Saturday 22 May 2010

abhilasha-1001

      

international hindi blooger meet in delhi

''आनर किलिंग'' बंद करो गदहों !!!!/Honour Killings in India

''आनर किलिंग'' बंद करो गदहों !!!!

           पिछले कई दिनों से दिल में आग लगी हुई थी . समाचार पत्रों और मीडिया चैनलों के माध्यम से देश भर में मध्यम वर्गीय परिवारों के बीच ''आनर किलिंग '' क़ी खबरें खून में उबाल ला रही थीं .
         अपने ही बेटे-बेटी क़ी निर्ममता पूर्वक हत्या सिर्फ इस लिए कर देना  क्योंकि वह प्यार करता है या करती है , इसे सही कहने वाले निकम्मों और नालायकों को क्या कहूं ?
              मध्यवर्ग जैसा स्वार्थी,लोभी ,भीरु ,मौकापरस्त और झूठा कोई और हो ही नहीं सकता . झूठी शानो-शौकत के लिए यह वर्ग मानवता का भी खून कर सकता है . शर्म आती है अपने आप पर यह सोच कर क़ि मैं भी इसी समाज का एक हिस्सा हूँ. यह बात दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए भी शर्म की ही है . राधा-कृष्ण को पूजने वाला यह देश किस गर्त में जा रहा है ?
            मैं सभी लोगों से हाथ जोड़ के यही विनती करना चाहता हूँ क़ि ,''समाज,परम्परा ,रीति -रिवाज ,मान-अपमान और झूठी प्रतिष्ठा की वेदी पर अपने मासूम बच्चों की बलि मत दो.प्रेम से बड़ा ना कोई धर्म है और ना ही काम ''
                प्रेम तो मानवता का आधार है ,इसका गला घोंट कर क्या शैतानो की दुनिया बनाना चाहते हो ?
  

ओम प्रकश पांडे''नमन'' जी अब हिंदी ब्लागिंग क़ी दुनिया से जोड़े जा चुके हैं .



हिंदी ब्लागिंग करने के साथ-साथ हमारी एक कोशिस यह भी रहती है क़ि हम हिंदी से जुड़े अच्छे और सजग रचनाकारों को भी इस प्रक्रिया से जोड़ें .
 इसी कड़ी में भाई ओम प्रकश पांडे''नमन''  जी अब हिंदी ब्लागिंग क़ी दुनिया से जोड़े जा चुके हैं . आप उनके ब्लॉग http://namanbatkahi.blogspot.com/2010/05/blog-post.हटमल पर जाकर उनके विचारो से अवगत हो सकते हैं. 
   मुझे पूरा विश्वाश है क़ि आप को उनका ब्लॉग जरूर पसंद आएगा . नमन क़ी बतकही में सहमति का साहस और असहमति का विवेक आप को हमेशा दिखाई देगा .
 उन्ही क़ी एक कविता आप लोगों के लिए 
 
भले बाँट दो तुम हमें सरहदों में
    भले बाँट दो तुम हमें मजहबों में
    भले खीँच दो तुम लकीरें जमीं पर
    नहीं बाँट पाओगे दिल को हदों में !

    नहीं बाँट पाओगे तुम इन गुलों को 
    यहाँ भी खिलेंगे वहां भी खिलेंगे
    नहीं बाँट पाओगे तुम चाँद तारे
    ये यहाँ भी उगेंगे वहां भी उगेंगे !

     जहाँ तक चलेंगी ये ठंडी हवाएं
     जहाँ तक घिरेंगी ये काली घटायें
    जहाँ तक मोहब्बत का पैगाम जाये
    जहाँ तक पहुंचती हैं मेरी सदायें !

    वहां तक न धरती गगन ये बंटेगा
    वहां तक न अपना चमन ये बंटेगा
    न तुम बाँट पाओगे  मेरी मोहब्बत
    न तुम बाँट पाओगे ये दिलकी दौलत!
              भले बाँट दो तुम जमीं ये हमारी
              नहीं बंट सकेंगी हमारी दुवायें !

     कभी देश बांटे, कभी प्रान्त   बांटे
     कभी बांटी नदियाँ, कभी खेत बांटे 
     खुदा ने बनाया था सिर्फ एक इन्सान 
     मगर मजहबों ने है इंसान बांटे !
               मेरी प्रार्थना है न बांटो दिलों को
               न बोवो दिलों में ए नफरत के कांटे!!      

Thursday 13 May 2010

तू आज कौन है मेरा भले कभी तू मेरा महबूब था ?

मेरे आहत मन से बने ,मेरी तल्ख़ आवाज से बुने ,
मेरे सवालों पे बड़ी शालीनता से पूंछा तेरा सवाल खूब था ;
तू आज कौन है मेरा भले कभी तू मेरा महबूब था ?



न ही आज तू मेरे किसी काम न आज तेरा कोई रसूख था ,
आज मेरे खैरख्वाह हैं बहुत, क्या तेरा वक़्त तेरे करीब था ?
आवाक था , पर उसका ये सवाल भी मुझे अजीज था ;

मेरे आहत मन से बने ,मेरी तल्ख़ आवाज से बुने ,
मेरे सवालों पे तेरा बड़ी शालीनता से पूंछा सवाल खूब था ;
तू आज कौन है मेरा भले कभी तू मेरा महबूब था ?


मुस्कराते आंसुओं से उसको दी दुवाएं और रुखसत हुआ
राहों में उदासियों ने संबल और काटों ने सुकून दिया ,

मेरी दिल की धड़कन आज मै अपना ही अतीत था ;
मेरे जनाजे को रौंदा उसने जों मेरा सबसे करीब था /


मेरे आहत मन से बने ,मेरी तल्ख़ आवाज से बुने ,
मेरे सवालों पे बड़ी शालीनता से पूंछा तेरा सवाल खूब था ;
तू आज कौन है मेरा भले कभी तू मेरा महबूब था ?

Sunday 9 May 2010

मेरा दिल है बावरा तेरी मुलाकात के लिए ,

मेरा दिल है बावरा तेरी मुलाकात के लिए ,

सिने में जलती मशाल है तेरे प्यार के लिए ;

सोचों में दिन गुजरा यादों में रात ,

मेरी आखें सुनी है तेरे इक ख्वाब के लिए /

Friday 7 May 2010

हवाओं से बात करता रहा मैं /

हवाओं से बात करता रहा मैं ;

आखें बिछा रखी थी राहों में ,

आसमान ताकता रहा मैं ;

कान तरसते रहे चन्द बोल उनके सुने ,

काटों बीच खुसबू तलाशता रहा मैं ;

सुबह फिजाओं से हाल उनका पूंछा ,

भोर की किरणों में उनको पुकारता रहा मैं /

हवाओं से बात करता रहा मैं ;

Thursday 6 May 2010

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,

खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए ,

इंतजार अब भी है उसको की वो पलट आएगा ,

क्या जानता था वो की उसका प्यार बदल जायेगा /

दबी हुई आशाओं से अब लड़ पड़ता है वो ;

क्या पता था की निराशाओं से ना लड़ पायेगा /

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,
खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए ,

उस दिल को कभी मोहब्बत सिखाया था उसने ,

उस हंसी के इश्क से दिल के हर कोने को सजाया था उसने ;

उस गुदाज बदन को कभी भावों से संवारा था उसने ,

क्या जानता था वो अनजान बन यूँ ही निकल जायेगा ,

क्या जानता था उसके दिल में पत्थर भी बसाया था उसने ;

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,

खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए /

अमरकांत का प्रकीर्ण साहित्य

अमरकांत का प्रकीर्ण साहित्य :-
      अमरकांत ने गंभीर कहानियों एवम् उपन्यासों के अतिरिक्त कुछ बाल साहित्य तथा प्रौढ नवसाक्षर लोगों के लिए भी कुछ छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी हैं। उन्हीं में से कुछ का हम यहाँ संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे।
1) झगरू लाल का फैसला :-
      'कृतिकार` प्रकाशन द्वारा 1997 में प्रकाशित 23 पृष्ठों की यह पुस्तक बढ़ती जनसंख्या की समस्या को लेकर लिखी गयी है। यह पुस्तक कराड़ों साधारण लोगों के बीच परिवार कल्याण की योजनाओं को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से लिखी गयी है।
      इसमें झगरू और मगरूलाल नामक दो भाईयों की कहानी है जो पिता की मृत्यु के उपरांत अलग हो जाते हैं। झगरू अपना परिवार बढ़ाता जाता है जिसके कारण आर्थिक संकटों में फसा रहता है। मगरू और उसकी पत्नी परिवार नियोजन के उपयों को अपनाते हैं और दो से अधिक बच्चे नहीं होने देते। इस कारण वे झगरू की अपेक्षा अधिक अच्छा जीवन यापन करते हैं।
      पुस्तक का संदेश यही है कि हमें अपने परिवार को छोटा रखना चाहिए तथा लड़के लड़की के बीच कोई भेद नहीं मानना चाहिए।
2) सुग्गी चाची का गाँव :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा यह लघु उपन्यास 1998 में प्रकाशित हुआ। 23 पृष्ठों का यह लघु उपन्यास अशिक्षा और अंधविश्वासों के विरूद्ध चलाए गए संघर्ष व आंदोलन की कथा है। ग्रामीण पाठकों के लिए मुख्य रूप से लिखा गया यह लघु उपन्यास अतिशय संक्षिप्त एवम् सरल भाषा में हैं। 
      इस लघु उपन्यास के केन्द्र में सुग्गी चाची हैं जो एक छोटे से गाँव में रहती हैं। पर उस गाँव में सुविधाओं का अभाव है। सुग्गी चाची गाँव में स्कूल और अस्पताल खुलवाने के लिए प्रयत्न करती हैं। पहले लोग उनका साथ नहीं देते पर धीरे-धीरे लोग सुग्गी चाची के बात समझते हैं और उनके प्रयास में उनका साथ देते हैं।
3) खूँटा में दाल है :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा सन् 1991 में प्रकाशित यह 32 पृष्ठों का एक लघु बाल उपन्यास है। इसमें एक छोटी सी चिड़िया के संघर्ष की कहानी को बड़े ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
      इस पुस्तक में 'धीरा` नाम की एक चिड़िया की कहानी है। जो दाल का एक दाना खूँटे मंे रखकर खाना चाहती थी कि खूँटा व दाल हड़प लेता है। धीरा ने बढ़ई से खूँटे की शिकायत की, बढ़ई की शिकायत राजा से और राजा की शिकायत रानी से की। रानी ने भी उसकी बात नहीं मानी। फिर धीरा ने रानी की शिकायत साँप से और साँप की शिकायत लाठी से की।
      इस पर भी धीरा का काम नहीं बना। पर उसने हिम्मत नहीं हारी। लाठी की शिकायत आग से, आग की समुद्र से और समुद्र की शिकायत उसने हाथी से की। इस पर भी जब काम न बना तो उसने हाथी की शिकायत जाल और जाल की शिकायत चूहे से की। चूहे ने धीरा के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए उसकी मदद की।
      इस तरह अंत में चिड़िया को उसकी दाल मिल जाती है। इस लघु बाल उपन्यास का संदेश यही है कि हमें हिम्मत न हाते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए।
4) एक स्त्री का सफर :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा ही सन 1996 में प्रकाशित 22 पृष्ठों की यह पुस्तक अशिक्षा, अंधविश्वास और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में होने वाले भयंकर रोगों के प्रति हमें सजग बनाते हुए भविष्य के प्रति हमें आशान्वित भी करती हैं।
      इस पुस्तक में सरोस्ती नामक एक विकलाँग स्त्री की कहानी है। बचपन में वह पोलियो का शिकार हो गयी थी। उसे अपनी विकलाँगता के कारण कई बार अपमानित भी होना पड़ा था। पर उसने पढ़ने का निर्णय लिया और पढ़कर शिक्षिका बन गई। उसने अपना सारा जीवन औरतों की शिक्षा एवम् विकास में लगाने का प्रण किया था।
      इस तरह इस पुस्तक के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि शिक्षा ग्रहण करके हर कोई अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। स्वावलंबी बनकर, समाज में प्रतिष्ठा के साथ जीवन यापन कर सकता है।
5) वानर सेना :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा यह बाल उपन्यास 1992 में प्रकाशित हुआ। यह 32 पृष्ठों का है। सन 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन` के दौरान बलिया के बच्चों ने भी वानर सेना बनाकर इस लड़ाई मे हिस्सा लिया। उसी का रोचक वर्णन इस लघु बाल उपन्यास में है।
      कहानी मुंशी अम्बिका प्रसाद के लड़के केदार से शुरू होती है। उसके बड़े भाई निर्मल की एक पुस्तक उसने चोरी से पढ़ी। वह गाँधी जी की आत्मकथा थी। केदार इससे बहुत प्रभावित हुआ और उनकी तरह बनने की ठान लेता है।
      अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर वह छोटा सा पुस्तकालय शुरू करवाता है। स्कूल में हड़ताल करवाने में अहम भूमिका निभाता है। शहर में पोस्टर चिपकाता है। इसी तरह के कई कार्यो का वर्णन इस लघु बाल उपन्यास में है।
      इस बाल उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बलिया के छोटे-छोटे बच्चों द्वारा किये गये क्रांतिकारी कार्यो का वर्णन किया है।
      इसी तरह की कई अन्य पुस्तकें भी अमरकांत ने लिखी है। बाल साहित्य का हिस्सा होते हुए भी ये बड़ी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। खासकर तब जब कोई अमरकांत के संपूर्ण रचनात्मक व्यक्तित्व की पड़ताल करना चाहता हो। 'वानर सेना` को पढ़कर यह आसानी से समझा जा सकता है कि 'इन्हीं हथियारों से` जैसा उपन्यास लिखने की प्रेरणा बीज रूप में अमरकांत के मन मंे बहुत पहले से ही था। 'वानर सेना` और 'इन्हीं हथियारों से` की पृष्ठभूमि में बलिया का वही आंदोलन है।
      इस तरह समग्र रूप से अमरकांत की कहानियों, उपन्यासों, संस्मरण और प्रकीर्ण साहित्य को देखने के पश्चात हम कह सकते हैं कि अमरकांत का रचना साहित्य बहुत बड़ा है। वे अभी तक लगातार अपने रचना संसार को बढ़ाने में लगे हैं।
      अमरकांत का साहित्य अपने समय का जीवंत दस्तावेज है। उनकी कहानियाँ उन्हें प्रेमचंद के समकक्ष प्रतिष्ठित करती हैं तो 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यास महाकाव्यात्मक गरिमा से युक्त हैं। 'सुरंग` जैसे उपन्यास समाज के परिवर्तन के साथ आग बढ़ने की प्रेरणा से युक्त हैं। 'आकाश पक्षी` जैसे उपन्यास बदलती सामाजिक व्यवस्था में होनेवाले परिवर्तन का बड़ा ही गंभीर और सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत करते हैं।
      समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत का पूरा साहित्य हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर है। विशेष तौर पर आजादी के बाद के देश के सबसे बड़े वर्ग ''निम्न मध्यमवर्गीय समाज`` के जीवन में निहित सपनों, दुखों, परिवर्तनों और प्रगति की सूक्ष्म विवेचना अमरकांत के साहित्य में मिलती है। अमरकांत का साहित्य इन्हीं संदर्भो में 'भारतीय` है और यथार्थ की जमीन से जुड़ा हुआ है।

कुछ यादें कुछ बातें/amerkant

कुछ यादें कुछ बातें :-
      कहानियों एवम् उपन्यासों के अतिरिक्त अमरकांत द्वारा लिखी गयी यह एकमात्र संस्मरणात्मक पुस्तक है। 147 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन 'राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.` द्वारा सन् 2005 में हुआ।
      इस पुस्तक में अमरकांत में कई साक्षात्कारों, समय-समय पर छपे आलेखों एवम् संस्मरणों को संकलित किया गया है। अमरकांत के व्यक्तित्व एवम् साहित्यिक यात्रा को समझने में यह पुस्तक बड़ी ही सहायक है। इसमें अमरकांत के बचपन से लेकर सफल साहित्यकार बनने तक की सारी बातों का बड़े ही रोचक तरीके से वर्णन किया गया है।
      इसके अतिरिक्त रामविलास शर्मा, प्रकाशचन्द गुप्त, अमृतराय, रांगेय राघव, नामवर सिंह, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, डॉ. जगदीश गुप्त जैसे कई साहित्यकारों एवम् समीक्षकों से अपनी मुलाकातों का जिक्र अमरकांत ने विस्तार के साथ किया है। साथ ही साथ इनमें से कइयों के साहित्य एवम् विचारधारा के संदर्भ में अपना अभिमत भी अमरकांत ने व्यक्त किया है।
      साहित्य, समाज, राजनीति आदि विषयों पर अमरकांत के विचारों से अवगत होने में यह पुस्तक महत्वपूर्ण है। ऐसे विषयों पर अमरकांत ने कुछ कहने से अक्सर ही अपने को बचाया है। जो कुछ कहा भी है वह कही एक जगह संग्रहित रूप से मिलना मुश्किल था। पर इस पुस्तक ने इस मुश्किल को समाप्त कर दिया।
      समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि 'कुछ यादें कुछ बातें` अमरकांत के विचारों एवम् उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने में बड़ी उपयोगी है।

लहरें -अमरकांत का नया उपन्यास /amerkant

लहरें -अमरकांत का नया उपन्यास  :-
      अमरकांत का यह उपन्यास अभी पुस्तकाकार रूप में नहीं छपा है। इसका प्रकाशन कादम्बिनी पत्रिका के उपहार अंक-1 में अक्तूबर, 2005 में प्रकाशित हुआ। लेकिन यह उपन्यास, अमरकांत की कथा यात्रा का एक प्रमुख एवम् महत्वपूर्ण पड़ाव है। अत: अमरकांत के उपन्यासों की चर्चा मंे 'लहरें ` की चर्चा बड़ी आवश्यक है।
      इस उपन्यास के संदर्भ में अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''इस दुनिया में स्त्री और पुरूष परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। वे बनावट और प्रकृति में भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोगी, सहभागी एवम् संपूरक हैं। उनके मेल से ही एक संपूर्ण संसार बनता है और दूसरा नया संसार निर्मित होने की भूमिका तैयार होती है। स्पष्ट है कि किसी सामाजिक प्रगति या नये समाज के निर्माण में इनका परस्पर स्वैच्छिक, मनपसंद सहयोग एवं सहभागिता जरूरी है परंतु आज के भारतीय समाज में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन जनतांत्रिक अधिकार, सुरक्षा, न्याय आदि के मामलों में स्त्रियों की प्राप्तियाँ वांछित अनुपात से बहुत ही कम हैं, अत: दोनों के परस्पर संबंधों के संदर्भ में अमूमन स्त्रियों के विरूद्ध इतना असंतुलन, जोर-जबर्दस्ती, पाखंड, उत्पीड़न, अन्याय तथा हिंसा है।............ कुछ बातें तो मैंने उस समय देखी या सुनी थीं, जब मेरी उम्र बीस वर्ष भी नहीं थी। ....... वर्षो पहले 1995 में भीष्म साहनी का एक पत्र पाकर मैंने इसी समस्या पर एक लंबी कहानी लिखने की कोशिश की थी किंतु सफलता नहीं मिली। अब उक्त कथा लघु उपन्यास के रूप में प्रस्तुत है। नारी-पुरूष संबंधों के अनेक रूप एवम् आयाम हैं, जिन पर लेखक लोग लिखते ही रहते हैं। यह एक रचनात्मक कृति है और इसमें नारी-पुरूष संबंधों के कुछ रूप तथा नारी समाज के आंदोजित मन की एक झलक प्रतिबिंबित है।``43
स्त्री विमर्श की चर्चा आज जोरों पे है। ऐसे में यह उपन्यास समय के साथ अमरकांत की कदमताल का प्रतीक है। वे एक सजग साहित्यकार है। स्त्री के शोषण एवम् उसके अधिकारों को लेकर वे लगातार लिखते रहे हैं। 'सुरंग` भी इसी लेखन की एक अगली कड़ी है।
      'लहरें ` बच्ची देवी नामक एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका विवाह श्यामा प्रसाद नामक एक नौकरी पेशा पढ़े लिखे व्यक्ति से होती है। लेकिन शादी के बाद जब श्यामा प्रसाद को पता चलता है। लेकिन शादी के बाद जब श्यामा प्रसाद को पता चलता है कि उसकी पत्नी निपट गवार, भुच्चड़, भुख्खड़ और सिर्फ दो कक्षा तक पढ़ी है तो वह गुस्से में उसे माँ-बाप के पास ही छोड़कर शहर चला आता है। उसके पिता उसे समझाने की पूरी कोशिश करते हैं पर वह किसी की एक नहीं सुनता।
      श्यामा प्रसाद को शादी के पहले बताया गया था कि बच्ची देवी पढ़ी लिखी, सुंदर और संस्कारों वाली लड़की है। पर विवाह के बाद उसे समझ में आ जाता है कि उससे झूठ बोला गया था। अत: वह अपनी पत्नी को गाँव छोड़कर शहर में रहने लगा था। पर एक दिन उसे अपने पिताजी का पत्र मिलता है। पत्र में उन्होंने लिखा था कि अब वे अपने अंतिम दिन गिन रहे हैं। वे अब बच्ची देवी का खयाल नहीं रख सकते। अत: वह आकर अपनी पत्नी को अपने साथ ले जाये। फिर भले ही उसे शहर लाकर मार डाले। इस पत्र को पढ़कर श्यामा प्रसाद को पिताजी पर दया आयी और वह अपनी पत्नी को अपने साथ गाँव से शहर लेकर आया।
      बच्ची देवी के आ जाने पर उसके मोहल्ले की स्त्रियाँ उससे मिलने को आतुर हो उठती हैं। कारण यह था कि श्यामा प्रसाद अभी तक अकेले रहते थे, तो मोहल्ले की औरतों को घूरना, अजीब तरह से इशारे करना आदि ऐसी ही बातों के कारण वे स्त्रियों के बीच चर्चा का विषय रहते थे। अब जब उनकी पत्नी आ जाती है तो सब स्त्रियाँ यह जानने को उत्साहित हो जाती है कि ऐसे आवारा और झैला बनकर घूमने वाले व्यक्ति की स्त्री आखिर कैसी है?
      धीरे-धीरे मोहल्ले भर के लोगों को पता चल जाता है कि श्यामा प्रसाद की औरत निपट गवार है और श्यामा प्रसाद हमेशा उसे डॉटता ही रहता है। बच्ची देवी की जान पहचान धीरे-धीरे मोहल्ले की सुमित्रा, सरोजबाला और विमला जैसी स्त्रियों से हो जाता है। सुमित्रा जब बच्ची देवी से मिलती है और उसकी बातें सुनती है तो उसे यह एहसास हो जाता है कि ग्रामीण समाज में स्त्रियों की दशा कितनी दयनीय है। उनका कितना शोषण होता है। वे अपने को कितना दीन-हीन और गिरा हुआ समझती हैं। जब बच्ची देवी कहती है कि, ''ए बहिनी, छोड़ो इन बातों को.... सच तो यह है, मर्द चाहे जैसा हो, स्त्री का भरण-पोषण तो उसी से होता है। मर्द से ही तो स्त्री की जिनगी है, मर्द ही उसका सहारा है, उसकी इज्जत है। न होने से तो अच्छा है शराबी, रंडीबाज, ऐवी, अंधा, कोढ़ी, लूला कोई भी मर्द हो।....``44 तो सुमित्रा जी की आँखों से भी आँसू गिरने लगते हैं।
      सुमित्रा उसे खूब समझाती है। मोहल्ले की स्त्रियों द्वारा बनायी गयी मंडली में आने के लिए कहती हैं। पढ़ने-लिखने, कपड़े पहनने और खाना किस तरह परोसना चाहिए जैसी सभी बातें उसे सिखाती हैं। बच्ची देवी भी पूरा मन लगारक सब सीखती है। वह अपने आप को बदलने की कोशिश करने लगती है। परिणाम स्वरूप उसका उठना-बैठना, बात-व्यवहार सब बदलने लगता है।
      पर श्यामा प्रसाद को अपनी पत्नी का यह बदला हुआ रूप बिलकुल पसंद नहीं आता है। जब उसे यह मालूम पड़ता है कि उसकी पत्नी पढ़ना और सिलाई का काम सीख रही है तो वह गुस्से से लाल हो जाता है। वह बच्ची देवी को घर से बाहर निकाल देता है। जब मोहल्ले की औरतों को यह पता चलता है कि बच्ची देवी के साथ श्यामा प्रसाद ने अन्याय किया है तो वे सब बच्ची देवी को साथ लेकर श्यामा प्रसाद पहुँँचती हैं।
      लेकिन बिस्तर पर पड़े श्यामा प्रसाद की हालत देखकर वे डर जाती हैं। डाक्टर बुलाये जाते हैं। पता चलता है कि उन्हें हल्का दिल का दौरा पड़ा था। धीरे-धीरे श्यामा प्रसाद की हालत में सुधार होता है। उनका व्यवहार बच्ची देवी के प्रति नरम एवम् सामान्य है। पर बच्ची देवी के मन में एक डर बना रहता है कि कहीं पूरी तरह ठीक हो जाने के बाद श्यामा प्रसाद पुन: अपना 'मर्दानापन` न दिखाने लगा। अमरकांत का यह उपन्यास बच्ची देवी के मन में निहित आशंका के साथ ही समाप्त हो जाता है।
      अमरकांत का यह उपन्यास जिन संदर्भो में नया है वह यह कि पहली बार अमरकांत का कोई पात्र बदलाव की प्रक्रिया से जुड़कर अपनी स्थिति को बदलने की चेेष्टा करता हुआ दिखायी पड़ रहा है। 'बच्ची देवी` ऐसी ही एक पात्र है। अन्यथा अमरकांत के बारे में अक्सर यह कहा गया कि, ''जीवन के संबंध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का जो आभास अमरकांत के एक रूपी कथानकों ने शुरू में देना शुरू किया था, वह अब एक तरह से ठहरा हुआ अनुभव-बोध-सा लगने लगा है।``45
      अमरकांत का यह उपन्यास निश्चित तौर पर स्त्रियों के स्वावलंबन और समाज में पुरूषों के बराबर अधिकार की वकालत करते हुए उन्हें संगठित रूप से अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा प्रदान करता है। इस उपन्यास का शीर्षक 'लहरें स्त्रियों को जीवन में अशिक्षा, गरीबी, परावलंबन और शोषण रूपी अंधेरे के बीच से शिक्षा, संगठन, अधिकार, स्वावलंबन और आत्मसम्मान की सुरंग से निकलते हुए समाज अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराने के लिए प्रेरित करता सा मालूम पड़ता हैं।