Sunday 14 March 2021

Publications Of Dr. Manish kumar C. Mishra

 

Publications

Of

Dr. Manish kumar C. Mishra

Assistant Professor

Department of Hindi

K.M.Agrawal College, Kalyan west, Maharashtra

 

In

 

 Peer Reviewed /UGC Listed /UGC Care ISSN Journals

 

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INDEX

 

Sr. No.

Title

Journal

ISSN / ISBN No.

Page No.

    01

काशी : सकल सुमंगल रासी

 

VEETHIKA

VOL. 01, NO. 01,

April- June 2015

UGC Index no. 44539

2454-342X

20- 34

    02

नकलधाम  (कहानी )

सोच विचार

 वर्ष - 07 , अंक- 06 दिसंबर 2015

 

2319-4375

47-49

03

लावणी : जाति केंद्रित लोक कलाओं में स्त्री शोषण का सामाजिक स्तर

VEETHIKA

VOL. 03, N0 3

July-Sept. 2017

UGC Index no. 44539

2454-342X

134-141

04

समय के सवाल और बनारस के जुलाहे

VEETHIKA

VOL. 04, N0 2

April-June. 2018

UGC Index no. 44539

2454-342X

24-30

 

05

 

संघर्ष का इक़बालिया बयान और शब्दों का उत्सव

VEETHIKA

VOL. 04, NO. 03,

July-Sept. 2018

UGC Index no. 44539

2454-342X

08- 14

 

06

 

ये दाग दाग उजाला : चौराहे पर सीढियाँ कहानी संग्रह

 

Review of Research

UGC approved journal no. 48514

Vol. 7, Issue-12

September. 2018

 

 

2249-894X

Impact factor – 5.7631(UIF

 

 

01-04

 

07

 

हिंदी भाषा की लहरों पर जीवन का दस्तावेज

 

Review of Research

UGC approved journal no. 48514

Vol. 8, Issue-05

Feb. 2019

 

 

2249-894X

Impact factor – 5.7631(UIF)

 

 

01-08

08

मालेगाँव का सिनेमा

समयांतर

वर्ष - 0 , अंक- 0

अप्रैल 2019

Listed in UGC Care

 

2249-0469

 

 

47-49

 

09

 

कथाकार अमरकांत : अंतर्विरोधी संघर्ष और जीवन की बेचैनी

 

Review of Research

UGC approved journal no. 48514

Vol. 08, Issue-09

June. 2019

 

2249-894X

Impact factor – 5.7631(UIF)

 

01-06

 

10

 

समय की संगति और हिंदी सिनेमा

 

 

 

 

 

 

AYAN 

An International Multidisciplinary Refereed Research Journal

UGC approved journal no. 49095

Volume 07, No. 2

April-June, 2019 

   

 

 

2347-4491

Impact factor – 2.382

 

94-100

11

भारतीय साहित्य का परिप्रेक्ष्य

पत्रिका गर्भनाल  वर्ष -09, अंक - 07 सितम्बर 2019 

 

2249-5967

 

13-14

 

12

 

हिंदी भाषा और तकनीक : दरख्तों में नीम धूप

केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा 

गवेषणा

October-December 2019

Ank-118

Listed in UGC Care

 

 

 

    0435-1460

 

 

 

 

61-67

 

 

 

13

 

 

लॉकडाउन यादव का बाप  ( कहानी )

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

साहित्य अमृत

 अक्टूबर-2020

वर्ष- 26 अंक -03

Listed in UGC Care

 

 

 

 

2455-1171

 

 

 

 

66-69

 

14

 

मृगान्तक / टाइगर तंत्रा : पशुता और मनुष्यता के बीच की छटपटाहट

 

 

        समीचीन

   Varsh-13,Ank-25

July-December 2020

   Listed in UGC Care

 

     2250-2335

 

 

149-154

 

15

 

ठुमरी की ठनक और ठसक का दस्तावेज

अनहद लोक

वर्ष -07, अंक - 12  2020

Peer Revived

 

     2349-137X

 

273-275

16

विभागीय (कहानी)

साहित्य अमृत

मार्च-2021

वर्ष- 26 अंक -08

   Listed in UGC Care

 

2455-1171

68-71

Monday 28 December 2020

डाॅ. मनीष मिश्रा विरचित काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा

डाॅ. मनीष मिश्रा विरचित काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा डाॅ. गजेन्द्र भारद्वाज, सहायक प्राचार्य हिंदी सी.एम.बी. काॅलेज डेवढ़, घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार ORCID iD- 0000-0002-0712-9187 काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ साल 2019 में प्रकाशित लेखक मनीष मिश्रा जी के कृतित्व का वह इतिहास है जो उनके उत्तरोत्तर मँझते हुए लेखन और उनकी कविताओं के भाव गांभीर्य की विकास यात्रा को न केवल संकलित कविताओं के शीर्षक अपितु उनकी भाव संपदा की तन्मयता की गाथा सुनाता है। आज अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से जो भी कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं उनमें से अधिकांश को पढ़कर ऐसा लगता है मानो उन्हें एक ढाँचा निर्मित करके सायास लिखा गया है ऐसी कविताओं के लेखन के बीच से ऐसी कविता जो अनायास बन जाए इस संग्रह में दिखाई दी हैं जिन्हें पढ़कर यह लगता है कि आज भी कविता शब्दों और भावनाओं के परे जाकर हमारी चैतन्यता से जुड़ी है। संग्रह के लेखक इस संग्रह और इसमें संकलित कविताओं के प्रस्तुतिकरण के लिए बधाई के पात्र हैं जिनका प्रयास इतने कम समय में भी परिपक्वता की ओर अग्रसर दिखाई पड़ रहा है। इस संग्रह में कुल 56 कविताएँ संकलित हैं जिनमें पहली कविता ‘आत्मीयता’ से लेकर संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हू’ तक की विभिन्न कविताओं में लेखक की जिस वैचारिक चिंतनशीलता को महसूस किया जा सकता है उसको संप्रेषित करने के लिए यदि स्वयं कि शब्दों का प्रयोग किया जाए तो एक अन्य ग्रंथ लिखा जा सकता है। फिर भी संग्रह में संग्रहित कविताओं के आलोक में यदि लेखक के ही शब्दों में यदि लेखक की चिंतनधारा को समझने का प्रयास किया जाए तो उसके लिए इस संग्रह की विभिन्न कविताओं के शीर्षकों को संयोजित करने पर लेखक की विचार संपदा का थोड़ा परिचय मिल सकता है। यथा ‘जब कोई याद किसी को कारता है बहुत कठिन होता है उसके संकल्पों का संगीत पिछलती चेतना और तापमान से अनजाने अपराधों की पीड़ा गंभीर चिंताओं की परिधि दो आँखों में अटकी मैं नहीं चाहता था इतिहास मेरे साथ पिछली ऋतुओं की वह साथी जैसे कि तुम तुम से प्रेम, जाहिर था कि लंबे अंतराल के बाद आगत की अगवानी में स्थगित संवेदनाएँ बचाना चाहता हूँ।’1 उपरोक्त कथन लेखक की कविताओं की परोक्ष गहनता की ओर संकेत करता है। जिसके कई गहरे अर्थ निकलकर सामने आते हैं जैसे केवल कविताओं के शीर्षकों को मिलाकर ही कवि के उस भाव का पता चलता है जिसमें वह अपनी मीठी यादों से जुड़े किसी भी अविस्मरणीय प्रसंग को इतिहास बनते देखना नहीं चाहता। कवि मानता है कि उसका मन किसी याद को चिरजीवित रखना चाहता है, उस प्रेम और प्रेम से जुड़ी वे सभी संवेदनाएँ जो उसने वर्तमान व्यतताओं के कारण स्थगित कर रखी हैं उन्हें बचाते हुए अपने भीतर के उस राग तत्व को सदा बनाए रखना चाहता है जिसके कारण इस सृष्टि में और स्वयं उसके जीवन में सृजन की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। हिन्दी कविता में फैण्टेसी के महारथी गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं में जो अप्रस्तुत का प्रस्तुत उनकी कविताओं के अंतस में छिपा दिखाई देता है उसी परोक्ष की प्रत्यक्षता डाॅ. मनीष मिश्र के इस संग्रह की कविताओं में भी परिलक्षित होती है। इनकी कविता सरल होते हुए भी एकाधिक बार पढ़े जाने की मांग करती है। इन कविताओं को पहली बार पढ़ने से लगता है कि यह एक प्रेमी के द्वारा अपनी प्रेमिका के लिए उद्भाषित होते उद्गार हैं पर ध्यान देकर दोबारा पढ़ने पर लगता है कि ये कवि की एक भावना का दूसरे भाव से आत्म संवाद है, चिंतन करते हुए तीसरी बार पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये तो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बसने वाले एक नादान बालक की अपने भीतर बसने वाले समझदार व्यक्ति से बातचीत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस संग्रह की कविताएँ जितनी बार पढ़ी जाएँ उतनी बार नया और आह्लादकारी अर्थ देती हुई मन को रोमांचित करती हैं। मुझे मनीष जी की कविताओं में उनका वही शालीन, सौम्य और शांत व्यक्तित्व दिखाई देता है जो उनको नितांत सरल और आत्मीय बना देता है। इस संग्रह की कविताओं को एक बार पढ़ने के बाद बरबस ही दोबारा अध्ययन करते हुए पढ़ने की इच्छा हुई। अध्ययन के दौरान इन कविताओं से जो आनंद प्राप्त हुआ उससे पढ़कर कवि की वह सूक्ष्म दृष्टि पता चलती है जो आज के व्यस्ततम जीवन मंे भी मन की ओझल प्रतीत होने वाली गतिविधियों को भी देख लेती है। जब कवि कहता है कि ‘सुनन में/थोड़ा अजीब लग सकता है/लेकिन/सच कह रहा हूँ/यदि आप/धोखा देना पसंद करते हैं/या यह/आपकी फितरत में शामिल है/तो आप/मुझे अपना/निषाना बना सकते हैं/यकीन मानिए/मैं/आपको/निराश नहीं करूँगा/सहयोग करूँगा।’2 इसी से मिलती जुलती एक अन्य कविता ‘जैसे कि तुम’ भी है जिसमें धोखे के एक अन्य प्रकार से पाठकों को रूबरू कराया गया है। इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ पाठकों को एक मजबूत भावनात्मक बंधन में बाँधने की क्षमता रखती है जब कवि कहते हैं कि ‘ऐसा बहुत कुछ था/जो चाहा/पर मिला नहीं/वैसे ही/जैसे कि तुम।’3 पाठक इन पंक्तियों के साथ कवि के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर लेता है और फिर कवि लिखता है ‘धोखा/बड़ा आम सा/किस्सा है लेकिन/मेरे हिस्से में/किसके बदले में/दे गई तुम।’4 यह कविता स्वयं में व्यष्टि से समष्टि और वैयक्तिकता से सामाजिकता का वह पूरा ऐतिहासिक लेखा जोखा प्रस्तुत कर देती है जिसमें समाज की उस विचारधारा पर व्यंग्य की चोट की गई है जिसे अनगिनत कवियों ने प्रस्तुत करने के लिए वर्षों साधना करते हुए अनेक ग्रंथ रच डाले हैं पर फिर भी खुलकर उस बात पर चोट नहीं कर पाए जिसके सम्मोहन में आकर हम इस नश्वर देह और अस्थायी संबंधों को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानकर मोहपाश में बँधे हुए जीवन व्यतीत करते चले जा रहे हैं। इस भवसागर के प्रपंच में फँसे मानव को जीवनदर्शन का कठिन फलसफा बताते हुए कवि संकेत भी करता है कि ‘‘शिक्षित होने की/करने की/पूरी यात्रा/धोखे के अतिरिक्त/कुछ भी नहीं।/मित्रता, शत्रुता।/लाभ-हानि/पुण्य-पाप/मोक्ष और अमरता/सिर्फ और सिर्फ/धोखाधड़ी है।’’5 वह लिखता है ‘‘आत्मीय संबंधो का/भ्रमजाल/धोखे के/सबसे घातक/हथियारों में से एक हैं।’’6 इस कविता में अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो तीखी धार पाठक को महसूस होती है उसे स्वयं अज्ञेय ने भी महसूस किया था जिसे उन्होंने अपनी एक कविता में बताते हुए लिखा था कि ‘‘साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना भी/तुम्हें नहीं आया/एक बात पूछूँ उत्तर दोगे?/तब कैसे सीखा डसना/विष कहाँ से पाया?’’7 अज्ञेय द्वारा प्रयुक्त ‘डसना’ और कवि मनीष मिश्र द्वारा प्रयुक्त ‘धारदार हथियार’ दोनों ही उस धोखे की ओर संकेत करते हैं। जिसका अनुभव पाठक को अपने जीवन के प्रारंभ से ही हो जाता है। यही कारण अज्ञेय और मनीष मिश्र जी में साम्य के रूप में उभरकर आता है। इतना ही नहीं कवि इस कविता में सांकेतिक रूप से इस समस्या का एक हल भी प्रस्तुत करता है जिसको समझने के लिए इस कविता को पूरा पढ़े बिना मन नहीं मानता। इस हल को ढूँढने की जिज्ञासा पाठक को कविता पूरी पढ़ने के लिए बाध्य करती है। पाठक की यह बाध्यता लेखक की उस परिपक्वता को इंगित करती है जो उसने इस अल्पवय में अपने लेखन की अवस्था में ही प्राप्त कर ली है। मनीष मिश्र जी के ‘अक्टूबर उस साल’ की कविताओं को पढ़कर लगता है कि वे जानते हैं कि पाठक को अपनी भावनाओं के ज्वार में किस प्रकार ओतप्रोत करना है। जिसके कारण वे पाठकों को कविता दर कविता अपने साथ बहाए लिए जाते हैं। संग्रह की दूसरी ही कविता ‘जब कोई किसी को याद करता है’ भी एक ऐसी प्रस्तुति है जो प्रत्येक पाठक को उसकी गहरी संवेदनाओं के पाश में बाँधकर पाठक को अपने इतिहास की एक मानसयात्रा के लिए बाध्य कर देती है। पाठक कविता के शीर्षक मात्र से अपने जीवन के सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति को अनायास ही याद कर बैठता है फिर आगे की कविता पाठक और पाठक के प्रिय के साथ पढ़ी जाती है। अपने प्रिय के साथ मानसयात्रा के दौरान पाठक स्वयं को और अपने प्रिय को यह याद दिलाने का प्रयास करता है कि उसने अपने प्रिय को अपने हृदय की गहराइयों में एक विशिष्ट स्थान दिया है। वह शीर्षक में लिखी मान्यता को झुठलाना चाहता है और कह उठता है कि ‘‘अगर सच में/ ऐसा होता तो/अब तक/सारे तारे टूटकर/जमीन पर आ गए होते/आखिर/इतना तो याद/मैंने/तुम्हें किया ही है।’’8 इस संग्रह की कविता ‘रक्तचाप’ भी अपने प्रिय की याद करने और उसके साथ बिताये नितांत निजी और ऐसे अनुभूतिपूर्ण क्षणों से मिली गरमाहट की बात करता है जिससे आज भी पाठक भूल नहीं पाया है। मनीष जी की यह कविता भी उनकी अन्य कविताओं की तरह इतनी छोटी तो है किंतु गहरी भी इतनी है कि पाठक अपने प्रिय के सानिध्य को कविता की चंद पंक्तियों को एक साँस में पढ़ तो जाता है पर एक क्षण में पढ़ ली गई इन लाइनों के बाद बाहर निकलने वाली साँस वर्षों के इतिहास को प्रत्यक्ष कर जाती है। एक बात और है जो मनीष जी की कवितओं को विशेष बनाती है वह यह कि पाठक मनीष जी की कविताओं को स्वयं के जीवन में निभाई जिस भूमिका की भावभूमि में पढ़ता है वे उसे उसी के अनुरूप झँकृत कर देती हैं। यदि पाठक एक बार प्रेमी की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी प्रेमिका की निकटता का अहसास होता है। यदि पाठक एक पुत्र की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी माँ के ममत्व की गरमाहट भरी निकटता महसूस होती है, यदि मित्र की तरह पढ़ता है तो उसे एक अन्यतम मित्र की निकटता का आभास होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी बात को इंगित करके लिखा था कि ‘जिन्ह कैं रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।’9 डाॅ. मनीष मिश्र जी की कविताएँ भी पाठक को बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी और प्रत्येक बार पाठक को एक नये रस का आस्वादन प्राप्त होगा ऐसा मेरा मानना है। ‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए’ कविता भी कुछ ऐसी ही तासीर की कविता है जिसमें पाठक देशकाल के बंधनों से परे जाकर जीवन के प्रत्येक क्षण में अपने प्रिय के साथ बिताए पलों को उसी ताजगी से याद करता है जिस ताजगी से वे घटित हुए थे। इस कविता में जब कवि कहता है कि ‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए/जनवरी में भी/हुई झमाझम बारिश/और अक्टूबर में ही/खेला गया फाग।’10 तब वह वर्तमान में होते हुए भी अपने प्रिय के साथ समययात्रा करता हुआ सूक्ष्मसमायांतराल में एक पुनर्जीवन को जी लेता है। मनीष जी की कविताएँ पाठक की संवेदनाओं को भी संबोधित करती हैं। ‘जब तुम साथ होती हो’ में ऐसा ही संबोधन सुनाई पड़ता है मानो व्यक्ति अपनी आषा को संबोधित करते हुए कह रहा हो कि ‘तुम जब साथ होती हो/तो होता है वह सब/कुछ जिसके होने से/खुद के होने का/एहसास बढ़ जाता है।’11 इस कविता का पहला भाव नायक द्वारा नायिका के प्रति उद्गार के रूप में सामने आता है पर एक अन्य अर्थ में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपनी आषा के होने के महत्व का वर्णन करते हुए कह रहा है कि आषा के कारण ही कवि का अस्तित्व और पहचान है। ‘वह साल, वह अक्टूबर’ कविता इस संग्रह की मुख्य कविता प्रतीत होती है जिसके इर्दगिर्द इस संग्रह का तानाबाना रचा गया लगता है। इस कविता में कवि ने अपने और प्रिय के व्यक्तिगत अनुभवों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। जब वह कहता है कि ‘इस/साल का/यह अक्टूबर/याद रहेगा/साल दर साल/यादों का/एक सिलसिला बनकर।’12 तो इन पंक्तियों में कवि की नितांत व्यक्तिगत किंतु महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षणों की एक श्रृंखला ध्वनित होती दिखाई देती है। ‘बहुत कठिन होता है’, ‘अवसाद’, ‘कच्चे से इश्क में’, ‘विफलता के स्वप्न’ ‘भाषा के लिबास में’, ‘इतिहास मेरे साथ’, ‘पिछली ऋतुओं की वह साथी’ आदि इसी श्रेणी की कविताएँ है। इन कविताओं में बीते जीवन की जो सुखद अनुभूतियों की गूँज है उसी का इतिहास इस संग्रह में दिखाई देता है जिसके कारण इस संग्रह का शीर्षक ‘अक्टूबर उस साल’ बहुत उपर्युक्त प्रतीत होता है। इस संग्रह की कविता ‘जीवन यात्रा’ की निम्न पंक्तियाँ इसी तथ्य का साक्ष्य भी देती हैं ‘ऐसी यात्राएँ ही/जीवन हैं/जीवन ऐसी ही/यात्राओं का नाम है।’13 एक अन्य कविता ‘चाँदनी पीते हुए’ में भी लेखक प्रिय के अनुराग को व्यक्त करते हुए न जाने कितनी ही बिसरी बातें याद कर जाता है वह कहता है ’याद आता है/मुझे वह साल/जिसमें मिटी थी/दृगों की/चिर-प्यास।’14 इस कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों को पढ़ते ही पाठक की अपनी बीती अनुरक्ति की यादें ताजा हो जाती हैं उसकी आँखों के झरने में एक-एक करके अनगिनत मीठे लम्हे भीग जाते हैं। इस कविता में जब कवि लिखता है कि ‘यह/तुम्हारे भरोसे/और/मेरे बढ़ते अधिकारों की/एक सहज/यात्रा थी।’15 तब तक पाठक इस कविता के शब्दों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और कवि के शब्दों के अनुरूप अपने बीते जीवन को एक बार फिर से अपने भावदेश में जीने लगता है और तब कवि पाठक की अनुभूतियों को कुरेदता हुआ उन बातों की तह तक पहुँच जाता है जिसमें कवि और पाठक एक-दूसरे से अपनी अंतरंग बातें साझा करते हैं कवि लिखता है ‘तुम्हारे बालों में/घूमती/मेरी उंगलियाँ/निकल जाती/सम्मोहन की/किसी लंबी यात्रा पर।’16 कवि की इस कविता के साथ पाठक अपने मन की गइराइयों में छुपे उस अनुराग की तान छेड़ देता है जिसके कारण उसे प्रेम का उदात्त आभास हुआ है। इस भाव को शब्द देते हुए कवि लिखता है ‘जहाँ से तुम/मेरी सर्जनात्मक शक्ति की/आराध्या बन/रिसती रहोगी/मिलती रहोगी/उसी लालिमा/और आत्मीयता के साथ।’17 कवि की कविता इन शब्दों के साथ पूरी हो जाती है किंतु इस तरह की कविताओं के पाठ से पाठक के हृदय में जो स्पंदन शुरु हो जाता है वह पाठक को न केवल पूरी कविता को दोबारा पढ़ने के लिए विवश करता है बल्कि वह पाठक को प्रेरित करता है कि इसी प्रकार उसके मन की उन सभी बातों को इस संग्रह की अन्य कविताओं में ढूँढे जिनको पाठक ने स्वयं से भी साझा नहीं किया है। पाठक उत्प्रेरित होता है और इस संग्रह की अन्य कविताओं में अपने निजी क्षणों की तलाश करता है। हर व्यक्ति के जीवन में कोई ऐसा प्रिय व्यक्ति अवश्य होता है जिसके प्रति उसका व्यवहार एक अतिरिक्त सावधानी या सुरक्षा के चलते कुछ ऐसा हो जाता है कि उस प्रिय व्यक्ति के कुछ निजी पलों का हमसे अतिक्रमण हो जाता है। ‘मुझे आदत थी’ कविता की पंक्तियाँ ‘मुझे आदत थी/तुम्हें रोकने की/टोकने की/बताने और/समझाने की।’18 ऐसे ही प्रिय व्यक्ति के प्रति पाठक द्वारा किए गए अतिक्रमण की क्षमायाचना करती है तथा प्रायश्चित स्वरूप पाठक को ‘अब/जब नहीं हो तुम/तो इन आदतों को/बदल देना चाहता हूँ/ताकि/शामिल हो सकूँ/तुम्हारे साथ/हर जगह/तुम्हारी आदत बनकर।’19 के माध्यम से समाधान करने का प्रयास करती है जिससे उसके मन की टीस समाप्त हो सके। ‘कब होता है प्रेम?’, ‘रंग-ए-इश्क में’ कविता की निम्न पंक्तियाँ भी पाठक को अपने रंग में रंगने में सफल हो जाती है ‘जहाँ बार-बार/लौटकर जाना चाहूँ/वह प्यार वाली/ऐसी कोई गली लगती।’20 इस संग्रह में कुछ अन्य कविताएँ जैसे ‘चुप्पी की पनाह में’, ‘कुछ उदास परंपराएँ’, ‘इन फकीर निगाहों के मुकद्दर में’, ‘प्रतीक्षा की स्थापत्य कला’, ‘पिघलती चेतना और तापमान से’, ‘गंभीर चिंताओं की परिधि’ आदि पाठक को अपने स्वप्नलोक से वापस लाकर यथार्थ का आभास कराती हैं और बताती हैं कि वह जिस भावभूमि में था वह उसको नास्टेल्जिया मात्र है पर ‘दो आँखों में अटकी’ जैसी कविता पाठक को आश्वस्त भी करती है कि उसके मन की गहराइयों में जो निश्छल और निर्मल प्रेम छुपा है वही उसकी अनमोल निधि है जो उसे उसके संबंधों के निर्माण के लिए प्रेरित करती है। जब कवि लिखता है ‘यकीन मानों/मेरे पास/और कुछ भी नहीं/मेरे कुछ होने की/अब तक कि/पूरी प्रक्रिया में।’21 एक अन्य कविता ‘यूँ तो संकीर्णताओं को’ भी उस सामाजिक एकता की ओर संकेत करती है जिसकी मजबूती से आज हम अपनी जी जाति को विनाश की ओर ढकेल रहे हैं। कवि लिखता है ‘हम/आसमान की/ओर बढ़ तो रहे हैं/पर अपनी/जड़ों का हवन कर रहे हैं।’22 मेरे विचार से कवि मनीष की यह कविता इनके इस संग्रह की सबसे सशक्त कविता है जो तीखे शब्दों में हमारे समाज के यथार्थ और सामाजिक संबंधों की वर्तमान स्थिति की दयनीयता को स्पष्ट रूप से न केवल सामने रखती है बल्कि पाठक को सोचने यह सोचने के लिए विवश करती है कि क्या मनुष्य जाति के विकास का लक्ष्य यही था जो कवि मनीष जी ने लिख दिया है। पाठक कवि से सहमत भी होता है तथा सृष्टि और समाज में अपनी भूमिका की समीक्षा पर मनन भी करता है। इस कविता के अंतिम पद की पंक्तियाँ ‘भगौड़े/भाग रहे हैं विदेश, देश को लूटकर/हमारे रहनुमा हैं कि/भाषण भजन कर रहे हैं।’23 कवि को दुष्यंत कुमार जैसे उन शीर्ष कवियों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर देती हैं जो हमारे समाज की बुराइयों को अपनी कलम की तलवार से काटने के लिए किये जाने वाले युद्धघोष की प्रथम पंक्ति में रहते हुए यह कहते हैं कि ‘हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।24 ‘इस दौर-ए-निजाम’ कविता की ये पंक्तियाँ ‘विश्व के सबसे बड़े/सियासी लोकतंत्र में/आवाम की कोई भी मजबूरी/सिर्फ एक मौका है।’25 अनायास ही हिंदी के हस्ताक्षर गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ की याद दिला देती हैं। कवि मनीष की कविताओं में यथा स्थान बिम्ब, प्रतीक एवं मिथकों को प्रयोग भी किया गया है जो युवा कवि होने पर भी अपने कार्य में दक्षता को दर्शाता है। ‘यूँ तो संकीर्णताओं को’ कविता में उनका यह लिखना कि ‘रावण के पक्ष में/खुद को/खड़ा करके/ये हर साल/किसका दहन कर रहे हैं?’26 मनीष जी की कविता में इसी कलात्मकता की ओर संकेत करता है। इस संग्रह में मनीष जी की अनुभूतियों का सबसे सशक्त रूप उनकी ‘माँ’ कविता में उभरकर सामने आता है। शायद यह कविता इस संग्रह की सबसे लंबी कविता भी है। हो भी क्यों न, व्यक्ति के समस्त जीवन की एकमात्र संभावना इस कविता के शीर्षक में छिपी हुई है। यदि इस कविता की भाव संपदा की व्याख्या की गई तो शायद अन्य किसी कविता के लिए अवकाश ही न मिले। कवि मनीष जी द्वारा अपनी माँ को समर्पित यह कविता उनके सहज, सरल और शांत व्यक्तित्व के निर्माण कर कहानी कहती है। इस कविता के तुरंत बाद की कविता में अपने पर हावी हो जाने के द्वंद्व में पददलित की हुई इच्छाओं का जैसा संक्षिप्त और सटीक प्रस्तुतिकरण कवि ने किया है उससे ‘तुम से प्रेम’ कविता कवि की प्रस्तुति का अंदाज ही बदल देती है। जो कवि अभी तक सरल शब्दों में अपनी बात रखता जा रहा था इस कविता से उसके शब्द अचानक अत्यंत गंभीर और गहरे अर्थों वाले दार्शनिक हो जाते हैं जिससे ऐसा लगता है मानो कवि वर्षों की काव्य साधना की चिर समाधि का अनुभव साथ लिए हुए धीरे-धीरे अपना पद्यकोश खोल रहा है। इस संग्रह में इस कविता से आगे की लगभग समस्त कविताएँ तीक्ष्ण कटाक्ष और पैनी दृष्टि के साथ एक ऐसे विद्वान पाठक का आग्रह करती हैं जिन्हें पढ़ने वाले के पास अपना स्वयं के अनुभव का एक इतिहास हो। ‘तुमने कहा’ कविता की पंक्तियाँ ‘मैं वही हूँ/जिसे तुमने/अपनी सुविधा समझा/बिना किसी/दुविधा के।’27 बताती हैं कि केवल दान करना ही प्रेम की इति नहीं होती, प्रतिदान का भी प्रेम के व्यापक संसार में बहुत गहरा महत्व है। प्रतिदान के अभाव में प्रेम के दूषित भाव का भी जन्म हो सकता है जिसके कारण प्रेम के दीर्घायु होने में संषय उत्पन्न हो जाता है। ‘लंबे अंतराल के बाद’ कविता की ये पंक्तियाँ इसी की ओर संकेत करती हैं ‘सालते दुःख से/आजि़्ाज आकर/वह मौन संधि/गैरवाजिब मानकर/मैंने तोड़ दी’।28 इस कविता में मनीष जी ने अत्याधुनिक और तकनीकी युग में जीवन को यथार्थ की कसौटी पर परखते हुए जीने वाले आज के युग के लोगों के उस तनाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो प्रतिदान के अभाव में उत्पन्न हो जाता है। इस अभाव को दूर करने का प्रयास संग्रह की अगली कविता ‘कुछ कहो तुम भी’ की निम्न प्रारंभिक पंक्तियों में ही दिखाई दे जाता है ‘यूँ खामोशी भरा/मुझसे/इंतकाम न लो/तुम/ऐसा भी नहीं कि/तुम्हें/किसी बात का/कोई/मलाल न हो/दूरियाँ कब नहीं थीं/हमारे बीच?/लेकिन/ये तनाव/ये कश्मकश न थी’29 मनीष जी के इस संग्रह में प्रेम का जो रूप दिखाई देता है वह एक के बाद एक आने वाली कविताओं में व्यक्तिगत से समष्टिगत विस्तार तो पाता ही है उसमें आलंबन का तिरोभाव भी होता चला जाता है। ‘जैसे होती है’ कविता की निम्न पंक्तियाँ एक प्रेमी में दूसरे प्रेमी के इसी विलय की ओर संकेत करती हैं ‘जैसे होती है/मंदिर/में आरती/सागर/में लहरें/आँखों/में रोशनी/फूल/में खुशबू/शरीर/में ऊष्मा/शराब/में नशा/और किसी मकान/में घर/वैसे ही/क्यों रहती हो?/मेरी हर साँस/में तुम।’30 मनीष जी की यह कविता कबीर के उस दोहे की बरबस ही याद दिला देती है जिसमें उन्होंने भी आलंबन के तिरोभाव का उल्लेख किया है। कबीर कहते हैं ‘जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाय, प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।’31 प्रेम के विस्तार में स्वयं का विलय कर देने का यह भाव कबीर और मनीष जी के भाव में नितांत समानता दर्शाता है। ‘प्रेम ओर समर्पण’ कविता प्रथमदृष्टया इस संग्रह के प्रतिकूल दिखाई देने पर भी इस संग्रह के लिए निहायत ही अनुकूल है पर इस कविता को इस संग्रह में जो स्थान दिया गया है वह अनुकूल जान नहीं पड़ता। इस कविता को इस संग्रह की कविताओं ‘अवसाद’ और ‘मतवाला करुणामय पावस’ के बीच कहीं होना चाहिए था। इसी तरह ‘आगत की अगवानी में’, ‘स्थगित संवेदनाएँ’, ‘जो लौटकर आ गया’ इस संग्रह की ऐसी कविताएँ हैं जिनकी गहराई को समझने के लिए वांछित परिपक्वता अभी मुझमें नहीं है ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इस संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हूँ’ को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि लेखक ने इस संग्रह की अंतिम कविता के रूप में इसको बहुत पहले ही लिख लिया होगा क्योंकि यह कविता हर लिहाज से संग्रह की अंतिम कविता के रूप में ही फिट बैठती है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपने बीते हुए नितांत व्यक्तिगत और सुखदायी वैचारिक जगत् में विचरण करता है उससे पाठक को यह समाधान हो जाता है कि उसके प्रेम के ये ही निजी क्षण उसकी ऐसी अक्षय निधि हैं जो उसके अकेलेपन को भावों के परिवार से भर देती हैं और पाठक विवश हो जाता है कि यदि उसे अपने अस्तित्व और अपने व्यक्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे इन सुखद स्मृतियों को बचाना ही होगा। ऐसे निश्चय के साथ यह अंतिम कविता पाठक को अपने इस निर्णय पर अटल होने के लिए प्रेरित करती हैं जिसमें कवि कहता है ‘मैं/बचाना चाहता हूँ/दरकता हुआ/टूटता हुआ/वह सब/जो बचा सकूँगा/किसी भी कीमत पर’32 कवि ने बचाने वाली इस संपत्ति के कोष में जिस टूटते हुए मन, भरोसे की ऊष्मा, आँखों में बसे सपने की बात की है उनके लिए पाठक को लगता है कि ये तो स्वयं पाठक के मन में उठने वाले विचार हैं। इस प्रकार कवि मनीष की यह कविता भी पाठक के साथ तारतम्य स्थापित कर लेती है। इस अंतिम कविता को पढ़ने के बाद इस बात की तसल्ली होती है कि अपने दूसरे ही संग्रह की कविताओं में कवि मनीष ने पाठक की रुचि के अनुरूप ऐसी कविताओं की रचना की है जो पहली कविता से लेकर अंतिम कविता तक पाठक को बाँधे रखने में सफल होती है। यद्यपि इन कविताओं में ध्यानस्थ पाठक की चेतना भंग नहीं होती तथापि कुछ कविताओं का स्थान यदि इधर-उधर कर दिया जाता तो मेरे जैसे अल्पज्ञ किंतु भावुक पाठक को और भी अधिक आनंद आता। फिर भी कम शब्दों में रची हुई छोटी छोटी कविताएँ होने के बावजूद कवि ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस प्रकार से की है उसका रसास्वादन करते हुए साहित्य के बड़े-बड़े कवियों का अनायास स्मरण हो जाना कवि की कवितओं की सफलता और काव्य चेतना की गहराई की ओर संकेत करता है। इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि यह कवि केवल लिखने लिए ही कविताएँ नहीं लिखता बल्कि इसकी सूक्ष्म चैतन्य दृष्टि आज के आपाधापी भरे समय में भी मनुष्य को विश्राम देकर स्वयं के बारे में विचार करने के लिए बाध्य करती है। कवि के रूप में डाॅ. मनीष मिश्रा जी में असीमित संभावनाएँ हैं। अनंत संभावनाओं वाले कवि डाॅ. मनीष मिश्रा जी को उनके काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की छोटी, सुंदर और गहरी कविताओं की रचना के लिए बहुत बधाई। संदर्भ- अनुक्रमणिका आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- शब्द सृष्टि दिल्ली, संस्करण- 2019, पृष्ठ-11 जैसे कि तुम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-91 जैसे कि तुम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-92 आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-13 आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-13 https://www.hindisamay.com/content/714/1/अज्ञेय-कविताएँ-चुनी-हुई-कविताएँ.cspx#साँप जब कोई किसी को याद करता है, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, उपरोक्त, पृष्ठ-13 रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, बालकाण्ड, दोहा क्रमांक- 241 के अंतर्गत चैपाई क्रमांक-2 तुम्हारी एक मुस्कान के लिए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- शब्द सृष्टि दिल्ली, संस्करण- 2019, पृष्ठ-20-21 जब तुम साथ होती हो, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-26 वह साल, वह अक्टूबर, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-29 जीवन यात्रा, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-34 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-60 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-62 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-62 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-66 मुझे आदत थी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-47 मुझे आदत थी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-48 रंग-ए-इश्क में, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-96 दो आँखों में अटकी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-83 यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-94 यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-95 http://kavitakosh.org/kk/हो_गई_है_पीर_पर्वत-सी_पिघलनी_चाहिए_/_दुष्यंत_कुमार इस दौर-ए-निजाम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-98 यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-94 तुमने कहा, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-108 लंबे अंतराल के बाद, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-110 कुछ कहो तुम भी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-113 जैसे होती है, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-122 https://hindisamay.com/kabir-granthawali/saakhi.htm दोहा क्रमांक 35 बचाना चाहता हूँ, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-132 डाॅ. गजेन्द्र भारद्वाज, सहायक प्राचार्य हिंदी सी.एम.बी. काॅलेज डेवढ़, घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार ईमेल- drgajendrabhardwajhindi@gmail.com संपर्क- 7898391639 ORCID iD- 0000-0002-0712-9187

Saturday 19 December 2020

ठुमरी की ठनक और ठसक का दस्तावेज़ ।

ठुमरी की ठनक और ठसक का दस्तावेज़ ।
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में अध्येता के रूप में दो वर्षों तक जिस समर्पण और निष्ठा के साथ डॉ. ज्योति सिन्हा अपने शोधकार्य में लगी रहीं, उसके प्रतिफल के रूप में 614 पृष्ठों की यह पुस्तक हमारे सामने है । पुस्तक का शीर्षक है –“बनारसी ठुमरी की परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी ) । पुस्तक का प्रथम संस्करण वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ । प्रकाशक रहा स्वयं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला, हिमाचल प्रदेश । डॉ. ज्योति सिन्हा अपने शोध आलेखों एवं पुस्तकों के माध्यम से संगीत के विभिन्न पक्षों पर अकादमिक योगदान देती रही हैं । लेकिन यह पुस्तक उनकी एक “नई पहचान” गढ़ती सी दिख रही है । इस पुस्तक के माध्यम से ज्ञात होता है कि इन ठुमरी गायिकाओं ने अपने संघर्ष को समयानुकूल रूपांतरित करने एवं उसे धार देने में कोई कमी नहीं छोड़ी । ऐसा इसलिए ताकि जीवन जीना थोड़ा सरल हो सके और कला का सफ़र अधिक खूबसूरत । ये गायिकायें अपने जीवन की ही नहीं अपितु अपनी कला की भी शिल्पी रहीं । इन डेरेवालियों, कोठेवालियों के निजी जीवन के नजाने कितने ही तहख़ाने अनखुले रह गये । कितनी ही सुरीली आवाज़ोंवाली बाई जी के नाम गुमनामी में ही दफ़न हो गये । लेकिन समय की धौंकीनी में इनके ख़्वाब हमेशा पकते रहे । इन गायिकाओं ने अपने दर्द को भी अपनी गायकी से एक ख़ास तेवर दिया । इन गायिकाओं के जीवन से बहुत से रंग और मौसम सामाजिक व्यवस्था ने बेदख़ल कर दिये थे । बावजूद इसके इनके जीवन में स्वाद लायक नमक की कोई कमी नहीं थी । ये हमेशा नयेपन का उत्सव मनाते हुए आगे बढ़ी । इनके जीवन में संघर्ष और संगीत की निरंतरता असाधारण रही । इनकी ठुमरी आज़ लोकचित्त के इंद्र्धनुष सी है । यह ठुमरी न जाने कितनी ही खोई हुई आवाज़ों का इक़बालिया बयान है । बड़ी मोती बाई , रसूलन बाई, विद्याधरी बाई, काशी बाई, हुस्ना बाई, जानकी बाई, सिद्धेश्वरी देवी, अख्तरी बाई, जद्दन बाई, राजेश्वरी बाई, टामी बाई, कमलेश्वरी बाई, चंपा बाई , गौहर जान, मलका जान, केसर बाई केरकर, सितारा देवी और गिरजा देवी तक की पूरी ठुमरी गायकी की परंपरा इस पुस्तक के माध्यम से संरक्षित हो गई है । सामगान, ध्रुवागान, जातिगान, प्रबंध, ध्रुवपद, धमार, ख़्याल, ठुमरी, टप्पा, गजल, क़व्वाली, होरी, कजरी, चैती इत्यादि सांगीतिक रूपों से भारतीय संगीत हमेशा ही प्रस्तुति पाता रहा है । इन्हीं में बनारस की एक महत्वपूर्ण गायकी परंपरा “ठुमरी” की रही है जो गेय विधा के रूप में प्रसिद्ध मूल रूप में एक “नृत्य गीत भेद” है । ठुमरी भारतीय संगीत के “उपशास्त्रीय वर्ग” में स्थान बनाने में सफल रही है । यह शृंगारिक एवं भक्तिपूर्ण दोनों ही रूपों में प्रस्तुत की जाती रही है । 19वीं शताब्दी में ध्रुवपद और ख़याल की तुलना में इसकी लोकप्रियता अधिक बढ़ी । स्त्रियों के जिस वर्ग ने इस गायकी को अपनाया उन्हें गणिका, वेश्या, नर्तकी, बाई इत्यादि नामों से संबोधित किया गया । इसे “तवायफ़ों का गाना” कहते हुए इससे जुड़ी स्त्रियों को हेय दृष्टि से ही देखा गया । इन स्त्रियों को समाज के सम्पन्न और विलासी पुरुषों का संरक्षण प्राप्त होता था । ये अपनी कला के दम पर नाम और शोहरत पाती थी । आर्थिक और कलात्मक वर्चस्व के साथ - साथ अपरोक्षरूप से सामाजिक दबदबा भी ये हासिल करती थीं । इनका यह दबदबा इनके संरक्षकों के माध्यम से होता था । लेकिन जन सामान्य के बीच ये “बुरी स्त्री” के रूप में ही जानी जाती रहीं । इनके जीवन में पुरुषों की अधिकांश सहभागिता सिर्फ़ मनोरंजन और आनंद के लिए ही रही । इनका निजी जीवन संपन्नता के बावजूद संवेदना और प्रेम के स्तर पर त्रासदी का निजी इतिहास रहा है । इन्हें सामाजिक नैतिकता और आदर्श के लिए हमेशा “खतरनाक” माना गया । जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद इन गायिकाओं ने अपनी कला साधना में कोई कमी नहीं रखी । इनमें से कई गायिकायें 10 से 20 भाषाओं में गाती थीं । अपनी नज़्में ख़ुद लिखती एवं उनकी धुन बनाती । तकनीकी बदलाव के अनुरूप अपने आप को तैयार किया । गौहर जान और जानकी बाई ने ग्रामोंफोन की रिकार्डिंग में अपना परचम लहराया । गौहर जान ने बीस से अधिक भाषाओं में 600 से अधिक रिकार्डिंग किये । इसी रिकार्डिंग की बदौलत गौहर देश ही नहीं विदेश में भी मशहूर हुई । जद्दन बाई ने सिनेमा संगीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया । अपनी बेटी नरगिस को उन्होने कामयाब अभिनेत्री बनाया । ग्रामोंफोन, संगीत कंपनी, रंगमंच और सिनेमा में इन गायिकाओं ने अतुलनीय योगदान दिया । इनमें से अधिकांश की व्यापक चर्चा इस पुस्तक में की गई है । इस पूरी पुस्तक को अध्ययन-अध्यापन की सुविधा की दृष्टि से सात अध्यायों में वर्गीकृत किया गया है । प्रथम अध्याय ठुमरी की उत्पत्ति,विकास एवं ऐतिहासिक संदर्भों पर केन्द्रित है । इसमें ठुमरी की शैलियाँ, अंग, उपांग इत्यादि की भी चर्चा है । दूसरा अध्याय ठुमरी के सांगीतिक तत्व से संबन्धित है । इसमें राग, ताल, वाद्य, भाषा, साहित्य, रस, भाव, सौंदर्य, लोकतत्व और लोकधुन से जुड़ी जानकारी प्रस्तुत की गई है । तीसरा अध्याय बनारस संगीत परंपरा एवं बनारसी ठुमरी से संबंधित है । अध्याय चार ठुमरी गायिकाओं पर केन्द्रित है । उनकी परंपरा और सृजन संदर्भों की यहाँ व्यापक चर्चा है । अध्याय पाँच ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियों एवं उपलब्धियों से संबंधित है । अध्याय छः उन तमाम संदर्भों पर केन्द्रित है जो ठुमरी के विकास में महत्वपूर्ण कारक रहे । अध्याय सात उपसंहार के रूप में दर्ज़ है । अंत में संदर्भ ग्रंथ सूची है जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है । इस सूची में 222 पुस्तकों एवं पत्र- पत्रिकाओं की जानकारी है । भविष्य में इस तरह के शोध कार्यों के लिए यह सूची बहुत ही सहायक होगी । इस पुस्तक ने बनारस को ठुमरी के संदर्भ में चित्रित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । दालमंडी, नारियल बाजार, राजा दरवाजा का कोठेवालियों का इलाक़ा, इनकी शान ओ शौकत और संगीत परंपरा का व्यापक वर्णन है । साथ ही नौका विहार, जल विहार, होली, जन्माष्टमी, सावन, बुढ़वा मंगल और गुलाब बाड़ी की संगीत माफ़िलों की भी विधिवत चर्चा की गई है । ठुमरी को नवीनता और जनप्रियता इसी बनारस से मिली । संगीत घरानों एवं गुणी उस्तादों के बीच ठुमरी बनारस में ही चमकी । 1790 से 1850 तक का समय ठुमरी और ठुमरी गायिकाओं के लिये काफी उत्साह जनक रहा । लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद काफी कुछ बदल गया । अंग्रेज़ वेश्याओं में दिलचस्पी तो लेते रहे पर “नेटिव म्युजिक” को कोई तवज्जो नहीं देते थे । इसके संरक्षण की उन्होने कभी कोई ज़रूरत नहीं समझी । तवायफ़ों के क्रांतिकारियों से संबंध और उन्हें सहायता पहुंचाने की कई बातों के सामने आने के बाद अंग्रेज़ हुकूमत सख़्त हो गई । “ब्रिटिश क्राउन ला” इसी सख्ती का परिणाम था । इसी क़ानून द्वारा सभी तवायफ़ों को वेश्याओं की श्रेणी में रखकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित कर दिया गया । इसीतरह सन 1946 से 1952 तक एक सरकारी आदेशानुसार उन महिलाओं के गायन प्रसारण पर पाबंदी थी जिनका निजी जीवन सार्वजनिक तौर पर लांछित माना गया । ऐसे कई संदर्भ इस पुस्तक में मिलते हैं । हर तरह के शोध कार्यों की अपनी सीमाएं होती हैं । इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह बराबर महसूस हुआ कि - • कई ठुमरी गायिकाओं के नाम का उल्लेख तो पुस्तक में है लेकिन उनकी व्यापक चर्चा नहीं है । संभवतः यह उनसे जुड़ी सामग्री के अभाव के कारण भी हो सकता है । • ठुमरी गायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक क्रमबद्ध तरीके से जादा व्यवस्थित तरीके से सामने रखा जा सकता था । • स्त्रीवादी और मार्क्सवादी सिद्धांतों को कई जगह जिस तरह से उल्लेखित किया गया है वह महत्वपूर्ण तो है, लेकिन व्यापक विवेचना और संदर्भों की कमी खटकती है । • कई बार विश्लेषण बहुत एकांगी और सपाट सा लगता है । इसी तरह जो बातें इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती हैं, वे निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझी जा सकती हैं - • सहज, सरल भाषा और छोटे - छोटे वाक्यों में तथ्यों की प्रस्तुति । • विषय से जुड़ा बड़ा संचयन कार्य । • ठुमरी गायिकाओं की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों की तथ्यगत विवेचना का प्रयास । • बनारस की ठुमरी परंपरा को गहन रूप में प्रस्तुत करना । • स्त्री जीवन के संघर्ष को प्रेरक रूप में नई पीढ़ी के सामने रखना । समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि डॉ. ज्योति सिन्हा जी द्वारा किया गया बनारसी ठुमरी पर यह कार्य एक मील का पत्थर है । वे उस साहित्यिक परंपरा का हिस्सा बन चुकी हैं जिसमें कामेश्वरनाथ मिश्र, विश्वनाथ मुखर्जी, डॉ. शत्रुघ्न शुक्ल, भगवत शरण उपाध्याय और गजेन्द्र नारायण सिंह जैसे नाम लिये जाते रहे हैं । भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के महत्वपूर्ण प्रकाशन कार्यों में यह पुस्तक भी शामिल रहेगी । डॉ. मनीष कुमार मिश्रा सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण-पश्चिम, महाराष्ट्र Manishmuntazir@gmail.com मो- 8090100900

Thursday 10 December 2020

खजुरन : जोगियों का गांव ।

 खजुरन : जोगियों का गांव ।


उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले अन्तर्गत आनेवाले बदलापुर तहसील का एक गांव है खजुरन । यह गांव "जोगियों का गांव" के रूप में भी जाना जाता है । ऐसा नहीं है कि इस गांव के सभी लोग जोगी हैं, अपितु यहां जोगियों की पूरी एक बस्ती / टोला है । लगभग साठ से सत्तर घरों का यह जोगियान 400 से 500 की आबादी का है ।
ये सभी मुस्लिम परिवार हैं जो कई पुश्तों से यहां रह रहे हैं । कितनी पुश्तों से ? यह ठीक से कोई नहीं बता सकता । इनमें से अधिकांश के पास अपनी खेती बाड़ी की ज़मीन नहीं है । कुछ के पास है भी तो बड़ी मामूली सी । आवास भी अधिकांश लोगों को इंदिरा आवास  एवं प्रधानमंत्री आवास योजना के माध्यम से मिली हुई "कालोनी" है । बस्ती तक जानेवाली सड़क पक्की है, लेकिन बस्ती इनकी तंगहाली और ग़रीबी को उघार कर रख देती है ।
अब इनमें से अधिकांश लोग चीनी मिट्टी के बने बर्तन और कांच के कप और ग्लास बेचने का काम करते हैं । बेचने का यह सारा सामान ये मछलीशहर नामक जगह से लाते हैं । कुछ लोग पढ़ लिखकर दूसरे प्रतिष्ठित कार्य भी करने लगे हैं । नन्हें मास्टर ऐसे ही व्यक्ति हैं जो पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं । बस्ती के सभी लोग अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने में रुचि रखते हैं । आबादी के हिसाब से इनकी संख्या स्थानीय चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाने लगी है । यही कारण है कि ग्राम प्रधान इत्यादि इन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ देते रहते हैं । बस्ती में ही एक छोटी सी मस्जिद भी है जहां मोहम्मद नज़ीर शाह मौलवी के रूप में कामकाज देखते हैं । बुज़ुर्ग मौलवी धर्म को इंसानों का बनाया हुआ और सर्व धर्म समभाव की बात करते हुए भी इस्लाम की श्रेष्ठता को साबित करना नहीं भूलते । अपने आप को अबुल उलाइया सिलसिले से जुड़ा हुआ कहते हैं ।
जो लोग अभी भी सारंगी के साथ घर घर घूम कर गीत गाने और मांगने का काम करते हैं वे सुबह पांच बजे तक बस्ती से निकल जाते हैं और आस पास के इलाकों में अपना गीत सुनाकर अनाज और पैसे मांगते हैं । कई बार तो ये हप्तों, महीनों की लंबी यात्रा पर निकल जाते हैं । राजा भर्तहरि और गोपीचंद  प्रसंग को ये विशेष रूप से गाते हैं ।
कथा शुरू होती है उज्जयिनी शहर के  राजा विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन से जिनकी  दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि वो विक्रमादित्य से बड़े थे।  कथाओं के अनुसार भर्तृहरि की दो पत्नियां होने के बावजूद उन्होंने पिंगला  नामक रानी से तीसरा विवाह किया को कि बहुत सुंदर थीं । भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे।                                                   
इसी बीच गुरु गोरखनाथ का आगमन भर्तृहरि के यहां हुआ।  गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया गया।  प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा को एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।
  भर्तृहरि ने वह फल स्वयं न खाकर अपनी तीसरी पत्नी को दे दिया । रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि  राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। अतः रानी ने फल कोतवाल को दे दिया । वह कोतवाल एक वेश्या से प्रेम  करता था अतः उसने फल उसे दे दिया। वेश्या अपने घृणित कार्य को सदा जवान रहकर नहीं करना चाहती थी । उसे लगा फल तो राजा को खाना चाहिए ताकि वे लंबे समय तक प्रजा की सेवा कर सकें ।
जब वही फल घूम फिर कर राजा के पास वापस आ गया तो उन्होंने इसकी गहरी छानबीन कराई । छानबीन से उन्हें अपनी प्रिय रानी पिंगला की बेवफ़ाई का पता चला । इससे आहत होकर उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में तपस्या शुरू कर दी। कहते हैं कि इसी गुफा में भर्तृहरि ने 12  वर्षों तक तपस्या की थी। उन्होंने वैराग्य शतक ,श्रृंगार शतक और नीति शतक नामक ग्रंथों की रचना भी की । वैसे लोक में इस कथा के अन्य कई रूप भी प्रचलित हैं जिनमें मृग शिकार की भी घटना का वर्णन है ।
खजुरन के अतिरिक्त भी आस पास के कई गावों में जोगी रहते हैं जो कि हिंदू हैं । गांव में स्थायी रूप से बसकर जोगी के रूप में इनका कार्य जारी है । इनकी नई पीढ़ी इस पेशे को नहीं अपना रही । उनके रहन सहन में भी काफी बदलाव आ गया है । सारंगी के साथ इनके गायन की यह विशेष शैली कई अन्य लोक कलाओं के साथ धीरे धीरे दम तोड़ रही है ।

                           डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
                           डॉ. उषा आलोक दुबे
 

Wednesday 21 October 2020

धमाल : संघर्ष का इकबालिया बयान ।



धमाल : संघर्ष का इकबालिया बयान   ।

सूफी संगीत के प्रभाव से जो गायन - शैली भारत में विकसित हुई उनमें ‘कव्वाली’ प्रमुख रही है। कव्वाली के साथ ही गुजरात के   ‘सिद्दी’  संप्रदाय के नृत्य और गायन शैली ‘गोमा’ और ‘धमाल’ भी सूफियों की परंपरा से ही विकसित हुए हैं। पश्चिमी गुजरात के राज पीपला जंगलों के नजदीक गोरीपीर ( सोलहवीं शताब्दी )की खानकाह है।  सिद्दी  पूर्वी अफ़्रीका के लोग हैं,जो गुजरात, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में स्थायी निवास करते हैं। ‘मलंगा’ एक अफ़्रीकी मूल का वाद्ययंत्र है। ‘गोमा’ शब्द सवाहिली ( Swahili)  भाषा का है जिसका अभिप्राय धार्मिक उत्सव मनाने से है। अफ्रीकी मूल के सिद्दी समुदाय के इस लोक नृत्य में विशिष्ट मुखाभिनय और वन्य जीवन से अनुप्राणित आहार्य के साथ  संगीत की जादुई लय-ताल का समावेश विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है ।

‘धमाल’ एक धार्मिक नृत्य की शैली रही है जो कि 19 वी शताब्दी से हिंदू - मुस्लिम सभी द्वारा समान रूप से मनायी /प्रस्तुत की जाती रही है। वैसे धमाल नामक एक शैली खुसरो ने शुरू की थी । इस शैली में लोग खड़े होकर अपने पैरों से एक गोल वृत्त बनाते हैं और विशेष ताल पर नृत्य करते हैं । सिद्दी  फकीर औरतों, बच्चों  के साथ रहते थे और मुस्लिम व हिंदू दोनों समाज के पीर, फ़कीर, साधू-संत, दरवेश इत्यादि से संबंध रखते थे । इसी तरह ही बाउल फकीरी  परंपरा बंगाल -बांग्लादेश में पायी जाती है। आऊल, बाउल,फ़कीर,साई,दरबेस,जोगी, सेन, नेरा- नेरी, कर्ताभाजा, किशोरी भाजा, सिद्दी  और भाट जैसे समुदायों में काफ़ी समानता रही है । इनमें हिन्दू, मुसलमान दोनों ही रहते हैं । 

अफ़्रीकी मूल के लोगों का गुजरात आना कब और कैसे हुआ, इस संदर्भ में विचारकों के अलग अलग मत एवं मान्यताएं हैं । कुछ लोग यह दावा करते हैं कि पहली बार  सूडान, तंजानिया, युगांडा आदि से विभिन्न कबीलों के लोग गुजरात के भरुच पोर्ट पर उतरे थे।  लेकिन ये कैसे और किन परिस्थितियों में यहां आए यह अज्ञात है । एक दूसरा वर्ग यह  मानता है कि पुर्तगालियों ने अफ्रीकी कबीलाइयों को जूनागढ़ के तत्कालीन नवाब को भेंट में दिया था। लेकिन इसके भी ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलते । लेकिन यह मान्यता अधिक ठोस ज़रूर लगती है ।  कबीले के लोग यह मानते हैं कि हजरत बाबा गोर ने इन कबीलाइयों को संगठित कर इनके समुदाय को ’सिद्धि’ /सीद्दी घोषित किया। यह स्थान भरुच से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 
         बाबा हजरत जहां रहे वह स्थान हजरत बाबा गोर कहलाया। जहां सिद्धि समुदाय बाबा हजरत की अकीदत में हर साल जून या जुलाई महीने में इकट्ठा होकर उनकी आराधना करता है। भारत में इस समुदाय के करीब 70 हजार लोग हैं। इनमें से लगभग 10 हजार गुजरात में हैं। 
सिद्दी जनजाति गुजरात के प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक है और इस जनजाति को सिद्धि, शीदी और हब्शी के नामों से भी जाना जाता है। गुजरात के अलावा, सिद्दी आदिवासी समुदाय कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में रहता है। सिद्दी शब्द अरबी शब्द `सय्यिद` या` स्यादि` की व्युत्पत्ति है। इसका अर्थ है बंदी, या दास। इस समाज के कई कलाकार पढ़े लिखे भी हैं और वे पूरी दुनियां में अपनी कला के प्रचार प्रसार का काम कर रहे हैं ।

         कुछ चिंतकों का यह भी मानना है कि वर्तमान के इस सिद्दी आदिवासी समुदाय के मूल अफ्रीकी पूर्वज 10 वीं शताब्दी के दौरान अरब व्यापारियों के साथ भारत आए थे। पहले ये लड़ाई के सैनिक या रजवाड़ों में मेहनतकश मजदूरों के रूप में  काम कर रहे होंगे ।  कालांतर में  इन सिद्दी जनजातियों में से कई ने घरेलू नौकरों के रूप में और खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करना शुरू किया होगा । आम लोगों के बीच आसानी से घुल मिल न पाने या अपना अलग समुदाय बनाने के लिए, इन सिद्दी जनजातियों में से कुछ ने वन क्षेत्रों के अंदरूनी हिस्सों में शरण ली। आगे चलकर इन्होंने अपने आप को धीरे धीरे अधिक व्यवस्थित करते हुए 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में, जंजीरा और जाफराबाद प्रांतों में, छोटी सिद्दी भूमि बनाई । 
 मुगलों के समय से ही ऐसे अफ़्रीकी मूल के गुलाम भारत में आने लगे थे । इन्हें भारत लाने और कई तरह के कार्यों में  जोड़ने की परंपरा पुर्तगालियों ने ही शुरू की । कई इतिहाकारों का यह भी मानना है कि मराठों और मुगल शासकों के बीच संघर्ष में सिद्दी जनजातियों ने भी पश्चिम भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । इतना ही नहीं अपितु अंग्रेजों के शासन काल में सिद्दी जनजातियों से कई  लोग सैन्य और सरकारी नौकरी में शामिल रहे ।
           आज इनकी स्थिति में काफ़ी बदलाव आ चुका है । खान पान, रहन सहन , बोली भाषा सभी कुछ व्यापक स्तर पर बदल चुकी है । अपनी मूल भाषा भूल चुके इस सिद्दी समाज की नई पौध  ने  हिंदी भाषा  के साथ साथ स्थानीय बोली - भाषा में  बात व्यवहार करना सीख लिया है।वर्तमान में  इनकी आबादी गुजरात के कच्छ,ताला गीर, जाजपीपला, अहमदाबाद, भारूच, रतनपुर, झगडिय़ा और सूरत के अलावा कर्नाटक और अंदमान निकोबार द्वीप समूह तक फैली हुई दिखाई पड़ती है । 

            समय बीतने के साथ इनकी प्राचीन परंपरा और संस्कृति को भी नया रूप मिला । अपने नृत्य, संगीत, लोकगीत, आदि कलाओं का इन्होंने कई परिवर्तनों के साथ जतन भी किया है । सिद्दी  समुदाय अपने पूर्वजों की पूजा करने की पुरानी प्रथा का आज भी  पालन करता है। इसे हिरियारू भी कहा जाता है। समय के साथ साथ इन्होंने कई धर्मों, पंथों और मान्यताओं को अपना लिया । हिंदू , ईसाई और इस्लाम धर्म इन्होंने समय समय पर अपना लिया । शादी विवाह के मामले में, इन सिद्दी जनजातियों को कुछ आरक्षण मिला हुआ है। अंतर्जातीय विवाह सिद्धियों के बीच कड़ाई से निषिद्ध है लेकिन इसमें भी व्यावहारिक स्तर पर बदलाव की सुगबुगाहट दिखने लगी है ।
        धमाल के नर्तक पहले भेड़िये या बाघ की खाल का उपयोग कमर के नीचे पहनने के लिए करते थे। समय के साथ इसमें बदलाव आया और वे कपड़े पहनकर उसपर मोरपंख बांधने लगे ।  अपने सिर में ये नर्तक खपच्चियों की टोपी, बाजूूूबंद और गले से कमर तक का खास तरह का बना पट्टा पहनते हैं। अपने चेहरे और शरीर पर  ये कई तरह के आदिवासी परंपरा के चिन्ह आज भी बनाते हैं । 

       यह लोकप्रिय नृत्य सिद्धि समुदाय के लोग अपने पूर्वज बाबा हज़रत की आराधना में करते हैं।  इस नृत्य को सिद्दी समुदाय के लोग अफ्रीकी ’गोमा’ संगीत पर  प्रस्तुत करते हैं, गोमा शब्द न्गोमा से बना है जिसका अर्थ ’ड्रम्स’ होता है।इस  नृत्य शैली में ड्रम के संगीत का अहम स्थान है। नृत्य के समय तेज और धूम-धड़ाके वाला संगीत दर्शकों को लय में थिरकने को मजबूर कर देता है। इस डांस के लिए जो ड्रम बाबा की मजार पर रखा हुआ है, वह इतना बड़ा और भारी है कि उसे चार लोग मिलकर ही नहीं  उठा सकते हैं, किसी अकेले के लिए उसे उठाना संभव नहीं । नृत्य के बीच समूह के कलाकार कई तरह के करतब भी दिखाते हैं । जैसे कि हवा में नारियल को उछाल उसे सर से फोड़ना, मुंह से आग के गोले निकालना इत्यादि ।
           इस आदिवासी समाज और इसके नृत्य को लेकर धमाल शीर्षक से कवियत्री  मुक्ता की एक कविता भी है जो इस समाज के संघर्ष को बड़ी सूक्ष्मता से दर्ज़ करता है । मुक्ता की यह कविता मनो इस समाज के संघर्ष का इकबालिया बयान हो । कविता निम्न रूप से है - 

"आदिवासी नर्तकियाँ नाचती हैं ‘ सिद्धी धमाल ‘
आदिवासी नर्तकियों की उफनती छातियों से दूध की नदी बहती है
अग्निगर्भा ऋतंभरायें परिक्रमा करती हैं पृथ्वी की
‘ सिद्धी धमाल ‘ नाचती आदिवासी नर्तकियों नें
सुरक्षित रखा है काली नस्लों को गर्भ में
आदिवासी नर्तकियों के पूर्वज गुम नहीं हुए हीरे की खदानों में
वे उतरते हैं नृत्य की थाप पर
संगीत की प्रतिध्वनियों में गूँजते हैं पूर्वजों के स्वर
आज भी वे नाचते प्रतीत होते हैं आदिवासी नृत्य ‘ सिद्धि धमाल ‘
आदिवासी नर्तकियाँ नाचती हैं घने जंगलों में, सागर तट पर
और कभी-कभी घनी बस्तियों में
सिद्धि नर्तकियों के पुरुष साथी अभिनय करते हैं वन्य पशुओं का
बाघ, भालू, शेर और जंगली भैसे जैसे दुर्दांत पशुओं का........."

          यह समाज समय के साथ अपनी संगति को बिठाते हुए भी अपनी प्राचीन कला के संरक्षण में जुटा हुआ है । ये कलाएं वर्तमान के कटघरे में अतीत के संघर्ष का इकबालिया बयान हैं । ये धमाल का कमाल है ।

 डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
    सहायक प्राध्यापक 
   के . एम. अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण पश्चिम महाराष्ट्र

    डॉ. उषा आलोक दुबे
    सहायक प्राध्यापिका
एम. डी. कॉलेज, परेल, मुंबई 



Thursday 15 October 2020

बाउल : वंचितों द्वारा संचित जीवन संगीत ।

 

बाउल : वंचितों द्वारा संचित जीवन संगीत ।

पूर्वी और उत्तर पूर्वी बंगाल ( विभाजन के पूर्व का बांग्लादेश भी ) के आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों   के हाशिये का समाज "बाउल" लोकगीत एवं लोकशैली का जन्मदाता रहा है । किसी भी मुख्यधारा के जाति,धर्म एवं पंथ से अलग अपनी पहचान रखनेवाला यह समाज अपने एक तारे / दो तारे से समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, अन्याय, अज्ञानता इत्यादि का पुरजोर विरोध किया ।
 
राजस्थान और मध्यप्रदेश में ऐसे गीतों की प्रस्तुति करने वाले भाट कहलाए । उत्तर प्रदेश में इन्हें सरंगी, जोगी या फ़कीर कहा गया । आऊल, बाउल,फ़कीर,साई,दरबेस,जोगी, सेन, नेरा- नेरी, कर्ताभाजा, किशोरी भाजा  और भाट जैसे समुदायों में काफ़ी समानता रही है । इनमें हिन्दू, मुसलमान दोनों ही रहते हैं । इनके संप्रदायों में कई आंतरिक भेद और वर्ग हैं । जैसे कि वैष्णव बाउल गो मांस नहीं खाते । चावल, मछली इत्यादि वे खाते हैं। ये लहसुन और प्याज भी कम ही खाना पसंद करते हैं। इनके आंतरिक समाज में गुरु का महत्व समान रूप से है । स्त्रियां आसानी से परपुरुष से संबंध बना लेती हैं । आपराधिक गतिविधियों में इनकी सक्रियता कम पायी गई है । लेकिन " जीवन रक्षा के लिए सबकुछ" इनका महत्वपूर्ण सामाजिक सिद्धांत है । इनकी 95% आबादी ग्रामीण इलाकों में ही रहती है। पश्चिम बंगाल के बर्धमान, बनकुरा, मिदनापुर और मुर्शिदाबाद जैसे इलाकों में ये बहुतायत में हैं । इनमें कुछ आदिवासी जातियां भी शामिल हैं, जैसे कि हरी, मुरमुर और बुगडी ।

 बाउल शैली पर बौद्धों, सूफियों और संतों का समान प्रभाव रहा । इनके दार्शनिक विचारों में देहतत्व, प्रेमतत्व, गुरुतत्व , परम सत्ता, स्व अनुभूति, गुरु का महत्व, मधुकरी और अहम के त्याग जैसी बातें शामिल हैं । बाउल शब्द की उत्पत्ति को लेकर कोई निश्चित धारणा नहीं है । कुछ विद्वान बौद्ध शब्द "ब्रजकुल" से "बाजुल" और इसी से "बाउल" शब्द बना हो ऐसा मानते हैं । कुछ विद्वान इसे संस्कृत के "व्याकुल"  तो कुछ अरबी के "औलिया" शब्द से भी इसका संबंध मानते हैं । इन्होंने सामाजिक विषमताओं, धार्मिक पाखंडों इत्यादि पर जिसतरह चोट की, वह कट्टरपंथी हिंदुओं और मुसलमानों को रास नहीं आया । कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं जहां इन लोक शैलियों के ख़िलाफ़ फतवे तक जारी हुए । एक ऐसे ही फतवे का जिक्र मौलाना रियाजूद्दीन अहमद के नाम से मिलता है । ये वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर से संबंध रखते हैं । उन्नीसवीं सदी के अंत में इन्होंने "बाउल धांगशेर फतवा / Baul Dhangsher Fatva" जारी किया था । ऐसे विरोधों से सीधे सीधे बचने के लिए ही इन कलाकारों ने अपरोक्ष रूप में कलात्मकता और रहस्यात्मकता के साथ अपनी बात कहनी शुरू की हो इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता ।
बाउल गीत मानवता की अनमोल धरोहर हैं । ये हिंसा के खिलाफ मानवता, समानता, समरसता और सर्वसमावेशी व्यवस्था के पक्षधर हैं । सन 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सुधीर चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक"बाउल फ़कीर कथा" के माध्यम से पूरे विश्व का ध्यान इनकी तरफ़ खींचा । आज के बाजारवादी युग में "बाउल" को भी एक कमोडिटी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध कराया जा रहा है । कई दक्ष और पेशेवर गायक बाउल की प्रस्तुतियों से देश विदेश में नाम कमा रहे हैं । इंटरनेट पर उनके बाउल आसानी से सुने और खरीदे जा सकते हैं । इस तरह " बाउल" मधुकरी से परे अब प्रॉफिट मार्जिन की नई कमोडिटी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है ।

लेकिन बाज़ार के इस खेल ने वास्तविक बाउल कलाकारों के जीवन संघर्ष  को और अधिक बढ़ा दिया । उनकी आर्थिक स्थिति चिंतनीय है । बाज़ार और तकनीक के गठजोड़ ने कलाओं का व्यापक प्रचार प्रसार तो किया लेकिन वास्तविक लोक कलाकारों को इससे नुक़सान अधिक हुआ । महाराष्ट्र में लावणी कलाकारों का दर्द भी कुछ ऐसा ही है । आवश्यकता इस बात की है कि जिन समुदायों ने पीढ़ी दर पीढ़ी इन कलाओं को समृद्ध किया, इन कलाओं के माध्यम से समाज प्रबोधन का महत्वपूर्ण कार्य किया, विरोधों का डटकर सामना किया  उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाय । राज्य और केंद्र सरकार के स्तर पर उनके भरण पोषण की यथोचित योजना शुरू की जाए । उनकी कलाओं को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया जाय । क्योंकि बाउल जैसी शैली मानवीय अस्मिता का प्रतीक है । यह संगीत जीवन की समरसता का संगीत है । यह हमारी थाती है । 
    डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
    सहायक प्राध्यापक 
   के . एम. अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण पश्चिम महाराष्ट्र

    डॉ. उषा आलोक दुबे
    सहायक प्राध्यापिका
एम. डी. कालेज, परेल, मुंबई