इस दुनिया की हम क्यों माने?
गुनाह इश्क को क्यों जाने ?
दिल की बातो को आखिर ,
क्यों कर सब से हम छुपायें ?
अपनी मर्जी से अपना जीवन ,
बोलो क्यों ना जी पायें ?
लगी लगी है दिलमे जो ,
आखिर उसको क्यों न बुझाएँ ?
जिसको प्यार किया है मैंने ,
उससे क्यों ये हाल छुपायें ?
Friday 12 February 2010
हिंदी में संचालन का शौख/part 2
अपने पहले पोस्ट --- हिंदी में संचालन का शौख/part 1 के माध्यम से कुछ उम्दा काव्य पंक्तियाँ और शेर पहुचाने की जो जिम्मेदारी मैंने ली थी ,उसी कड़ी में कुछ और शेर और काव्य पंक्तियाँ यंहा दे रहा हूँ. आशा और विश्वाश है की आप को ये पसंद आएँगी .
सच की राह पे बेशक चलना ,पर इसमें नुकसान बहुत है
उन राहों पे ही चलना मुश्किल,जो राहें आसन बहुत हैं.
***********************
मेरा दुःख ये है की मैं अपने साथियों जैसा नहीं हूँ,
मैं बहादुर तो हूँ लेकिन,हारे हुए लश्कर में हूँ .
******************
हमे खबर है की हम हैं चिरागे-आखिरी -शब्,
हमारे बाद अँधेरा नहीं उजाला है.
*********************
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते,
जब सवाल ही गलत थे तो जवाब क्या देते .
**********************
बीते मौसम जो साथ लाती हैं
वो हवाएं कंहा से आती हैं
*****************
कोई सनम तो हो ,कोई अपना खुदा तो हो
इस दौरे बेकसी में ,कोई अपना आसरा तो हो
****************
क्यों न महके गुलाब आँखों में,
हम ने रखे हैं ख़्वाब आँखों में .
**********************
हम तेरी जुल्फों के साए को घटा कहते हैं
इतने प्यासे हैं की क्या कहना था ?क्या कहते हैं ?
******************
मेरी ख्वाइश है की फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं की बच्चा हो जाऊं
*****************
आदमी खोखले हैं पूस के बदल की तरह ,
सहर मुझे लगते हैं आज भी जंगल की तरह .
*********************
जिन्दगी यूं भी जली ,जली मीलों तक
चांदनी चार कदम,धूप चली मीलों तक
*******************
कोई ऐसा जंहा नहीं होता
दोस्त-दुश्मन कंहा नहीं होता
*****************
आगे भी ये सिलसिला जारी रखूँगा .आप को ये संकलित शेर कैसे लगे ?
सच की राह पे बेशक चलना ,पर इसमें नुकसान बहुत है
उन राहों पे ही चलना मुश्किल,जो राहें आसन बहुत हैं.
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मेरा दुःख ये है की मैं अपने साथियों जैसा नहीं हूँ,
मैं बहादुर तो हूँ लेकिन,हारे हुए लश्कर में हूँ .
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हमे खबर है की हम हैं चिरागे-आखिरी -शब्,
हमारे बाद अँधेरा नहीं उजाला है.
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किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते,
जब सवाल ही गलत थे तो जवाब क्या देते .
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बीते मौसम जो साथ लाती हैं
वो हवाएं कंहा से आती हैं
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कोई सनम तो हो ,कोई अपना खुदा तो हो
इस दौरे बेकसी में ,कोई अपना आसरा तो हो
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क्यों न महके गुलाब आँखों में,
हम ने रखे हैं ख़्वाब आँखों में .
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हम तेरी जुल्फों के साए को घटा कहते हैं
इतने प्यासे हैं की क्या कहना था ?क्या कहते हैं ?
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मेरी ख्वाइश है की फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं की बच्चा हो जाऊं
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आदमी खोखले हैं पूस के बदल की तरह ,
सहर मुझे लगते हैं आज भी जंगल की तरह .
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जिन्दगी यूं भी जली ,जली मीलों तक
चांदनी चार कदम,धूप चली मीलों तक
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कोई ऐसा जंहा नहीं होता
दोस्त-दुश्मन कंहा नहीं होता
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आगे भी ये सिलसिला जारी रखूँगा .आप को ये संकलित शेर कैसे लगे ?
उर्दू के प्रख्यात शायर श्री अफसर दकनी जी
उर्दू के प्रख्यात शायर श्री अफसर दकनी जी की गजलों की पुस्तक ''मिट्टी की महक '' को पढने का अवसर मिला .यह पुस्तक पढ़ कर मैंने यह महसूस किया कि दरअसल अफसर दकनी जी जिस मिट्टी की महक की बात कर रहे हैं,उस मिट्टी के इतने रंग हैं की पूरी की पूरी इंसानियत का वजूद उनमे तलाशा जा सकता है. भारतीयता की जो महक दकनी जी की नज्मों में है ,वह किसी को भी अपना कायल बना सकता है.
बात जब उर्दू की होती है तो अक्सर लोंगो को यह भ्रम होने लगता है कि बात किसी ऐसी भाषा की हो रही है जो हिंदी से अलग है ,जबकि मेरा यह मानना है कि हिंदी और उर्दू की संस्कृति गंगा-जमुनी संस्कृति है .जिसका संगम स्थान यही हमारा महान भारत देश है. अगर हम भाषा विज्ञानं की दृष्टि से देखे तो भी यह बात साबित हो जाती है. जिन दो भाषाओँ की क्रिया एक ही तरह से काम करती है ,उन्हें दो नहीं एक ही भाषा के दो रूप समझने चाहिए. हिंदी और उर्दू की क्रिया पद्धति भी एक जैसी ही हैं ,इसलिए इन्हें भी एक ही भाषा के दो रूप मानना चाहिए. हिन्दुस्तानी जितनी संस्कृत निष्ठ होती गयी वह उतनी ही हिंदी हो गयी और इसी हिन्दुस्तानी में जितना अरबी और फारसी के शब्द आते गए वह उतना ही उर्दू हो गई.अंग्रेजों ने इस देश में भाषा को लेकर जो जहर बोया ,वही सारी विवाद की जड़ है. इसलिए हमे हिंदी-उर्दू का कोई भेद किये बिना ,दोनों को एक ही समझना चाहिए,तथा इन भाषाओँ में जो भी अच्छा लिखा जा रहा है,उसकी खुल के तारीफ भी करनी चाहिए.
जंहा तक बात गजलों की है तो ,यह तो साफ़ है की इस देश की फिजा गजलों को बहुत पसंद आयी. हमारे यहाँ गजलों का एक लम्बा इतिहास है,जो की बहुत ही समृद्ध है. ग़ज़ल प्राचीन गीत -काव्य की एक ऐसी विधा है,जिसकी प्रकृति सामान्य रूप से प्रेम परक होती है. जो अपने सीमित स्वरूप तथा एक ही तुक की पुनरावृत्ति के कारण पूर्व के अन्य काव्य रूपों से भिन्न होती है.ग़ज़ल मूलरूप से एक आत्म निष्ठ या व्यक्तिपरक काव्य विधा है.ग़ज़ल का शायर वही ब्यान करता है जो उसके दिल पे बीती हो.इसीलिए तो कहा जाता है क़ि ''उधार के इश्क पे शायरी नहीं होती.'' किसी का शेर है क़ि-
हमपर दुःख का पर्वत टूटा,फिर हमने शेर दो-चार लिखे
उनपे भला क्या बीती होगी,जिसने शेर हजार लिखे .
उर्दू कविता क़ि सबसे अधिक लोकप्रिय विधा ग़ज़ल है.भारत में इसकी परम्परा लगभग चार सदियों से चली आ रही है. ''वली''दकनी इसका जनक माना जाता है.ग़ज़ल की जब शुरुआत हुई तो वह हुश्न और इश्क तक ही सीमित था,लेकिन समय के साथ -साथ इसका दायरा भी बढ़ता गया. आज जीवन का कोई ऐसा विषय नहीं है जिसपर सफलता पूर्वक ग़ज़ल ना कही जा रही हो.
आज हम देखते हैं की कई भारती भाषाओँ में ग़ज़लें सफलता पूर्वक लिखी जा रही है. हिंदी,मराठी,गुजराती,भोजपुरी,सिन्धी,पंजाबी,कश्मीरी,नेपाली,संस्कृत,
बंगाली,उड़िया,राजस्थानी और डोगरी जैसी भाषाओँ में भी ग़ज़ल लिखी और सराही जा रही है . मुझे ख़ुशी है की अफसर दकनी जी ने अपनी नज्मों को हिंदी में प्रकाशित कराया,हम जैसे लोग इस कारण ही इनकी नज्मों को पढने का आनंद ले पा रहे हैं.
दकनी जी अपनी गजलों के माध्यम से अपना भोगा हुआ यथार्थ ही चित्रित करते हैं. यही कारण है की उनकी गजलों में इतनी गहराई और विश्वसनीयता है. आप की ग़ज़लें संवेदना के स्तर पे हर आदमी को झकझोर देती हैं .अपनी वालिदा मोहतरमा को अपनी जिन्दगी का सरमाया समझने वाले दकनी जी माँ नाम से अपनी एक नज्म शुरू करते हुए लिखते हैं क़ि-
''तेरे साए में मुझ को राहत है माँ
तेरे पाँव के नीचे जन्नत है माँ''
अपनी माँ के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति रखने वाले दकनी जी को भारतीय सभ्यता और संस्कृति विरासत में मिली है .वे माता के चरणों में ही स्वर्ग देखते हैं .आप क़ि गजलों से यह भी साफ़ मालूम पड़ता है क़ि आप एक खुद्दार व्यक्ति हैं .चंद शेर देखें --
उधर साथ उनके जमाना रहा
मै मजबूर तन्हा था तनहा रहा .
*****************************
पहुँच पाई मुझ तक न -दुनिया कभी
मेरा कद था ऊँचा सो ऊँचा रहा.
************************************
अपने दुश्मन को भी दुश्मन नहीं समझा मैंने
जिन्दगी तू भी तो वाकिफ मेरे हालात से है .
मुझको दुनिया क़ी तवज्जो क़ी जरूरत क्या है
तू जो आगाह इलाही मेरे हालात से है .
******************************************
दकनी जी ने जिन्दगी के अनुभवों को जिस खूबसुरती के साथ शब्दों में पिरोया है,वो हर किसी के बस क़ी बात नहीं है. आप क़ी अधिकाँश रचनाएँ प्रेम और इश्क से सम्बंधित हैं.लेकिन उनकी तासीर दार्शनिक है,स्पस्ट है क़ि आप का सोचने -समझने का तरीका बड़ा ऊंचा है.प्रेम क्या है ? इसे तो वो भी नहीं बता सकता जो खुद प्रेम करता है. यह अनुभूति का विषय है.लेकिन इस दुनिया में हर कोई इतना खुशनसीब नहीं होता क़ि उसे प्रेम मिले.प्रेम इश्वर का आशीष है.प्रेम ही इश्वर है,और ईश्वर ही प्रेम है. प्रेम वासना से कंही आगे अपने आप को परे करते हुए दूसरों के लिए जीने का नाम है.प्रेम इंसानियत का आधार है.इसलिए प्रेम के भाव से भरा हुआ व्यक्ति उदार,करुनामय ,शांत चित्त,व्यापक सोचवाला और कर्तव्य परायण होता है.दकनी जी के हृदय में प्रेम का भाव है ,जो इस बात का प्रमाण है क़ि वे अपने विचारों में संकुचित नहीं हो सकते.
मेरी शुभ कामनाये दकनी जी के साथ हैं. आप लोंगो को भी यह पुस्तक जरूर पसंद आएगी ,इसका मुझे विश्वाश है.
बात जब उर्दू की होती है तो अक्सर लोंगो को यह भ्रम होने लगता है कि बात किसी ऐसी भाषा की हो रही है जो हिंदी से अलग है ,जबकि मेरा यह मानना है कि हिंदी और उर्दू की संस्कृति गंगा-जमुनी संस्कृति है .जिसका संगम स्थान यही हमारा महान भारत देश है. अगर हम भाषा विज्ञानं की दृष्टि से देखे तो भी यह बात साबित हो जाती है. जिन दो भाषाओँ की क्रिया एक ही तरह से काम करती है ,उन्हें दो नहीं एक ही भाषा के दो रूप समझने चाहिए. हिंदी और उर्दू की क्रिया पद्धति भी एक जैसी ही हैं ,इसलिए इन्हें भी एक ही भाषा के दो रूप मानना चाहिए. हिन्दुस्तानी जितनी संस्कृत निष्ठ होती गयी वह उतनी ही हिंदी हो गयी और इसी हिन्दुस्तानी में जितना अरबी और फारसी के शब्द आते गए वह उतना ही उर्दू हो गई.अंग्रेजों ने इस देश में भाषा को लेकर जो जहर बोया ,वही सारी विवाद की जड़ है. इसलिए हमे हिंदी-उर्दू का कोई भेद किये बिना ,दोनों को एक ही समझना चाहिए,तथा इन भाषाओँ में जो भी अच्छा लिखा जा रहा है,उसकी खुल के तारीफ भी करनी चाहिए.
जंहा तक बात गजलों की है तो ,यह तो साफ़ है की इस देश की फिजा गजलों को बहुत पसंद आयी. हमारे यहाँ गजलों का एक लम्बा इतिहास है,जो की बहुत ही समृद्ध है. ग़ज़ल प्राचीन गीत -काव्य की एक ऐसी विधा है,जिसकी प्रकृति सामान्य रूप से प्रेम परक होती है. जो अपने सीमित स्वरूप तथा एक ही तुक की पुनरावृत्ति के कारण पूर्व के अन्य काव्य रूपों से भिन्न होती है.ग़ज़ल मूलरूप से एक आत्म निष्ठ या व्यक्तिपरक काव्य विधा है.ग़ज़ल का शायर वही ब्यान करता है जो उसके दिल पे बीती हो.इसीलिए तो कहा जाता है क़ि ''उधार के इश्क पे शायरी नहीं होती.'' किसी का शेर है क़ि-
हमपर दुःख का पर्वत टूटा,फिर हमने शेर दो-चार लिखे
उनपे भला क्या बीती होगी,जिसने शेर हजार लिखे .
उर्दू कविता क़ि सबसे अधिक लोकप्रिय विधा ग़ज़ल है.भारत में इसकी परम्परा लगभग चार सदियों से चली आ रही है. ''वली''दकनी इसका जनक माना जाता है.ग़ज़ल की जब शुरुआत हुई तो वह हुश्न और इश्क तक ही सीमित था,लेकिन समय के साथ -साथ इसका दायरा भी बढ़ता गया. आज जीवन का कोई ऐसा विषय नहीं है जिसपर सफलता पूर्वक ग़ज़ल ना कही जा रही हो.
आज हम देखते हैं की कई भारती भाषाओँ में ग़ज़लें सफलता पूर्वक लिखी जा रही है. हिंदी,मराठी,गुजराती,भोजपुरी,सिन्धी,पंजाबी,कश्मीरी,नेपाली,संस्कृत,
बंगाली,उड़िया,राजस्थानी और डोगरी जैसी भाषाओँ में भी ग़ज़ल लिखी और सराही जा रही है . मुझे ख़ुशी है की अफसर दकनी जी ने अपनी नज्मों को हिंदी में प्रकाशित कराया,हम जैसे लोग इस कारण ही इनकी नज्मों को पढने का आनंद ले पा रहे हैं.
दकनी जी अपनी गजलों के माध्यम से अपना भोगा हुआ यथार्थ ही चित्रित करते हैं. यही कारण है की उनकी गजलों में इतनी गहराई और विश्वसनीयता है. आप की ग़ज़लें संवेदना के स्तर पे हर आदमी को झकझोर देती हैं .अपनी वालिदा मोहतरमा को अपनी जिन्दगी का सरमाया समझने वाले दकनी जी माँ नाम से अपनी एक नज्म शुरू करते हुए लिखते हैं क़ि-
''तेरे साए में मुझ को राहत है माँ
तेरे पाँव के नीचे जन्नत है माँ''
अपनी माँ के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति रखने वाले दकनी जी को भारतीय सभ्यता और संस्कृति विरासत में मिली है .वे माता के चरणों में ही स्वर्ग देखते हैं .आप क़ि गजलों से यह भी साफ़ मालूम पड़ता है क़ि आप एक खुद्दार व्यक्ति हैं .चंद शेर देखें --
उधर साथ उनके जमाना रहा
मै मजबूर तन्हा था तनहा रहा .
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पहुँच पाई मुझ तक न -दुनिया कभी
मेरा कद था ऊँचा सो ऊँचा रहा.
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अपने दुश्मन को भी दुश्मन नहीं समझा मैंने
जिन्दगी तू भी तो वाकिफ मेरे हालात से है .
मुझको दुनिया क़ी तवज्जो क़ी जरूरत क्या है
तू जो आगाह इलाही मेरे हालात से है .
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दकनी जी ने जिन्दगी के अनुभवों को जिस खूबसुरती के साथ शब्दों में पिरोया है,वो हर किसी के बस क़ी बात नहीं है. आप क़ी अधिकाँश रचनाएँ प्रेम और इश्क से सम्बंधित हैं.लेकिन उनकी तासीर दार्शनिक है,स्पस्ट है क़ि आप का सोचने -समझने का तरीका बड़ा ऊंचा है.प्रेम क्या है ? इसे तो वो भी नहीं बता सकता जो खुद प्रेम करता है. यह अनुभूति का विषय है.लेकिन इस दुनिया में हर कोई इतना खुशनसीब नहीं होता क़ि उसे प्रेम मिले.प्रेम इश्वर का आशीष है.प्रेम ही इश्वर है,और ईश्वर ही प्रेम है. प्रेम वासना से कंही आगे अपने आप को परे करते हुए दूसरों के लिए जीने का नाम है.प्रेम इंसानियत का आधार है.इसलिए प्रेम के भाव से भरा हुआ व्यक्ति उदार,करुनामय ,शांत चित्त,व्यापक सोचवाला और कर्तव्य परायण होता है.दकनी जी के हृदय में प्रेम का भाव है ,जो इस बात का प्रमाण है क़ि वे अपने विचारों में संकुचित नहीं हो सकते.
मेरी शुभ कामनाये दकनी जी के साथ हैं. आप लोंगो को भी यह पुस्तक जरूर पसंद आएगी ,इसका मुझे विश्वाश है.
त्योहारों का ये देश पुराना /
अलसाया मौसम ,पुरजोर वसंत ,
अरमानो की जोरा-जोरी है ,
बासन्ती मन है बहका तन है ,
अहसासों ने मांग सजोई है ;
तेरी आखों में उगता सपना ,
सांसों संग सिने का उठना गिरना ,
बता रही अभिलाषा तेरी ,
तेरे चेहरे की रंगत बड़ना ,
त्योहारों का ये देश पुराना ,
डे मनाना पश्चिम में लोंगों ने अब है जाना ,
होली मना रहे हम सदियों से,
valentine लोंगों ने अब है जाना ,
अपनो संग रंगों में रंगित होना ,
अबीर गुलाल और पानी से तन भिगोना ,
उज्जवलित काम है ,उन्मुक्त मांग है ,
फिर भी सीमाओं से हंसती शाम है ,
अपनो के कोलाहल में ,रंग लगाते गालों को छूना ,
आखों आखों में प्यार फेकना ,
नीला पीला लाल वो चेहरा साथ ही उसपे हंसी थिठोला,
मौका तकना रंगों से उसका तन भिगोना ,
खुल के हसना प्रीतम का अहसास समझना ,
पल भर का शरमाना फिर मस्ती में रमना ,
होली का अदभुत नजराना ,
त्योहारों का ये देश पुराना ,
डे को पश्चिम ने अब सिखा मनाना /
Wednesday 10 February 2010
मेरे नाल पर
अगर आप मेरे आलेख मेरे नाल पर भी पढना चाहते हैं तो इस लिंक पे क्लिक कर के पढ़ सकते हैं http://knol.google.com/k/manish-mishra/-/1v5yjwuiqni1h/25#एडिट
यह एक ऐसी व्यवस्था है जंहा आप कम शब्दों में अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का मौका पायेंगे .इसका कवर पजे इस प्रकार है.---
आप भी आइये और इसे ज्वाइन कीजिये .
यह एक ऐसी व्यवस्था है जंहा आप कम शब्दों में अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का मौका पायेंगे .इसका कवर पजे इस प्रकार है.---
आप भी आइये और इसे ज्वाइन कीजिये .
हिंदी में संचालन का शौख/part 1
यदि आप हिंदी में संचालन का शौख रखते हैं तो आप को निम्नलिखित शेरों एवं काव्य पंक्तियों से काफी मदद मिलेगी . ये मेरे लिखे हुए नहीं हैं .इन्हें तो मै बस संचालकों की सुविधा के लिए दे रहा हूँ .
१- खुदी को कर बुलंद इतना,
की हर तकदीर से पहले,
खुदा बन्दे से खुद पूछे ,
बता तेरी रजा क्या है .
२- ज़माने को जन्हा तक पहुंचना था,वो पहुँचता रहा
मेरा कद ऊँचा था सो ऊँचा ही रहा .
३-कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे में बदल गए
कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदल गए .
४-प्यास तो रेगिस्तान को भी लगती है ,
लेकिन हर नदी सागर से ही मिलती है.
५- जालिम का कोई धर्म या ईमान नहीं होता,
जालिम कोई भी हिन्दू या मुसलमान नहीं होता .
६-बचपन से सुनते आया था ,की वो घर सलमान का है
लेकिन दंगो के बाद ये जाना की ,वो मुसलमान का घर है .
७-कौन कहता है की आसमान में सुराग हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों .
८-खाली बोतल ,टूटी चूड़ी ,कपडे फटे पुराने से
हम ने सुना है हुए बारामत,मंदिर के तहखाने से .
९-इस शहर में सब से झुक के मिलना ,उनकी मजबूरी है
क्योंकि इस शहर में कोई उनके बराबर का नहीं है.
१०-अपनी ही आहुति दे कर,स्वयं प्रकाशित होना सीखो
यश-अपयश जो भी मिल जाए,सब को हंस के लेना सीखो .
११-मेहर बाँ हो के बुला लो,चाहो जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं,जो लौट के आ भी न सकूँ .
१- खुदी को कर बुलंद इतना,
की हर तकदीर से पहले,
खुदा बन्दे से खुद पूछे ,
बता तेरी रजा क्या है .
२- ज़माने को जन्हा तक पहुंचना था,वो पहुँचता रहा
मेरा कद ऊँचा था सो ऊँचा ही रहा .
३-कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे में बदल गए
कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदल गए .
४-प्यास तो रेगिस्तान को भी लगती है ,
लेकिन हर नदी सागर से ही मिलती है.
५- जालिम का कोई धर्म या ईमान नहीं होता,
जालिम कोई भी हिन्दू या मुसलमान नहीं होता .
६-बचपन से सुनते आया था ,की वो घर सलमान का है
लेकिन दंगो के बाद ये जाना की ,वो मुसलमान का घर है .
७-कौन कहता है की आसमान में सुराग हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों .
८-खाली बोतल ,टूटी चूड़ी ,कपडे फटे पुराने से
हम ने सुना है हुए बारामत,मंदिर के तहखाने से .
९-इस शहर में सब से झुक के मिलना ,उनकी मजबूरी है
क्योंकि इस शहर में कोई उनके बराबर का नहीं है.
१०-अपनी ही आहुति दे कर,स्वयं प्रकाशित होना सीखो
यश-अपयश जो भी मिल जाए,सब को हंस के लेना सीखो .
११-मेहर बाँ हो के बुला लो,चाहो जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं,जो लौट के आ भी न सकूँ .
प्रेम की परिभाषा
प्रेम --------------
एक ऐसा शब्द है जो,
जीवन को मखमली स्पर्श देता है.
जिन्दगी की धुप में,
सुकून के पल देता है.
इंसान को प्रेम ही,
इंसानियत की ताशीर देता है.
यह प्रेम ही है जो,
हमे गीता और क़ुरान देता है.
प्रेम ही हमे,
संवेदनाओं का वसंत देता है.
मेरे भाई ,
यह प्रेम ही है जो,
सिर्फ देता और देता है .
एक ऐसा शब्द है जो,
जीवन को मखमली स्पर्श देता है.
जिन्दगी की धुप में,
सुकून के पल देता है.
इंसान को प्रेम ही,
इंसानियत की ताशीर देता है.
यह प्रेम ही है जो,
हमे गीता और क़ुरान देता है.
प्रेम ही हमे,
संवेदनाओं का वसंत देता है.
मेरे भाई ,
यह प्रेम ही है जो,
सिर्फ देता और देता है .
Tuesday 9 February 2010
आज अपने जन्मदिन पे
आज अपने जन्मदिन पे
आज अपने जन्म दिन पे,
रोज की तरह कॉलेज गया .
क्लास रूम में ही घंटी बजने लगी,
बधाई सन्देश थे.
किसी ने पूछा-केक काटा ?
मैंने कहा- नहीं जी महाविद्यालय में बच्चो के नंबर काट रहा हूँ .
सामने से फिर प्रश्न् हुआ -आज कुछ खास ?
मैंने कहा -हाँ ,हिंदी की क्लास कोई नहीं बैठता,लेकिन सब पास है .
मुझे आदर्श शिक्षक का पुरस्कार दिया जा रहा है .
सामने वाले ने कहा-अच्छा ,कमाल है .
मैंने भी कहा -हाँ,कमाल तो है .
आज अपने जन्म दिन पे,
रोज की तरह कॉलेज गया .
क्लास रूम में ही घंटी बजने लगी,
बधाई सन्देश थे.
किसी ने पूछा-केक काटा ?
मैंने कहा- नहीं जी महाविद्यालय में बच्चो के नंबर काट रहा हूँ .
सामने से फिर प्रश्न् हुआ -आज कुछ खास ?
मैंने कहा -हाँ ,हिंदी की क्लास कोई नहीं बैठता,लेकिन सब पास है .
मुझे आदर्श शिक्षक का पुरस्कार दिया जा रहा है .
सामने वाले ने कहा-अच्छा ,कमाल है .
मैंने भी कहा -हाँ,कमाल तो है .
Sunday 7 February 2010
वेलेंटाइन डे का विरोध क्यों ?
वेलेंटाइन डे का विरोध क्यों ?
हमारे देश में कुछ मौसमी विरोध प्रदर्शन एक फैशन सा हो गया है. आप देखेंगे की अभी २-४ दिनों के अंदर ही कुछ स्वयम भू समाज के ठेकेदार वेलेंटाइन डे के विरोध का फरमान जरी कर देंगे. जैसे यह देश ,यंहा की संस्कृति अकेले उनके ही बाप की जागीर हो . धर्म और संस्कृति के नाम पे प्रेम का विरोध करनेवाले ये परम्परागत महानुभाव खुद कितने चरित्र भ्रष्ट और नालायक हैं ये पूरा देश जनता है.
चंद भाड़े के गुंडे -मवालियों के माध्यम से ये अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकने लगते हैं ,अख़बारों में छा जाते हैं. लेकिन मै इनसे जादा इस देश की सरकार को इस बात के लिए दोषी मानता हूँ की वह ऐसे लोंगो पर लगाम कसने की बजाय उन्हें और प्रशय देती है. सरकार की यह हालत पिछले कई सालों से देख रहा हूँ. इस देश में आज-कल सच बोलना ही सबसे बड़ा अपराध है. मगर मै यह अपराध कर रहा हूँ. कल मेरे साथ कुछ भी हो सकता है. मुझपे हमला हो सकता है.मेरे साथ मार-पीट की जा सकती है.मुझे गधे पे बिठा,मेरा मुह काला कर मेरा जुलूस निकला जा सकता है.मगर मै चुप नहीं बैठ सकता.मरने से पहले हर पल एक मौत के डर के साथ मैं नहीं जी सकता.इस लिए आज यह पोस्ट लिखने बैठ गया .
प्रेम के नाम पे अशलीलता को मैं भी पसंद नहीं करता,लेकिन ये सब एक दिन का रोना नहीं है. साल भर इंटरनेट,फिल्मो,अखबार इत्यादि जगह ये सब चलता ही रहता है ,तो फिर इस दिन ही कुछ लोंगो को अपने आस -पास अशलीलता क्यों नजर आती है ? शायद इस लिए की उनका मकसद कुछ अलग ही रहता है. ऐसे तथा कथित धर्म के अधर्मी ठेकेदारों से मेरा विनम्र अनुरोध है की अपने स्वार्थ और अपनी गन्दी राजनीति में इस वेलेंटाइन डे को बदनाम ना करें .
हमारे देश में कुछ मौसमी विरोध प्रदर्शन एक फैशन सा हो गया है. आप देखेंगे की अभी २-४ दिनों के अंदर ही कुछ स्वयम भू समाज के ठेकेदार वेलेंटाइन डे के विरोध का फरमान जरी कर देंगे. जैसे यह देश ,यंहा की संस्कृति अकेले उनके ही बाप की जागीर हो . धर्म और संस्कृति के नाम पे प्रेम का विरोध करनेवाले ये परम्परागत महानुभाव खुद कितने चरित्र भ्रष्ट और नालायक हैं ये पूरा देश जनता है.
चंद भाड़े के गुंडे -मवालियों के माध्यम से ये अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकने लगते हैं ,अख़बारों में छा जाते हैं. लेकिन मै इनसे जादा इस देश की सरकार को इस बात के लिए दोषी मानता हूँ की वह ऐसे लोंगो पर लगाम कसने की बजाय उन्हें और प्रशय देती है. सरकार की यह हालत पिछले कई सालों से देख रहा हूँ. इस देश में आज-कल सच बोलना ही सबसे बड़ा अपराध है. मगर मै यह अपराध कर रहा हूँ. कल मेरे साथ कुछ भी हो सकता है. मुझपे हमला हो सकता है.मेरे साथ मार-पीट की जा सकती है.मुझे गधे पे बिठा,मेरा मुह काला कर मेरा जुलूस निकला जा सकता है.मगर मै चुप नहीं बैठ सकता.मरने से पहले हर पल एक मौत के डर के साथ मैं नहीं जी सकता.इस लिए आज यह पोस्ट लिखने बैठ गया .
प्रेम के नाम पे अशलीलता को मैं भी पसंद नहीं करता,लेकिन ये सब एक दिन का रोना नहीं है. साल भर इंटरनेट,फिल्मो,अखबार इत्यादि जगह ये सब चलता ही रहता है ,तो फिर इस दिन ही कुछ लोंगो को अपने आस -पास अशलीलता क्यों नजर आती है ? शायद इस लिए की उनका मकसद कुछ अलग ही रहता है. ऐसे तथा कथित धर्म के अधर्मी ठेकेदारों से मेरा विनम्र अनुरोध है की अपने स्वार्थ और अपनी गन्दी राजनीति में इस वेलेंटाइन डे को बदनाम ना करें .
आखिर यह प्रेम क्या है ?
जब नहीं हुआ था तब भी,
और जब हो गया तब भी
मैं नहीं समझ पाया की,
आखिर यह प्रेम क्या है ?
एक चाहत भर थी जो ,
आगे जूनून बन गयी.
एक आदत जो कभी भी,
छूट नहीं सकती .
एक ऐसा एहसास जो,
सारे सुख-दुःख से परे है.
एक बीमारी जो कभी ,
अच्छी होना ही ना चाहे .
एक पैगाम जो ,
सीधे दिल को मिला ,
किसी और के दिल से ,
कब,कँहा,कैसे कुछ याद नहीं .
एक ऐसा रिश्ता जो,
है तो अजनबी ही पर,
जाने हुए सारे रिश्तों से,
बहुत जादा अजीज .
और जब हो गया तब भी
मैं नहीं समझ पाया की,
आखिर यह प्रेम क्या है ?
एक चाहत भर थी जो ,
आगे जूनून बन गयी.
एक आदत जो कभी भी,
छूट नहीं सकती .
एक ऐसा एहसास जो,
सारे सुख-दुःख से परे है.
एक बीमारी जो कभी ,
अच्छी होना ही ना चाहे .
एक पैगाम जो ,
सीधे दिल को मिला ,
किसी और के दिल से ,
कब,कँहा,कैसे कुछ याद नहीं .
एक ऐसा रिश्ता जो,
है तो अजनबी ही पर,
जाने हुए सारे रिश्तों से,
बहुत जादा अजीज .
इस वलेंटाइन डे
इस वेलेंटाइन डे पर --------------------------
इस वेलेंटाइन डे पर
फिर याद तुम्हारी आयी है.
भीगी बरसातों की ,
सारी बातें फिर आयीं हैं .
सोते-जागते सपनों की,
सौगात ये फिर से लायी है .
वो बात-बात पे तेरा लड़ना,
हर बात पे मेरा तुझे मानना ,
लगता जैसे फिर से आया ,
गया हुआ वो साल पुराना .
फोन पे घंटों बाते करना,
फिर बात-बात में- MISS YOU कहना .
वो सारा मौसम फिर आया है .
इस वलेंटाइन डे
जो याद तुम्हारी आयी है .
इस वेलेंटाइन डे पर
फिर याद तुम्हारी आयी है.
भीगी बरसातों की ,
सारी बातें फिर आयीं हैं .
सोते-जागते सपनों की,
सौगात ये फिर से लायी है .
वो बात-बात पे तेरा लड़ना,
हर बात पे मेरा तुझे मानना ,
लगता जैसे फिर से आया ,
गया हुआ वो साल पुराना .
फोन पे घंटों बाते करना,
फिर बात-बात में- MISS YOU कहना .
वो सारा मौसम फिर आया है .
इस वलेंटाइन डे
जो याद तुम्हारी आयी है .
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