Tuesday 27 April 2010

दीवार और आंगन /amerkants novel deevar aur aangn

दीवार और आंगन :-


253 पृष्ठों का यह उपन्यास मई 1969 में अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। यही उपन्यास बादम ें 'बीच की दीवार` सामक शीर्षक से भी प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के केन्द्र में दीप्ति है। जिसकी उम्र संग्रह वर्ष की है। अशोक को लेकर उसमें शारीरिक वासना जागृत होती है। पूरे उपन्यास में प्रेम, वासना और अंत में विवाह के रूप में इसकी परिणति ही दिखायी पड़ता है।

''दिवार और आंगन में रचनाकार की निगाह दिप्ति में हैं किशोर वत्तियाँ दीप्ति और अशोक को पास ला कर शारीरिक भोग की आकांक्षा पैदा करती हैं। अशोक की आकांक्षा दीप्ति से कुंती की ओर चली जाती है। मनफूल और दीप्ति की निकटता मंे दीप्ति का अहं तुष्ट होता है। मनफूल उसकी प्रशंसा करता है। उसमें नई ग्रंथि बनती है, देश में नाम कमाने की। वह भी संगीत और पहलवानी में मनफूल केवल दीप्ति का शरीर सुख चाहता है और इसी के लिए जाल रचता है। यह सम्बन्ध भी टूट जाता है। सम्बन्धों के टूटने से दीप्ति निराश होती है किन्तु अब वह प्रेम की परिभाषा को शरीर सुख से हटाकर मन तक ले जाती है। मोहन और दीप्ति का संबंध अंतर्जातीय प्रेम विवाह तक पहुँचता है। इस तरह दीप्ति की उन्मादी भावनाएँ प्रेम के विचारवान क्षेत्र में परिणति प्राप्त करती हैं।17

अमरकांत द्वारा लिखा गया यह उपन्यास 'रोमान्टिक ऐटीट्याूड` को अधिक व्यक्त करता है। अमरकांत के इस उपन्यास के पात्र प्रेम, घृणा, करूणा और शारीरिक वासना में जब लिप्त रहते है तब भी उनके विचारों में आदर्श के प्रति एक सजग भाव बना रहता है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक अपने पात्रों से जो चाहता है वही करवाने का प्रयास करता है। फिर चाहे इसके लिए कहानी या उपन्यास के मूल कथानक और शिल्प में घटित परिवर्तन अविस्वशनीक ही क्यों न हो जाये। इस संदर्भ में हम अमरकांत के दूसरे उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोह` का उदाहरण ले सकते हैं। एक स्त्री जो जवान है वह अपने ससुर की बुरी नीयत ताड़ कर घर से निकल जाती है। सारा जीवन वह बाहर दूसरों के यहाँ काम करके जैसे-तैसे बिता देती है। पर उसके चरित्र पर कभी कोई दाग नहीं लग पाता। आश्चर्य होता है कि 'मूत` जैसी कहानी लिखनेवाले अमरकांत उपन्यास के कथानक में इतने सीमित कैसे हो जाते हैं? उपन्यासों में अमरकांेत अपनी वस्तुवादी स्थिति को छो़ड़ते रूक जाते हैं। इसी संदर्भ में कमला प्रसाद पाण्डेय जी लिखते हैं कि, ''......तँय है कि परिस्थितियाँ एक सुसंगठित वस्तु की तरह उनके अंदर प्रवेश करती हैं और रचनात्मक संदर्भ के साथ बाहर आ जाती है। भीतर जाने और बाहर आने के क्रम में पूरी आत्मीय तटस्थता निभाने की संभावनायें उनमें हैं लेकिन संभावनाओं का उपयोग कहीं कहीं नही कर पाते। असमर्थता के कारण उपन्यासों में कई जगह कथात्मक विराम लगने लगता है।``18

इन सब के बावजूद अमरकांत के उपन्यासों में पात्रों का संघर्ष, संघर्ष की मौलिकता, सामाजिक परिवेश का गहरा विवेचन, और उपन्यास लेखन की प्रक्रिया में अपनी बौद्धिक उपस्थिति अमरकांत बखूबी दर्ज करते है। 'दीवार और आंगन` रोमान्टिक ऐटीट्याूड में लिखा गया एक सफल उपन्यास हैं। यह उपन्यास किसी बड़े प्रकाशक के द्वारा प्रकाशित नहीं हुआ था। अत: प्रारंभ में इसके डिस्ट्रीब्युशन में भी समस्या आयी। इस बात को स्वयं अमरकांत भी स्वीकार करते हैं।

कँटीली राह के फूल ,amerkants novel

कँटीली राह के फूल :-


यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन द्वारा दिसम्बर 1963 में प्रकाशित हुआ। लगभग 150 पृष्ठों के इस उपन्यास में अनूप नामक युवक का मधु औ कामिनी नामक दो स्त्रियों को लेकर प्रेम संघर्ष चित्रित है। दोनों स्त्रियों के स्वभाव में बहुत अंतर है। एक के लिए जीवन भोग, विलास और मस्ती का नाम है तो दूसरी प्रेम को भोग से कहीं ऊँचा मानती है।

कमला प्रसाद पाण्डेय जी इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि, '' 'कँटीली राह के फूल` के अनुप के सामने मधु और कामिनी लगभग आसपास ही आती है। अनूप शर्मीला खिलाडी, पढ़ने में शिथिल, प्यार करने के मामले में झिझकने वाला किन्तु दूसरों से ईर्ष्यालु के रूप में प्रकट होता है। यह एक स्थिति है जहाँ इसे रूढ़िवादी व्यक्तिवादी व्यवस्था ने मनुष्य को पैदा किया है। अनूप में सबसे बड़ी कमजोरी है शर्म के कारण, सोच और अभिव्यक्ति का फर्क। वह जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता। शब्द उसका साथ नही देते। वह झूठ नही बोलता, क्योंकि अभिव्यक्ति के एक स्तर में लाने का ही काम यह उपन्यास करता है। उसके सामने मधु है जिसके लिए जिंदगी मस्ती, रोमांस, शान-शौकत तथा शरीर भोग है। अनूप उसके साथ घूमता है, उसे खुली किताब के रूप में एकान्त में देखता है पर उसके दिमाग में कामिनी का गंभीर समझदार सम्मानपूर्ण चेहरा है, जिसमें प्रेम भीतरी तह से निकलता है। वासना उसका हल्का संस्पर्श है। वह अनूप से प्यार करती है और अनूप भी उसे प्यार करता है। अनूप को शब्द धोखा देते हैं और अधिकार जताने में उसका स्वभाव आडे आता है। मधु और कामिनी के बीच अनूप का विकास कथा का कार्यक्रम है।``16

'कँटीली राह के फूल` उपन्यास के संबंध में कमला प्रसाद जी का उपर्युक्त विवेचन एकदम सटीक है। इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने उस व्यक्ति की मानसिक दशाओं का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया है जो अपने सोचे हुए को कभी भी वास्तविक जीवन में करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। अनूप के विचारों एवम् व्यवहार से यही बात सामने आती है। उसका अपना मानसिक द्वंद्व ही उसे परेशान किया रहता है।

अमरकांत एक सलग और जागरूक लेखक माने जाते है। कथा कहने का उनका अपना तरीका है। वे एक भारतीय व्यक्ति की भावनाओं, संस्कारों, भावुकता और संकोच से अच्छी तरह परचित हैं। समाज का पिछड़ापन, अंधविश्वास, पाखंड और अन्य सामाजिक बुराईयाँ उन्हें सालती हैं। पर इन सब से परेशान होकर वे कोई आदर्श स्थित की कल्पना के साथ समाधान खोजने का प्रयास नहीं करते। बल्कि यथार्थ की ठोस जीवन पर ही उनका व्यवहारिक हल अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।

उनकी यही विशेषता उनके इस उपन्यास 'कँटीली राह के फूूल` में दिखायी पड़ती हैं।
      

अमरकांत का उपन्यास - ग्राम सेविका ,amerkants novel gramsevika

अमरकांत का उपन्यास - ग्राम सेविका 
'ग्राम सेविका` उपन्यास का प्रथम संस्करण अप्रैल 1962, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के संदर्भ में अमरकांत ने लिखा है कि, ''कुछ ग्राम सेविकाओं से इन्टरव्यू के आधार पर लिखे गये इस उपन्यास का आकार शुरू में काफी छोटा था। इसी रूप में यह 'नयी हवा नयी रोशनी` के नाम से उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग के साप्ताहिक पत्र 'ग्राम्या` में धारावाहिक रूप में छपा था।``13


कमला प्रसाद पाण्डेय जी ने अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में लिखा है, '' 'ग्राम सेविका` में कथा स्त्री की ओर से आरंभ होती है। दमयन्ती को अपनी किशोरावस्था में अतुल से मोह हुआ जिसे दोनों ने प्यार कहा। रूढ़िवादी मजबूरियों के कारण मोह भंग हुआ, विवाह न हो सका, दमयन्ती ग्रामसेविका बनी। बद के जीवन में उसे एक बार मोह से निवृत्त हो चुकने का लाभ मिला; अतुल से छूटने कि शिक्षा ने उसके जीवन को साहस, समझ और प्रेम की व्याख्या दी। अंतत: वह गांव के जीवन में सामाजिक रूपान्तरण का कार्य करती बीच से अपनी भाँति मोह के कीचड़ से हरचरण को निकाल लाई। दोनों का विवाह हो गया।``14

'ग्राम सेविका` उपन्यास की यही वस्तु कथा है। जिसे अमरकांत ने लगभग 186 पृष्ठों में लिखा है। इस उपन्यास में ''अमरकांत का समाजवादी आधार गाँधीवादी आधार से पराजित दिखाई देता है।``15 अमरकांत के इस उपन्यास को पढ़ते हुए प्रेमचंद के 'सेवासदन` की याद आ जाती है। हालांकि सेवासदन के रचनात्मक स्तर पर 'ग्रामसेविका` की बराबरी नहीं हो सकती पर 'सुधारवाद` का स्वर दोनों ही उपन्यासों में एक सा प्रतीत होता है।

'सेवासदन` प्रेमचंद का पहला उपन्यास है तो 'ग्राम सेविका` अमरकांत के शुरूआती उपन्यासों में से एक है। 'सेवासदन` की मुख्य समस्या 'वेश्या-जीवन में सुधार` का हल प्रेमचंद सेवासदन की स्थापना में ढूँढते हैं। वास्तविक धरातल पर यह उपाय किसी काम का नहीं है। जबकि 'ग्रामसेविका` उपन्यास में समाधान प्रस्तुत करने की अपनी तरफ से कोई आदर्शवादी चेष्टा अमरकांत नहीं करतें। उनकी पात्र 'दमयन्ती` अपने संघर्ष को उतना ही सहज-सरल तरीके से लड़ती है जितना कि उन परिस्थितियों में घिरी कोई भी स्त्री लड़ सकती है। निश्चित तौर पर उनकी नायिका ग्रामसेविका बनकर आदर्श की नई स्थितियों को छूती है। पर उसमें असंभव जैसी कोई बात नहीं दिखती।

अत: अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यह उपन्यास यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत एक सुंदर कृति है। इस उपन्यास के माध्यम से अपने समय, परिवेश, समाज और सामाजिक परिवर्तनों को अमरकांत ने बखूबी प्रस्तुत किया है। 'दमयन्ती` का जवीन संघर्ष उसके जैसी हजारों स्त्रियों के जीवन संघर्ष का आईना है।
    

अमरकांत के उपन्यास /amerkant and novels

 अमरकांत के उपन्यास :

अमरकांत ने कहानियों के अतिरिक्त कई उपन्यास भी लिखे। एक उपन्यासकार के रूप में अमरकांत को उतनी प्रतिष्ठा नहीं मिली जितना की एक कहानीकार के रूप में। अब इसका कारण तय कर पाना बड़ा मुश्किल है। कहानियों के संदर्भ में एक ही लेखक को अच्छा और उपन्यासों के संदर्भ में उसे बुरा कह देना तर्कसंगत नहीं लगता। फिर भी कारणों की पड़ताल आवश्यक है। अत: जब मैंने अमरकांत से साक्षात्कार के दौरान यह प्रश्न किया कि आखिर उनकी कहानियों की तुलना में उनके उपन्यास मशहून क्यों नही हुए तो अमरकांत ने स्वयं कहा कि, ''उपन्यास 'सूखा पत्ता` छोड दे तो, बाकी सभी उपन्यास जल्दी जल्दी में लिखे। उन्हे लिखने में पूरी एनर्जी नहीं लगी। पूरी एनर्जी कहानियों में लगी। उपन्यास पैसों के लिए लिखे। जीवन से संघर्ष के निचोड़ के तौर पर कोई उपन्यास नहीं लिखा। पहले तो लोग स्वीकार ही नहीं करते थे उपन्यासकार के रूप में। लेकिन अब काफी चर्चा हो रही है। एक कारण उपन्यासों के चर्चित न होने का यह रहा कि कुछ हमनें खुद प्रकाशित की। उनका डिस्ट्रीब्युशन नहीं हो पाया। वैसे भी उपन्यासों की समीक्षा दृष्टि उतनी विकसित नहीं हुई है। चर्चा हो रही है। यह कोई टेम्पररी फेज नही है। चर्चाएँ होती रहती हैं। आगे भी होंगी.....।``12


अमरकांत का यह विश्वास सम् सामायिक परिस्थितियों में सही भी लगता है। इधर अमरकांत के उपन्यासों की भी चर्चाएँ हो रही हैं। 'इन्ही हथियारों से` जैसे उपन्यास इसका प्रमाण हैं। उपन्यासकार के रूप में अमरकांत की जाँच पडताल के लिए यह आवश्यक है कि हम उनके उपन्यासों का गहन अध्ययन करें। यहाँ पर हम अमरकांत के सभी उपन्यासों का संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे। उन उपन्यासों का भी जो किसी पत्रिका विशेष में 'उपहार अंक` के रूप में प्रकाशित हुए। लहरें  उनका ऐसा ही एक उपन्यास है। यह अभी तक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हुआ है। किंतु कादम्बिनी पत्रिका के उपहार अंक (अक्टूबर 2005) में यह प्रकाशित हो चुका है। हाल ही में बया नामक पत्रिका में उनका एक और उपन्यास -बिदा क़ी रात   भी प्रकाशित हो चुकी है .

इस तरह अमरकांत के अब तक प्रकाशित कुल ११  उपन्यासों क़ी जानकारी हमारे पास है . 
  

अमरकांत क़ी नवीनतम कहानियाँ

अमरकांत क़ी नवीनतम कहानियाँ 

 'जाँच और बच्चे` अमरकांत का नवीनत कहानी संग्रह। इसका प्रथम संस्करण 2005 में अमर कृतित्व प्रकाशन की तरफ से प्रकाशित हुआ। 93 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 11 कहानियाँ संग्रहित की गयी हैं। इन्हीं में से कुछ कहानियों की हम संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे


एक निर्णायक पत्र :
'एक निर्णायक पत्र` कुमार विनय नाम आदर्शवादी मास्टर के प्रेम भावनाओं के आस-पास बुनी हुई कहानी है। व्यवस्था के भ्रष्टाचार को चुनौती देने के लिए नौकरी न करते हुए स्वावलम्बन का मार्ग अपनाना और अनिश्चित एवम् अव्यवस्थित जीवन के कारण नारी से दूर रहना; यही उसका दृढ़ निश्चय था।



लेकिन 'नीति` को ट्याूशन पढ़ाते हुए और बाद में उसके प्री-मेडिकल परीक्षा में सफल हो जाने के बाद विनय का नारी से दूर रहने का दृढ़ निश्चय टूट गया। 'नीति` भी उनके प्रेम को स्वीकार कर लेती है। पर जल्द ही वह पढ़ाई करने लखनऊ चली जाती है और कतिपय कारणों से विनय को पत्र लिखना भूल जाती है।



उसके इस व्यवहार से विनय के मन में कई प्रश्न उठते हैं। उसे लगता है कि नीति उसके उपकार को भूल गयी। वह उसके प्रेम को भी भुलाकर शहर में मजे कर रही है। अंतत: परेशान होकर विनय लखनऊ आता है और एक होटल में रूककर 'नीति` से मिलने का प्रयत्न करता है।



नीति से मिलने पर वह उसे अपने साथ होटल लाता है। बातों ही बातों में वह नीति को फटकारते हुए उसे चोट पहुँचाने वाली कई बातें कहता है। वह उसकी इज्जत-आबरू चौपट करने के इरादे से उसे पूरी तरह निर्वस्त्र कर देता है। नीति रोती जाती है और अपनी इज्जत-आबरू, प्राण सब कुछ सहर्ष गुरू-दक्षिणा के रूप में विनय को देने की बात करती है। इससे विनय शर्मिन्दा होता है। उसे लेकर वह कॉलेज जाता है। इससे नीति को जो हुआ वह सब भूलने और बाद में पत्र लिखने का वादा करके वहाँ से लौट आता है।



कई दिनों के इंतजार के बाद नीति को विनय का एक पत्र मिलता है। उस पत्र में नीति की तारीफ के साथ उसके शरीर की भी तारीफ लिखी थी। वह पत्र पढ़कर नीति चुपचाप खड़ी हो जाती है। पत्र उसके हाँथों से छूटकर रद्दी की टोकरी में जा गिरा।



अमरकांत की यह कहानी यहीं पर खत्म हो जाती है। पर पाठक के मन में यह सवाल बना रह जाता है कि उस पत्र के आधार पर नीति क्या निर्णय ले?



 हार :-



'हार` कहानी आदर्श और व्यवहार के बीच फँसे वकील बृहबिहारी बाबू की कहानी है। अंकिता उनकी पाँचवी लड़की है, जिसकी शादी की चिंता अब हमेशा उन्हें सताती रहती है। यही सब कारण है कि वे हमेशा चिढे-चिढे रहते। हर किसी से छोटी सी बात पर बहस करने के लिए तैयार हो जाते।



बार रूम में सरकारी वकील निर्मल बाबू से अक्सर ही उनकी गरम-गरम बहस होती रहती। वे प्राय: हर मुद्दे की बहस में निर्मल बाबू को परास्तर कर देते। एक दिन ऐसे ही बहस के दौरान दहेज की बात को लेकर दोनों में बहस होने लगी। निर्मल बाबू ने कहा कि इस प्रथा का कड़ाई से उन्मूलन करना चाहिए। इस पर बृजबिहारी बाबू ने उनकी बातों को पाखण्ड भरा बतोते हुए कहा कि यही निर्मल बाबू अपने लड़के की शादी में चुपके से लाखों रूपये रहेज लेंगे।



इस पर निर्मल बाबू ने अपने लड़के और बृजबिहारी बाबू की बेटी अंकिता की शादी बिना लेन-देन के करना कबूल कर लेते हैं। शादी के दिन बृजबिहारी बाबू अपनी खुशी से लड़की वालों का फर्ज निभाते हुए कुछ मिठाई और खाने-पीने का इंतजाम करते हैं। पर निर्मल बाबू यह भी नहीं चाहते थे। निर्मल बाबू के इस व्यवहार को देखकर बृजबिहारी बाबू की आँखे डबडबा जाती हैं। वे हमेशा बहस में निर्मल बाबू को हरा देते थे, पर आज वे निर्मल बाबू के व्यवहार के आगे हार जाते हैं। पर इस हार में जीत से अधिक खुशी थी।



 जॉच और बच्चे :-



'जाँच और बच्चे` इस संग्रह की अंतिम कहानी है। इस कहानी के केन्द्र चनरी के पति के मृत्यु की जाँच पड़ताल है। जाननी भी सिर्फ इतना है कि मौत बिमारी से हुई या भूख से?



जाँच अधिकारी पूरे दल-बल के साथ चनरी के घर पहुँचते हैं। चनरी उन्हें बताती है कि सूखे के दिनों मेंं उन्हें कोई काम नहीं देता। वे माँग कर अपना गुजारा कर रहे थे। लेकिन इधर कोई उन्हें कुछ नहीं देता था। इस कारण चनरी का पति एक बाटी का टुकड़ा पेट पर पानी पीकर लेटा हुआ था। रात भर उसे पेट मे दर्द रहा और उल्टी भी हुई। गाँव के डॉक्टर को देने के लिए फीस के 20 रूपये भी नहीं थे चनरी के पास। और इस तरह उसके आदमी की मौत हो गई।



अब उसके लिए यह बताना बड़ा मुश्किल था कि मौर भूख से हुई या बिमारी से? जाँच अधिकारी भी अपना काम खत्म कर जाने को हुए। उन्होंने गाँव के कुछ बच्चों को बातें करते हुए सुना। उन्होंने क्या बातें की इसका जिक्र कहानी में नहीं है। पर जाँच अधिकारी घर आकर पत्नी को अपने मोटे होने की बात बताते हुए कम खाना परोसने के लिए कहते हैं।



अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है कि, ''अमरकांत की कहानियाँ द्वन्द्वात्मक दृष्टि से परस्पर विरोधी स्थितियों का समहार कर पाने की शक्ति से रचित हैं। इसी अर्थ में वे 'कफन` की परम्परा में हैं। यह दृष्टि और शक्ति अमरकांत की अधिकांश कहानियों में सुलभ हैं।``11 डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी की उपर्युक्त बात एकदम सही है। अमरकांत की कहानियों का अध्ययन करके इसे आसानी से समझा भी जा सकता है।



अमरकांत मोह भंग की स्थिति के रचनाकार हैं। आजादी के बाद इस देश की प्रधान स्थिति मोहभंग की ही रही है। देश की इस मोहभंग स्थिति की सबसे बड़ी विडम्बना यही थी कि यह दिखती कुछ और थी, और होती कुछ और। जो दिखायी पड़ता वह पहचानने में अलग दिखायी पड़ता। तर्कहीनता की सारी स्थितियों समाज के उपस्थित थी। इन परिस्थितियों मंे अपनी रचनाओं के माध्यम से पात्रों को नैतिक बोध के बिन्दु पर ले जाना रचनाकार की जिम्मेदारी भी है और बहुत बड़ी शक्ति थी।



अमरकांत अपनी इस जिम्मेदारी से अवगत थे। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ हमारे चर्चा के केन्द्र में रहीं। इसमें कोई आशंका नहीं रह जाती कि अमरकांत आम आदमी की प्रतिबद्धता से जुड़े हुए बेजोड़ रचनाकार हैं। 


     

अमरकांत क़ी कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ

अमरकांत क़ी कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ
 मकान :-




'मकान` कहानी मनोहर नामक व्यक्ति की नये मकान को लेने की परेशानी के साथ शुरू होती है। वह शहर के एक पुराने मकान में कई सालों से रह रहा था। पर आर्थिक परेशानियों के चलते अब उसे और उसकी पत्नी को यह लगने लगा था कि इस मकान में ही कोई दोष है। अत: उन्हें किराये पर ही कोई दूसरा मकान ले लेना चाहिए। दूसरे मकानों का किराया उसके बजट में नहीं है अत: वह नया मकान दिलवाने में लेखक की मदद चाहता है।



वह यह भी लेखक को बताता है कि वह एक ज्योतिषी से मिलाहै और उन्होंने भी भूत-प्रेत के साये की बात कहकर मकान बदलने की ही सलाह दी है। लेखक मनोहर को आस्वाशन देकर वापस भेज देतें है। पर वे खुद नहीं समझ पाते कि इस बारे में वे क्या करें।



आदमी अपनी परेशानियों के किस तरह सोचने का दायरा बढ़ाकर भी गलत ही सोचना है, इसे मनोहर के माध्यम से समझा जा सकता है।



 हंगामा :-



'हंगामा` लीला का वह नाम था जो मोहल्ले वालों ने उसे दिया था। लीला मोहल्ले के घरों में जाकर कुछ न कुछ माँगने के लिए बदनाम हो गयी थी। इसलिए लोगों ने उनका नाम ही 'हंगामा` रख दिया था।



लीला की उम्र चालिस की थी। उनके जीवन का सबसे बड़ा अभाव यहीं था कि उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। डॉक्टरों ने भी उन्हें निराश ही किया। लीली जी की अजीब मानसिक स्थिति थी। वे सब के यहाँ जाती। किसी के घर कोई नयी था अच्छी बात होती तो वे उससे नाराज हो जाती। कई दिनों तक उनसे बात ही न करती। पर कुछ ही दिनों में सब भूल कर फिर आना-जाना शुरू कर देती।



इधर बच्चे न होने से वो बहुत चुपचाप सी रहती थीं। इसी बीच उनके घर के बाहर एक कुतिया ने कुछ बच्चे दिये। लीला अब उनकी सुरक्षा में ही लगी रहती। क्या मजाल था कि कोई उन्हें छू भी दे। लीला मामूली सी बात पर 'हंगामा` खड़ा कर देती।



 कुहासा :-



'कुहासा` 1980 के दशक में लिखी गयी अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। इस कहानी में उन्होंने झींगुर नाम सतरह वर्ष के बच्चे के जीवन संघर्ष को चित्रित किया है। एक ऐसा संघर्ष जो झीगुर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता है।



झींगुर के पिता घर की दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण बेटे को घर से शहर भगा देता हैं। शहर आकर झींगुर रोजही पर मेहनत करने लगता है। पर जी-तोड मेहनत करने के बाद भी उसे सिर्फ दो वक्त खाने भर का ही पैसा मिल पाता। कभी- कभी तो वह भी नसीब न होता। ऐसे में उसे पानी पी कर ही गुजारा करना पड़ता।



ठंडी के दिनों में सरकार की तरफ से उसे एक कंबल मिला था। पर एक दलाल 25 रूपये देकर वह भी ले लेता है। पैसों से वह दो वक्त भरपेट खाना खाता है। पर ठंडी बहुत बढ़ गयी थी। सर्द रात में उसका रहने का कोई ठिकाना नहीं था। पहनने-बिछाने के कपड़े नहीं थे। वह ठंड की एक रात में सर घुटनों में डाले बैठा हुआ था। रात को वह एक तरफ लुढ़क गया। सुबह जब जमादार आया तो उसने उसे मरा हुआ पाया। उसकी लाश लावारिश पायी गयी थी। कुछ देर बाद उसे पास्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। सरकार के लिए यह पता लगाना बहुत जरूरी था कि झींगुर की मौत स्वाभाविक थी या किसी ने उसको जहर-वहर तो नहीं दिया।



उसकी मृत्यु पर कुहासे की चादर थी। कुहासा व्यवस्था, गरीबी और ठंड का? अब इनमें से मृत्यु का जिम्मेदार किसे माना जा सकता था? अमरकांत पाठक के लिए यह प्रश्न छोड़ देते हैं।



 पहलवानी :-



'पहलवानी` कहानी ऐसे लोगों को केन्द्र में रखकर लिखी गयी है जो यह नहीं समझ पाते कि वे कितने महान हैं? अपने आगे उन्हें सभी फीके लगते हैं। पर यथार्थ की जमीन पर बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें झुकना ही पड़ता है। पर इस हेतु भी वो अपनी गौरवगाथा को खुद बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं और बदले में सामने वाले से कुछ हथियाने को ही अपनी पहलवानी की जीत मानते हैं।



लेखक के घर ऐसे ही एक व्यक्ति आ पहुँचते हैं। वे अपने आप को बहुत बड़ा साहित्यकार और लेखक के भाई का मित्र बताते हैं। वे सभी साहित्यकारों को जानते हैं। 150 से अधिक उपन्यास लिख चुके हैं। सरकारी नौकरी को तुच्छ मानते हैं। बड़े-बड़े अधिकारी तो उनसे अनुरोध करते हैं पर वे किसी से भी मिलने नहीं जाते। बड़े भाई का काफी इंतजार करने बाद जब वे नहीं आते तो लेखक महोदय आने का आशय स्पष्ट करते हुए 50 रूपये उधार माँगते हैं जिसे लेखक देकर उन्हें विदा करते हैं।



 लोक परलोक :-



'लोक परलोक` कहानी के केन्द्र में व्यक्ति का अपना स्वार्थ और इस स्वार्थ सिद्धी के लिए दूसरों का शोषण करने की बात है। आदमी इसके लिए कुछ आदर्शवादी तर्क भी सामने प्रस्तुत कर देता है।



कहानी के लेखक के घर एक दिन उनके पुराने मित्र दिनेश किसी साथी के साथ पहुँचे। बात-चीत में पता चला कि वे पिछले कई सालों से चुनाव लड़ते और हारते आये हैं। पर देश और जाति के कल्याण के लिए अभी भविष्य में चुनाव जीतने की इच्छा बरकरार है।



अपने इस महान उद्देश्य के लिए वे 'अकबर` नाम अपने नौकर को बहला फुसलाकर 'बालचन्द आर्य` बना देते हैं। वे अपने देश और जाति का गौरव इसी तरह बढ़ाने में विश्वास रखते हैं। यही उनके जीवन का सिद्धांत भी है। बालचन्द्र आर्य बाद में अधिक तनख्वाह न मिलने के कारण उनके यहाँ से काम छोड़ देता है। उसे दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। पर जब उनकी मृत्यु हो जाती है तो यही महोदय पूरे विधि विधान से उसकी अंत्येष्टी करवा देते हैं। इस तरह वे उसके लोक और परलोक दोनों को सँवारने की बात करते हैं।



अंत में चलते समय आने वाले चुनाव में लेखक से अनुरोध करते हैं कि वे देश व जाति की भलाई के लिए उन्हें जितायें।



चाँद :-



'चाँद` कहानी उस व्यक्ति की तरक्की की कहानी है जो इस अवसरवादी समाज में चापलूसी, झूठ और संंबंधों को सीढ़ी के रूप में इस्तमाल करता है। और उसे एकाएक इस बात का आश्चर्य भी होता है कि वह एक साधारण व्यक्ति से शहर का मह>वपूर्ण व्यक्ति कैसे बन जाता है?



इसी सवाल का जवाब जानने के लिए वह अपने मित्र प्रमोद से मिलता है। प्रमोद बातों ही बातों में उसे चाँद कहता है तो वह इसका अभिप्राय समझ नहीं पाता। इस पर प्रमोद उसे समझाता है कि अब शहर के बड़े-बड़े लोगों के साथ उसका उठना बैठना है। अफसरों की बीबियों की वह चापलूसी करता है। प्रमोद इसे बुरा नहीं मानता पर उसके अनुसार यह साहित्य का रास्ता नहीं था। प्रमोद फिर कहता है कि साधारण लोग प्रभावशाली लोगों के दफ्तरों के छोटे-छोटे कर्मचारी हैं। तुम उनके मालिकों के साथ घूमते फिरते हो इसलिए ये तुम्हें भी बड़ा आदमी समझते हैं और तुम्हारा सम्मान करते हैं। उनके लिए तुम चाँद ही हो गए हो।



प्रमोद की बातें सुनकर उनके मित्र गुस्से से फूल जाते हैं और सभी बातों को झूठा कहकर शांत हो जाते हैं।



 एक धनी व्यक्ति का बयान :-



'एक धनी व्यक्ति का बयान` विमल नाम एक युवक के जीवन संघर्ष की कहानी है। जिसकी बुद्धि धैर्य, प्यार व समझदारी से पोषित है। वह परिणाम की परवाह किए बिना अपने काम में लगा रहता है, इसीलिए वह जीवन में सफल भी होता है।



विमल ने जैसे ही इंटर पास किया, तो उसके पिताजी ने उसकी जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया। उसे मजबूरी में शहर आकर रहना पड़ा। शहर में वह एक-दो ट्याूशन करने लगा था। जो पैसे मिलते उनसे किसी तरह दो वक्त का खर्चा निकल पाता था।



इसी बीच शहर के एक बूढ़े उपेक्षित रईस से विमल का मेल जोल बढ़ता है। विमल चोरी-छुपे उन्हें सिगरेट के पैकेट लाकर दे देता था। वे सज्जन रईस तो थे पर पारिवारिक उपेक्षा के शिकार थे। उन्हें जब विमल ने अपनी परेशानी बतायी तो उन्होंने विमल की सिफारिश करा के ज्यूनियर क्लर्क की नौकरी दिला दी।



लेकिन ऑफिस के लोग भी विमल को परेशान किया करते थे। फिर विमल ने रामदत्त सिंह से जान-पहचान बनायी, जो कि कार्यालय परिषद के महामंत्री भी थे। इससे धीरे-धीरे विमल का ऑफिस में काम करना सहज हो गया। रामदत्त जी ने विमल के नाम बोरियों (गेहँू की) फटका लगाते रहे। और लाभ स्वरूप विमल बीस हजार के मालिक बन गए थे। जब विमल को यह पता चला तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। क्योंकि उसे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। इस तरह विमल अपने धैर्य, प्रेम व समझदारी से धनी बनता है।



 बीच की जमीन :-



'बीच की जमीन` सांप्रदायिक दंगों की त्रासदी को रेखांकित करने वाली कहानी है। यहाँ बीच की जमीन से तात्पर्य हमारे अपने भारत देश से है। लेखक के अनुसार ''हमारे देश की कल्पना एदा एक ऐसी बीच की जमीन के रूप में की जाती रही है, सिमें विभिन्न वर्ग और समुदाय के लोग सम्मानपूर्वक मिल-जुलकर रहें। हमारे इतिहास में, हमरी संस्कृति में और हमारे वर्तमान हिन्दुस्तान में वह बीच की जमीन अब भी बची है।``10



कहानी की शुरूआत दंगों के बाद शहर की हालत पे विस्तार से चर्चा के साथ होता है। शांति प्रयासों के लिए सभाएँ व जुलूस निकाले जा रहे थे। कुछ लोग इन प्रयासों से खुश थे तो कुछ लोग नाराज हो रहे थे। इन्हीं प्रयासों के चलते मोहल्ले के नौजवान एडवोकेट श्री नईम के घर पर सभा बुलायी गयी।



इस सभा में ही वे अपने भाषण में अपने कुछ अनुभव बताते हैं। वे दंगों के दौरान एक बूढ़े व्यक्ति से मिले थे जिसने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था। उसकी जावन बेटी बिमार थी। उसकी मदद करते हुए उन्होंने कभी भी यह नहीं जानना चाहा कि उसकी जाति क्या है? हाँ, वह था 'बीच की जमीन` का ही।


मनोबल :-



'मनोबल` कहानी के माध्यम से अमरकांत ने समाज के सुविधासंपन्न लोगों के मनोविज्ञान का सुंदर चित्रण प्रस्तुत करते हुए समाज के अभावग्रस्त लोगों द्वारा कुछ भी कर जाने की मजबूरी को दिखलाया है।



ट्रेन यार्ड से जब प्लेटफार्म पर आती है तो सब यात्री उसमें सवार होने लगते हैं। किंतु एसी सेकण्ड क्लास का एक डिब्बा बंद रहता है। इस डिब्बे के यात्री खूब शोर मचाते हैं, पर अंत में दरवाजे को तोड़ने का निर्णय लिया जाता है। लेकिन दो- चार प्रहार के बाद ही वह दरवाजा अपने आप अंदर से ही खुल जाता है। दरवाजा खुलने पर किसी की हिम्मत नहीं होती कि वह अंदर जाकर देखे कि कौन है? हिम्मत करके एक पुलिसवाला अंदर जाता है। उसे गठरीनुमा एक चीज दिखायी पड़ती है। सबको आशंका होती है कि उसमें विस्फोटक है। उसे खोलकर देखने की हिम्मत किसी की नहीं होती।



अत: इस समस्या को हल करने के लिए पुलिसवाला एक गरीब भिखारी लड़के को लालच देकर बुला लाता है। वह उसे गठरी लाने को कहता हैंै। लड़का आराम से डिब्बे में घुस जाता है और गठरी को बाहर लेकर चला आता है। पुलिसवाले के कहने पर वह उसे खोल भी देता है। उस गठरी में मजे का सत्तू, प्याज, मिर्च और पुड़िया नमक रहता है। गठरी खुल जाने पर सब इत्मिनान की साँस लेते हैं।



उस गरी लड़के को वही गठरी ईनाम के तौर पर दे दी जाती है। यात्रियों में एक नेता जी भी रहते हैं। वे पुलिसवाले की प्रशंसा करते हैं और उन्हें मिलने की लिए वक्त देते हैं। सारे यात्री डिब्बे में बैठ जाते हैं और ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफार्म छोड़ने लगती है।

      

अमरकांत क़ी कहानी -मुलाकात

 अमरकांत क़ी कहानी -मुलाकात :-


'मुलाकात` कहानी में अमरकांत ने कुसुमाकर नामक साहित्यकार के माध्यम से लेखकों - साहित्यकारों की दयनीय स्थिती और इसका उनके व्यवहार पर होनेवाले प्रभाव का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।

साहित्यकार कुसुमाकर से मिलने प्रथमेश सिन्हा उनके घर जाते हैं। बातों ही बातों में वे कुसुमाकर को यह बताते हैं कि उन्होंने  अपने कॉलेज के फंक्शन में 'मिरजई` नाम कहानी पर नाटक रखवाया था। 'मिरजई` कुसुमाकर की लिखी कहानी थी।

यह सुनकर कुसुमाकर पहले यह पता लगाने का प्रयत्न करते हैं कि उस नाटक के लिए टिकट कितने का रखा गया था। फिर वे प्रथमेश से रायल्टी की बात करते हैं। जब अपनी असमर्थता प्रथमेश उन लेखक महोदय के सामने रखते हैं तो वे दो-पाँच रूपये पर आ जाते हैं। वे कहते हैं कि रायल्टी लेना उनका अधिकार है और वे इसी सिद्धांत पर कायम रहना चाहते हैं। फिर भले ही उन्हें एक ही रूपया क्यों न मिले।

लेखक की इस तरह की बातें सुनकर प्रथमेश संकोच करते हुए भी दस रूपये निकालकर लेखक को देते हैं और जाने के लिए अनुमती मांगने लगते है। लेखक लापरवाही से नोट जेब के हवाले करते हैं और प्रथमेश को याद दिलाते हैं कि उनकी किताबों के लिए कोई आर्डर हो सके तो वे प्रयास करें।

यहीं पर कहानी समाप्त हो जाती है। लेखक का इतना असहज व्यवहार जीवन यापन की कठिन सच्चाई और लेखकों की हालत को हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है।
        

Monday 26 April 2010

तुम तो बिना मोहब्बत मिलने की बात कहते हो /

मैखाने से बिना पिए निकलने की बात कहते हो ;
मंदिर में बिन भावों के जाने की बात कहते हो ;
उफनती नदी में तिनके का सहारा छोड़ भी दूँ ;
तुम तो बिना मोहब्बत मिलने की बात कहते हो /
  

Sunday 25 April 2010

अमरकांत क़ी कहानी कलाप्रेमी

  अमरकांत क़ी कहानी कलाप्रेमी :-
      कलाप्रेमी  कहानी सुमेर और सुबोध नाम दो व्यक्तियों के आपसी संवाद के आस-पास घूमती है। दोनों ही कलाकार हैं। सुमेर कुछ अधिक यथार्थवादी है। वह अवसर का लाभ उठाने में विश्वास रखता है। जब कि सुबोध अवसर विहीन स्थितियों में - गुस्से से भरा हुआ था। लोगों के व्यवहार का दोहरापन उसे सालता था। सुमेर जब उससे मिलने उसके घर आता है तो वह बड़े नाटकीय ढंग़ से अपने मन की सारी बात बता देता है। सुमेर को उसकी बातें अच्छी नहीं लगती। वह यह सोचता है कि जब सारी दुनियाँ अवसरवादी बनी हुई है तो आदर्शो की बातें करनेवाला एक कमजोर व्यक्ति ही माना जायेगा।
      मेरे मिसेज रंजन की मदद से प्रादेशिक कला संघ का सदस्य बन गया था। वह पहली मीटिंग में भाग लेने आया था। पूरी प्रक्रिया उबाऊ और हंगामे भरी थी। जो प्रस्ताव पास होनेवाले थे वे पास ना हो सके। मीटिंग में आकर सुमेर ने कुछ नए दोस्त बनाये। कई लोगों से उसे लुभावने आस्वाश्न दिये। इन सभी के बीच वह वापस ट्रेन पकड़कर घर की तरफ लौट पड़ा। उसे यह समझ आ गया था कि वह दुनियाँ के साथ चल रहा हैं।
 
 

अमरकांत क़ी कहानी -मौत का नगर

अमरकांत क़ी कहानी -मौत का नगर :-
      'मौत का नगर` सांप्रदायिक दंगों में जलते हुए एक शहर की कहानी है। राम इसी शहर में रहता है। कर्फ्यू की वजह से वह कई दिनों से घर में ही था। बाहर हालात भी इस तर के नहीं थे कि कोई अपने घर से निकलने की हिम्मत करे। लेकिन बिना कुछ कमाये घर नहीं चलाया जा सकता था। जान का डर तो था पर अपनों को भूखा भी तो नहीं रखा जा सकता था। इत: राम जिस दुकान पर काम करता था वहाँ जाने के लिए घर से बाहर निकलता है।
      पूरे शहर का माहौल उसे बदला-बदला नजर आ रहा था। सड़कंे सुनसान थी। कुछ लोगों को साथ लेकर वह अपनी दुकान की तरफ बढ़ता जा रहा था। हर आदमी एक दूसरे को आशंका भरी दृष्टि से देख रहा था। राम की हालत तब और खराब हो जाती है जब वह यह देखता है कि वह जिस रिक्शे में बैठा है उसमें पहले से ही एक व्यक्ति है और वह एक मुसलमान है। राम डर जाता है, पर वह यह देखकर संतुष्ट होता है कि दूसरा व्यक्ति भी डरा हुआ है।
      राम किसी तरह अपनी तँय जगह पहुँच जाता है। पर यह सोचकर उसे वापस डर लगने लगता है कि उसे शाम को वापस भी लौटना।
    

अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2

अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2
      अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2 में '1960 का दशक`, '1980 का दशक` और '1990 का दशक` के शीर्षक से तीन दशकों में लिखी कुल 43 कहानियाँ संग्रहित की गयी हैं। इस खण्ड के शुरूआत में 'आप क्यों लिखते हैं?` नाम से अमरकांत का एक लेख भी है। इस लेख के माध्यम से वे इस प्रश्न का खुद से जवाब माँगने से नजर आते हैं कि आखिर वे लिखते क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर में तरह-तरह के विार उनके मन में आते हैं। अंत में आखिर वे इसी नतीजे पर पहुँचते है कि, ''समय परिवर्तनशील है। वह अपने अंदर अनेक विरोधाभासों, अंतर्द्वंद्वों, संघर्षो और संभावनाओं को लिए आगे बढ़ रहा है। जो रचनाकार इस समय की प्रगतिशील सच्चाइयों को पहचानता है, वही उसे शब्दों में उतार सकता है, जिससे उसकी कृतियाँ उस समय की पहचान बन जाती है। यह काम बहुत कठिन है, शायद उतना ही कठिन, जितना तलवार की धार पर चलता।``9
      अमरकांत इस तलवार की धार पर चलने का साहस रखते हैंै। यह उनकी कहानियों से स्पष्ट है। 1960 से 1990 तक के समय में उनके द्वारा लिखी गई कुछ कहानियों का हम यहाँ परिचय प्राप्त करेंगे।