मेरी यादों से जब भी मिली होगी
वो अंदर ही अंदर खिली होगी .
सब के सवालों के बीच में ,
वह बनी एक पहेली होगी .
यंहा में हूँ तनहा-तनहा ,
वंहा छत पे वो भी अकेली होगी .
सूने से खाली रास्तों पे ,
वह अकेले ही मीलों चली होगी .
यूँ बाहर से खामोश है मगर,
उसके अंदर एक चंचल तितली होगी .
जो जला डी गयी बड़ी बेरहमी से,
वो बेटी भी नाजों से पली होगी .
Saturday 30 January 2010
तुझे चाहा मगर कह नहीं पाया यारा
तुझे चाहा मगर कह नहीं पाया यारा
अपना हो कर भी रह गया पराया यारा
पास था यूँ तो तेरे बहुत लेकिन,
प्यासा मैं दरिया पे भी रह गया यारा .
जिन्दा हूँ सब ये समझते हैं लेकिन,
मुझे मरे तो जमाना हो गया यारा .
अब आवाज भी लंगाऊं तो किसको,
मेरा अपना तो कोई ना रहा यारा.
सालों से तेरी यादों से ही ,
मैंने खुद को ही जलाया यारा .
अपना हो कर भी रह गया पराया यारा
पास था यूँ तो तेरे बहुत लेकिन,
प्यासा मैं दरिया पे भी रह गया यारा .
जिन्दा हूँ सब ये समझते हैं लेकिन,
मुझे मरे तो जमाना हो गया यारा .
अब आवाज भी लंगाऊं तो किसको,
मेरा अपना तो कोई ना रहा यारा.
सालों से तेरी यादों से ही ,
मैंने खुद को ही जलाया यारा .
सपनो से भी जादा कुछ हो .
मैं जितना सोचता हूँ,
तुम उससे जादा कुछ हो .
गीत,ग़ज़ल,कविता से भी,
जादा प्यारी तुम कुछ हो .
प्यार,मोहब्बत और सम्मोहन,
इससे बढकर के भी कुछ हो .
रूप,घटा,शहद -चांदनी,
प्यारी इनसे जादा कुछ हो .
जितना मैंने लिख डाला,
उससे जादा ही कुछ हो .
शायद मेरी चाहत से भी,
सपनो से भी जादा कुछ हो .
तुम उससे जादा कुछ हो .
गीत,ग़ज़ल,कविता से भी,
जादा प्यारी तुम कुछ हो .
प्यार,मोहब्बत और सम्मोहन,
इससे बढकर के भी कुछ हो .
रूप,घटा,शहद -चांदनी,
प्यारी इनसे जादा कुछ हो .
जितना मैंने लिख डाला,
उससे जादा ही कुछ हो .
शायद मेरी चाहत से भी,
सपनो से भी जादा कुछ हो .
तेरी खुली जुल्फों की छाँव सी,**********
तेरी सूरत जो आँखों में बसी है,
उसमे मेरी चाहत की नमी है .
किसको क्या-क्या बताऊँ यारों,
मेरे जीवन में उसकी ही कमी है .
जन्हा था वन्ही रुक गया हूँ,
तेरे बिना सफर की हिम्मत थमी है .
तेरी खुली जुल्फों की छाँव सी,
इस जन्हा में कोई जन्नत नही है .
तेरे बाद बंजर की तरह ही,
उसमे मेरी चाहत की नमी है .
किसको क्या-क्या बताऊँ यारों,
मेरे जीवन में उसकी ही कमी है .
जन्हा था वन्ही रुक गया हूँ,
तेरे बिना सफर की हिम्मत थमी है .
तेरी खुली जुल्फों की छाँव सी,
इस जन्हा में कोई जन्नत नही है .
तेरे बाद बंजर की तरह ही,
अब इस जिन्दगी की जमी है .
Friday 29 January 2010
पाखंडी चूहा
पाखंडी चूहा :-----------------------------------
एक चीता सिगरेट का सुट्टा लगाने ही वाला था क़ि अचानक एक चूहा वहां आया और बोला “मेरे भाई छोड़ दो नशा, आओ मेरे साथ भागो , देखो ये जंगल कितना खुबसूरत है, आओ मेरे साथ दुनिया देखो''
चीते ने एक लम्हा सोचा फिर चूहे के साथ दौड़ने लगा .
आगे एक हाथी अफीम पी रहा था , चूहा फिर बोला , -
देखो मेरे भाई ये नशा छोड़ दो, ये दुनिया बहुत सुंदर है .
हाथी भी साथ दौड़ने लगा .
आगे शेर व्हिस्की पीने की तैयारी कर रहा था, चूहे ने उससे भी वही कहा .
शेर ने ग्लास साइड में रखा और चूहे को ५ - ६ थप्पड़ मारे .
हाथी बोला "अरे ये तो तुम्हे ज़िन्दगी की तरफ ले जा रहा हा , क्यों मार रहे हो इस बेचारे को ?"
शेर बोला , "यह कमीना पिछली बार भी कोकीन पी कर मुझे ३ घंटे जंगल मे घुमाता रहा''.यह एस ही है . खुद तो पी लेता है,बाद में सब को ज्ञान देता है .
यह ज्ञानी चूहा पाखंडी है . पाखंडी चूहा
एक चीता सिगरेट का सुट्टा लगाने ही वाला था क़ि अचानक एक चूहा वहां आया और बोला “मेरे भाई छोड़ दो नशा, आओ मेरे साथ भागो , देखो ये जंगल कितना खुबसूरत है, आओ मेरे साथ दुनिया देखो''
चीते ने एक लम्हा सोचा फिर चूहे के साथ दौड़ने लगा .
आगे एक हाथी अफीम पी रहा था , चूहा फिर बोला , -
देखो मेरे भाई ये नशा छोड़ दो, ये दुनिया बहुत सुंदर है .
हाथी भी साथ दौड़ने लगा .
आगे शेर व्हिस्की पीने की तैयारी कर रहा था, चूहे ने उससे भी वही कहा .
शेर ने ग्लास साइड में रखा और चूहे को ५ - ६ थप्पड़ मारे .
हाथी बोला "अरे ये तो तुम्हे ज़िन्दगी की तरफ ले जा रहा हा , क्यों मार रहे हो इस बेचारे को ?"
शेर बोला , "यह कमीना पिछली बार भी कोकीन पी कर मुझे ३ घंटे जंगल मे घुमाता रहा''.यह एस ही है . खुद तो पी लेता है,बाद में सब को ज्ञान देता है .
यह ज्ञानी चूहा पाखंडी है . पाखंडी चूहा
शिक्षा का व्यवसायीकरण : उचित या अनुचित
शिक्षा का व्यवसायीकरण : उचित या अनुचित
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि हमे वही शिक्षा लेनी चाहिए जिसके माध्यम से हम अपनी आजीविका चला सकें. इसी बात को आज के बाजारीकरण और भू मंडलीकरण के युग में बढ़ावा मिला है . व्यावसायिक शिक्षा की तरफ लोंगो का रुझान देखकर के ही कई राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक घरानों ने शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करना शुरू किया. वैसे भी सिर्फ सरकार के भरोसे शिक्षा क्षेत्र में इतनी बड़ी पूँजी का निवेश संभव ही नहीं था . उदारवादी मापदंड जो १९९० के बाद अपनाए गए,उन्होंने इस क्षेत्र में क्रांति की . निजी क्षेत्र से पूँजी का आना और बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों का खुलना भारत के लिए बहुत ही सुखद रहा .
इस देश में लाखों नए शिक्षा संस्थान खुले. हजारों लोगों को रोजगार मिला . लाखो विद्यार्थियों को इसका पूरा लाभ मिला . जो बच्चे विदेशों में शिक्षा लेन जाते थे, वे अपने ही देश में रुक गए. इस तरह जो पैसा विदेशों में जाता था वह देश में ही रह गया . शिक्षा के स्तर में सुधार आया . रोजगार के अच्छे अवसर इस देश में ही उपलब्ध होने लगे . देश की अंतर्राष्ट्रीय शाख में सुधार हुआ . पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंग के मंडल आयोग के बाद आरक्षण का जो जिन सवर्ण विद्यार्थियों को मुसीबत नजर आ रहा था, उससे बचने के लिए ये बच्चे सरकारी नौकरियों का मोह त्याग कर व्यावसायिक शिक्षा की तरफ उन्मुख हुए और मल्टी नेशनल कम्पनियों में मोटी तनख्वाह के काम करने लगे. यह सब उन के लिए एक नई दिशा थी .
लेकिन इस शिक्षा के निजीकरण के कुछ नकारात्मक बिदु भी सामने आये. कई लोग सिर्फ व्यावसायिक दृष्टि कोन के साथ इस क्षेत्र में आये और मुनाफाखोरी के लिए हर सही गलत काम करने लगे .इससे नैतिकता का पतन हुआ . कई बच्चों के भविष्य के साथ खेला गया . उन्हें आर्थिक नुक्सान हुआ . सरकार के खिलाफ आवाज उठाई गई . अंतर्राष्ट्रीय स्तर पे भारत की साख पे बट्टा लगा . यु.जी.सी. को सख्त कदम उठाने के लिए विवश होना पड़ा . आज भी आप यु.जी.सी. की वेब साईट www.ugc.ac.इन पे जा कर फेक यूनिवर्सिटी की लिस्ट देख सकते हैं. हाल ही में देश की ४४ डीम्ड यूनिवर्सिटी पे कार्यवाही का मन सरकार ने बनाया था. ये सब बातें साफ़ इशारा करती हैं की शिक्षा के क्षेत्र में सब ठीक नही हो रहा है .
मेरे मतानुसार शिक्षा क्षेत्र के इस निजीकरण और इसके साथ साथ इसके बढ़ रहे इस व्यावसायिक रूप में बुराई नहीं है. लेकीन सिर्फ और सिर्फ व्यावसायिक दृष्टिकोण को सही नहीं कहा जा सकता . यंहा एक सामजिक और राष्ट्रिय आग्रह का होना भी बहुत जरूरी है . सामाजिक और नैतिक दायित्व का बोध भी जरूरी है .
आप क्या सोचते हैं ?
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि हमे वही शिक्षा लेनी चाहिए जिसके माध्यम से हम अपनी आजीविका चला सकें. इसी बात को आज के बाजारीकरण और भू मंडलीकरण के युग में बढ़ावा मिला है . व्यावसायिक शिक्षा की तरफ लोंगो का रुझान देखकर के ही कई राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक घरानों ने शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करना शुरू किया. वैसे भी सिर्फ सरकार के भरोसे शिक्षा क्षेत्र में इतनी बड़ी पूँजी का निवेश संभव ही नहीं था . उदारवादी मापदंड जो १९९० के बाद अपनाए गए,उन्होंने इस क्षेत्र में क्रांति की . निजी क्षेत्र से पूँजी का आना और बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों का खुलना भारत के लिए बहुत ही सुखद रहा .
इस देश में लाखों नए शिक्षा संस्थान खुले. हजारों लोगों को रोजगार मिला . लाखो विद्यार्थियों को इसका पूरा लाभ मिला . जो बच्चे विदेशों में शिक्षा लेन जाते थे, वे अपने ही देश में रुक गए. इस तरह जो पैसा विदेशों में जाता था वह देश में ही रह गया . शिक्षा के स्तर में सुधार आया . रोजगार के अच्छे अवसर इस देश में ही उपलब्ध होने लगे . देश की अंतर्राष्ट्रीय शाख में सुधार हुआ . पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंग के मंडल आयोग के बाद आरक्षण का जो जिन सवर्ण विद्यार्थियों को मुसीबत नजर आ रहा था, उससे बचने के लिए ये बच्चे सरकारी नौकरियों का मोह त्याग कर व्यावसायिक शिक्षा की तरफ उन्मुख हुए और मल्टी नेशनल कम्पनियों में मोटी तनख्वाह के काम करने लगे. यह सब उन के लिए एक नई दिशा थी .
लेकिन इस शिक्षा के निजीकरण के कुछ नकारात्मक बिदु भी सामने आये. कई लोग सिर्फ व्यावसायिक दृष्टि कोन के साथ इस क्षेत्र में आये और मुनाफाखोरी के लिए हर सही गलत काम करने लगे .इससे नैतिकता का पतन हुआ . कई बच्चों के भविष्य के साथ खेला गया . उन्हें आर्थिक नुक्सान हुआ . सरकार के खिलाफ आवाज उठाई गई . अंतर्राष्ट्रीय स्तर पे भारत की साख पे बट्टा लगा . यु.जी.सी. को सख्त कदम उठाने के लिए विवश होना पड़ा . आज भी आप यु.जी.सी. की वेब साईट www.ugc.ac.इन पे जा कर फेक यूनिवर्सिटी की लिस्ट देख सकते हैं. हाल ही में देश की ४४ डीम्ड यूनिवर्सिटी पे कार्यवाही का मन सरकार ने बनाया था. ये सब बातें साफ़ इशारा करती हैं की शिक्षा के क्षेत्र में सब ठीक नही हो रहा है .
मेरे मतानुसार शिक्षा क्षेत्र के इस निजीकरण और इसके साथ साथ इसके बढ़ रहे इस व्यावसायिक रूप में बुराई नहीं है. लेकीन सिर्फ और सिर्फ व्यावसायिक दृष्टिकोण को सही नहीं कहा जा सकता . यंहा एक सामजिक और राष्ट्रिय आग्रह का होना भी बहुत जरूरी है . सामाजिक और नैतिक दायित्व का बोध भी जरूरी है .
आप क्या सोचते हैं ?
मजदूर मसीहा -प्रवीण बाजपयी
मजदूर मसीहा -प्रवीण बाजपयी ******
मुंबई में रहते हुए कई लोगों से मिलने का अवसर मुझे बराबर मिलता रहा ,लेकिन जिन्दगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आप से एक बार मिल के आप को लम्बे समय तक प्रभावित करते हैं. फिर वो आप से दूर भी हों तो भी आप हमेशा ऐसे लोगों को उनके विचारों के माध्यम से करीब पाते हैं .
श्री प्रवीण बाजपयी भी चंद उन्ही लोगों में से से हैं जिन्होंने ने मुझे बखूबी प्रभावित किया . अब तो साल में कभी कबार ही उनसे मिलना हो पाता है, लेकिन अपनी जरूरत पे मैं हरदम उन्हें अपने पास पाता हूँ .एक सच्चे फ्रेंड,फिलासफर और गाइड कि तरह .
जब प्रवीन भाई कल्याण में रहते थे तो उनका घर ही मेरा घर था , भाभी से माँ तुल्य प्रेम और स्नेह मिलता था . लेकिन कतिपय व्यक्तिगत कारणों से प्रवीण भाई को परेल रहने के लिए जाना पड़ा . मैं भी अपने शोध कार्य और फिर नौकरी में ऐसा उलझा कि अब फ़ोन पे ही दुआ-सलाम हो पाता है .
लेकिन इन दूरियों ने दिलों के रिश्ते को कमजोर नहीं होने दिया. अपनेपन कि ऊर्जा हमेशा बनी रही . जब भी कभी मैंने भईया को कल्याण बुलाया वे सारी व्यस्तताओं में से भी समय निकाल कर आये . स्वास्थ की तकलीफों के बीच आये . पारिवारिक और राजनैतिक समस्याओं को दर किनार कर आये . मुझे मेरे इस भाई पे गर्व है .
आप शायद यह सोच रहे होगें कि मैं ब्लॉग पे किसी अपने करीबी का गुणगान क्यों कर रहा हूँ ? मित्रो, जिन्दगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका हम सम्मान तो करते हैं, लेकिन कभी औपचारिक रूप से कह नहीं पाते . लेकिन उम्र के लगभग ३० वसंत पूरा करते करते मुझे यह लगने लगा है कि ,किसी से प्यार हो, किसी के प्रति स्नेह हो,आदर हो तो हमे कहना जरूर चाहिए. क्या पता जिन्दगी कल ये मौका दे या ना दे .
वैसे मुंबई वालों के लिए प्रवीण बाजपयी कोई नया नाम नहीं है . आप सेंट्रल रेलवे मजदूर संघ के मुंबई डिविजन के अध्यक्ष हैं. रेल केसरी पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं ,और एक अच्छे कवि भी हैं . अगर आप नेट पे ही प्रवीण जी से मिलना चाहें , तो निम्नलिखित लिंक का उपयोग कर सकते हैं
praveenbajpai.crms@gmail.कॉम
ttp://www.facebook.com/reqs.php#/photo.php?pid=385531&op=1&o=global&view=global&subj=1635027107&id=1635027107
मुंबई में रहते हुए कई लोगों से मिलने का अवसर मुझे बराबर मिलता रहा ,लेकिन जिन्दगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आप से एक बार मिल के आप को लम्बे समय तक प्रभावित करते हैं. फिर वो आप से दूर भी हों तो भी आप हमेशा ऐसे लोगों को उनके विचारों के माध्यम से करीब पाते हैं .
श्री प्रवीण बाजपयी भी चंद उन्ही लोगों में से से हैं जिन्होंने ने मुझे बखूबी प्रभावित किया . अब तो साल में कभी कबार ही उनसे मिलना हो पाता है, लेकिन अपनी जरूरत पे मैं हरदम उन्हें अपने पास पाता हूँ .एक सच्चे फ्रेंड,फिलासफर और गाइड कि तरह .
जब प्रवीन भाई कल्याण में रहते थे तो उनका घर ही मेरा घर था , भाभी से माँ तुल्य प्रेम और स्नेह मिलता था . लेकिन कतिपय व्यक्तिगत कारणों से प्रवीण भाई को परेल रहने के लिए जाना पड़ा . मैं भी अपने शोध कार्य और फिर नौकरी में ऐसा उलझा कि अब फ़ोन पे ही दुआ-सलाम हो पाता है .
लेकिन इन दूरियों ने दिलों के रिश्ते को कमजोर नहीं होने दिया. अपनेपन कि ऊर्जा हमेशा बनी रही . जब भी कभी मैंने भईया को कल्याण बुलाया वे सारी व्यस्तताओं में से भी समय निकाल कर आये . स्वास्थ की तकलीफों के बीच आये . पारिवारिक और राजनैतिक समस्याओं को दर किनार कर आये . मुझे मेरे इस भाई पे गर्व है .
आप शायद यह सोच रहे होगें कि मैं ब्लॉग पे किसी अपने करीबी का गुणगान क्यों कर रहा हूँ ? मित्रो, जिन्दगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका हम सम्मान तो करते हैं, लेकिन कभी औपचारिक रूप से कह नहीं पाते . लेकिन उम्र के लगभग ३० वसंत पूरा करते करते मुझे यह लगने लगा है कि ,किसी से प्यार हो, किसी के प्रति स्नेह हो,आदर हो तो हमे कहना जरूर चाहिए. क्या पता जिन्दगी कल ये मौका दे या ना दे .
वैसे मुंबई वालों के लिए प्रवीण बाजपयी कोई नया नाम नहीं है . आप सेंट्रल रेलवे मजदूर संघ के मुंबई डिविजन के अध्यक्ष हैं. रेल केसरी पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं ,और एक अच्छे कवि भी हैं . अगर आप नेट पे ही प्रवीण जी से मिलना चाहें , तो निम्नलिखित लिंक का उपयोग कर सकते हैं
praveenbajpai.crms@gmail.कॉम
ttp://www.facebook.com/reqs.php#/photo.php?pid=385531&op=1&o=global&view=global&subj=1635027107&id=1635027107
Wednesday 27 January 2010
धर्म ही नहीं ,विज्ञान सम्मत भी है वर्ण व्यवस्था -------------
धर्म ही नहीं ,विज्ञान सम्मत भी है वर्ण व्यवस्था -------------
किसी को बुरा लगे, यह तो एक ब्लागर होने के नाते मै नहीं चाहूँगा ,लेकिन यह एक कडवी सच्चाई है कि आज कल भारतीय हो कर भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मजाक उडाना एक फैशन सा हो गया है. जिसे वेदों के बारे में कुछ भी पता नहीं वो भी इनकी चुटकी लेने में पीछे नहीं रहता . इस से भी अजीब बात तो यह है कि हमारे देश में अमेरिका और चीन के इतिहास को पढ़ने कि तो व्यवस्था है,लेकिन अपने ही वेदों और पुरानो का ज्ञान हम नई पीढ़ी को देना जरूरी नहीं समझते. अगर कोई इस तरह कि शिक्षा लेना भी चाहे तो उसे विशेष प्रकार के गुरुकुल या वैदिक संस्थानों कि मदद लेनी पड़ती है . हम अपने ही ज्ञान को अज्ञानता वश बड़े गर्व से आज नकार रहे हैं . सचमुच यह हम सभी भारतियों के लिए शर्म कि बात है . आज अगर कोई अपने धर्म,देश और वेदों की बात करता है तो हम तुरंत उसे राष्ट्रवादी या संकुचित मानसिकता का करार देते हुए उसे दलितों और स्त्रियों का घोर विरोधी मान लेते हैं. जब की इन बातों का यथार्थ से कुछ भी लेना देना नहीं है
बात साफ़ है कि हम अपने ही देश के ज्ञान से अनजान बने हुए हैं और दुनिया उसी के आधार पे आगे बढ़ रही है . आवश्यकता इस बात कि है हम अपने वेदों -पुरानो के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलते हुए इसे आत्म साथ करे .यह नहीं कि अज्ञानता वश हम अपने ही वेदों और पुरानो कि बुराई कर
अधिक आधुनिक और उदारवादी बनने का ढोंग करते रहे. .ttp://www.ria.ie/news/watson2.html
हमे अपनी अश्मिता और गरिमा को खुद पहचानना होगा,न कि इस बात का इन्तजार करना चाहिए कि पहले कोई विदेशी हमारी चीजों को अच्छा कह दे फिर हम उसका गुणगान करना शुरू करे
.
DR.WATSON ८६ वे साइंस कांग्रेस में भाग लेने जब चेन्नई आये हुए थे तो उन्होंने भारतीय वर्ण व्यस्था की तारीफ़ करते हुए इसे जींस की शुद्धता के लिए महत्वपूर्ण बताया था. साथ ही साथ उन्होंने अरेंज मैरेज को भी BETTER GENE POOLS के लिए सही माना था . लेकिन उस समय इस तरह के शोध को ले कर एक डर यह भी था कि SUCH RESEARCH WOULD REINFORCE THE VARNA SYSTEM WITH GENETIC EVIDENCE. प्रश्न यह उठता है कि जो बात विज्ञान के माध्यम से सही साबित हो रही है, उसे सामने लाने से रोकना कंहा तक सही होगा ?
इसका जवाब हम सभी को देना होगा . वैसे आप इस बारे में क्या सोचते हैं ? टिप्पणियों के माध्यम से सूचित करे
.
(मैं जिस लेख की बात कर रहा हूँ वह टाइम्स ऑफ़ इंडिया में १९९८-१९९९ में छपा था . उस लेख का शीर्षक ही था - watson allays fears on misuse of genetic knowhow / अगर आप चाहेंगे तो इस आर्टिकल को स्कैन कर नेट पे ड़ाल दूंगा . )
किसी को बुरा लगे, यह तो एक ब्लागर होने के नाते मै नहीं चाहूँगा ,लेकिन यह एक कडवी सच्चाई है कि आज कल भारतीय हो कर भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मजाक उडाना एक फैशन सा हो गया है. जिसे वेदों के बारे में कुछ भी पता नहीं वो भी इनकी चुटकी लेने में पीछे नहीं रहता . इस से भी अजीब बात तो यह है कि हमारे देश में अमेरिका और चीन के इतिहास को पढ़ने कि तो व्यवस्था है,लेकिन अपने ही वेदों और पुरानो का ज्ञान हम नई पीढ़ी को देना जरूरी नहीं समझते. अगर कोई इस तरह कि शिक्षा लेना भी चाहे तो उसे विशेष प्रकार के गुरुकुल या वैदिक संस्थानों कि मदद लेनी पड़ती है . हम अपने ही ज्ञान को अज्ञानता वश बड़े गर्व से आज नकार रहे हैं . सचमुच यह हम सभी भारतियों के लिए शर्म कि बात है . आज अगर कोई अपने धर्म,देश और वेदों की बात करता है तो हम तुरंत उसे राष्ट्रवादी या संकुचित मानसिकता का करार देते हुए उसे दलितों और स्त्रियों का घोर विरोधी मान लेते हैं. जब की इन बातों का यथार्थ से कुछ भी लेना देना नहीं है
बात साफ़ है कि हम अपने ही देश के ज्ञान से अनजान बने हुए हैं और दुनिया उसी के आधार पे आगे बढ़ रही है . आवश्यकता इस बात कि है हम अपने वेदों -पुरानो के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलते हुए इसे आत्म साथ करे .यह नहीं कि अज्ञानता वश हम अपने ही वेदों और पुरानो कि बुराई कर
अधिक आधुनिक और उदारवादी बनने का ढोंग करते रहे. .ttp://www.ria.ie/news/watson2.html
हमे अपनी अश्मिता और गरिमा को खुद पहचानना होगा,न कि इस बात का इन्तजार करना चाहिए कि पहले कोई विदेशी हमारी चीजों को अच्छा कह दे फिर हम उसका गुणगान करना शुरू करे
.
DR.WATSON ८६ वे साइंस कांग्रेस में भाग लेने जब चेन्नई आये हुए थे तो उन्होंने भारतीय वर्ण व्यस्था की तारीफ़ करते हुए इसे जींस की शुद्धता के लिए महत्वपूर्ण बताया था. साथ ही साथ उन्होंने अरेंज मैरेज को भी BETTER GENE POOLS के लिए सही माना था . लेकिन उस समय इस तरह के शोध को ले कर एक डर यह भी था कि SUCH RESEARCH WOULD REINFORCE THE VARNA SYSTEM WITH GENETIC EVIDENCE. प्रश्न यह उठता है कि जो बात विज्ञान के माध्यम से सही साबित हो रही है, उसे सामने लाने से रोकना कंहा तक सही होगा ?
इसका जवाब हम सभी को देना होगा . वैसे आप इस बारे में क्या सोचते हैं ? टिप्पणियों के माध्यम से सूचित करे
.
(मैं जिस लेख की बात कर रहा हूँ वह टाइम्स ऑफ़ इंडिया में १९९८-१९९९ में छपा था . उस लेख का शीर्षक ही था - watson allays fears on misuse of genetic knowhow / अगर आप चाहेंगे तो इस आर्टिकल को स्कैन कर नेट पे ड़ाल दूंगा . )
Monday 25 January 2010
राष्ट्र के विकास में राष्ट्रभाषा हिंदी का योगदान -part 2
आज के टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर थी कि गुजरात हाई कोर्ट ने स्वीकार किया कि देश में कोई राष्ट्र भाषा नहीं है .यह खबर आप अगर विस्तार से पढना चाहते हैं तो नीचे दिए लिंक पे क्लिक कर के पढ़ सकते हैं .
There's no national language in India: Gujarat High Courthttp://timesofindia.indiatimes.com/india/Theres-no-national-language-in-India-Gujarat-High-Court/articleshow/5496231.cms
वैसे मैं इस बारे में अपने पहले वाले पोस्ट में लिख भी चुका हूँ .राष्ट्र के विकास में राष्ट्रभाषा हिंदी का योगदान -part 1.
अब आज फिर उसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूँ कि यह सच है कि हिंदी अभी तक हमारी राष्ट्र भाषा नहीं बन पायी है ,लेकिन इसे राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हिंदी वालों को एक नया आन्दोलन खड़ा करना होगा .
ऐसे में एक सवाल यह भी उठ सकता है कि हिंदी को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों दिया जाय ? इसके जवाब में मैं कुछ बिन्दुओं को आपके सामने रखना चाहूँगा .इस देश की राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है क्योंकि---
और भी कई बाते हिंदी के पक्ष में रखी जा सकती हैं . लेकिन यंहा इतना पर्याप्त है. मैं हिंदी वालों से फिर कहूँगा कि हमे हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव दिलाने के लिए एक नया आन्दोलन खड़ा करना होगा . हिंदी को संविधान सम्मत राष्ट्रभाषा बनाना ही होगा .
There's no national language in India: Gujarat High Courthttp://timesofindia.indiatimes.com/india/Theres-no-national-language-in-India-Gujarat-High-Court/articleshow/5496231.cms
वैसे मैं इस बारे में अपने पहले वाले पोस्ट में लिख भी चुका हूँ .राष्ट्र के विकास में राष्ट्रभाषा हिंदी का योगदान -part 1.
अब आज फिर उसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहता हूँ कि यह सच है कि हिंदी अभी तक हमारी राष्ट्र भाषा नहीं बन पायी है ,लेकिन इसे राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हिंदी वालों को एक नया आन्दोलन खड़ा करना होगा .
ऐसे में एक सवाल यह भी उठ सकता है कि हिंदी को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों दिया जाय ? इसके जवाब में मैं कुछ बिन्दुओं को आपके सामने रखना चाहूँगा .इस देश की राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है क्योंकि---
- इस देश के बड़े भू भाग पे हिंदी बोली और समझी जाती है .
- इस देश में हिंदी संपर्क भाषा के रूप में कार्य करती है
- हिंदी को संविधान के द्वारा राजभाषा होने का गौरव प्राप्त है
- व्याकरणिक दृष्टि से भी यह एक उन्नत भाषा है
- हिंदी एक रोजगारपरक भाषा है
- हिंदी का क्षेत्र अन्य किसी भी भारतीय भाषा की तुलना में अधिक व्यापक है
- आजादी के साथ हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी की ही वकालत की
- हिंदी समझने में सहज और सरल है
- हिंदी अघोषित रूप में राष्ट्रभाषा मानी जाती रही है
- हिंदी बोलने वालों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है
- विश्व के कई देशो में हिंदी बोली और समझी जाती है
- विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन कार्य होता है
- हिंदी किसी प्रांत की भाषा न हो कर राष्ट्रिय स्वरूप की भाषा है
- हिंदी भाषा भारतीयता की प्रतीक है .
- हिंदी अनेकता में एकता का प्रतीक है .
- हिंदी राष्ट्रिय चेतना की वाहक रही है .
- हिंदी स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण हथियार था .
- हिंदी का लचीला स्वरूप इसे सहज विस्तार देता है .
- आज हिंदी विश्व भाषा के रूप में अपनी ताकत का लोहा मनवा रही है .
- आज हिंदी विश्व के सबसे बड़े बाजार की भाषा है ,इसलिए इसकी अनदेखी कोई नहीं कर सकता .
- आधुनिक तकनीकों के इस युग में हिंदी भी तकनीकी रूप में ढल चुकी है .
- हिंदी संवैधानिक दृष्टि से न सही पर व्यवहारिक दृष्टि से हमेशा से ही राष्ट्रभाषा के रूप में जानी गयी .
- हिंदी के सामान विस्तृत अन्य कोई भारतीय भाषा नहीं है .
- हिंदी इस देश की आत्मा है .
- हिंदी भाषा नहीं भाव है .
- हिंदी इस देश को जोड़ने का काम करती है .
- हिंदी इस देश की सभ्यता और संस्कृति में रची बसी है .
- तमाम भारतीय भाषों की मुखिया हिंदी ही हो सकती है .
- हिंदी इस देश में अभिव्यक्ति का सहज साधन है .
और भी कई बाते हिंदी के पक्ष में रखी जा सकती हैं . लेकिन यंहा इतना पर्याप्त है. मैं हिंदी वालों से फिर कहूँगा कि हमे हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव दिलाने के लिए एक नया आन्दोलन खड़ा करना होगा . हिंदी को संविधान सम्मत राष्ट्रभाषा बनाना ही होगा .
Sunday 24 January 2010
राष्ट्र के विकास में राष्ट्रभाषा हिंदी का योगदान -part 1
- राष्ट्र के विकास में राष्ट्रभाषा हिंदी का योगदान
अगर बात संवैधानिक दृष्टि कि हो तो हाँ यह सही है कि -हिंदी अभी तक कानूनी और संवैधानिक दृष्टि से हिंदी इस देश की राष्ट्र भाषा नहीं बन पायी है . एक सपना जरूर हमने देखा था,संविधान के साथ. लेकिन आपसी झगड़ों में अफ़साने ,अफ़साने ही रह गए. राष्ट्रभाषा तो दूर हिंदी सही मायनों में अभी तक राजभाषा भी नहीं बन पायी है. राजभाषा के रूप में अंग्रेजी अभी तक हिंदी के समानांतर चल रही है. बल्कि व्यव्हारिक दृष्टि से तो हिंदी को बहुत पीछे छोड़ के आगे निकल चुकी है . जिम्मेदार कौन हैं ?
निश्चित तौर पे जिम्मेदार हम हैं. हमारी सरकार है. अनेकता में एकता तो ठीक है लेकिन इस एकता में जो अनेकता है उसने बहुत से ऐसे सवाल पीछे छोड़े हैं,जिन पे हम बस मुह छुपा सकते है या शर्मिंदा हो सकते हैं. राष्ट्रभाषा हिंदी का सवाल भी ऐसे ही कुछ सवालों में से एक है .लेकिन अब वक्त आ गया है की हम इन सवालों का मुकाबला करे और आज और अभी से अपनी हिंदी को पूरे सम्मान के साथ राष्ट्र भाषा बनाने का संकल्प करे . अगर व्यवहारिक और मौखिक रूप में हिंदी को राष्ट्रभाषा मान लिया जाता है तो लिखित रूप में क्यों नहीं ?
यह लिखते हुए मैं अच्छे से समझ रहा हूँ की जो भी सरकार इस दिशा में पहल करे गी वो तीव्र राजनैतिक विरोध को झेलेगी . आज प्रांतवाद और भाषावाद जिस तरह से अपने पैर पसार रहा है, वो किसी से छुपा नहीं है . केंद्र में बैठी सरकार भी इन मुद्दों पे एकदम असहाय सा महसूश करती है . मुंबई की खबरे इस बात का जीवंत उदाहरण हैं . लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हो सकता कि सरकार चुप-चाप बैठी रहे . वैसे ही जैसे वो पिछले ६३ सालों से बैठी है . लेकिन इस सरकार को जगाने का काम हम हिंदी की रोटी खाने वालों को करनी होगी .हमे हिंदी का लाल बनना है, दलाल नहीं .वो काम करने वालों की देश में कोई कमी नहीं है. आप सभी ये सब जानते हैं ,मैं इस बात की तरफ नहीं मुड़ना चाहता . वेसे एक बात यह भी सच है क़ि---
आज के जमाने में,ईमानदार वही है
जिसे बईमानी का अवसर नहीं मिला .
आशा है आप इस तरह के ईमानदार नहीं हैं . और अगर हैं तो माफ़ कीजिये आप से कुछ भी नहीं होने वाला . यंहा तो जरूरत उसकी है जो घर फूंके आपना वो चले हमारे साथ .तो कुल मिला के हमे निःस्वार्थ भाव से हिंदी के सम्मान के लिए लड़ना होगा . क्या आप तैयार हैं ?
Saturday 23 January 2010
गुस्सा !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
गुस्सा !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
आज लगभग १५ दिन से घर में रंग-रोगन का काम हो रहा था. शाम को कॉलेज से वापस आते समय मैं खुश था कि आज मुझे वही धूल,अस्त-व्यस्त सामान और रंगों की अजीब सी ताज़ी महक झेलनी नहीं पड़ेगी . घर पंहुचा तो अपना ही घर अपना नहीं लग रहा था . पूरा घर एक दम सुंदर,साफ़ और सुव्यवस्थित . मेरी किताबें भी माँ ने अच्छे से आलमारी में लगा कर रख दी थी .
मैं यह सब देख मन ही मन खुश हो रहा था क़ि माँ ने मेरी कितनी मेहनत बचा ली . यह सब सोचते हुए ही एक विचार मेरे पूरे शरीर को बिजली के करेंट की तरह ''झटका '' दे कर चला गया . मैंने अपनी किताबो को ध्यान से देखने लगा . आशंका अब यकीन में बदल रही थी . जिस बात का डर था वही हुआ . मेरी कई किताबें रद्दी में सिर्फ इस लिए दे दी गंयी थी क्योंकि वे बेहद पुरानी हो चुकी थी . मेरे कई स्मृति चिन्ह भी कूड़े दान की शोभा बन चुके थे . इतना ही नहीं राज्य स्तरीय दो पुरस्कारों के प्रमाण पत्र भी पुराने होने की सजा पा चुके थे .
जैसा की स्वाभाविक है, यह सब जान कर मैं आग बबूला हो गया . लेकिन कुछ कडवी बाते माँ को सुनाने
के अतरिक्त मैं कर भी क्या सकता था ? चुपचाप घर से निकल कर अपनी भडास निकालने ब्लॉग पे बैठ गया . लेकिन यह ब्लॉग लिखते-लिखते मेरा गुस्सा शांत हो चुका है . मैं यह सोच के खुश हूँ कि अब राज्य स्तरीय पुरस्कार मेरे घर में कूड़े दान के लायक समझे जाने लगे हैं . हिंदी साहित्य के कई मूल्यवान ग्रन्थ भी इसी श्रेणी में आ चुके हैं . सब माँ का आशीर्वाद है . वरना मैं महा मूर्ख इस बात से अभी तक अज्ञान था . इस अज्ञानतावश ही मैं माँ को ना जाने क्या-क्या कह आया . मुझे निश्चित ही माँ से माफ़ी मांगनी चाहिए . साथ ही साथ उनका धन्यवाद भी ज्ञापित करना चाहिए जो उन्होंने मेरे कई पुराने पर अप्रकाशित लेख नहीं फेके . यंहा तक कि अभी पन्नो पे ही लिखित डी.लिट. की आधी थेसिस भी उन्होंने कृपा पूर्वक नहीं फेका. अगर फेक भी देती तो मै क्या कर लेता ? श्रीमद भागवत गीता की वो बात याद कर के अपने आप को दिलाशा देता की-जो हुआ अच्छे के लिए हुआ .इसके अतरिक्त और रास्ता भी क्या था .
अंत में माँ को धन्यवाद और कोटि -कोटि प्रणाम !!!!
आज लगभग १५ दिन से घर में रंग-रोगन का काम हो रहा था. शाम को कॉलेज से वापस आते समय मैं खुश था कि आज मुझे वही धूल,अस्त-व्यस्त सामान और रंगों की अजीब सी ताज़ी महक झेलनी नहीं पड़ेगी . घर पंहुचा तो अपना ही घर अपना नहीं लग रहा था . पूरा घर एक दम सुंदर,साफ़ और सुव्यवस्थित . मेरी किताबें भी माँ ने अच्छे से आलमारी में लगा कर रख दी थी .
मैं यह सब देख मन ही मन खुश हो रहा था क़ि माँ ने मेरी कितनी मेहनत बचा ली . यह सब सोचते हुए ही एक विचार मेरे पूरे शरीर को बिजली के करेंट की तरह ''झटका '' दे कर चला गया . मैंने अपनी किताबो को ध्यान से देखने लगा . आशंका अब यकीन में बदल रही थी . जिस बात का डर था वही हुआ . मेरी कई किताबें रद्दी में सिर्फ इस लिए दे दी गंयी थी क्योंकि वे बेहद पुरानी हो चुकी थी . मेरे कई स्मृति चिन्ह भी कूड़े दान की शोभा बन चुके थे . इतना ही नहीं राज्य स्तरीय दो पुरस्कारों के प्रमाण पत्र भी पुराने होने की सजा पा चुके थे .
जैसा की स्वाभाविक है, यह सब जान कर मैं आग बबूला हो गया . लेकिन कुछ कडवी बाते माँ को सुनाने
के अतरिक्त मैं कर भी क्या सकता था ? चुपचाप घर से निकल कर अपनी भडास निकालने ब्लॉग पे बैठ गया . लेकिन यह ब्लॉग लिखते-लिखते मेरा गुस्सा शांत हो चुका है . मैं यह सोच के खुश हूँ कि अब राज्य स्तरीय पुरस्कार मेरे घर में कूड़े दान के लायक समझे जाने लगे हैं . हिंदी साहित्य के कई मूल्यवान ग्रन्थ भी इसी श्रेणी में आ चुके हैं . सब माँ का आशीर्वाद है . वरना मैं महा मूर्ख इस बात से अभी तक अज्ञान था . इस अज्ञानतावश ही मैं माँ को ना जाने क्या-क्या कह आया . मुझे निश्चित ही माँ से माफ़ी मांगनी चाहिए . साथ ही साथ उनका धन्यवाद भी ज्ञापित करना चाहिए जो उन्होंने मेरे कई पुराने पर अप्रकाशित लेख नहीं फेके . यंहा तक कि अभी पन्नो पे ही लिखित डी.लिट. की आधी थेसिस भी उन्होंने कृपा पूर्वक नहीं फेका. अगर फेक भी देती तो मै क्या कर लेता ? श्रीमद भागवत गीता की वो बात याद कर के अपने आप को दिलाशा देता की-जो हुआ अच्छे के लिए हुआ .इसके अतरिक्त और रास्ता भी क्या था .
अंत में माँ को धन्यवाद और कोटि -कोटि प्रणाम !!!!
Subscribe to:
Posts (Atom)
-
अमरकांत की कहानी -डिप्टी कलक्टरी :- 'डिप्टी कलक्टरी` अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। अमरकांत स्वयं इस कहानी के बार...
-
मै बार -बार university grant commission के उस फैसले के ख़िलाफ़ आवाज उठा रहा हूँ ,जिसमे वे एक बार M.PHIL/Ph.D वालो को योग्य तो कभी अयोग्य बता...