Saturday 27 June 2020

शकुंतिका : विश्वास की परंपरा का निर्माण ।


शकुंतिका : विश्वास की परंपरा का निर्माण ।
                                           डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
                                                                       



                  भगवनदास मोरवाल का जन्म 23 जनवरी 1960 को नगीना, मेवात में हुआ । आप ने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की । पत्रकारिता में डिप्लोमा भी किया । आप के अभी तक प्रकाशित उपन्यास हैं काला पहाड़ (1999), बाबल तेरा देस में (2004), रेत (2008), नरक मसीहा (2014), हलाला (2015), सुर बंजारन (2017), वंचना (2019) तथा शकुंतिका (2020) इनके आतिरिक्त चार कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह और कई संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आप के लेखन में मेवात क्षेत्र की ग्रामीण समस्याएं प्रमुखता से उभर कर सामने आती हैं। आप अपनी रचना शीलता के लिए कई सम्मानों से विभूषित हो चुके हैं ।

               शकुंतिका आप का नवीनतम उपन्यास है । उपन्यास का कथानक सपाट और भाषा सहज – सरल है । यह छोटा सा उपन्यास भारतीय समाज की उस धारणा में आये बदलाव को रेखांकित करता है जो लड़कियों को लड़कों से कमतर आँकती रही है । लेकिन जिस बदलाव को लेखक दिखा रहा है और जितनी सहजता से चित्रित कर रहा है वह भारत के समाज का कितना वास्तविक चित्र है, यह विचारणीय है ।

                “बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ” जैसी सरकारी योजनाएँ हरियाणा से शुरू हुई । यह वही राज्य है जहां लड़के – लड़कियों का अनुपात पूरे देश में सबसे ख़राब रहा है । विवाह के लिए दूसरे राज्यों से लड़कियों को लाने के लिए यह समाज मजबूर हुआ । दूसरे राज्यों से आयी ये लड़कियां “पारो” कहलाईं । इसी राज्य से जुड़े मोरवाल जी अगर शकुंतिका जैसे उपन्यास को लिखते हैं तो निश्चित तौर पर यह समाज की उस कटु सच्चाई की पृष्ठभूमि ही रही होगी जिसने उन्हें ऐसे विषय को चुनने के लिए मजबूर किया होगा । ऐसे विषयों पर सरकारी अभियान, फिल्में इत्यादि भी लगातार इस दशक में हमें झकझोरती रहीं । “ मारी छोरियाँ छोरों से कम हैं के ?” दंगल फ़िल्म का यह संवाद उस बराबरी की ही वकालत करता हुआ दिखाई पड़ता है । इसी दशक के अंतिम पड़ाव पर मोरवाल जी शकुंतिका लिखते हैं ।
           
            पुनर्वासित लोगों की कालोनी के दो परिवार इस उपन्यास के केंद्र में हैं । अपितु ऐसा कहना चाहिए कि इन दोनों परिवारों की मनोदशा ही इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र है । वैसे ही जैसे अमरकांत के उपन्यास “इन्हीं हथियारों से” के केंद्र में बलिया है । वही केंद्रीय पात्र भी है । दुर्गा और अग्रसेन चार पोतों पर इतराते तो भगवती और दशरथ तीन पोतियों से चिंतित रहते । दूसरे बेटे को शादी के इतने वर्षों बाद भी बच्चे न होने से उनका दुख दोगुना हो जाता । लेकिन समय के साथ यह साबित हो जाता है कि पोतियाँ पोतों से अधिक योग्य होती हैं । भगवती अपने दूसरे बेटे को इस बात के लिये मना लेती है कि वे  बच्चा अनाथालय से गोद ले आयें । इतना ही नहीं अपितु वे एक लड़की को ही गोद लें इसपर भी परिवार में सहमति बनती है ।

           इस सहमति और विचार की सबसे बड़ी सूत्रधार चार पोतों वाली दुर्गा है जो अपने अनुभव के आधार पर भगवती को पोतियों के महत्व को समझा पाती है । इस तरह दुर्गा और भगवती का व्यक्तिगत अनुभव संयुक्त रूप से लड़कियों के पक्ष में दिखाई पड़ता है । वह भगवती से कहती है,“भगवती, उनसे जाकर पूछो जिनके लड़कियाँ नहीं हैं l अब हमारे यहीं देख लो l सारी की सारी कौरवों की फ़ौज़ पैदा हो गयी l मैं तो ऊपरवाले से रात-दिन यही बिनती करती रहती हूँ कि बस हमें एक पोती दे दे l”1 परिवार में इनका कोई विरोध भी नहीं है ।



        दुर्गा भगवती को सलाह देते हुए कहती है कि, सुन, भगवती बुरा मत मानियो l इस वंश बढ़ाने की भूख ने हमारी बेटियों की दुर्गत की हुई है l थोड़ी देर के लिए मान लो तुमने लड़के को गोद ले लिया, तो इसकी क्या गारुंटी है कि वह तेरी इन पोतियों को बहन का दर्ज़ा दे ही देगा l कहीं ऐसा ना हो कि वह सारी जायदाद पर कब्जा कर बैठे, और तेरी ये पोतियाँ यहाँ के रुख़ों के लिये भी तरस जाएँ l इस बारे में अच्छी तरह सोच लेना l”2 इसतरह दुर्गा और भगवती अपने अपने भोगे हुए यथार्थ के आधार पर पोतियों के पक्ष में लगातार अपनी सकारात्मक राय रखती हैं । अग्रसेन और दशरथ दोनों ही अपनी पत्नियों से सहमत हैं । भगवती के बेटे बहू भी आज्ञाकारी हैं । इसतरह बड़ी सहजता से पूरा परिवार भगवती कि बात से सहमत होते हुए अनाथालय से लड़की गोद लेने के निर्णय को स्वीकार करता है । यद्यपि  इतनी अधिक सहजता और अनुकूलता उपन्यास को एकांगी तो बनाता है लेकिन अविश्वसनीय नहीं होने देता ।

          यही सहजता उपन्यासकार तब भी दिखाता है जब सिया और गार्गी के किसी बंगाली और पंजाबी से विवाह की बात सामने आती है । भारतीय समाज में अभी भी इतनी सहजता थोड़ी असहज़ लगती है । इस असहजता को उपन्यासकार बुलबुल की बिरादरी में ही शादी के माध्यम से छुपाता भी है लेकिन इसी विवाह में समस्या को दिखाकर वापस वे यह साबित करने में लग जाते हैं कि जरूरी नहीं कि माँ-बाप अपनी मर्ज़ी से जहां लड़कियों की शादी करें वहाँ सब ठीक ही हो । इसी बात को अधिक पुष्ट करने के लिये वे सिया,गार्गी और पीहू के वैवाहिक जीवन में कोई समस्या नहीं दिखाते । पूरे उपन्यास के कथानक को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि उपन्यासकार एक निश्चित फ़ार्मूले के साथ उपन्यास लिखता है जिसमें उपन्यास शिल्प के कई पक्ष कमजोर तो होते हैं लेकिन लेखन का उद्देश्य शत प्रतिशत पूर्ण होता है ।

        पीहू की कहानी उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । इसने उपन्यास के सौंदर्य को बढ़ाया है । यहाँ सहजता और स्वाभाविकता अधिक है । संदेश भी अधिक मुखर और व्यापक है । अनाथालय से गोद ली गयी पीहू विदेश में पढ़ने जाती है और बड़ी कार्पोरेट कंपनी में काम करती है । लेकिन वह हर साल अपने परिवार में लौटती है । उस अनाथालय में भी लौटती है जहां से वह गोद ली गयी थी । उस अनाथालय को मोटी रकम दान करती है ताकि उसके जैसी लड़कियों को बेहतर सुविधायें मिल सकें । उसका यह लौटना संवेदना और करुणा की मानवीय प्रतीति है जो विज्ञापित नारों और मूल्यों से परे है । यह जीवन की बेचैनियों का वह इंद्र्धनुष है जो सामाजिक न्याय चेतना को झकझोरता है ।

      अग्रसेन और दुर्गा के माध्यम से मोरवाल जी ने एक और सामाजिक समस्या की तरफ़ ध्यान खींचा है । बुढ़ापे में एकाकी जीवन जीने के लिये अभिशप्त माँ-बाप की समस्या । आज के आधुनिक जीवन की यह बहुत बड़ी समस्या है । अग्रसेन जीवन भर अपने बच्चों के लिये संघर्ष करते रहे । यही बेटे जब आर्थिक रूप से संपन्न हो गये तो माँ – बाप को अकेला छोडकर चले जाते हैं । लेकिन माँ-बाप की संपत्ति में उनकी रुचि बराबर बनी रहती है । जब अग्रसेन अपने बच्चों के बीच संपत्ति का बटवारा करते हैं तो वह मकान किसी को नहीं देते जिसमें वे रहते हैं । क्योंकि कहीं न कहीं उनके मन में यह आशंका रहती है कि अगर वे अपने जीते जी मकान किसी के नाम कर देंगे तो हो सकता है कि वह लड़का उन्हें घर से निकाल दे । इसी बात को लेकर उनके बेटों में दुख भी है । बटवारे के समय दुर्गा अभय से कहती है, नहीं कहा है, तो फ़िर भी कान खोलकर तुम सब सुन लो, अपने  जीते-जी मैं इस मकान के किसी को हाथ भी नहीं लगाने दूँगी l फ़िर चाहे कोई हमारी सेवा करे या ना करे ! किसी का क्या भरोसा कि इसे भी वसीयत में लिखवाकर कल हमें दर-बदर कर दे l एक यही तो आसरा बचा है, इसे भी तुम्हारे हवाले कर देंl”3  यह चिंता समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की चिंता है । जिस उपभोगतावादी संस्कृति में हम रह रहे हैं वहाँ क़ीमत हमारे सामाजिक मूल्यों पर कितना हावी हो चुकी है, उसका प्रमाण यहाँ मिलता है ।

         अग्रसेन की मृत्यु के बाद भी दुर्गा किसी बेटे के पास रहने नहीं जाती । वह बुढ़ापे और अकेलेपन से परेशान तो है लेकिन अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं करती । उसकी इसी स्थिति का जिक्र अपनी बेटी से करते हुए भगवती कहती है कि,  कुछ तो अकेलापन और कुछ बुढ़ापा l नहीं हुई होगी हिम्मत कुछ बनाने की l मैं कई बार समझा चुकी हूँ कि दुर्गा  चली जा अपने किसी बेटे के पास l इस उमर में कब तक बना- बना कर खाएगी, पर नहीं मानती है l बड़ी स्वाभिमानी औरत है l कहती है कि जब उन्हें माँ- बाप की जरूरत नहीं है, तो मुझे भी किसी औलाद की जरूरत नहीं है l”4  इन संवादों से स्पष्ट है कि दुर्गा के मन में अपने बेटों के लिये कितनी निराशा और छोभ है । बुढ़ापे में जब माँ बाप को बच्चों की जरूरत है तो वे उनसे अलग हो जा रहे हैं । वृद्धाश्रमों में ऐसे ही न जाने कितने माँ बाप बस अपने मरने के दिन गिन रहे हैं । यह हमारे आज के समाज की एक कटु सच्चाई है ।

         समग्र रूप से इस उपन्यास के बारे में यह कहा जा सकता है कि उपन्यासकार इस बात का समर्थक है कि लड़कियाँ किसी भी तरह से लड़कों से कम नहीं हैं । अपितु संस्कारों में वे उनसे श्रेष्ठ ही हैं । पढ़ लिखकर वो भी अपना मुस्तकबिल बना सकती हैं । इसलिये लड़के-लड़कियों के फरक को मिटाते हुए बालीदगी की नई रवायत नई कैफ़ियत क़ायम होनी चाहिए । योग्यता आत्मा का गुण है इसलिये जाति,धर्म,भाषा,रंग और लिंग के आधार पर सामाजिक भेदभाव दरकिनार किये जाने चाहिए ।
        रूढ़ परंपरागत मान्यताओं का कवच हमारी रक्षा नहीं कर सकेगा अपितु हमारे लिये घातक होगा । हमें आधुनिक भाव बोधों का अग्रदूत बनना होगा । वंचित-विरहित के बीच संभावनाओं का नया द्वार खोलना होगा । वैचारिक दारिद्रीकृत अवस्था से खुद को और समाज को बाहर निकालना होगा । सामाजिक पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना होगा । इसके लिये अपने समय से टकराना होता है । इस उपन्यास के माध्यम से मोरवाल जी वही काम कर रहे हैं । जीवन की प्रांजलता और प्रखरता को सतत क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । इस क्रियाशीलता की निरंतरता में ही जीवन का उत्कर्ष है । इसीलिए जीवन को समन्वयन की प्रक्रिया भी कहा गया है । कहते हैं कि साध्य अच्छा हो तो कोई भी साधन अच्छा है । लेकिन जब साहित्य की बात होती है तो उसकी हर विधा का अपना एक गुण होता है जिसकी अपेक्षा उस विधा विशेष की रचना में की जाती है । यद्यपि शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास कमजोर कहा जा सकता है लेकिन अपने उद्देश्यों में निश्चित ही बहुत महत्वपूर्ण है ।
      


संदर्भ :
1.   शकुंतिका – भगवनदास मोरवाल, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली -  वर्ष 2020, पृष्ठ संख्या 21
2.   वही, पृष्ठ संख्या 36
3.   वही, पृष्ठ संख्या 41
4.   वही, पृष्ठ संख्या 93

संदर्भ ग्रंथ :
1.        शकुंतिका – भगवनदास मोरवाल, -  वर्ष 2020
2.        सुर बंजारन - भगवनदास मोरवाल,-  वर्ष 2017
3.        हलाला - भगवनदास मोरवाल,  -  वर्ष 2015  
4.        वंचना - भगवनदास मोरवाल,  -  वर्ष 2019
5.        हिन्दी साहित्य का इतिहास – रामचन्द्र शुक्ल
6.        हिन्दी उपन्यास का इतिहास – गोपालराय
7.        हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास – डॉ रामचन्द्र तिवारी
8.        हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास – डॉ बच्चन सिंह

Tuesday 16 June 2020

नेपोटिज्म ( Nepotism) : हिंदी सिनेमा का घृणित चेहरा ।

नेपोटिज्म  ( Nepotism) : हिंदी सिनेमा का घृणित चेहरा ।

सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद फिल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज्म / भाई भतीजावाद / कुनबा परस्ती की चर्चा गरम है । फ़िल्म निर्माण से लेकर वितरण तक की पूरी प्रणाली पर कुछ घरानों का कब्ज़ा है । सरकार का इनमें कोई दखल नहीं । ये सच्चाई भयानक है । इसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । इस संगठित अपराध की कलई खोलकर इनके खिलाफ़ मुखर होने का समय है । जिन कंपनियों एवं व्यक्तियों पर आरोप लग रहे हैं उन्हें अपनी सफ़ाई देनी चाहिए ताकि सच्चाई का आकलन किया जा सके । सिनेमा के दुनियां की यह घृणात्मक सच्चाई हो सकती है, इसका इलाज़ ज़रूरी है ।
किसी को उसकी योग्यता के आधार पर काम मिले न कि किसी की कुंठा और घमंड की पूर्ति के रूप में । परिवारवाद हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री पर कितनी हावी है यह हम सब देख रहे हैं ।
अयोग्य माथे पर तिलक न लगे यह जितना ज़रूरी है उतना ही यह भी ज़रूरी है कि योग्य लोगों के ख़िलाफ़ सामोहिक षड्यंत्रों का विरोध हो ।
कंगना राणावत, शेखर कपूर, रवीना टंडन,अभिनव कश्यप जैसे कलाकार जो गंभीर आरोप लगा रहे हैं उनपर गंभीरता से जांच होनी चाहिए । विवेक ओबेरॉय, अर्जित सिंह और नील जैसे कलाकारों के पीछे क्यों कुछ स्थापित कलाकार शिकारी कुत्तों के तरह लग जाते हैं ?
ऐसे प्रोडक्शन हाउस के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए । ये समाज का चेहरा और विचार दोनों विभत्स करने में लगे हुए हैं ।
किसी की विवशता और लाचारी का कारक बनकर फलने फूलने वाले लोग मनुष्य कहलाने के हकदार कैसे हो सकते हैं ? इनका पर्दाफाश ज़रूरी है ।
ये वही कुनबा परस्ती है जिसने आजादी के बाद से ही इस देश की व्यवस्था रूपी जड़ों को दीमक की तरह चाटना शुरु कर दिया । ये वही कुनबा परस्ती है जो आप को काटने नहीं सिर्फ चाटने के लायक बनाना चाहती है ।
इस मानसिकता के जबड़ों में ईमानदार व्यक्ति का विश्वास टूट जाता है । वह हताशा, निराशा और कुंठा का शिकार हो जाता है । इसी हताशा में कई बार कितनी ही प्रतिभाएं आत्महत्या तक कर लेती हैं।
ये वही फ़िल्म इंडस्ट्री है जहां
1. ब्लैक मनी का बोल बाला जग जाहिर है ।
2. जहां कास्टिंग काउच जैसा घिनौना खेल होता है ।
3. जहां अंडर वर्ड का दखल हमेशा से रहा है ।
4. जहां परिवारवाद हावी है ।
5. जहां कुछ लोग / समूह भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नीचा दिखाने का लगातार प्रयास करते रहे हैं ।
6. ये वही हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री है जिसने हिंदी के कंधे पर हमेशा बंदूक रखकर चलाई । हिंदी को कमतर आंका ।
   ऐसी इंडस्ट्री पर नकेल नहीं कसा गया तो यह राष्ट्रीय और मानवीय हितों के लिए बहुत घातक होगा ।

                         डॉ मनीष कुमार मिश्रा
                          कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र ।

Sunday 14 June 2020

युवा कवि मनीष : लाखों हृदयों में अंकित होने की यात्रा में अग्रसर ।

 युवा कवि मनीष : लाखों हृदयों में अंकित होने की यात्रा में अग्रसर ।


‘‘क्या ऐसा होगा कि
आदमी और शब्दों की
 किसी जोरदार बहस में
शामिल हों कुछ
 मेरी भी कविताओं के शब्द ।’’
जी हाँ  ! इस आशा के साथ, इन शब्दों के साथ अनगिनत शब्दों को मोतियों की तरह पिरोकर दो सुंदर मालाओं जो कि काव्य संकलन हैं प्रगतिशील हिन्दी साहित्य में माहिर लेखक और कवि डॉ. मनीष कुमार मिश्रा जी  अपना परिचय दे रहे हैं ।  ‘इस बार तेरे शहर में’ और ‘अक्टूबर उस साल' शीर्षक से प्रकाशित अपने दो काव्य संग्रह के साथ । कुल मिलाकर एक सौ सोलह कविताओं के ये दो संग्रह हर आम आदमी के हृदय को छू लेते हैं।

कवि को प्रेम करने वालों को एक कविता बहुत भावुक कर देती है । वह कविता है मां की अंतिम यात्रा को लेकर । जिसके बिना अम्मा को समर्पित काव्य संग्रह का परिचय अधूरा जान पड़ता है । जब एक कवि हृदय अपनी पालक के अंतहीन यात्रा में चले जाने का दर्द कैद करता है , माँ की अपरिमित छवि विश्वास और सम्मान की मूर्ति को इन पंक्तियों में :
‘‘लेकिन माँ को
तपस्या की क्या जरुरत पड़ी ?
वह तो खुद ही
एक तपस्या थी ।"

एक तरफ मां के निश्च्छल प्रेम और स्मृतियों का वर्णन है तो दूसरी तरफ मतलबपरस्त दुनिया पर कटाक्ष करते हुए कवि लिखते हैं कि
"मुझे पहचानती हो ना?
मैं वही हूँ
जिसे तुमने
अपनी सुविधा समझा
बिना किसी
दुविधा के।"


इंसान का सबसे बड़ा डर है मृत्यु । इस डर को महसूस करती है एक छोटी चिड़िया भी । लेकिन अपने डर को वह अपने संकल्पों पर हावी नहीं होने देती । जब कि उसकी गिनती प्रकृति के अदना जीवों में है । मनीष जी उस चिड़िया के माध्यम से मनुष्यता को बचाने की गुहार लगाते हैं ।  संवेदनशील कवि को पढ़िए। ना ही संवेदनशील बल्कि जनमानस को प्रेरित कर आंखें खोल देने वाला काव्य ही साहित्य कि पूंजी हैं। मनीष जी की मानवीयता से परिपूर्ण कविता ‘वह गीली चिड़िया’ परिचय कराती है एकत्व रूपी शिव का -वह शिव जो पूर्णयता सत्य पर चोट करते हुए पाठकों को महसूस करा रहा है कि जीवन सबको प्यारा है।
"अपने बसेरे
अपने घोंसले के
बहुत करीब होकर भी
उस मुसलाधार बेमौसम बरसात में
वह गीली चिड़िया
शीशम के पास पुराने बरगद की ओट में
सोच में डूबी हुई
दुबकी है
दबोचे जाने
जाल में फंस जाने......।"

प्रेमी और प्रेमिका का प्रेम, जिस पर लिखकर लाखों पन्ने भर गए कवि और लेखकों के । लेकिन प्रेम अनबूझ पहेली ही बना हुआ है। कहते हैं कवि वही जो प्रेम को महसूस करे और उस एहसास को उतार दे कागज के पन्नों में। डॉ. मनीष मिश्रा के प्रेम की अभिव्यक्ति कई संदर्भों में अप्रतिम है । ऐसी ही एक अभिव्यक्ति का उदाहरण देखिए  ‘जब होता है प्रेम’ शीर्षक कविता में ।

"पलाश कहे दहकने को
और बेला कहे महकने को
कोयल कहे चहकने को पर
चकवी कहे ठहरने को
उलझन में जब मन घबराए
तभी प्रेम का बौर भी आये ।"

वहीं ‘दूसरी तरफ 'उसका मन’ कविता में मन की उपमा दी गई है नदी को । हमारे पुरुष सत्तात्मक समाज में महिला की दैहिक सुंदरता उसकी आंतरिक सुंदरता पर हमेशा ही भारी पड़ती रही है। पुरुष सत्तात्मक समाज गोरी लड़कियों और सांवली लड़कियों की श्रेणी विभाजन अपना धर्म समझता है। एक सांवली लड़की की पीड़ा बहुत ही खुबसूरती से प्रस्तुत हुई हैं ‘उसके संकल्पों का संगीत’ नामक कविता में।

"उदास साँवली लड़की को
मितली आती है
अवरोधों के
ओछेपन से ।"

रक्तचाप केवल चिकित्सा विज्ञान का ही विषय नहीं, इसका गहरा नाता है प्रेम विज्ञान से। ‘रक्तचाप’ दिल खोल देने वाली कविता है। एक प्रेमी जब अपनी प्रेमिका को पत्र लिखता है तो वह उसमें प्रमिका को ही लिखता है न कि कोरे शब्द । यह समझा जा सकता है ‘जब तुम्हें लिखता हूँ’ शीर्षक कविता पढ़कर। प्रेम की प्रतीति अक्सर गुलाब के फूल, सुगंध और पत्र से की जाती है, हमारे कवि निराले हैं ।उन्होंने इसे संतरे से जोड़ा है। प्रेमिका का प्रेमी के लिए संतरा छुपा कर रखना प्रेम की आशा बन गया है ‘वो संतरा’ शीर्षक कविता में। प्यार की चरम परंतु सबसे सरल अभिव्यक्ति तो तब होती है जब प्यार करने वाले का नामकरण कविता के माध्यम से हो वो भी अनोखे अंदाज में । "चुड़ैल" शीर्षक कविता की ये पंक्तियां देखिए ।

"जब कहता हूँ तुम्हें
चुड़ैल तो
यह मानता हूँ कि
तुम हंसोगी
क्योंकि
तुम जानती हो
तुम हो मेरे लिए
दुनिया को सबसे सुंदर लड़की।"

साहित्यकार वही श्रेष्ठ माना जाता है जो आम आदमी और दिनचर्या से जुड़ी हर एक वस्तु, हर एक तकनीकी चीज में नवीनता खोज ले। ऐसे ही हैं हमारे यह कवि जिन्होंने बेहद सरलता और खूबसूरती से मोबाइल, नेलपॉलिश, चाय का कप, कैमरा जैसी प्रतिदिन उपयोग में लायी जानेवाली  वस्तूओं को कैद कर लिया है अपने लयबद्ध द्वंद्व में। हृदय को छू लेने वाली पंक्तियाँ देखिए
"चाय का कप
अपने ओठों से लगाकर
वह बोली -
तुम चाय अच्छी बनाने लगे हो
वैसी ही जैसी कि
मुझसे बातें बनाते हो।"

आज हर मनुष्य सफल तभी है जब वह बदलते वक्त की नब्ज पकड़ ले, कहने का तात्पर्य है कि तकनीकी दुनिया से जुड़ जाए काम करने के लिए । आज पेन का नहीं लैपटाप का जमाना है ।
कविता ‘पेन’ बताती है कि जीवन चलायमान केवल परम्परागत होने से नहीं, तकनीकी वस्तुओं के इस्तेमाल करने से हो रही है। कविता ‘नेलकटर’ मनुष्य की उस इच्छा को पूरी मार्मिकता से सामने लाती है जहां वह आदर्श और यथार्थ के बीच संघर्षरत रहता है ।
‘जूते’ के माध्यम से कवि कड़वे सच पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं कि
 "घिसे हुए जुते
और घिसा हुआ आदमी
बस एक दिन
‘रिप्लेस’ कर दिया जाता है
क्योंकि घिसते रहना
अब किस्मत नहीं चमकाती।"

डॉ. मनीषकुमार मिश्रा जी ने जीवन  के  हर क्षेत्र को इन दोनों ही कविता संकलन में सरलता और मार्मिकता से प्रस्तुत करते हुए पाठकों के हृदय में स्थान बनाया है। प्रकृति, प्रेम, प्रेमिका, राजनीति, समाज, जीवन, कल्पना, रोज की वस्तुएँ इत्यादि खूबसूरती और संवेदना के साथ लयबद्ध होकर इन कविताओं में केंद्रित हो गई हैं। साथ ही अगर प्रकाशन की बात करूं तो शब्दों की आकृति पूरी सरलता से सफेद कागजों में अंकित होकर इन दोनों ही संकलनों को प्रारंभ  से अंत तक पढ़ने पर मजबूर कर देती हैं। याद आते हैं मुझे अंग्रेजी साहित्य के नवोदित लेखक चेतन भगत और अमीष त्रिपाठी  जिन्होंने अपनी लेखनी से आम आदमी के दिलों में जगह बनाई। यही विशेषता इनकी कविताओं में हैं ।  एक हृदय से निकलकर लाखों हृदयों में अंकित हो जाने की यात्रा की ओर अग्रसर हैं युवा कवि मनीष मिश्रा । कवि को लाखों बधाइयाँ।

प्रो. अनुराधा शुक्ला
सहायक प्राध्यापक, अंग्रेजी
भारती विद्यापीठ
आभियांत्रिकी महाविद्यालय, नवी मुंबई ।


Wednesday 3 June 2020

अकादमिक दृष्टि से करोना काल के कुछ सकारात्मक पक्ष ।

अकादमिक दृष्टि से करोनाकाल के कुछ सकारात्मक पक्ष।

सकारात्मक पक्ष :
1. जिस विश्व व्यवस्था की अंधी दौड़ में हम शामिल थे उसके प्रति एक निराशा भाव जागृत होना ।
2. ग्लोबल के बदले लोकल के महत्व को हम समझ सके । इसकी स्वीकार्यता बढ़ी ।
3. आत्मनिर्भरता को नए तरीके से समझने की पहल शुरू हुई । हमारी आत्मकेंद्रियता  आत्मविस्तार के लिए प्रेरित हुई ।
4. तकनीक का शैक्षणिक क्षेत्र में बोलबाला बढ़ा । ऑनलाईन व्याख्यानों, वेबिनारों इत्यादि की बाढ़ सी आ गई ।
5. सोशल मीडिया पर  गंभीर अकादमिक दखल बढ़े ।
6.  अध्ययन अध्यापन से जुड़ी सामग्री बड़े पैमाने पर  इंटरनेट पर उपलब्ध हो सकी ।
7. ऑनलाईन व्याख्यानों, कक्षाओं इत्यादि से जिम्मेदारी और पारदर्शिता दोनों बढ़ी ।
8. घर से कार्य / work from home  अधिक व्यापक और व्यावहारिक रूप में दिखाई पड़ा ।
9. तकनीक का बाज़ार अधिक संपन्न हुआ ।
10. रचनात्मक कार्यों में रुचि बढ़ी ।
11. करोना काल को लेकर अकादमिक शोध और चिंतन की नई परिपाटी शुरू हुई ।
12. ऑनलाईन शिक्षा नए विकल्प के रूप में अधिक संभावनाशील होकर प्रस्तुत हुई ।
13. अकादमिक गुटबाज़ी और लिफाफावाद की संस्कृति क्षीण हुई ।
14. अकादमिक आयोजनों में पूंजी का हिस्सा कम हुआ ।
15. पत्र पत्रिकाओं के ई संस्करण निकले जो अधिकांश मुफ़्त में उपलब्ध कराए गए ।
16. भारतीय भाषाओं के तकनीकी प्रचार प्रसार को बल मिला ।
17. शिक्षकों के शिक्षण प्रशिक्षण का अकादमिक खर्च कम हुआ ।
18. सामाजिक भाषाविज्ञान की नई अवधारणाएं  शोधपत्रों एवं आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत हुईं ।
19. ऑनलाईन पुस्तकालयों का महत्व बढ़ा ।
20. लिखे हुए और कहे हुए के प्रति जिम्मेदारी बढ़ी ।
21. पारिवारिक मनोविज्ञान और "स्पेस सिद्धांतों" को लेकर नई अकादमिक चर्चाओं ने जोर पकड़ा ।
22. धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं इत्यादि को करोना काल में नए संदर्भों के माध्यम से प्रस्तुत करने की पुरजोर कोशिश लगभग सभी धर्म और पंथों के लोगों ने की ।
23. लोक कलाओं और संगीत के बड़े आयोजन ऑनलाईन किए गए ।
24. मोबाईल अपनी स्क्रीन से स्क्रीनवाद का प्रणेता  बनकर उभरा ।
25. नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, ज़ी फाइव, मैक्स प्लयेर, अल्ट बालाजी और डिजनी हॉट स्टार की वेब सिरीज़ सिनेमाई जादूगरी की को दुनियां है जो लॉक डॉउन के बीच अधिक लोकप्रिय रही । सिनेमा और लोकप्रियता के अकादमिक अध्ययन को इन्होंने नई चुनौती दी ।
26. वैक्सीन /  के शोध और उत्पादन की क्षमता में क्रांतिकारी  बदलाव के संकेत मिले ।
27. साफ़ सफ़ाई और स्वच्छता को लेकर जागरुकता न केवल बढ़ी अपितु व्यवहार में भी परिवर्तित हुई । इस पर गंभीर लेखन कार्य भी बढ़ा ।
28. दूरस्थ शिक्षा संस्थानों एवं उनकी प्रणालियों का महत्व बढ़ा ।
29. प्रवासी भारतीय मजदूरों को लेकर भी साहित्य प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हुआ ।
30. करोना काल का पर्यावरण एवं प्रदूषण पर प्रभाव को लेकर भी कई शोध पत्र सामने आए जिनकी व्यापक चर्चा भी हुई ।
31. नए तकनीकी जुगाड इजाद होने लगे जिससे कम से कम खर्चे में अकादमिक गतिविधियों को संचालित किया जा सके या उनमें शामिल हुआ जा सके ।
32. फेसबुक, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया के लोकप्रिय माध्यम अकादमिक गतिविधियों के बड़े प्लेटफॉर्म बनकर उभरे ।
33. तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध कराने वाली बड़ी कंपनियों में स्पर्धा बढ़ी जिसका फायदा अकादमिक जगत को हुआ ।
34. ऑनलाईन लेनदेन की प्रवृति बढ़ी जिससे ऑनलाईन वित्तीय प्रबंधन और कॉमर्स को लेकर नए डेटा के साथ शोध कार्यों की अच्छी दखल देखने को मिली ।
35. रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में आयुर्वेदिक नुस्खे खूब पढ़े गए और वैश्विक स्तर पर इनपर नए शोध कार्यों की संभावना को बल मिला ।
36. पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर करोना काल के प्रभाव को लेकर समाज विज्ञान में नई अकादमिक बहसों और मान्यताओं/ संकल्पों इत्यादि की चर्चा जोर पकड़ने लगी ।
37. कई अनुपयोगी और बोझ बन चुकी सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं का अंत हो गया जिसे साहित्य की अनेकों विधाओं के माध्यम से लेखकों, चिंतकों ने सामने भी लाया ।
38. शिक्षक और विद्यार्थी अधिक प्रयोगधर्मी हुए ।
39. तकनीक के माध्यम से "टीचिंग टूल्स" का प्रयोग बढ़ा ।
40. शिक्षण प्रशिक्षण सामग्री का "इनपुट" और "आऊट पुट" दोनों बढ़ा ।
41. मौलिकता और कॉपी राईट को लेकर भी नए सिरे से अकादमिक गतिविधियों की शुरुआत हुई ।
42. शुद्धतावाद को किनारे कर के तमाम भारतीय भाषाओं ने दूसरी भाषा के कई शब्दों को आत्मसाथ किया । फ़िर इन शब्दों का भारतीयकरण होते हुए उसके कई रूप और अर्थ विकसित होने लगे ।
43. गोपनीय समूह भाषाओं और समूह गत आपराधिक भाषाओं में करोना काल के कई शब्दों का उपयोग बढ़ा जो अध्ययन और शोध की एक नई दिशा हो सकती है ।
44. सरकारी नीतियों और योजनाओं में आमूल चूल परिवर्तन हुए जो भविष्य की राजनीति और अर्थवयवस्थाओं के परिप्रेक्ष्य में किए गए । इनकी गंभीर और व्यापक चर्चा अर्थशास्त्र और वाणिज्य के क्षेत्र में शुरू हुई है ।
45. वैश्विक राजनीति की दशा और दिशा दोनों में बड़े व्यापक बदलावों की चर्चा भी राजनीति शास्त्र के नए अकादमिक विषय बने ।
46. भविष्य में शिक्षक और शिक्षण संस्थानों की स्थिति और उनकी भूमिका को लेकर भी गंभीर चर्चाएं शुरू हुई ।
47. देश में परीक्षा प्रणाली में सुधार और बदलाव दोनों को लेकर चर्चा तेज हुई ।
48. COVID 19  के विभिन्न पक्षों पर शोध के लिए सरकारी गैर सरकारी संगठनों / संस्थानों द्वारा आवेदन मंगाए गए ।
49. बड़े स्तर पर अकादमिक संस्थानों में आपसी ताल मेल बढ़ा ।
50. अंतर्विषयी संगोष्ठियों एवं शोध कार्यों को अधिक मुखर होने का मौका मिला ।

                       डॉ मनीष कुमार मिश्रा
                       के एम अग्रवाल महाविद्यालय
                       कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र
                       www.manishkumarmishra.com
                       manishmuntazir@gmail.com

Monday 18 May 2020

कोरोना काल में कविता

9. वे जा रहे हैं ।

मजबूर, असहाय और साधनहीन
हजारों स्त्री,पुरष, वृद्ध और बच्चे
सब चले जा रहे हैं
जाने की सबसे त्रासद
क्रिया के रूप में
जीवन व्याकरण की
जटिल संरचना के रूप में ।

भाषा के पास
उनके संबोधन के लिए
सिर्फ़ कुछ सर्वनाम हैं
जो अभागे विशेषणों से
त्राहि त्राहि कर रहे हैं
और संवेदनाएं
शिलाधर्मी होकर
आकाशधर्मिता का 
स्वांग रच रही हैं ।

मनुष्यता की पूरी संकल्पना
कितनी खोखली निकली
सारी शिक्षा, सारा ज्ञान
सिर्फ़ और सिर्फ़
कूड़े का कागज़ी ढेर
और विकास के सारे वादे
कागज़ की नाव ।

ऐसे समय में
बचे रहने की संभावनाओं को
ग्रहण लगा हुआ है
किसी कोरोना वायरस के कारण ही नहीं
मरते सपनों
हारते संकल्पों
और निकम्मी व्यस्थाओं के
खूनी पंजों में
आत्मविश्वास हारते
सर्वहारा के
टूटकर बिखर जाने से
बचे रहने की संभावनाओं को
ग्रहण लगा हुआ है ।

      --------------- डॉ मनीष कुमार मिश्रा
                        कल्याण ।

Thursday 30 April 2020

Webinar on Sufism and Qawali in Indian Subcontinent


Wednesday, 29 April 2020

अंतरराष्ट्रीय वेबिनार संबंधी पूर्ण जानकारी


हिन्दी विभाग
के एम अग्रवाल महाविद्यालय,कल्यण - महाराष्ट्र
                    अंतरराष्ट्रीय वेबिनार   
भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद और क़व्वाली की संस्कृति ।
( दिनांक : 15 मई 2020 )
प्रस्तावना :
        भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद की जड़ें उस इस्लामिक परमानंद प्राप्ति की उस शास्त्रीय परंपरा में है जो अरब और फ़ारस में 09 वीं से 11 वीं सदी के बीच विकसित हुई और धीरे-धीरे 12 वीं शताब्दी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में आयी । “तरीक़ा” और “तौहीद” के माध्यम से ईश्वर से एकाकार होने की सूफ़ी पद्धति लोकप्रिय हुई । “मकाम” इसका चरम स्थल है । भारतीय उपमहाद्वीप में चिश्तिया परंपरा बड़ी महत्वपूर्ण रही । सूफ़ी संत मोईनुद्दीन चिश्ती जो कि हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज़ के नाम से जाने जाते हैं वे अजमेर में सन 1236 के आस-पास आये । इसी परंपरा में काकी, बाबा फ़रीद और निज़ामुद्दीन औलिया जैसे अनेकों सूफ़ी संत हुए जिनसे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीयाना संस्कृति को बढ़ावा मिला ।
       सूफ़ीवाद सीखने से अधिक अनुभूति का विषय मानी गयी । “जीकर” और “समा” संगीत के माध्यम से सूफ़ी ईश्वर से एकाकार होने की राह में आगे बढ़ते हैं । “समा” के आयोजन में समय, स्थान और लोग इत्यादि को लेकर नियम रहे हैं । पूरे  भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी कलाओं की संगीतमय प्रस्तुति क़व्वाली की पहचान बन गयी । नृत्य का सूफियों के यहाँ कोई बुनियादी स्वरूप नहीं मिलता । “समा” के समय पागलों की तरह नाचना, चिल्लाना इत्यादि आत्मा की छटपटाहट मानी गयी है । ऐसी अवस्था को “हाल” कहते हैं । ऐसी अनुभूतियों के लिए तैयार होने में क़व्वाली सहायक होती है । क़व्वाली की भाषा आत्मा की भाषा मानी जाती रही है ।
      समय के साथ पूरी सूफ़ी परंपरा में बड़े बदलाव हुए । क़व्वाली भी दरगाहों और ख़ानकाहों से निकलकर एक व्यवसाय के रूप में बढ्ने लगी । इन्हीं सब स्थितियों, परिस्थितियों का गंभीर अकादमिक अध्ययन व विवेचना इस अंतरराष्ट्रीय वेबिनार का मुख्य उद्देश्य है ।

शोधपत्र के लिए उप विषय :
1.  सूफ़ी परंपरा का इतिहास और क़व्वाली
2.  सूफ़ी संप्रदायों का इतिहास
3.  सूफ़ी परंपरा में स्त्रियाँ
4.  सूफ़ी दर्शन
5.  सूफियों पर इस्लाम का प्रभाव
6.  भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी परंपरा
7.  सूफियों पर भारतीय दर्शन का प्रभाव
8.  सूफियों पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव
9.  भक्तिकाल और सूफ़ी
10.  भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी संगीत
11.  क़व्वाली का इतिहास
12.  अमीर खुसरो और क़व्वाली
13.  भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख क़व्वाल
14.  ख़ानकाहों के क़व्वाल बनाम व्यावसायिक क़व्वाल
15.  क़व्वाली का व्यवसायीकरण
16.  कव्वालों की वर्तमान दशा
17.  फिल्मों में क़व्वाली का रूप
18.  भारतीय उपमहाद्वीप की विभिन्न भाषाओं में क़व्वाली
19.  क़व्वाली के विभिन्न रूप
20.  क़व्वाली से जुड़े शोध कार्य
21.  क़व्वाली और सूफ़ीवाद का भविष्य
22.  क़व्वाली का आर्थिक पक्ष
23.  क़व्वाली गायकी और महिला क़व्वाल
24.  क़व्वाली के घराने
25.  उर्स और क़व्वाली
ऐसे ही किसी अन्य विषय पर शोधपत्र पूर्व अनुमति के साथ तैयार किया जा सकता है । शोध आलेख हिन्दी और अँग्रेजी में भेजे जा सकते हैं । शोध आलेख 2000 शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिए । हिन्दी के शोध आलेख यूनिकोड मंगल में ही होने चाहिए । अँग्रेजी के आलेख टाइम्स रोमन में ही हो । फॉन्ट साइज 12 ही रखें । आलेख की वर्ड फाइल ईमेल द्वारा भेजें । आलेख के अंत में अपना नाम, पद नाम और संपर्क की अन्य जानकारी अवश्य लिखें । आलेख निम्नलिखित ईमेल पर ही भेजें : sufismwebinar@gmail.com
              चुने गये शोध आलेखों को ISBN पुस्तक के रूप में यथासमय प्रकाशित किया जायेगा । फ़िर भी इस संदर्भ में अंतिम निर्णय का पूरा अधिकार महाविद्यालय को होगा ।
              इस वेबिनार के लिए किसी प्रकार का कोई पंजीकरण शुल्क नहीं लिया जायेगा । लेकिन पंजीकरण पत्र भरना अनिवार्य है । पंजीकरण पत्र भरने के लिए निम्नलिखित लिंक पर जायें :              https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSdMfsKfTny0Mr9ruSM6OZBdJwSI2lNqfPpCSo5KTM6aLpTllQ/viewform?usp=sf_link
इस वेबिनार से संबंधित सारी जानकारी निम्नलिखित ब्लॉग पर उपलब्ध रहेगी ।

संयोजक                                           प्राचार्या
डॉ मनीष कुमार मिश्रा                              डॉ अनिता मन्ना