Friday 16 August 2013

रिक्त स्थानों की पूर्ति


                    










                        

                         हिंदी के प्रश्न पत्र में
                         “रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिये”- वाला प्रश्न
                         बड़ा आसान लगता था
                         उत्तर    
                         या तो मालूम रहता या फ़िर
                         ताक-झाक के पता कर लेता
                         सर जी की नजरें बचा के
                         किसी से पूछ भी लेता
                         और रिक्त स्थानों की पूर्ति हो जाती
                         लेकिन आज
                         ज़िंदगी की परीक्षाओं के बीच
                         लगातार महसूस कर रहा हूँ कि –
                         ज़िंदगी में जो रिक्तता बन रही है
                         उसकी पूर्ति
                         सबसे कठिन,जटिल और रहस्यमय है
                         इन रिक्त स्थानों में
                         यादों का अपना संसार है
                         जो भरमाता है
                         लुभाता है,सताता है
                         और सुकून भी देता है
                       इनसे भागता भी हूँ और
                       इनके पास ही लौटता भी हूँ
                       इनहि में रचता और बसता भी हूँ
                       फ़िर चाहता यह भी हूँ कि
                       इन रिक्तताओं में
                       पूर्ति का कोई नया प्रपंच भी गढ़ूँ
                       लेकिन कुछ समझ नहीं पता
                       किसी अँधेरे कुएं में
                       उतरती सीलन भरी सीढ़ियों की तरह
                       बस उतारते जाता हूँ
                       अपने जीवन से
                       एक-एक दिन का लिबाज़
                       पूर्ति की इच्छाओं के बीच
                       और अधिक रिक्त हो जाता हूँ ।
                        
                        

                    

Sunday 11 August 2013

उसे जब देखता हूँ


                     







                     
                     



                      
                     उसे जब देखता हूँ
                     तो बस देखता ही रह जाता हूँ
                     उसमें देखता हूँ
                     अपनी आत्मा और शरीर का विस्तार
                     अपने सपनों का सारा आकाश
                     साकार से निराकार तक की
                     कर लेता हूँ सम्पूर्ण यात्रा
                     बुझा लेता हूँ
                     आँखों की प्यास
                     और जगा लेता हूँ
                     अपनी साँसों में आस
                     कभी लिख तो नहीं पाया मैं
                     सौंदर्य की कोई परिभाषा लेकिन
                     तुम से मिल के समझ गया हूँ कि
                     ऐसी कोई परिभाषा
                     तुम्हारे बिना अधूरी ही रहेगी
                     मानो सुंदरता को भी पूर्ण होने के लिए
                     तुम्हारी ज़रूरत है
                     तुम जब भी पूछती हो कि –
                     “ मैं कैसी लगती हूँ ?”
                   मैं मानता हूँ कि
                   तुम्हें उस सौंदर्य की तलाश होती है
                   जो बसती है मेरी आँखों में
                   सिर्फ़ तुम्हारे लिए
                   वो समर्पण का भाव
                   जिसकी हक़दार
                   सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम रही हो
                   खींच के देखती हो
                   उस रिश्ते की गाँठ को
                   जिसका नाम है – विश्वास
                   इसलिए उसके सवाल के जवाब में
                   हमेशा कहता हूँ –
                   सुंदर, बहुत ही सुंदर
                   और यह सुन
                   मुस्कुरा देता है
                   तुम्हारा पूरा शरीर
                   तुम्हारा मन
                   और मुझे लगता है
                   मैंने तुम्हारे अंदर
                   ख़ुद को
                   थोड़ा और सार्थक कर लिया
                   क्योंकि तुम्हारा प्यार
                    मेरी सार्थकता है ।
                             -------------- Dr. Manish Kumar Mishra  

साँप पे कुछ संकलित कवितायें

साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--
विष कहाँ पाया?
             ----------  अज्ञेय

फुंकरण कर, रे समय के साँप
कुंडली मत मार, अपने-आप।

सूर्य की किरणों झरी सी
यह मेरी सी,
यह सुनहली धूल;
लोग कहते हैं
फुलाती है धरा के फूल!

इस सुनहली दृष्टि से हर बार
कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार!

मैं करूँ वरदान सा अभिशाप
फुंकरण कर, रे समय के साँप !

क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख।
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप।

किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज
नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर!
इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास
बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर।
कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितान्त अभाव
प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव

चल कि बलि पर हो विजय की माप।
फंकुरण कर, रे समय के साँप।।
                  ---------माखनलाल चतुर्वेदी

(1)

हम एक लम्बा साँप हैं
जो बढ़ रहा है ऐंठता-खुलता, सरकता, रेंगता।
मैं-न सिर हूँ (आँख तो हूँ ही नहीं)
दुम भी नहीं हूँ

' न मैं हूँ दाँत जहरीले।
मैं-कहीं उस साँप की गुंजलक में उलझा हुआ-सा
एक बेकस जीव हूँ।
ब गल से गु जरे चले तुम जा रहे जो,
सिर झुकाये, पीठ पर गट्ठर सँभाले

गोद में बच्ची लिये
उस हाथ से देते सहारा किसी बूढ़े या कि रोगी को-
पलक पर लादे हुए बोझा जुगों की हार का-
तुम्हें भी कैसे कहूँ तुम सृष्टि के सिरताज हो?

तुम भी जीव हो बेबस।
एक अदना अंग मेरे पास से हो कर सरकती
एक जीती कुलबुलाती लीक का
जो असल में समानान्तर दूसरा

एक लम्बा साँप है।
झर चुकीं कितनी न जाने केंचुलें-
झाडिय़ाँ कितनी कँटीली पार कर के बार-बार,
सूख कर फिर-फिर

मिलीं हम को जिंदगी की नयी किस्तें
किसी टुटपुँजिये
सूम जीवन-देवता के हाथ।
तुम्हारे भी साथ, निश्चय ही

हुआ होगा यही। तुम भी जो रहे हो
किसी कंजूस मरघिल्ले बँधे रातिब पर!

(2)

दो साँप चले जाते हैं।
बँध गयी है लीक दोनों की।
यह हमारा साँप-हम जा रहे हैं
उस ओर, जिस में सुना है

सब लोग अपने हैं;
वह तुम्हारा साँप-
तुम भी जा रहे हो, सोचते निश्चय, कि वह तो देश है जिस में
सत्य होते सभी सपने हैं।
यह हमारा साँप-

इस पर हम निछावर हैं।
जा रहे हैं छोड़ कर अपना सभी कुछ
छोड़ कर मिट्टी तलक अपने पसीने-ख़ून से सींची
किन्तु फिर भी आस बाँधे

वहाँ पर हम को निराई भी नहीं करनी पड़ेगी,
फल रहा होगा चमन अपना
अमन में आशियाँ लेंगे।
वह तुम्हारा साँप-

उस को तुम समर्पित हो।
लुट गया सब कुछ तुम्हारा
छिन गयी वह भूमि जिस को
अगम जंगल से तुम्हारे पूर्वजों ने ख़ून दे-दे कर उबारा था

किन्तु तुम तो मानते हो, गया जो कुछ जाय-
वहाँ पर तो हो गया अपना सवाया पावना!

(3)

यह हमारा साँप जो फुंकारता है,
और वह फुंकार मेरी नहीं होती
किन्तु फिर भी हम न जाने क्यों
मान लेते हैं कि जो फुंकारता है, वह

घिनौना हो, हमारा साँप है।
वह तुम्हारा साँप-तुम्हें दीक्षा मिली है
सब घृण्य हैं फूत्कार हिंसा के
किन्तु जब वह उगलता है भा फ जहरीली,

तुम्हें रोमांच होता है-
तुम्हारा साँप जो ठहरा!

(4)

उस अमावस रात में-घुप कन्दराओं में
जहाँ फौलादी अँधेरा तना रहता है
खड़ी दीवार-सा आड़ कर के
नीति की, आचार, निष्ठा की

तर्जनी की वर्जना से
और सत्ता के असुर के नेवते आयी
बल-लिप्सा नंगी नाचती है :
उस समय दीवार के इस पार जब छाया हुआ होगा

सुनसान सन्नाटा उस समय सहसा पलट कर
साँप डस लेंगे निगल जाएँगे-
तुम्हें वह, तुम जिसे अपना साँप कहते हो
हमें यह, जो हमारा ही साँप है!

(5)

रुको, देखूँ मैं तुम्हारी आँख,
पहचानूँ कि उन में जो चमकती है-
या चमकनी चाहिए क्योंकि शायद
इस समय वह मुसीबत की राख से ढँक कर

बहुत मन्दी सुलगती हो-
तड़पती इनसानियत की लौ-
रुको, पहचानूँ कि क्या वह भिन्न है बिलकुल
उस हठीली धुकधुकी से
 
जनम से ही जिसे मैं दिल से लगाये हूँ?
रुको, तुम भी करो ऊँचा सीस, मेरी ओर
मुँह फेरो-करो आँखें चार झिझक को
छोड़ मेरी आँख में देखो,
नहीं जलती क्या वहाँ भी जोत-

काँपती हो, टिमटिमाती हो, शरीर छोड़ती हो,
धुएँ में घुट रही हो-
जीत वैसी ही जिसे तुम ने
सदा अपने हृदय में जलती हुई पाया-

किसी महती शक्ति ने अपनी धधकती महज्ज्वाला से छुला कर
जिसे देहों की मशालों में
जलाया!

(6)

रुकूँ मैं भी! क्यों तुम्हें तुम कहूँ?
अपने को अलग मानूँ? साँप दो हैं
हम नहीं। और फिर
मनुजता के पतन की इसी अवस्था में भी

साँप दोनों हैं पतित दोनों
तभी दोनों एक!

(7)

केंचुलें हैं, केंचुले हैं, झाड़ दो!
छल-मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो!
साँप के विष-दाँत तोड़ उखाड़ दो!
आजकल का चलन है-सब जन्तुओं की खाल पहने हैं-
गले गीदड़-लोमड़ी की,

बाघ की है खाल काँधों पर
दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से
हाथ में थैला मगर की खाल का
और पैरों में-जगमगाती साँप की केंचुल

बनी है श्री चरण का सैंडल
किन्तु भीतर कहीं भेड़-बकरी,
बाघ-गीदड़, साँप के बहुरूप के अन्दर
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पता है

सनातन मानव-खरा इनसान-
क्षण भर रुको तो उस को जगा लें!
नहीं है यह धर्म, ये तो पैतरे हैं उन दरिन्दों के
रूढि़ के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ा कर

जो विचारों पर झपट्टा मारते हैं-
बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें!
साथ आओ-गिलगिले ये साँप बैरी हैं हमारे
इन्हें आज पछाड़ दो यह मकर

की तनी झिल्ली फाड़ दो
केंचुले हैं केंचुले हैं झाड़ दो!
              -----------------समानांतर साँप / अज्ञेय




एक साँप, धीरे से जा बैठा दिल मे...
बोला, जगह नही है आस्तीन के बिल मे....
कहने लगा, मैं अब संत हो चुका हूँ...
सारा ज़हेर अपना, कबका खो चुका हूँ....
मैने बोला, साँप हो कहाँ सुधरोगे....
जब भी उगलोगे, ज़हेर ही उगलोगे....
वो बोला, साप हूँ तभी तो जी रहा हूँ...
बड़ी देर से, तुम्हारे दिल का ज़हेर पी रहा हूँ....
देखो मेरा रंग जो हरा था, अब नीला है...
अरे आदमी...तुम्हारा ज़हेर तो मेरे ज़हेर से भी ज़हरीला है....
                        -------http://dilkikalam-dileep.blogspot.in/2010/04/blog-post_16.html
                             दिलीप /



Tuesday 6 August 2013

Announcing 4th Winter School

INDIAN INSTITUTE OF ADVANCED STUDY
Rashtrapati Nivas, Shimla 171 005
Announcing 4th Winter School
On
LIFE AND THOUGHT OF GANDHI
Over the last three decades the scholastic, intellectual, political and social interests in Gandhiji’s
life and thought has acquired a new urgency and depth. Gandhiji’s writings like An Autobiography
Or The Story of My Experiments with Truth and Hind Swaraj have been subject of minute textual,
philosophical and literary studies. The theory and practice of Satyagraha, constructive work and
the institutions that Gandhiji established have come to be studied by historians, political theorists
and commentators and chroniclers of social movements. Lives of Gandhiji’s associates and
interlocutors like Mahadev Desai, J C Kumarrapa, Mirabehn, C F Andrews and Lanza Del Vasto
have added to our understanding of Gandhiji. As a result of these studies our understanding of
Gandhiana has emerged deeper, richer and nuanced.
The Winter School seeks to acquaint the participant to this variegated intellectual tradition of
thinking of and about Gandhiji. The School would seek to provide a non-fragmentary
understanding of Gandhiji’s life and thought. Quite often we have come to look at political Gandhi
as quite distinct from the Gandhi of the constructive work or see Gandhiji’s spiritual quest as
distinct from his quest for Swaraj. The School would try to unravel the underlying relationship
between seemingly disparate practices, utterances and writings. With this in view a Two week
Winter School is proposed to be held at Indian Institute of Advanced Study, Shimla during 20
November-4 December 2013.
The Winter School will be conducted by Professor Tridip Suhrud, Director, Sabarmati Ashram,
Ahmedabad and other eminent scholars from several disciplines who will explore various aspects
of Gandhi’s life and thought.
Applications are invited from young College and University teachers/researchers from Humanities
and Social Sciences/Journalist/NGO activist in the age group of 22 to 35 years.
A batch of 25 participants will be selected from amongst the applicants. Those interested may send
their bio-data (that should include their academic qualification, experience, research interest and
area of specialization) along with the note of 200-250 words regarding how they perceive life and
thought of Gandhi.
All expenses will be borne by the IIAS. Applications may be sent by e-mail at
iiasschool@gmail.com which must reach IIAS by 15th September 2013. Those selected will be
informed by 15th October 2013. The decision of the Institute in selection of candidates to attend the
Winter School would be final and no correspondence in this regard would be entertained.

Sunday 4 August 2013

तुमसे दोस्ती का मतलब है



 तुमसे दोस्ती का मतलब है
 उन सभी सपनों से प्रेम
 जो मैं देखता हूँ
 जिन्हें मैं जीता हूँ ।

   तुमसे दोस्ती
  सम्मोहन की लंबी यात्रा है
  जीवन में आस्था है
  पल प्रति पल
  सहिष्णुता का संकल्प है ।

 तुमसे दोस्ती
 खुद को सुंदर बनाने की कोशिश है
 समर्पण की विजय मुद्रा है
 संबंधों के बीच
 विश्वास का चिर अनुबंध है ।

  तुमसे दोस्ती
  भावनाओं का परिष्कार है
  खुद का परितोष,परिमार्जन है
  अभिलाषा का
  अप्रतिम लालित्य है ।

  इस दोस्ती के लिए
   दोस्त
   तुम्हारा ऋणी हूँ ।





Friday 2 August 2013

तुमसे जुड़ी हर बात को

मैंने पूछा -
       तुम्हें याद है
        जब तुमने ही कहा था कि
        --------------------------------।
उसने कहा-
        नहीं याद है
        वैसे भी तुमसे इतनी बातें होती हैं
         कि सब याद रखना मुश्किल है ।
मैंने कहा -
          चलो अच्छा है
          सब याद रखोगी तो परेशान रहोगी
          मेरी तरह
          वैसे भी
          मैं तो हूँ हि
          तुमसे जुड़ी हर बात को
          याद रखने के लिए।
          

Thursday 1 August 2013

INTERNATIONAL CONFERENCE IN MUMBAI ON 22-23 AUGUST 2013



Conference on Financial Frauds



K.M.Agrawal College of Arts, Commerce & Science, Kalyan is pleased to announce UGC Sponsored Two Day National Conference on “Financial Frauds in India : Causes, Consequences and Measures”. The Conference will be held  between the 23rd and the 24th of August 2013. This is a unique chance for the academician, industrialist, research scholars and student community to assemble and discuss the financial fraud related issues, recent trends, technological, operational and legislative developments and the challenges that are faced by the society.
The conference will consist of a variety of special sessions devoted for discussions on financial, service Sector, Non financial and other frauds in India. It will also include competitive sessions which consist of presentations of research papers accepted following a double-blind review process. For further details contact, Principal, Dr. Anita Manna (9820981698) and Conference Convener Dr. Mahesh Bhiwandikar (9819701025)

Tuesday 30 July 2013

राष्ट्रीय सेमिनार दलित कविता: अस्मिता और प्रतिरोध की संस्कृति

राष्ट्रीय सेमिनार
दलित कविता: अस्मिता और प्रतिरोध की संस्कृति  
(23-24 जुलाई 2013)
बीज-वक्तव्य (Concept Note)
       समकालीन कविता ने अपना एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है जिसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारतीय परिदृश्य पर दलित कविता ने अपनी उपस्थिति दर्ज करके सामाजिक संवेदना में बदलाव की प्रक्रिया तेज की है। दलित कविता के इस स्वरूप ने निश्चित ही भारतीय मानस की सोच को बदला है।                           
       दलित कविता आनन्द या रसास्वादन की चीज नहीं है। बल्कि कविता के माध्यम से मानवीय पक्षों को उजागर करते हुए मनुष्यता के सरोकारों और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना है। मनुष्य और प्रकृति, भाषा और संवेदना का गहरा रिश्ता है, जिसे दलित कविता ने अपने गहरे सरोकारों के साथ जोडा है।
       दलित कविता ने अपनी एक विकास – यात्रा तय की है, जिसमें वैचारिकता, जीवन-संघर्ष, विद्रोह ,आक्रोश, नकार, प्रेम, सांस्कृतिक छदम, राजनीतिक प्रपंच,वर्ण- विद्वेष, जाति के सवाल ,साहित्यिक छल आदि विषय बार –बार दस्तक देते हैं, जो दलित कविता की विकास –यात्रा के विभिन्न पड़ाव से होकर गुजरते हैं।
       दलित कवि के मूल में मनुष्य होता है, तो वह उत्पीड़न और असमानता के प्रति अपना विरोध दर्ज करेगा ही। जिसमें आक्रोश आना स्वाभाविक परिणिति है। जो दलित कवि की अभिव्यक्ति को यथार्थ के निकट ले जाती है। उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं, जो कविता में छिपते नहीं हैं, बल्कि स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होते हैं। दलित कविता का जो प्रभाव और उसकी उत्पत्ति है, जो आज भी जीवन पर लगातार आक्रमण कर रही है। इसी लिए कहा जाता है कि दलित कविता मानवीय मूल्यों और मनुष्य की अस्मिता के साथ खडी है।
       जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं, वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकल्पनीय लगता है। इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक्ष में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है, जिसे अभिव्यक्त करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है। भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठत्व पाता है। लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठत्व दासता और गुलामी का प्रतीक है। जिसके लिए हर पल दलित को अपने ‘स्व’ की ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक स्थितियों से गुजरना पड़ता है।
      हिन्दी आलोचक कविता को जिस रूप में भी ग्रहण करें और साहित्यिक मापदंडों से उसकी व्याख्या करें, लेकिन दलित जीवन की त्रासद स्थितियां उसे संस्पर्श किये बगैर ही निकल जाती हैं। इसी लिए वह आलोचक अपनी बौद्धिकता के छदम में दलित कविता पर कुछ ऎसे आरोपण करता है कि दलित कविता में भटकाव की गुंजाईश बनने की स्थितियां  उत्पन्न होने की संभावनायें दिखाई देने लगती हैं। इसी लिए दलित कविता को डा.अम्बेडकर के जीवन-दर्शन, अतीत की भयावहता और बुद्ध के मानवीय दर्शन को हर पल सामने रखने की जरूरत पडती है, जिसके बगैर दलित कविता का सामाजिक पक्ष कमजोर पडने लगता है।
      समाज में रचा- बसा ‘विद्वेष’ रूप बदल–बदल कर झांसा देता है। दलित कवि के सामने ऎसी भयावह स्थितियां निर्मित करने के अनेक प्रमाण हर रोज सामने आते हैं, जिनके   बीच अपना रास्ता ढूंढना आसान नहीं होता है। सभ्यता ,संस्कृति के घिनौने सड़यंत्र लुभावने शब्दों से भरमाने का काम करते हैं। जहां नैतिकता, अनैतिकता और जीवन मूल्यों के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है,फिर भी नाउम्मीदी नहीं है। एक दलित कवि की यही कोशिश होती है कि इस भयावह त्रासदी से मनुष्य स्वतंत्र होकर प्रेम और भाईचारे की ओर कदम बढाये, जिसका अभाव हजारों साल से साहित्य और समाज में दिखाई देता रहा है।
      दलित कविता निजता से ज्यादा सामाजिकता को महत्ता देती है। इसी लिए दलित कविता का समूचा संघर्ष सामाजिकता के लिए है। दलित कविता का सामाजिक यथार्थ ,जीवन संघर्ष और उसकी चेतना की आंच पर तपकर पारम्परिक मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह और नकार के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही उसका केन्द्रीय भाव भी है, जो आक्रोश के रूप में दिखाई देता है। क्योंकि दलित कविता की निजता जब सामाजिकता में परिवर्तित होती है, तो उसके आंतरिक और बाहय द्वंद्व उसे संश्लिष्टता प्रदान करते हैं। यहां यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी आलोचक अपने इर्द-गिर्द रचे–बसे संस्कारिक मापदंडो, जिसे वह सौन्दर्यबोध कहता है, से इतर देखने का अभ्यस्त नहीं है। इसी लिए उसे दलित कविता कभी अपरिपक्व लगती है, तो कभी सपाट बयानी, तो कभी बचकानी भी। दलित कविता की अंत:धारा और उसकी वस्तुनिष्ठता को पकड़ने की वह कोशिश नहीं करना चाहता है। यह कार्य उसे उबाऊ लगता है। इसी लिए वह दलित कविता से टकराने के बजाए बचकर निकल जाने में ही अपनी पूरी शक्ति लगा देता है।
      दलित चेतना दलित कविता को एक अलग और विशिष्ट आयाम देती है। यह चेतना उसे डा. अम्बेडकर जीवन–दर्शन और जीवन संघर्ष  से मिली है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक छदमों से सावधान करती है। यह चेतना संघर्षरत दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चेतना है जो हजारों साल से दलित को मनुष्य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्रेष्ठता मानता रहा है। इसी लिए एक दलित कवि की चेतना और एक तथाकथित उच्चवर्णीय कवि की चेतना में गहरा अंतर दिखाई देता है। सामाजिक जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना से मनुष्य प्रभावित होता है। वहीं से उसके संस्कार जन्म लेते हैं और उसकी वैचारिकता, दार्शनिकता ,सामाजिकता, साहित्यिक समझ प्रभावित होती हैं। कोई भी व्यक्ति अपने परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। इसी लिए कवि की चेतना सामाजिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब बन कर उभरती है। जो उसकी कविताओं में मूर्त रूप में प्रकट होती है। इसी लिए दलित जीवन पर लिखी गयी रचनाएं जब एक दलित लिखता है और एक गैर दलित लिखता है तो दोनों की सामाजिक चेतना की भिन्नता साफ–साफ दिखाई देती है। जिसे अनदेखा करना हिन्दी आलोचक की विवशता है। यह जरूरी हो जाता है कि दलित कविता को पढते समय दलित–जीवन की उन विसंगतियों, प्रताडनाओं, भेदभाव, असमानताओं को ध्यान में रखा जाये, तभी दलित कविता के साथ साधारणीकरण की स्थिति उत्पन्न होगी।
       हिन्दी के कुछ विद्वानों, आलोचकों को लगता है कि दलित का जीवन बदल चुका है। लेकिन दलित कवि और साहित्यकार अभी भी अतीत का रोना रो रहे हैं और उनकी अभिव्यक्ति आज भी वहीं फुले, अम्बेडकर, पेरियार के समय में ही अटकी हुई है। यह एक अजीब तरह का आरोप है। आज भी दलित उसी पुरातन पंथी जीवन को भोग रहा है जो अतीत ने उसे दिया था। हां चन्द लोग जो गांव से निकल शहरों और महानगरों में आये ,कुछ अच्छी नौकरियां पाकर उस स्थिति से बाहर निकल आये हैं, शायद उन्हीं चन्द लोगों को देख कर विद्वानों ने अपनी राय बनाली है कि दलितों के जीवन में अंतर आ चुका है। लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। महानगरों में रहने वालों की वास्तविक स्थिति वैसी नहीं है जैसी दिखाई दे रही है। यदि स्थितियां बदली होती तो दलितों को अपनी आईडेंटीटी छिपा कर महानगरों की आवासीय कालोनियों में क्यों रहना पडता। वे भी दूसरों की तरह स्वाभिमान से जीते, लेकिन ऎसा नहीं हुआ। समाज उन्हें मान्यता देने के लिए आज भी तैयार नहीं है।
       शहरों और महानगरों से बाहर ग्रामीण क्षेत्रों में दिन रात खेतों, खलिहानों, कारखानों में पसीना बहाता दलित जब थका-मांदा घर लौटता है, तो उसके पास जो है वह इतना कम है कि वह अपने पास क्या जोड़े और क्या घटाये, कि स्थिति में होता है। ऊपर से सामाजिक विद्वेष उसकी रही सही उम्मीदों पर पानी फेर देता है। इसी लिए अभावग्रस्त जीवन से उपजी विकलताओं, जिजिविषायें दलित कवि की चेतना को संघर्ष के लिए उत्प्रेरित करती हैं, जो उसकी कविता का स्थायी भाव बनकर उभरता है। और दलित कविता में दलित जीवन और उसकी विवशतायें बार-बार आती हैं। इसी लिए कवि का ‘मैं ‘हम’ बनकर अपनी व्यक्तिगत, निजी चेतना को सामाजिक चेतना में बदल देता है। साथ ही मानवीय मूल्यों को गहन अनुभूति के साथ शब्दों में ढालने की प्रवृत्ति भी उसकी पहचान बनती है।
       दलित कविता को मध्यकालीन संतों से जोड़कर देखने की भी प्रवृति इधर दिखाई देती है। जिस पर गंभीर और तटस्थ विवेचना की आवश्यकता है। संत काव्य की अध्यात्मिकता, सामाजिकता और उनके जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता के साथ डॉ॰ अंबेडकर के मुक्ति –संघर्ष से उपजे साहित्य की अंत:चेतना का विश्लेषण करते हुए ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। जो समकालीन सामाजिक संदर्भो के लिए जरूरी लगता है, जिस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है।
      दलित कविता में आक्रोश, संघर्ष, नकार, विद्रोह, अतीत की स्थापित मान्यताओं से है। वर्तमान के छदम से है, लेकिन मुख्य लक्ष्य जीवन में घृणा की जगह प्रेम, समता, बन्धुता, मानवीय मूल्यों का संचार करना ही दलित कविता का लक्ष्य है।