Friday 30 April 2010

बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,

बिस्तर की सलवटें तलाशती हैं ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती हैं ,
नीद में बाहें भीचना चाहती है बदन कोई ,
अधखुली आखें अधजगा सा मन ढूढता बगल में कोई ;
सुबह जल्द अब भी जग जाता हूँ मै ,
दिल चाहता है मचल के लग जाये सिने से कोई ;
मै याद नहीं करता खुश हूँ अपनी रातों से ,
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
उजलाती भोर की किरणों में कुछ पिघले पलों की खुसबू चली आती है ,
तड़पती धड़कने अपनी प्यास को सिने में दबा जाती है ;
अनजाने ही हाथ बड़ते हैं हाथों में भरने को वो गुदाज बदन ,
कानो को याद आती है तेरे ओठों की नमी और चूड़ी की खन खन ;
मै याद नहीं करता करवट बदल सो जाता हूँ ,
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं
;
मेरे ओठों को उन ओठों का उतावलापन याद आती है ,
चेहरे पे उन उफनती सांसों की दहक अब भी कौंध जाती है ;
चाय पिने से पहले अक्सर तेरे मुंह की मिठास भर आती है मुंह में ,
भर आता है तेरे बदन का नमक तन मन में ;
चुमते बदन के भावों से तड़प उठता है कण कण ,
मुंह खुल जाता है पिने को तेरा पुरजोर बदन ;
पर मै खुश हूँ अपनी राहों में ,
याद नहीं करता पर बसता है तू ही अब भी निगाहों में ;
बहुदा चाय बनाते मेरी बाहें भर लेती है बाहों में खुद को ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
दीवाल जहाँ तू सट के खड़ी होती थी ;
जहाँ मेरे चुमते वक़्त तेरी पीठ रही होती थी ;
सुनी सुनी सी तेरी राह तकती है ,
बिस्तर का कोना जहाँ तू बैठती और मै सहेजता बदन तेरा ,
रूठा रहता है ,सलवटों से सजा रहता है ,
सुना दर्पण ढूढता है वो हंसी चेहरा बड़ी हसरत से ,
सुना आँगन भी राह तकता है अब भी बड़ी गैरत से ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
   

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध /amerkant

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध :-




अपने समय के समाज को अमरकांत ने बड़ी ही गहराई के साथ अपने कथा साहित्य में चित्रित किया है। युग विशेष की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यथार्थ की ठोस भूमि पर चित्रित करना कोई आसान काम नहीं है। समय परिवर्तनशील है। युगीन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहती। युग बदलने के साथ-साथ किसी समाज विशेष की परिस्थितियाँ भी बदल जाती है। इसलिए जिस रचनाकार के पास संवेदनाओं को गहराई से समझने और उसे विश्लेषित करने की समझ नहीं होगी, उसका साहित्य कभी भी कालजयी नहीं हो सकता। अमरकांत का कथा साहित्य अपने समय की वास्तविक तस्वीर पेश करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।



विद्वानों के बीच अमरकांत की रचनाओं को उसकी विश्वसनियता और गहरी संवेदनशीलता के कारण ही सराहा गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत का रचना संसार महान रचनाकारों के रचना संसारों जैसा विश्वसनीय है। उस विश्वसनीयता का कारण है स्थितियों का अचूक चित्रण जिससे व्यंग्य और मार्मिकता का जन्म होता है।``1 आज की पूँजीवादी व्यवस्था में आदमी कितना आत्मकेन्द्रित, संवेदनाहीन, मतलबी और स्वयं की इच्छाओं तक सिकुड़कर रह गया है, इसे अमरकांत के कथासाहित्य से आसानी से समझा जा सकता है।
                                                                                                                              


अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया है। पर ऐसा नहीं है कि उच्चवर्ग को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने साहित्य नहीं रचा। यह अवश्य है कि जितने विस्तार और गहराई के साथ अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज को चित्रित किया है उतनी गहराई और विस्तार उच्चवर्ग को लेकर उनके साहित्य में नहीं मिलता। 'आकाश पक्षी` जैसा उपन्यास इसी उच्च वर्गीय समाज की मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी तरह सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित और संपन्न लोगों की मानसिकता और व्यवहार को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने कई कहानियाँ लिखी हैं। पलाश के फूल, दोस्त का गम, आमंत्रण, जन्मकुण्डली और श्वान गाथा जैसी कितनी ही कहानियाँ हैं जहाँ समाज के उच्च वर्ग की मानसिकता तथा विचार और व्यवहार के अंतर को अमरकांत ने चित्रित किया है। साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा कि जब हम यह कहते हैं कि अमरकांत मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की विसंगतियों, अभावों और शोषण को चित्रित चित्रित करने वले कथाकार हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि शोषक और शोषित इन दोनों की स्थितियों का चित्रण किये बिना कोई कथाकार शोषण की तस्वीर किस तरह प्रस्तुत कर सकता है। इसलिए यह कहना सही नहीं लगता कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सिर्फ और सिर्फ निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया।



वास्तविकता यह है कि अमरकांत ने उच्चवर्ग की अपेक्षा मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण अपने साहित्य में अधिक किया है। साथ ही साथ उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शोषण सिर्फ उच्चवर्ग द्वारा निम्नवर्ग या संपन्न द्वारा विपन्न का ही नहीं अपितु एक विपन्न भी अपने जैसे दूसरे व्यक्ति का शोषण करने में बिलकुल नहीं हिचकता। अमरकांत ने 'मूस` जैसी कहानी के माध्यम से यह दिखाया कि पुरूषप्रधान भारतीय समाज में 'मूस` जैसे पुरूष भी हैं जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने भारतिय समाज के कई ऐसे भद्दे और नग्न यथार्थ को सामने लाया जो परंपरा और संस्कृति तथा आदर्शो के नाम पर हमेशा ही समाज में दबाये जाते रहे है। जिस घर में ससुर खुद अपनी बेटी की उम्रवाली बहू का शीलभंग करना चाहे और उसका मनोबल उसकी ही धर्मपत्नी बढ़ाये तो ऐसे घर की बहू कौन सी परंपरा और संस्कृति के भरोसे अपने आप को सुरक्षित समझ सकती है और कैसे?



स्पष्ट है कि अमरकांत के विचारों का दायरा संकुचित नहीं है अपितु संकुचित मानसिकता के साथ उनके कथा साहित्य पर विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। साथ ही साथ अमरकांत के संबंध में बात करते अथवा लिखते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अमरकांत की लेखनी लगातार साहित्य रचने का कार्य कर रही है। पिछले 50-60 वर्षों से अमरकांत का लेखन कार्य सतत जारी है। इसलिए किसी समीक्षक या विद्वान ने आज से 25-30 वर्ष पूर्व उनके रचना संसार के संबंध में जो कुछ कहा या समझा वह अमरकांत के तब तक के उपलबध साहित्य के आधार पर था। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अमरकांत के पूरे कथा साहित्य को लेकर उस पर नयी समीक्षा दृष्टि प्रस्तुत की जाय।



अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक और लगातार अपनी वृद्धि कर रहा है। 'सुरंग` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में अमरकांत की बदली हुई विचारधारा का स्पष्ट संकेत हमें मिलता है। सन 1977 में 'अमरकांत वर्ष 01` नामक पुस्तक का प्रकाशन अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के उद्देश्य से हुआ। इस संबंध में रवीन्द्र कालिया ने लिखा भी कि, ''अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के पीछे हमारा एक प्रयोेजन रहा है। वास्तव में नयी कहानी की आन्दोलनगत उत्तेजना समाप्त हो जाने के बाद हमें अमरकांत का मूल्यांकन और अध्ययन अधिक प्रासंगिक लगा। विजयमोहन सिंह का यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है कि 'अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं, जैसी माँग कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी` परन्तु यह सच है कि अमरकांत की चर्चा उस रूप में, उस माहौल में, उन मानदण्डों से संभव ही नहीं थी। ये मानदण्ड वास्तव में तत्कालीन लेखकों-समीक्षकों की महत्वाकांक्षाओं के अन्तर्विरोध के रूप में विकसित हुए थे।``2 अब विचारणीय यह है कि सन् 1977 तक उपलब्ध और लिखे गये अमरकांत के साहित्य के आधार पर जो कुछ बातें सामने आयी वे 2007 तक के अमरकांत के रचे गये साहित्य के आधार पर कहीं-कहीं खटकने लगी है।



उदाहरण के तौर पर 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ समीक्षक अमरकांत को महाकाव्यात्मक गरिमा वाले उपन्यासकारों की श्रेणी में गिनने लगे है। वेद प्रकाश जी अपने लेख 'स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार` में प्रश्न करते हैं कि, ''.....व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे गुक की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``3 इसलिए अब जब हमारे सामने अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध का प्रश्न उठेगा तो हमें नि:संकोच यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अमरकांत ने अपने समय को उसकी पूरी परिधि में न केवल चित्रित किया है अपितु समाज के सामने कुछ ऐसे प्रश्न भी खडे किये हैं जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं।



समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध के संदर्भ में हम यही कह सकते है कि पिछले 50-60 वर्षो को तोडा है और विचारों तथा संवेदनाओं के नए स्वरूप को हमारे सामने लाया है। इससे स्पष्ट है कि अमरकांत अपने युग के सामाजिक यथार्थ को प्रगतिशील दृष्टि और आस्था के साथ लगातार चित्रित कर रहे है। यह बात निम्नलिखित बिंदुओं के विवेचन से और अधिक स्पष्ट हो जायेगी।
     

निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,

निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,

खिलती नहीं आखें बिना तेरे तन के ;

डूबा रहता हूँ सपनों में मिलन की घड़ियों का ;

पर तू मिलता नहीं कभी बिना उलझाव और अनबन के ;

कभी तो कहा कर प्यार बिना अहसान के ;

कभी तो मान अपना अधूरापन बिना मेरी प्यास के ;

खुद का मान तुझे मेरी मोहब्बत से प्यारा है ;

ऐ जिंदगी मैंने किसपे अपनी मोहब्बत को वारा है /

Thursday 29 April 2010

मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,

मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,

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मोहब्बत की तड़पन में छुपा इक जुनूं है किसी आफताब से पूँछों ;

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चाहते तमन्ना में उम्र गुजर जाये भी तो कम है ,

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इन्तजारे इश्क भी एक खुदाई है अपने प्यार से पूँछों /

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बबूल के पेड़ से छावं का कयास है ;

बबूल के पेड़ से छावं का कयास है ;
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मोहब्बत की यादों से निज़ात की आस है ;
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उनसे मिलने को बेकरार दिल तो है ,
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कौनसा रंग पहनायुं जनाजे इश्क को रंग की तलाश है /
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Tuesday 27 April 2010

अचानक एक दिन तुने मोहब्बत से इंकार कर दिया ,

अचानक एक दिन तुने मोहब्बत से इंकार कर दिया ,
प्यार की राह में मेरी मोहब्बत को गुनाहगार कर दिया ;
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दौड़ के मिलते थे जों भरे भावों के साथ ,
मुफलिसी की आहट पे पहचानने से इंकार कर दिया /
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अरमानो की दुनिया सजा लिपट जाते थे जों देख कर मुझको तनहा ,
बदले मौसम में मेरी तड़प से खुद को बेपरवाह कर लिया /
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HINDI NOVEL -काले उजले दिन BY AMERKANT

काले उजले दिन :-


163 पृष्ठों के इस उपन्यास का प्रकाशन सन् 2003 से 'राजकमल प्रकाशन` द्वारा हुआ। इस उपन्यास पर अपनी समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कमलाप्रसाद पाण्डेय जी लिखते हैं कि, 'काले उजले दिन` आत्मकथात्मक कहानी है। उसका नायक खुद अपने विकास को दुहराता है। वह विमाता की ईर्ष्या और पिता की विमाता द्वारा संचालित कुटिलता के बीच में पलता है। वह देखता है कि विमाता का पुत्र अशोक सम्पन्नता में जीता है और वह दीनता में। प्यार का अभाव उसकी कुण्ठा बनती है। वह अपने पारिवारिक ममताहीन जीवन से छूटना चाहता है और इसी क्रम मंे उसे क्रान्तिकारी वासुदेव सिंह अच्छे लगे। बाद में मामा के घर की याद आई, विवाह में स्त्री से प्यार की आकांक्षा की - पर सब कुछ परम्परा के भीतर होने से औपचारिक बना रहा। सामन्ती आचार में जिंदगी पिसती रही। नायक प्यार के लिए तड़पता रहा, कान्ति पत्नी ने उसे आदर श्रद्धा और यहाँ तक कि जिन्दगी का उत्सर्ग उसके लिये किया, पर उसमें प्यार की क्षमता नहीं थी। प्यार मिला समानधर्मी रजनी में। अत: पत्नी कांति और प्रेयसी रजनी। नामक के कान्ति और रजीनक े बीच व्यक्तित्व का अनुभवाधीन सहज विकास होता रहा। मानसिक धरातल में ही नहीं, संघर्ष यथार्थ की जमीन में झेला गया।30

कमलाप्रसाद जी का उपर्युक्त मंतव्य इस उपन्यास के संदर्भ में एकदम सटीक है। हमारे समाज में जो परिवर्तन होते हैं, जो असंगतियाँ रह जाती हैं, वे किसी न किसी रूप में समाज के हर व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। सामाजिक मान्यताओं और आदर्शों के बीच यथार्थ की जमीन अलग होती है। इस भूमि पर संघर्षरत व्यक्ति अपनी इच्छओं के अनुरूप चाह कर भी नहीं जी पाता। ऐसे में वह सही-गलत की परिभाषा को अपने तरीके से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करता है। किन्तु व्यक्ति और समाज के बीच संघर्ष निरंतर होते हुए भी 'व्यक्ति` की उम्र समाज की तुलना में बहुत कम होती है। अमरकांत ने इस उपन्यास के माध्यम से व्यक्ति, समाज और परिवर्तन के त्रिकोण में निहित द्वंद्व की वेदना को बड़े ही कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास की समस्या किसी काल विशेष की न होकर शाश्वत रूप में व्यक्ति और समाज के बीच होने वाले संघर्ष की समस्या है।

हम अपने जीवनम ें जो भी पाते है, जो भी अनुभव करते हैं, उन्हीं से हमारा व्यक्तित्व लगता है। फिर यही व्यक्तित्व समाज में अपनी सशक्तता के आधार उन मूल्यों को उखाड फेकना चहता है जो उसके अपने अनुभव से समाज के लिए घातक हैं। पर व्यक्ति-व्यक्ति का अपना अलग दायरा होता हैं। यही अलगाव अलग सोच को भी जन्म देता है। अत: समाज इन अलग सोच से होनेवाले खतरों को टालने के लिए कुछ सामाजिक नियम बनाता है। इन नियमों की अवहेलना समाज में हटकर करना मुश्किल है। पर इनके बीच छटपटाहट हर व्यक्ति के हंदर होती है। पुन: इन्ही का संयुक्त प्रयास ही मान्य परम्पराओं को तोड़कर नई परम्परा बनाते हैं। पर हर नई के साथ हमेशा संघर्ष की एक नई स्थिति बनी रहती है।

समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत का उपन्यास काले उजले दिन वास्तव में व्यक्ति के जीवन चक्र में निहित दुख और सुख के क्षणों के प्रतिफल में निर्मित उसके व्यक्तित्व की पड़ताल का अनुपम प्रयोग है। जीवन का पूरा दर्शन कई खंडों में बिखरे व्यक्तिगत अनुभवों का निचोड़ होता है। ऐसे में किसे के द्वारा किया हुआ कोई कार्य सही है या गलत? इसका निर्णय करना बहुत मुश्किल होता है। अमरकांत निश्चित तौर पर इस उपन्यास के माध्यम से जिन प्रश्नों को उठाने का प्रयत्न करते हैं, वे इस बात को झुठला देते हैं कि अमरकांत छोटे दायरे के लेखक हैं।

आकाश पक्षी / A NOVEL BY HINDI WRITER AMERKANT

आकाश पक्षी :-


राजकमल प्रकाशन द्वारा ही इस उपन्यास का प्रथम संस्करण 2003 में प्रकाशित हुआ। 219 पृष्ठों का यह उपन्यास अमरकांत की एम महत्वपूर्ण कृति है।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यक उपन्यास हेमा (हेमवती) नामक लड़की की कहानी है। जो एक बड़े रियासत से 'बड़े सरकार` की बेटी है। पर देश आजाद होने के साथ ही साथ काँग्रेस ने रियासतों का राज खत्म कर दिया। इसका प्रभाव हेमा के परिवार पर भी हुआ। वे अपनी रियासत छोड़कर लखनऊ की अपनी कोठी में रहने के लिए आ जाते हैं। पर हेमा के पिताजी की आदतों के कारण जल्द ही उनकी माली हालत बहुत ही बुरी हो जाती है। हेमा के पिताजी को अपने बड़े भाई 'राजा साहब` से बड़ी उम्मीदें थी, जो कि रियासत खत्म होने के बाद दिल्ली रहने चले गये थे। शुरू में राजा साहब ने हेमा के पिताजी को भरोसा दिलाया था कि घर खर्च के लिए पैसे भेजते रहेंगे। पर बाद में उन्होंने पैसे भेजने बंद कर दिये। हेमा के पिताजी ठेके का काम करना चाहते थे, पर उनकी आदतों ने जल्द ही उन्हें कंगाल बना दिया।

इसी बीच हेमा को पड़ोस मंे रहनेवाले 'रवि` से प्यार हो जाता है। रवि उसे पढ़ाने उसके घर पर आता था। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहने लगे थे। पर हेमा की माँ को यह पसंद नहीं आता। अपने उँचे कुल-खानदान और रियासती दिनों की शानो-शौकत के आगे वे रवि को अपने बेटी के लायक नहीं समझती थीं। रवि के पिता इंजीनियर थे। वे रवि और हेमा की शादी का प्रस्ताव हेमा के पिता के सामने रखते हैं। पर हेमा के पिता इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। साथ ही साथ वे इंजीनियर साहब के मकान छोड़कर चले जाने की हिदायत भी दे देते हैं।

इंजीनियर साहब ऐसा ही करते हैं। रवि के चले जाने के बाद हेमा उदास हरने लगी। पर हेमा पर उसके घरवालों को बिलकुल भी तरस नहीं आया। उन्होंने कुँअर युवराज सिंह नाम एक पैंतालिस वर्ष के साथ हेमा का विवाह करने का निश्चय कर लिया। कँुअर साहब भी किसी पुरानी रियासत के मालिक रह चुके थे। उम्र में हेमा से बहुत बड़े थे। हेमा उन्हें बिलकुल पसंद नहीं करती थी, पर माँ-बाप और अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वह मजबूर थी। और अंतत: वह अपने माँ-बाप और परिवार के लिए खुद की बलि देने के लिए तैयार हो जाती हैं।

इस तरह अपना शरीर वह कुँअर साहब को समर्पित कर देती है। कुँअर साहब से उसकी शादी हो जाती है। परिवार का झूठा अहंकार और सम्मान बच जाता है। कुँअर साहब से रिश्ता जुड़ जाने के कारण हेमा के परिवार को भी आर्थिक सहायता मिल जाती है। हेमा के माँ-बाप चाहते भी यही थे।

अमरकांत का यह उपन्यास भारतीय सामंतवाद की हताशा, निराशा, कुंठा और उनके झूठ अहम के बीच पिसनेवाली एक निर्दोष लड़की हेमा की बड़ी ही मार्मिक कहानी है। होने वाले सामाजिक परिवर्तन को अपने झूठे अहम के दम पर कोई कब तक दबा सकता है। और इसकी कीमत क्या वह अपने ही बच्चों की खुशियों में आग लगा कर करेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर यह उपन्यास बखुबी देता है।

हेमा बदलती हुई परिस्थितियों को समझ रही थी। वह समय के साथ बदलना भी चाहती है, पर उसके माँ-बाप ऐसा नहीं चाहते। खुद हेमा के शब्दों में, ''यह कहना गलत होगा कि हम लोगों के पतन का दायित्व कांग्रेस या देश की स्वतन्त्रता को है, जैसा कि बड़े सरकार कहा करते थे। मैं अब अच्छी तरह समझ गयी थी कि यह धारणा अत्याधिक गलत है। हम लोगों में जो गिरावट आ गयी है वह केवल हमारी ही वजह से। हम न मालूम कितने वर्षो से इस देश के शरीर पर फोड़े की तरह विद्यमान थे जिसको काटकर निकाल फेंकने में ही सारे देश की तरक्की हो सकती थी। परंतु अफसोस की बात तो यह थी कि रियासतें खत्म हो जाने पर भी बहुत से राजा-महाराजा अपनी खोखली उँचाई से नीचे उतरकर जनता में मिलते-जुलते नहीं थे।``29

अमरकांत ने इस उपन्यास के लिए जो कथानक चुना वह सचमुच बड़ा ही संवेदनशील है। रवि और हेमा के प्रेम के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज में हो रहे बहुत बड़े परिवर्तन को रेखांकित करने का प्रयास किया है। कहा जा सकता है कि एक सजग रचनाकार के तौर पर अमरकांत ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज में घटित हो रही एक पूरी की पूरी परिवर्तन श्रृंखला को बड़े ही सुंदर तरीके से उपन्यास में पिरोया।
    

सूखा पत्ता /HINDI WRITER AMERKANTS FAMOUS NOVEL

सूखा पत्ता :-


सन 1984 में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 202 पृष्ठों का यह उपन्यास खूब चर्चित हुआ। इस उपन्यास की कहानी अमरकांत के एक मित्र की कहानी है। इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा का खुलासा करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''यह मेरे एक मित्र की कहानी है। बीते दिनों के संस्करणों से भी युक्त उनकी मोटी डायरी पढ़ने के बाद यह उपन्यास लिखने की इच्छा उत्पन्न हुई, जो शीघ्र ही इतनी तीव्र हो गयी कि मेरे दिमाग में स्वत: ही एक खाका उभरता गया और कुछ ही महीनों में मैने इसे लिख लिया।``22

अमरकांत की उपर्युक्त बात से स्पष्ट है कि यह उपन्यास अमरकांत ने मात्र पैसों के लिए नहीं लिखा। साथ ही साथ इसे लिखने में उनकी पूरी एनर्जी भी लगी। यह बात इसलिए स्पष्ट कर रहा हूँ क्योंकि अमरकांत यह कह चुके हैं कि उन्होंने अधिकतर उपन्यास आर्थिक अभाव में दूसरों के आग्रह पर सप्रयास लिखा है। 'सूखा पत्ता` अमरकांत के ऐसे उपन्यासों से अलग है। अत: इसकी प्रतिष्ठा भी उनके अन्य उपन्यासों की तुलना में अलग रही।

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार जी अमरकांत के इस उपन्यास को शरत के श्रीकांत से प्रेरित मानते हैं। इस उपन्यास पर अपनी लंबी प्रतिक्रिया देते हुए वे लिखते हैं कि, ''उपन्यास की दृष्टि से 'सूखा पत्ता` सबल रचना है। अमरकांत का यह पहला उपन्यास मैंने पढ़ा और इस रचना के लिए मैं उन्हें बधाई देना चाहता हूँ। यों 'सूखा पत्ता` भी निर्दोष रचना नहीं है। कच्चापन उसमें भी स्पष्ट झलकता है। प्रेरणा-स्त्रोत स्पष्टत: शरत बाबू का 'श्रीकांत` है। उपन्यास का किशोर नायक, कृष्ण कुमार दसवीं जमात में पढ़ते हुए क्रांतिकारी दल की स्थापना करता है और साहस संचय की इच्छा से अपने साथी दीनेश्वर के साथ सरदियों की एक रात गंगा तट पर श्मशान में बिताता है। इस अंश की पूरी प्रेरणा शरत बाबू के 'श्रीकांत` के इंद्रनाथ से ली गई प्रतीत होती है, यद्यपि लेखक ने इस सब में भी मौलिक प्रतीत होने का भरसक प्रयत्न किया है।``23

इस तरह इस उपन्यास को सबल रचना मानते हुए भी विद्यालंकार जी इसके कच्चेपन की चर्चा करना नहीं भूलते। वैसे उपन्यास के पहले अंश को लेकर कही गयी उनकी यह बात सही भी लगती है। अपने वास्तविक जीवन में भी अमरकांत का बचपन ऐसी ही कुछ सच्ची घटनाओंे से युक्त रहा। बचपन में अमरकांत का परिचय जब अपने मोहल्ले के स्थानीय क्रांतिकारियों व उनके क्रांतिकारी साहित्य से हुआ तो कुछ स्थानीय क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने राजनीतिक वतर्कता दिखायी थी। पर उनकी वह सतर्कता हास्यास्पद की कही जायेगी। ऐसी ही कुछ घटनाओं को थोड़े परिवर्तन के साथ अमरकांत ने अपने इस उपन्यास 'सूखा पत्ता` में चित्रित किया है। उपन्यास में यह दिखाया गया है कि किस तरह चीनी और बोरे चुकारक युवकोें का एक दल उसे महान क्रांतिकारी घटना मानता है।

चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी इस उपन्यास की एक और कमजोरी का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि, '' 'सूखा पत्ता` की एक कमजोरी यह भी है कि उपन्यास का नायक कृष्ण कुमार उर्मिला से प्रेम के संबंध में बहुत बड़ी दुर्बलता दिखाता है। मेरी राय में उसे माँ-बाप के विरूद्ध और समाज की जातपातीय व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह करना चाहिए था। ........क्रांति का बार-बार नाम लेने वाले अमरकांत जातपात तोड़ने तक से जैसे घबराते हैं। आखिर वह कोई जीवन चरित्र तो लिख नहीं रहे थे।``24

चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी की यह बात हमें भी खटकती है। 'मूस`, 'हत्यारे`, 'दोपहर का भोजन` और 'जिंदगी और जोंक` जैसी सशक्त कहानियों का लिखने वाला लेखक उपन्यासों में इतना संकोच क्यों करता है? यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती। ''फिर भी 'सूखा पत्ता` एक शक्तिशाली रचना है। लिखने का ढंग, कहानी का उत्थान और शैली - तीनों प्रथम श्रेणी के हैं और यह इस उपन्यास की बहुत बड़ी विशेषता है।``25

लेकिन इस उपन्यास में ही समलिंगी प्रेम के वर्णन का सहारा अमरकांत के एक नए स्वरूप को हमारे सामने रखता हैं। राजेन्द्र किशोर जी तो अमरकांत को 'निराला` की टक्कर का संयमित साहस रखनेवाला उपन्यासकार मानते हैं। इस उपन्यास की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि, ''कथा के प्रथम खण्ड में नायक के मित्र तथा आदर्श मनमोहन के चरित्र को बड़े प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। इस चरित्र की कल्पना का साहर और इसकी इतनी प्रभावशाली रचना बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके संबंध के सारे विवरण औपन्यासिक होते हुए भी अपनी प्रामाणिकता से हमंे प्रभावित करते हैं। यह न केवल 'साहसिक` है, बल्कि यह नायक से समलिंगी प्रेम भी करता हैै। इसके चरित्र के इस पक्ष को उभारने के लिए लेखक ने वातावरण का बड़ी बारीकी से चित्रण किया है और सबसे बड़ी बात यह है कि लेखक इसके वर्णन में स्वयं पतित नहीं हुआ। निराला के बाद शायद ऐसा संयमित साहस अमरकान्त ने ही किया है।``26

परमानंद श्रीवास्तव जी इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि, ''अमरकांत के इस उपन्यास में कृष्णकुमार के चरिये इसकी कैशोर मानसिक विकृतियों और किसी हद तक इसी के ब्याज से उपरिपक्व राष्ट्रीय मानस की कमजोरियों का आकलन प्रस्तुत किय है। सम्भव है इस सजग आत्म-विश्लेषण से कृष्णकुमार की 'गति` बदले - पर ऐसा कोई सुधारवादी आग्रह लेखक के उद्देश्य पर हावी नहीं है और यह शुभ है।``27

'सूखा पत्ता` उपन्यास के संदर्भ में यह जान लेना भी आवश्यक है कि अमरकांत ने इसे 1956 में ही लिख लिया था। और इसका एकाध संस्करण 1959 में छप भी गया था। पर इसका सही मूल्यांकन 1984 में ही निकाला। इसके बाद ही इसका व्यापक डिस्ट्रीब्युशन हुआ और समीक्षकों तक यह उपन्यास पहुँच पाया। स्वयं अमरकांत इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''सन 1959 में 'सूखा पत्ता` का पहला संस्करण हुआ था। उसी समय कई पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा छपी, बहुत से लेखकों ने इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाएँ भी दी। पर्याप्त स्वागत हुआ था इस उपन्यास का। लेकिन लिस प्रकाशक ने इसे छापा था, उसकी बिक्री व्यवस्था ठीक नहीं थी। फिर भी, 1969 में दूसरा संस्करण छपा, 1984 में राजकमल प्रकाशन ने पेपर बैंक में भी इसे छाप दिया। ..... अपने उपन्यासों में 'सूखा पत्ता` को ही मैं विशिष्ट मानता हूँ, कहानियाँ जरूर कुछ ऐसी हैं जो इससे हटकर हैं और उन्हें कुछ लोग 'सूखा पत्ता` से अधिक प्रौढ़ एवम् सशक्त भी कह सकते हैं।``28

इस तरह स्पष्ट है कि अपने उपन्यासों में अमरकांत 'सूखा पत्ता` को विशिष्ट मानते हैं। समीक्षकों ने इस पर पर्याप्त समीक्षाएँ भी लिखी। हम कह सकतें हैं कि अमरकांत द्वारा लिखा गया यह उपन्यास ही सही मायनों में उपन्यासकार के रूप में उन्हें हिंदी साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करता है।

सुखजीवी / AMERKANTS HINDI NOVEL

सुखजीवी :-


228 पृष्ठों का यह उपन्यास 'संभावना प्रकाशन` हापुड़ से 1982 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास भी रोमान्टिक ऐटीट्याूड को ही व्यक्त करता है। यह उपन्यास दीपक नामक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसके संदर्भ में उपन्यास का ही यह वाक्यांश सही लगता है कि, ''दुनिया में ऐसे किस्म के भी व्यक्ति हैं, जिनमें बुद्धि और मौलिकता नहीं होती, जो हर संभावनाओं से हीन होते हैं, जो मन से सर्वथा कमजोर होते हैं, परन्तु उनके मन के भीतर एक ऐसी स्वार्थ परकता, दुष्टता और हीनता होती है, जिसको वे अपनी बातों अस्वीकार करने की चेष्टा करते हुए मालूम होते हैं।``19

उपन्यास के नायक दीपक का यही हाल है। वह अपनी सीधी-सादी पत्नी से बात-बात में झूठ बोलता। उसके घर देर पहुँचने पर जब पत्नी अहल्या कारण पूछती तो वह यह बताता कि उसका एक्सीडेन्ट हो गया था। इसी तरह के झूठ वह हर बात में कहता। ''अहल्या को चिन्तित, दुखित और रोते देखकर उसे सदा यह सन्तोष होता था कि वह एक ऐसी स्त्री का पति है जो उसको अपनी समस्त शक्ति से प्यार करती है और उसके लिए कोई भी कुरबानी कर सकती हैं। वह यह अपना अधिकार समझता था कि अहल्या जैसी पतिव्रता स्त्री उसके कष्ट और मजबूरी की बात सुनकर अपना समस्त अभिमान, शिकवा-शिकायत और तकलीफ भूल जाय। और चूंकि अहल्या ऐसी ही करती थी इसलिये वह अपने दु:ख, पीड़ा और लाचारी की बात करके पत्नी को निरस्त्र करने में सदा सफल होता था।``20

पत्नी के इसी स्वभाव का फायदा उठाकर दीपक पड़ोस में रहनेवाली लड़की रेखा से झूठा प्रेम करने लगता है। वास्तव में उसकी दिलचस्पी सिर्फ रेखा की जवान देह में ही थी। रेखा भी उसके प्रेम जाल में आसानी से फँस जाती है। वह रेखा को यह बताकर सहानुभूति हाँसिल करता है कि वह अपनी पत्नी अहल्या से दुखी है। अहल्या के अंदर कोई गुण नहीं है। वह अपने जीवन में प्रेम के लिए तरस गया है। रेखा दीपक की इन बातों में फँस गयी। उसने अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर दिया। दीपक ने उसके शरीर से पूरा सूख उठाया। जैसे चाहा वैसे प्रेम किया। पर जब रेखा ने दीपक को पूरी तरह अधिकार के साथ पाना चाहा तो वह डर गया।

इधर जब धीरे-धीरे अहल्या को दीपक और रेखा के संबंधों के बारे में पता चल जाबा है तो दीपक डर के अहल्या के पैरों पर गिर पड़ता है। उसे समझाते हुए दीपक कहता है कि, ''मैं अपनी गलती मान लेता हूँ। मैंने तुम्हारे साथ धोखा किया। आज मेरी आँखे खुल गई हैं। मैं उस आवारा लड़की से बहुत दिनों से पिंड छुडाना चाहता था, लेकिन वह मेरे पीछे पड गई है। जानती हो, बुरी औरतें किस तरह मर्दो को फंसा लेती हैं? मुझमें बहुत-सी कमजोरियाँ हैं, लेकिन कम-से-कम यह कमजोरी मुझमें नहीं थी। मैं पराई औरतों से कोसों दूर रहता था। फिर यह लड़की आई। यह जान-बूझकर मेरे पास आती, मुझसे छेड़ा-खानी करती, आंखों से कटाक्ष करती। ..... यह लडकी तो यूनिवर्सिटी की बहुत चालू लड़की है। इसका काम ही है। एक मर्द को फांसना, फिर उसको छोड़कर दूसरे मर्द को पकड़ना। तुमने आज बचा लिया, अहल्या, तुमसे और बच्चों से बढ़कर मेरे लिए कोई नहीं। भगवान का शुक्र है कि तुम्हारी-जैसी स्त्री मुझको मिली.... मैं तुम्हारी और बच्चों की कसम खाता हूँ कि मैं आगे से उस आवारा लड़की से कोई मतलब नहीं रखूंगा।``21

इस तरह वह अहल्या को मनाता है। कुछ दिनों तक उसका खयाल भी रखता है। पर वह यह नहीं चाहता था कि रेखा के जवान शरीर का सुख उससे छूट जाये। अत: वह एक दिन रेखा से मिलता है। पर रेखा उसकी वह बातें चुपके से सुन चुकी रहती है जो वह अहल्या से रेखा के संबंध में कहता है। रेखा उसे झिड़क देती है। दीपक को रेखा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता। वह मन ही मन उसे कोसता है। दीपक फिर यह निर्णय लेता है कि वह अपनी पत्नी और बच्चों का खयाल रखेगा और कानून की पड़ाई करेगा व वकील बन कर देश की सेवा करेगा।

दीपक के इस संकल्प के साथ उपन्यास खत्म हो जाता है। लेकिन दीपक जैसे लोगों के संकल्प कभी भी बदल सकते हैं। अपने सुख और आराम के लिए दीपक हर स्तर पर गिरने के लिए तैयार रहता था। हर बात में वह अपने सुख और लाभ का हिसाब लगाता था। उसका सारा आदर्श, सारी नैतिकता उसके अपने शरीर सुख तक केन्द्रित रहती है। वह सही मायनों में 'सुखजीवी` था। इस तरह उपन्यास के कथानक के आधार पर इस शीर्षक एकदम उचित प्रतीत होता है।