ट संकेत हमें मिलता है। सन 1977 में 'अमरकांत वर्ष 01` नामक पुस्तक का प्रकाशन अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के उद्देश्य से हुआ। इस संबंध में रवीन्द्र कालिया ने लिखा भी कि, ''अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के पीछे हमारा एक प्रयोेजन रहा है। वास्तव में नयी कहानी की आन्दोलनगत उत्तेजना समाप्त हो जाने के बाद हमें अमरकांत का मूल्यांकन और अध्ययन अधिक प्रासंगिक लगा। विजयमोहन सिंह का यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है कि 'अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं, जैसी माँग कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी` परन्तु यह सच है कि अमरकांत की चर्चा उस रूप में, उस माहौल में, उन मानदण्डों से संभव ही नहीं थी। ये मानदण्ड वास्तव में तत्कालीन लेखकों-समीक्षकों की महत्वाकांक्षाओं के अन्तर्विरोध के रूप में विकसित हुए थे।``2 अब विचारणीय यह है कि सन् 1977 तक उपलब्ध और लिखे गये अमरकांत के साहित्य के आधार पर जो कुछ बातें सामने आयी वे 2007 तक के अमरकांत के रचे गये साहित्य के आधार पर कहीं-कहीं खटकने लगी है।
उदाहरण के तौर पर 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ समीक्षक अमरकांत को महाकाव्यात्मक गरिमा वाले उपन्यासकारों की श्रेणी में गिनने लगे है। वेद प्रकाश जी अपने लेख 'स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार` में प्रश्न करते हैं कि, ''.....व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे गुक की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``3 इसलिए अब जब हमारे सामने अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध का प्रश्न उठेगा तो हमें नि:संकोच यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अमरकांत ने अपने समय को उसकी पूरी परिधि में न केवल चित्रित किया है अपितु समाज के सामने कुछ ऐसे प्रश्न भी खडे किये हैं जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं।
समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध के संदर्भ में हम यही कह सकते है कि पिछले 50-60 वर्षो को तोडा है और विचारों तथा संवेदनाओं के नए स्वरूप को हमारे सामने लाया है। इससे स्पष्ट है कि अमरकांत अपने युग के सामाजिक यथार्थ को प्रगतिशील दृष्टि और आस्था के साथ लगातार चित्रित कर रहे है। यह बात निम्नलिखित बिंदुओं के विवेचन से और अधिक स्पष्ट हो जायेगी।
निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,
निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,
खिलती नहीं आखें बिना तेरे तन के ;
डूबा रहता हूँ सपनों में मिलन की घड़ियों का ;
पर तू मिलता नहीं कभी बिना उलझाव और अनबन के ;
कभी तो कहा कर प्यार बिना अहसान के ;
कभी तो मान अपना अधूरापन बिना मेरी प्यास के ;
खुद का मान तुझे मेरी मोहब्बत से प्यारा है ;
ऐ जिंदगी मैंने किसपे अपनी मोहब्बत को वारा है /
Thursday 29 April 2010
मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,
मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,
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मोहब्बत की तड़पन में छुपा इक जुनूं है किसी आफताब से पूँछों ;
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चाहते तमन्ना में उम्र गुजर जाये भी तो कम है ,
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इन्तजारे इश्क भी एक खुदाई है अपने प्यार से पूँछों /
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अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी :- 'डिप्टी कलक्टरी` अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। अमरकांत स्वयं इस कहानी के बार...
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मै बार -बार university grant commission के उस फैसले के ख़िलाफ़ आवाज उठा रहा हूँ ,जिसमे वे एक बार M.PHIL/Ph.D वालो को योग्य तो कभी अयोग्य बता...