Friday 23 July 2010

ढहता रहा जहाँ , मेरा विश्वास देखते रहे /

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
ऐ जिंदगी तेरा खुमार देखते  रहे

जलजला गुजर रहा भूमि पे जहां हैं खड़े   
ढहता रहा जहाँ मेरा
विश्वास देखते  रहे  















Thursday 22 July 2010

तेरे सिने में बुझी राख थी /

कल तक तो तू मेरा था
आज क्यूँ तेरी बातों में अँधेरा था
क्यूँ धुंध है दिल में वहां 
 जहाँ कल तक मेरा बसेरा था

चमकती चांदनी में कितनी आग थी
सुबह रक्तिम सूरज में भी छावं थी 
क्या खोया मन ने तेरे 
तेरे सिने में बुझी राख थी / 



Monday 19 July 2010

बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला

बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला
बहु बेटो ने समझा कुछ देर के लिए ही सही अजार चला

कांपते पग चौराहे पे भीड़
वाहनों का कारवां और उनकी चिग्घाडती गूँज
खस्ताहाल  सिग्नल बंद पड़ा
रास्ता भी गड्ढों से जड़ा था

हवालदार कोने में कमाई में जुटा चाय कि चुस्किया लगा रहा
 छोर पे युवकों का झुण्ड जाने वालों कि खूबसूरती सराह रहा

 चौराहा का तंत्र बदहवाल  था
उसके कदमों में भी कहाँ सुर ताल था
तादात्म्यता जीवन कि बिठाते बिठाते
जीवन के इस मोड़ पे अकेला पड़ा था

लोग चलते रुकते दौड़ते थमते
एक मुस्तैद संगीतकार कि धुन कि तरह
अजीब संयोजन कि गान कि तरह
दाहिने हाथ के शातिर खिलाडी के बाएं हाथ के खेल की तरह
केंद्र और राज्य के अलग सत्तादारी पार्टियों के मेल की तरह
चौराहा लाँघ जाते फांद जाते

 उसके ठिठके पैरों कि तरफ कौन देखता
८० बसंत पार उम्रदराज को कौन सोचता
निसहाय सा खड़ा था
ह्रदय द्वन्द से भरा था

 मन में साहस भरा कांपते पैरों में जीवट
हनुमान सा आत्मबल और जीवन का कर्मठ
 युद्धस्थल में कूद पड़ा था वो
किसी और मिट्टी का बना था वो



हार्न  की चीत्कार
गाड़ियों की सीत्कार
परवा नहीं थी साहसी को
वो पार कर गया चौराहे की आंधी को

सहज सी मुस्कान लिए वो चला अगले युद्धस्थान के लिए
हर पल बदलती  जिंदगी के  नए फरमान के लिए /

विवेकी राय जी का नया उपन्यास -बनगंगी मुक्त है .भाग १


विवेकी राय जी का जन्म १९२७ में हुआ.आप हिंदी और भोजपुरी साहित्य में काफी प्रसिद्ध  रहे.आप उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक छोटे से गाँव  सोनवानी से हैं.आप ने ५० से अधिक पुस्तकें लिखीं .आप को कई पुरस्कार भी प्राप्त हुवे.सोनामाटी आप का मशहूर उपन्यास रहा.  महापंडित  राहुल  संकृत्यायन  अवार्ड  सन  २००१ में और   उत्तर  प्रदेश ' का यश  भारती  अवार्ड  सन  २००६ में आप को मिला . 
  आप क़ी प्रमुख कृतियाँ है 
  • मंगल  भवन 
  • नमामि  ग्रामं 
  • देहरी  के  पार 
  • सर्कस
  • सोनामाटी
  • कालातीत 
  • गंगा जहाज 
  • पुरुस  पुरान
  • समर  शेष  है 
  • फिर  बैतलवा  डार  पर 
  • आम  रास्ता  नहीं  है 
  • आंगन  के  बन्दनवार 
  • आस्था  और  चिंतन 
  • अतिथि 
  • बबूल 
  • चली  फगुनहट  बुरे  आम 
  • गंवाई  गंध  गुलाब 
  • जीवन  अज्ञान  का  गणित  है 
  • लौटकर  देखना 
  • लोक्रिन 
  • मनबोध  मास्टर  की  डायरी 
  • मेरे  शुद्ध  श्रद्धेय 
  • मेरी   तेरह  कहानियां 
  • नरेन्द्र  कोहली  अप्रतिम   कथा  यात्री 
  • सवालों  के  सामने 
  • श्वेत  पत्र 
  • यह  जो  है   गायत्री 
  • कल्पना  और  हिंदी  साहित्य , .
  • मेरी  श्रेष्ठ  व्यंग्य  रचनाएँ , 1984.
 २००१ में विश्विद्यालय प्रकाशन ,वाराणसी  से आपका एक नया उपन्यास प्रकाशित हुआ है -बनगंगी मुक्त है .
 बनगंगी मुक्त है -विवेकी राय 
 (ग्राम -जीवन के प्रति समर्पित एक अनुपम कृति )
                               विवेकी राय जी द्वारा लिखित उपन्यास ''बनगंगी मुक्त है '' ग्राम जीवन को समर्पित अपने आप में एक बेजोड़ रचना है .विवेकी राय जी ग्रामीण जीवन क़ी तस्वीर खीचने में महारत हासिल कर चुके हैं.प्रस्तुत उपन्यास नई खेती,चकबंदी ,ग्रामसभा,चुनाव और आजादी के बाद लगातार बढ़ रही मतलब परस्ती ,लालफीता शाही ,भाई-भतीजावाद  और अवसरवादिता को प्रमुखता से रेखांकित करता है .मूल्यों (  values) और कीमत (praize) के बीच के संघर्स को भी उपन्यास में सूत्र रूप में सामने रखा गया है.सहजता और सरलता के साथ-साथ  सजगता भी उपन्यास में बराबर  दिखाई पड़ती है .आंचलिक उपन्यासों क़ी तर्ज पर अनावश्यक विस्तार को महत्त्व नहीं दिया गया है. एक परिवार क़ी कथा को गाँव और उसी को पूरे देश क़ी तत्कालीन (१९७२)परिस्थितियों से जोड़ने का काम विवेकी राय जी ने बड़े ही सुंदर तरीके से किया है . 
                                ''बनगंगी मुक्त है '' क़ी पृष्ठभूमि १९७२ क़ी है .उपन्यास में उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले बलिया और गाजीपुर का चित्रण अधिक हुआ है .हम जानते हैं क़ी १९४७ में आजादी मिलने के बाद ,इस देश क़ी आम जनता को सरकार से कई उम्मीदे थी.''सब क़ी आँखों के आंसूं पोछने का दावा'' लाल किले की प्राचीर से करने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरु देश के प्रधानमंत्री थे.जनता को विश्वाश था क़ि रोटी,कपडा और मकान का सपना हर एक का साकार हो  जाएगा .सब क़ी आँखों में सपने पूरे होने क़ी चमक थी.लेकिन ये सारी उम्मीदें आजादी के १० साल में ही दम तोड़ने लगी.जनता अपने आप को ठगा हुआ महसूस करने लगी .बढती फिरकापरस्ती,अवसरवादिता और कुंठा ने जनता को यह एहसास दिला दिया क़ि,'' १५ अगस्त १९४७ को आजादी के नाम पर जो कुछ भी हुआ वह सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण (exchange of power) था .'' वास्तविक आजादी तो हमे अभी तक मिली ही नहीं.
                              जनता के बीच बढ़ रही इसी हताशा ,कुंठा,निराशा और आत्म-केन्द्रीयता (self-centralisation) ने हिंदी कथा साहित्य में ''नई कहानी आन्दोलन '' क़ि नीव रखी .कमलेश्वर,राजेन्द्र यादव ,मोहन-राकेश,मार्कण्डेय और अमरकांत जी जैसे कथाकार यंही से यथार्थ क़ि ठोस भाव-भूमि पर लिखना शुरू करते हैं.यंही से ''कथ्य '' और ''शिल्प'' दोनों ही स्तरों पर परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं.इस आन्दोलन क़ि उम्र यद्यपि  छोटी रही लेकिन सम-सामयिक परिस्थितियों के वास्तविक स्वरूप को कथा साहित्य में चित्रित करने क़ि जो परम्परा शुरू हुई वह  हिंदी साहित्य में लगातार किसी ना किसी रूप में बनी रही .
                             प्रस्तुत उपन्यास के केंद्र में रामपुर नामक एक गाँव है ,जो बलिया या गाजीपुर के आस-पास का हो सकता है.इसी गाँव में एक प्रतिष्ठित किसान परिवार है . परिवार में तीन भाई हैं.सबसे बड़े भाई धर्मराज हैं.मझले भाई त्रिभुवननाथ और छोटे गिरीश बाबू .इन तीन भाइयों के माध्यम से उपन्यासकार ने ३ अलग-अलग विचार धारावों को सामने लाया है .

Friday 16 July 2010

अकेलापन और रिश्ता

अकेलापन और हो तन्हाई                            
किसी कि याद भी आई
न ये मोहब्बत न  अपनेपन  कि निशानी है
ये बस खाली लम्हों  की  कहानी है

न काम से हो फुरसत खुशियाँ हो और हो रौनक
सोचो किसी को तुम याद आये कोई  हरपल 
ये है अपनापन है  इस रिश्ते में तेरा मन
इसमे मोहब्बत है  और इस रिश्ते को है नमन /






                                                                      

Thursday 15 July 2010

मोहब्बत जवानी

हंसती कली
महकती फली
बरसती बुँदे
सुलगती यादें

गरजती लिप्सा
दहकती  आशा
बदलती सीमायें
बहकती निष्ठाएं

प्यार या पिपासा
रिश्ते औ निराशा
अधीर कामनाएं
लरजती वासनाएँ


उलझा  भाव
अधुरा लगाव
चंचल मन 
प्यासा तन 

सामाजिक सरोकार 
रोकता संस्कार 
 मंजिल व गंतव्य 
झूलता मंतव्य 

बड़ती चेष्टाए 
ढहती मान्यताएं 
लगन दीवानी 
मोहब्बत जवानी 


काम प्रबल 
भावों में बल 
टूटता  बंधन 
आल्हादित आलिंगन 

Wednesday 14 July 2010

अपनो की नाप तोल में दिल को ना तोड़ना

सच्चाई  की राह  को अच्छाई से तराशना 
हो सके तो झूठ  की अच्छाई  तलाशना 

भविष्य की राह में भूत न भूलना कभी 
दूर दृष्टि ठीक है पर आज भी संभालना

रिश्तों की खीचतान में  अपनो को सहेजना
मुश्किलों के खौफ में  मोहब्बत ना छोड़ना 

कोई कहे कुछ भी प्यार  एक  खुदायी है 
जिंदगी  की नाप तोल में  दिल को  ना तोड़ना







होली न खेला दिवाली न मनायी ,बस ढूढता रहा अधेरों में परछाई

होली न खेला दिवाली न मनायी
बस ढूढता रहा अधेरों में परछाई
बारिश हुई जम के ठंडी का भी  जोर
तू नहीं तो हर मंजर कठोर


चाँद ताकता अमावास कि रात में
तारे गिनता मै बरसात में
दोस्तों कि महफिलों में न लगी कोई जान
तू ही मेरी धड़कन तू ही मेरी जान


चूल्हा नहीं जला न इस घर को कोई चैन
सन्नाटा है पसरा हर कमरा एकदम मौन
अलमारी के तेरे कपडे रखता हूँ घर में साथ  
रहती है तेरी खुसबू  तू  लगती है मेरे पास  

घर का आइना रहता बड़ा उदास
तेरी खुबसूरत आखों का वो भी है दास
घर कि टी. वी. भी तबसे ना चली 
उसको लगती है तेरी संगत भली

अब इस घर में मिलती नहीं राहत
इस दरो दीवार को तेरी छाया कि है चाहत
तेरे लबों कि चाह में मै हो रहा पागल
इस नशेमन का शौक तू तू ही मेरी आदत


त्राहि त्राहि कर रहा रोम रोम प्यास से
व्याकुल तड़पता मन मेरा तेरे इक आभास को
जल्द आ अब तू कटते नहीं ये पल
तड़प रही है जिंदगी वक़्त करने लगा है छल









Tuesday 13 July 2010

फ़ैली है आग हार तरफ धधक रहा शहर

फ़ैली है आग हार तरफ धधक रहा शहर
गलती है ये किसकी चल रही बहस
नेता पत्रकार टी.वी वालों का हुजूम है
जानो कि परवा किसे  दोषारोपण का दौर है

चीख रहे हैं लोग अरफा तरफी है हर तरफ
कहीं तड़प   रहा बुडापा कहीं कहरता हुआ बचपन
चित्कारती आवाजें झुलसते हुए बदन 
किसपे  लादे दोष ये चल रहा मंथन

बह रही हवा अपने पूरे शान से
अग्नि देवता हैं अपनी आन पे
लोंगों कि तू तू मै मै है या मधुमख्खिओं का शोर है
हो रहा न फैसला ये किसका दोष है

कलेजे से चिपकाये अपने लाल को
चीख रही है माँ उसकी जान को
जलते हुए मकाँ में कितने ही लोग हैं
कोशिशे अथाह पर दावानल तेज है
धूँये से भरा पूरा आकाश है
पूरा प्रशासन व्यस्त कि इसमे किसका हाथ है

आया किसी को होश कि लोग जल रहे
तब जुटे सभी ये आग तो बुझे
आग तो बुझी हर तरफ लाशों का ढेर है
पर अभी तक हो सका है ना फैसला इसमे किसका दोष है

हाय इन्सान कि फितरत या हमारा कसूर है
हर कुर्सी पे है वो जों कामचोर हैं
बिठाया वहां हमने जिन्हें  बड़े धूम धाम से
वो लूट रहे हैं जान बड़े आन बान से




Monday 12 July 2010

इनायत खुदा की कि प्यार का जज्बा दिया

न खुशियों की तलाश
 न बदन की कोई प्यास
मोहब्बत की पूरे दिल से
ये जज्बा खुदा का खास



मेरी आखों के पानी को न देखो
मेरी बरबादिओं की रवानी को न देखो
देखो इश्क का जूनून जों दौड़े है रग रग में
मेरे  हंसी  यार की बेवफाई को न देखो

                                                                             
गम का नहीं है गम मुझे
ये मोहब्बत की तासीर हो  
तेरा सच तो कह देता
भले ये मेरी आखिरी तारीख हो 



इनायत खुदा की कि प्यार का जज्बा दिया 
मेहरबानी तेरी तुने प्यार को रुसवा किया 
सच ये है कि तू है मेरी जिंदगी 
क़त्ल कर या कर हलाल ये दिल तुझे सजदा किया 

                                                                           





मंदिरों की घंटियाँ चीत्कार सी लगी /

                                                   
     सुबह में बोझिलता थी
मौसम में आकुलता
    दिल में तड़प थी
दिखती न मंजिल न सड़क थी
सोया  था मै हार के
    जागा था मन मार के
उगता सूरज मौसम साफ़
    दिल था पर उदास


कोकिला की कूक भी काक सी लगी
मंदिरों की घंटियाँ चीत्कार सी लगी


मृत जवानों का ढेर था
        नक्सालियों का ये खेल था
खूं से जमीं लाल थी
       दरिंदगी खूंखार थी
गृहमंत्री को खेद था
      उनका खूं सफ़ेद था


भोपाल का फैसला न्याय की हार थी
दोष थे खूब बंट रहे इन्साफ की न राह थी


कश्मीर सुलग रहा  
   अलगाववाद फिर पनप रहा
लोग यहाँ मर रहे
  नेता बहस कर रहे

चैनल सेक रहे T.R.P. नेता अपना स्वार्थ
लोग मरे या मरे शहर पैसा यहाँ यथार्थ


वोट की नीति ही सबसे बड़ी है नीति
वोट ही प्रीती है वोट की ही है रीती

वोट है धंधा कुर्सी पैसे की खान
देश से क्या लेना देना सबको चाहिए बड़ा मकान