Tuesday 25 December 2018

9. विरुद्धों का सामंजस्य ।


हमारे सोचने
और
होने की विच्छिन्नता
हमारी दरिद्रीकृत अवस्था का
प्रमाण है ।
अपनी
विभूतिवत्ता को लिथाड़कर
परंपरागत
शब्दावली के कवच में
मज़हबी
पूर्वाग्रहों के साथ
हम
बिलबिला गये हैं ।
संपूर्ण नकारवाद
और अपनी
निरपेक्षता की पर्याप्तता के
अर्थहीन दावों के बीच
हम दिव्य
और पावन
किसी भी अवतरण की
संभावना को
लगातार
ख़ारिज कर रहे हैं ।
समाज की
अंतरात्मा जैसे
चराचरवादी
भाष्य कर्म
अवधारणात्मक
वशीकरण अभियान में
भुला दिये गए हैं ।
हे समशील !!
हमारी बनावट में ही
विरुद्धों के सामंजस्य का
मूलमंत्र है
समग्र और साक्षी
चेतना के लिए
चेतना का संघर्ष ही
जीवन है ।
यह संघर्ष ही
वह अच्युता अवस्था है
जिसकी कृतार्थता
हमारे अस्तित्व के साथ
बद्धमूल है ।
वह सर्वोत्कृष्ट
प्रभासिक्त
मानवी मध्यवर्ती
चेतना की अग्नि का
अलभ्य वरदान
विश्व की नींव है ।
-- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।
( वरिष्ठ विद्वान श्री रमेश चंद्र शाह के व्याख्यान "पावनता का पुनर्वास" सुनने के बाद । )

8. ग़लीज़ दिनों की माशूक़ ।


उन दिनों
आवारा बदचलन रातें
गलीज़ दिनों की माशूक़ थीं 
शायद वह समय
सबकुछ ख़त्म होने का था ।
ये वही दिन थे
जब सारी अफ़वाहें
लगभग सच होतीं
आधी रात के बाद भी आसमान
बिना सितारों का होता
मुसीबतों से स्याह
मग़र चुप ।
ऐसे समय में
न कोई हमसुखन
न हमजुबांन
इश्क़ ओ अदब पर
मानों कर्बला का साया हो
सारंगी पर
सिर्फ़ वह फ़कीर सुनाता
तहजीब-ओ-अदब की
आख़री बात ।
तीख़ी घृणा के बीच
वीभत्स हत्याओं का ज़श्न
यादें मिटाती नफ़रतें
इंसानियत
लाचारी की हद तक बीमार
लिजलिजी
और असहाय ।
ऐसे खोये हुए समय में
सब के सब
खेलने भर के खिलौनें थे
यह कोई
देखा हुआ स्वप्न था
या फ़िर
हमारी आत्मकेंद्रियता की
खोह में छुपा
सचमुच कोई वक्त !!!!
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।

7. झूठ के चटक रंग ।


रस्मी तौर पर ही सही
ख़यालों की किसी अंधी गुफ़ा में
ख़ुद को नजरबंद करके
मैं तथाकथित इंसानों
औऱ उनकी बस्तियों से दूर
अपनी जिंदगी का
इकलौता आशिक रहा ।
इस आशिक़ी में
कोई तेज़ नशा था
बेमतलब प्रार्थनाओं से दूर
सीधे
मौत से दो-दो हाँथ
मंजिलों से दूर
लंबे सफ़र का तलबगार
जितना ही लूटते जाऊं
उतना ही सुकून ।
सभ्य समाज में
यकीनन
हम जैसे लोग
शक के क़ाबिल थे
इसलिए
हमारी पैबंद लगी झोली भी
व्यवस्था के आँख की
किरकिरी रही ।
क्या सच ?
क्या झूठ ?
बात तो शब्दों को
छानने-घोटने भर की है
हाँ मुझे इसमें
थोड़ी महारत है
इसलिए
इतना बता सकता हूँ कि
झूठ के रंग
अधिक चटकदार होते हैं
औऱ जिंदगी
सुर्ख़ रंगों की
बहुत बड़ी दीवानी ।
--------- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।

6 . रंजिशों का रंज ।


हमारी
संवादहीनता का अंतराल
शब्दों से पटा है 
औऱ हम
सूनी पड़ी किसी वीणा की तरह
बस छू लेने भर से
झंकृत होने को तैयार ।
अपनी तटस्थता पर
हम दुःखी हैं
औऱ
इंतज़ार में हैं
इंतज़ार के अंतिम पल के
रंजिशों का
यह रंज
कितना अजीब है ?
लोच
इश्क़ की रूह है
यह
दर्द की राह पर
सुर्ख़ होती है
फ़िर
सर्द रातों की
ठंड हवाओं सी
यह हमारी रूह से लिपटती है ।
इश्क़ में
ग़ाफ़िल होकर ही
जान पाया कि
इश्क़ में अकेलापन
कभी भी
किसी को भी
नसीब ही नहीं होता ।
----- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।

5. बदख्याल सी वह जिंदगी ।


वह ज़िन्दगी क्या थी
बस कि
शिकायतों की 
एक लंबी सी उम्र थी
जिसके नसीब में
घुप्प अँधेरे में घिरा
एक मुसलसल रास्ता था
जहाँ से
उसकी सदा को
आवाज़ दी
कई-कई बार
लेकिन
मेरी तैरती आवाज़
रंज और जुनून के
किसी जुलूस में शामिल हो
न जाने कहाँ
खो जाती ।
अपने ही
ख़ून में डूबी हुई
आख़िर वह जिंदगी
किसी नरक की तरह
गुलज़ार रही
वह भी
बड़े ही
घिनौने ढंग से
रंजिशों की हिरासत में
कुछ था जो
टूटता रहा
उस बदख़्याल सी
ज़िन्दगी को
कौन समझाये कि
उम्र भर तो
हवस भी कहाँ साथ रहती है ?
नहीं समझा पाया
और नतीज़तन
ढोता रहा
बदख़्याल सी
वह जिंदगी ।
--- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।

4. निर्वासित जीवन की किसी स्याह रात में ।


निर्वासित जीवन की
किसी स्याह रात में
मुसलसल गिरती बारिश के बीच 
भीगते हुए महसूस किया
कि अंदर की बंज़र ज़मीन
सूखी की सूखी रही ।
उस ज़मीन पर ही
एक पागलखाना है
जहाँ के दिन धूसर
रातें
आवारगी, संगदिली
और लापरवाही से गुलज़ार ।
वहाँ की राह
फ़क़ीरी की राह
जिन पर न जाने कौन सी
परछाईयों का जुलूस
जो थोड़े से गुनाहों के अरमान में
शब्दों से रंग छानते
भावों में उन्हें गूँथते
चले जा रहे हैं
अपनी ख़ुशी व ख़याल से ।
वहाँ
किसी अंधी गली के भीतर
कुछ लोग
अपनी भाषा
भूल गये हैं
और
तरह-तरह के
हादसों के ख़ौफ़ में
वे
एक हाँथ चाहते हैं
अपनी पीठ पर ।
लेकिन
यहीं वह भी है जो
पूछता है कि
क्या किसी की याद नहीं आती ?
और आती है तो
फीते से ज़िन्दगी को नापना क्यों ?
आख़िर
नमाज़ों, घंटों,घाटों औऱ
तमाम निज़ामों के बीच
कोई बेनियाज़ क्यों नहीं ?
---- डॉ मनीष कुमार मिश्रा

3. जैसा कि दस्तूर रहा है ।


न जाने
किस ख़ुमारी में
अपनी नाकामियों की दास्तान के लिए
पहले शब्द
फ़िर ज़ुबान
औऱ
अपनी ख्वाहिशों के
वे रंगीन साँचे खोजता हूँ
जिनमें आशनाई की
तिलिस्मी बातों का फंदा था ।
वो बातें
जो कभी
दिल-ओ-दिमाग पर रवाँ थीं
वो बातें जिनमें
सुबह की अज़ान सा नूर होता
जो
शर्म से सुर्ख़ होना जानती
और बेपरवाही में
खुलकर साँस लेती ।
हाँ !!
सच तो यह भी है कि
उन बातों ने ही
मुझे गुनाहगार बनाया
और बेकार भी
जैसा कि
दस्तूर रहा है ।
अब
इस बेकार आदमी की
बिना सर-पैर की
बातों पर
आप
नादानों की तरह
ऐतबार क्यों कर रहे हैं ?
शायद इसलिए
क्योंकि
आप जानते हैं
नशे का स्वाद
और मैं
रोशनी से नहाये
शहरों की
अंधेरी क़िस्मत को ।
लेकिन
अब वे बातें
भूल गया हूँ
फ़िर भी
न जाने किस ख़ुमारी में..........।
---------- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।

2. वहाँ आवाज़ में ख़ामोशी पनाह माँगती है ।


सोचो कि
बिना किसी भूल के
कंहीं कुछ मिलता है ?
नहीं ना !!!
इसलिए मैं अक़्सर
अपनी भूलों की
भूल- भुलैया में
उस जिंदगी से मिल आता हूँ
जो दरअसल
किसी का, किसी के लिए
देखा स्वप्न था ।
वहाँ
खोये औऱ भूले हुए
अतीत से
मिलता हूँ तो
जिंदगी का वीराना
थोड़ा कम महसूस होता है
वहाँ ध्यान की मुद्रा में
मुझे सुना जाता है
बड़े ध्यान से
फ़िर
एक के बाद एक किस्से
सुनाये जाते हैं
अधिकांश किस्से
अफ़सोस के
मग़र सच्चे औऱ मासूम ।
फ़िर कुछ बुरे स्वप्न भी
वहीं मिल जाते
यह कहते हुए कि
मैं ख़ुद में
एक बहुत बुरा स्वप्न हूँ
जिससे
वे सभी डरते हैं
मुझे
यह सोचकर हँसी आती
कि क्या सच में
मैं ईश्वर का देखा हुआ
सबसे बुरा स्वप्न हूँ ?
मैं वहाँ
जो देख रहा था
वह क्या
मेरे जीवन का
कोई अनुवाद था ?
या कि
बीते वक्त की कोई चादर
जो सपनों
औऱ क़िस्सों के धागे से
इसकदर बुनी गई थी कि
समझ ही न आये -
कौन सा सिरा सपनों का है
औऱ कौन सा क़िस्सों का ?
वह पूरी दुनिया
एक शब्द में कहूँ तो
- इंतजार थी
वहाँ का मौसम सर्द था
और न जाने क्यों
हमेशा
सर्द ही रहता
वहाँ आवाज़ में
ख़ामोशी पनाह माँगती
औऱ नज़र में
कोहरे सी थकान होती
जो
मनुष्यता और प्रेम की
सूनी रेतीली सरहदों पर
कुछ ख़ोज लेना चाहती हैं
कुछ खोया या
भूला हुआ ।
लेकिन
यहाँ होने पर
एक नशा तारी होता
उन मासूम रूहों से
बात का नशा
जो
सबकुछ लुटा के भी
सूखे इत्र की खुशबू में
डूबे हुए
काफ़िर रूह का
किस्सा सुनाते हैं ।
यहाँ से लौटते हुए
कोफ़्त होती है
यह सोचकर कि
सारी ज़िन्दगी
पढ़ना और पढ़ाना
कितनी बड़ी
अराजकता है ?
----- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
मुंबई ।

1. मानवीय अर्थशास्त्र और स्व विस्तार ।


ख़ुद को
जानने, मनाने और समझने की
लंबी कोशिशों के बाद 
अपनी अंतरात्मा को
रखकर साक्षी
देता हूँ
स्वयं को विस्तार
व्योम में व्याप्त
पशु, पक्षी और प्रकृति को
समाज और संस्कृति को
मूल्यों और नीतियों से बुने
नियमों के ताने-बाने को
मानवता और करुणा की खोह में
समाहित हर व्यक्ति को
शामिल करता हूँ
अपने स्व के भाव में
फ़िर इस स्व के कल्याण
और इस जीवन की
उत्कृष्टता के प्रश्नों से
जूझते हुए
जीवन के लिए
अर्थ खोजता हूँ ।
इस खोजबीन भरी यात्रा में
सार्थक होता हूँ
क्योंकि मैं
स्व की निरर्थकता को
स्व के विस्तार में
सार्थक करता हूँ ।
उत्पाद की क़ीमत
और
उपभोक्ता के
सामाजिक मूल्यों के बीच
उपभोक्ता संस्कृति के
कितने ही नये
मापदंड तंय करता हूँ ।
संसाधनों की साधना
और
स्वयं के उपभोग में
सब का हिस्सा समाहित कर
सब के हित
और अंश तक
पहुँच कर
अमानवीय स्थितियों से
खुद को बचा पता हूँ ।
आवश्यकता से अधिक
उत्पादन और उपभोग के
पाप से
मानवीय अर्थशास्त्र को
आगाह करते हुए
तथाकथित विकास / प्रगति की
मानवीय अर्थवत्ता को
विचार का केंद्र बिंदु बनाता हूँ ।
यह सब
आप भी करें
अपने स्व की चेतना को
अपनी प्रकृति ओर संस्कृति तक
विस्तार देकर
और
विरोध के
हर स्वर को
सम्मान और स्थान देकर ।
--------- डॉ मनीष कुमार मिश्रा